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क्या हैं चुनाव आयोग के नियम जिनके आगे उद्धव ठाकरे कुछ ना कर सके?

जब भी किसी पार्टी में बगावत होती है तो चुनाव चिन्ह पाने को लेकर होड़ क्यों मच जाती है?

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Shiv Sena election symbol
उद्धव ठाकरे (दाएं), एकनाथ शिंदे (बाएं), बीच में शिवसेना का सील हुआ सिंबल (साभार: PTI)
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उदय भटनागर
9 अक्तूबर 2022 (Updated: 9 अक्तूबर 2022, 15:34 IST)
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19 जून 1966. ये वो तारीख है जब बाल ठाकरे (Bal Thackeray) ने शिवसेना का गठन किया. अब इतिहास में जाने की जगह सीधे आते हैं 8 अक्टूबर 2022 के दिन. इस दिन चुनाव आयोग ने शिवसेना (Shiv Sena) नाम और पार्टी के सिंबल के इस्तेमाल पर रोक लगा दी. कारण था पार्टी में बने दो धड़ों की आपसी लड़ाई.

शिवसेना नाम और इसके धनुष-तीर वाले चुनाव चिह्न को लेकर पार्टी के दो धड़े आपस में लड़ रहे हैं. एक धड़ा एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) का और दूसरा उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) का. पूरा मामला शुरू हुआ शिवसेना से एकनाथ शिंदे की बगावत के साथ. एकनाथ शिंदे ने कांग्रेस और NCP के साथ गठबंधन करने को 'कारण' बताते हुए ठाकरे के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया. उद्धव ठाकरे को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा. और शिंदे गुट ने बीजेपी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में नई सरकार बना ली.

इस सबके बीच शिंदे और उद्धव गुट चुनाव आयोग जा पहुंचे. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने आयोग से मांग की है कि चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश, 1968 के तहत उनके धड़े को 'आधिकारिक शिवसेना' करार दिया जाए. इस याचिका उद्धव ठाकरे कैंप ने विरोध किया था और मांग की थी और इस संबंध में चुनाव आयोग की कार्यवाही पर रोक लगाई जाए. हालांकि 27 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने ठाकरे की याचिका खारिज कर दी और कहा कि चुनाव आयोग इस संबंध में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है.

इसके बाद शनिवार 8 अक्टूबर को एक अंतरिम आदेश जारी कर उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे कैंप को शिवसेना के चुनाव चिन्ह 'धनुष और बाण' का इस्तेमाल करने से रोक दिया. आयोग ने कहा कि जब तक वे इस निर्णय पर नहीं पहुंच जाते हैं कि 'असली शिवसेना' कौन है, तब तक दोनों में से कोई समूह चुनावी गतिविधियों में इसका इस्तेमाल न करे.

आयोग ने कहा कि उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे कैंप को अलग निशान दिया जाएगा और वे आयोग द्वारा जारी चुनाव चिन्हों में से भी चुन सकते हैं. आगामी चुनावों को लेकर निर्वाचन आयोग ने कहा है कि दोनों ग्रुप 10 अक्टूबर तक बताएं कि उन्हें कौन सा निशान चाहिए.

अब सवाल आता है कि आखिर चुनाव चिन्ह फ्रीज क्यों हुआ? इसे लेकर क्या नियम हैं? और जब भी किसी पार्टी में बगावत होती है तो चुनाव चिन्ह पाने को लेकर आखिर होड़ क्यों मच जाती है?

चुनाव चिन्ह को लेकर क्यों मची होड़?

भारत में आमतौर पर लोग बड़ी पार्टियों को उनके चुनाव चिन्ह से ही जानते हैं. जैसे कांग्रेस, बीजेपी या आप को वोट देने की बात आए तो लोग इसी तरह बात करते हैं कि हम हाथ, कमल का फूल या झाड़ू को वोट देंगे. इसीलिए जब भी बड़ी पार्टियों में बगावत होती है तो हर गुट चुनाव चिन्ह चाहता है. 

चुनाव चिन्ह फ्रीज करने का क्या नियम हैं?

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक चुनाव आयोग, चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश 1968 का पालन करता है. इस आदेश के पैरा 15 में साफ बताया गया है कि पार्टी टूटने की सूरत में पार्टी का नाम और सिंबल किसे दिया जाए. इसे लेकर कुछ शर्तें हैं. जिन्हें लेकर संतुष्ट होने के बाद ही चुनाव आयोग कोई फैसला लेता है.

बगैर पर्याप्त सुनवाई और दस्तावेजों और प्रमाणों के चुनाव आयोग कोई फैसला नहीं लेता. वो पार्टी टूटने की सूरत में दोनों पक्षों की बातों को सुनता हैं और फिर संतुष्ट होने पर ही कोई फैसला देता है.

पिछली बार चुनाव आयोग ने इसी तरह का फैसला अक्टूबर 2021 में लिया था, जब उसने लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के 'बंगले' के चुनाव चिन्ह को सील कर दिया था. शिवसेना के मामले की ही तरह तब भी चुनाव आयोग यह सुनिश्चित करना चाहता था कि लोजपा के दो गुटों में से कोई भी विधानसभा उपचुनावों में इसका इस्तेमाल कर सके. उस दौरान बिहार में उपचुनाव होने वाले थे.

इससे पहले 2017 में समाजवादी पार्टी (साइकिल) और अन्नाद्रमुक (दो पत्ते) के बंटवारे के बाद चुनाव चिन्ह को लेकर खींचतान देखी गई थी. हालांकि तब चुनाव चिन्ह सील नहीं हुआ था. समाजवादी पार्टी के केस में तकनीकी पेच ये था कि तब पार्टी अध्यक्ष मुलायम ने ये नहीं कहा था कि पार्टी बंट रही है. चुनाव चिह्न उन्हें दे दिया जाए. 

फिर अखिलेश ने चुनाव आयोग के सामने तमाम ऐसे दस्तावेज पेश किए, जिससे साबित हो गया कि लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में चुने हुए ज्यादा प्रतिनिधि उनके साथ हैं. और पार्टी के ज्यादा पदाधिरियों का समर्थन भी उन्हें हासिल है. ऐसे में चुनाव आयोग ने अखिलेश के दावे को मानते हुए उन्हें ना केवल समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष माना बल्कि पार्टी के चुनाव चिह्न साइकिल को भी उनके पास रहने दिया.

पहली बार इस  नियम का इस्तेमाल कब हुआ?

इस आदेश की नौबत तब आई जब इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए कांग्रेस के लोगों से अपील की कि वो राष्ट्रपति के चुनाव में ‘अंतरात्मा की आवाज पर वोट दें’. तब कांग्रेस ने अपना आधिकारिक प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को बना रखा था तो वीवी गिरी को इंदिरा गांधी का समर्थित उम्मीदवार माना जा रहा था. 

कांग्रेस के अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने पार्टी प्रत्याशी को वोट देने के लिए व्हिप जारी किया लेकिन बड़े पैमाने पर कांग्रेस के लोगों ने वीवी गिरी को वोट दिया. वो जीत गए. तब नवंबर 1969 को इंदिरा गांधी को कांग्रेस सिंडिकेट ने पार्टी ने निकाल दिया. इसके बाद इंदिरा ने अपनी अलग पार्टी बनाकर सरकार को बचा लिया. वह खुद प्रधानमंत्री बनी रहीं. 

इसके बाद पार्टी के चुनाव चिन्ह को लेकर मामला चुनाव आय़ोग में पहुंचा. तब आयोग ने कांग्रेस सिंडिकेट को ही असली कांग्रेस माना. उनके पास कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बैलों का जोड़ा बने रहने दिया गया तो इंदिरा की कांग्रेस को गाय और बछड़ा का चुनाव चिन्ह मिला.

शिवसेना के केस में क्या हुआ?

चुनाव आयोग द्वारा अब तक तय किए गए लगभग सभी विवादों में पार्टी के प्रतिनिधियों / पदाधिकारियों, सांसदों और विधायकों के स्पष्ट बहुमत ने एक गुट का समर्थन किया है. शिवसेना के मामले में भी पार्टी के ज्यादातर प्रतिनिधि शिंदे के पक्ष में चले गए हैं. ऐसे में अभी 3 नवंबर को अंधेरी ईस्ट विधानसभा सीट पर उपचुनाव होना है. इसी के संबंध ने आयोग का ये आदेश आया है.

अब आयोग का कहना है कि किसी गुट को चुनाव चिन्ह देने से दूसरे के अधिकारों का हनन न हो इसीलिए ये फैसला लिया गया है. 

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