वो कौन से इत्तेफाक थे, जिन्होंने शाहरुख़ नाम के मिथक को शुरुआत दी?
खुदाई खिदमतगार आंदोलन और लाल किले में चले INA मुक़दमे से शाहरुख़ का क्या कनेक्शन है?
फिल्मों और टीवी सीरियल्स के निर्माता लेख टंडन एक शाम अपने घर के बरामदे में बैठे थे. ये साल 1987 की बात है. टंडन एक नया सीरियल बना रहे थे. इसी चक्कर में उस रोज़ उनकी अभिनेत्री दिव्या सेठ से मीटिंग फिक्स थी. कुछ देर बाद दिव्या सेठ की गाड़ी आकर टंडन के घर के आगे रुकी. टंडन ने दिव्या को घर के अन्दर बुलाया जबकि उनका ड्राइवर बाहर ही रुक गया. दोनों में रोल को लेकर बात शुरू ही हुई थी कि टंडन ने दिव्या से कहा कि वो अपने ड्राइवर को अन्दर बुलाए. छरहरा सा एक लड़का. उम्र 20 -22 के बीच होगी. टंडन ने उसे एक नज़र घूर कर देखा. और फिर अचानक बोले, "बाल कटाकर आओ, सीरियल का मुख्य किरदार तुम प्ले करोगे".
लड़का सकपकाया. और फिर उस लहजे में, जिसने आगे चलकर पूरी दुनिया को उसका दीवाना बना दिया, बोला, "अच्छा, अगर मैंने अपने बाल कटा दिए और तुमने मुझे रोल नहीं दिया तो?". टंडन कुछ देर समझाते रहे. आखिर में लड़का तैयार हो गया. इस लड़के को हम शाहरुख़ खान के नाम से जानते हैं . ये किस्सा हमें द जगर नॉट मैगज़ीन में मिला. दिलचस्प लगा इसलिए आपके साथ शेयर किया. लेकिन ये कहानी शाहरुख़ की नहीं है. शाहरुख़ खान नाम का जो पेड़ है. ये कहानी उसकी जड़ो की है. (shahrukh khan family history)
shahrukh khan के माता-पिता कैसे मिले?शाहरुख़ खान की मूल पहचान एक एक्टर की है. एक्टिंग, सिनेमा, फ़िल्में. ये सब कहानी कहने का माध्यम हैं. लेखक युवल नोआह हरारी अपनी अति फेमस किताब, सेपियंस में बताते हैं कि बाकी प्रजातियों के मुकाबले होमो सेपियंस के विकास का एक मुख्य कारण ये था कि वो कहानी कह सकता था. ये कहानियां ही थीं, जिन्होंने हमें इस अनजान दुनिया में एक जगह दी. एक रोल दिया. कहानी में हमारा कुछ रोल है. उसी से हम अपनी जिन्दगी को अर्थ दे पाते हैं. इन्हीं कहानियों ने धर्म बनाए. देश बनाए. और हमें एक साथ जोड़े रखा. शाहरुख़ अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं, "शाहरुख़ खान एक मिथक है. और मैं उस मिथक के लिए काम करता हूं."
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जैसा कि अक्सर मिथकों के साथ होता है. कई घटनाएं मिथक को तैयार करती हैं. ये घटनाएं आइसोलेशन में देखी जाएं तो महज इत्तेफाक हैं. लेकिन जुड़ जाएं तो कहानी बन जाती है. ऐसे ही एक इत्तेफाक की शुरुआत होती है. दिल्ली में. 1950 की दहाई की बात है. मैसूर के मंगलौर बंदरगाह में चीफ इंजीनियर की नौकरी करने वाले इफ्तिखार अहमद दिल्ली आए हुए थे. एक रोज़ वो अपनी चार बेटियों को दिल्ली घुमाने लेकर गए. इस दौरान सबने आइस क्रीम ली और गाड़ी में ही खाने लगे. लेकिन इसी चक्कर में चलती हुई गाड़ी इंडिया गेट के पास एक खम्बे से टकरा गई और पलट गई.
जॉगिंग करते हुए वहां से गुजर रहे कुछ लोगों ने एक्सीडेंट देखा. इनमें से एक जनरल शाह नवाज़ खान थे, जो कभी INA में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सेकेंड इन कमांड हुआ करते थे. और इसी चक्कर में उन पर लाल किले में मुक़दमा चला था. पूरी दिल्ली, बाकायदा पूरे देश ने तब एक सुर में नारा लगाया था. "लाल किले से आई आवाज, हगल, ढिल्लन, शाहनवाज". उस रोज़ शाहनवाज़ ने पलटी हुई गाड़ी देखी तो लोगों की मदद से उसे सीधा किया. और इसके बाद इफ्तिखार अहमद के पूरे परिवार को अस्पताल लेकर गए. बाकी सब जल्द ही ठीक हो गए लेकिन इफ्तिकार की चौथी बेटी लतीफ़ फातिमा की याददाश्त चली गई. उन्हें खून की भी सख्त जरुरत थी और खून का ब्लड ग्रुप मिलने में दिक्कत हो रही थी. ऐसे में काम आए, मीर ताज मोहम्मद.
मीर ताज, शाह नवाज़ के चचेरे भाई थे. और उस रोज़ वो भी मदद के लिए अस्पताल पहुंचे थे. उनका ब्लड ग्रुप लतीफ़ फातिमा के काम आ गया. इतना ही नहीं इसके बाद ताज मोहम्मद मैंगलोर भी गए. हुआ यूं कि जिस दौरान एक्सीडेंट हुआ, इफ्तिकार अहमद की पत्नी और लतीफ़ फातिमा की मां पेट से थीं. एक्सीडेंट की खबर सुनते ही वो बेहोश हो गई. उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा और उन्हें भी खून की जरुरत पड़ गई. ये वही ब्लड ग्रुप था, जो लतीफ़ फातिमा का था. इसलिए इफ्तिखार अहमद ने उनसे गुजारिश की कि क्या वो मैंगलोर जाकर उनकी पत्नी को खून दे सकते हैं.
मीर ताज राजी हो गए और मैंगलोर चले गए. मैंगलोर से लौटने के बाद भी ताज मुहम्मद हर रोज़ अस्पताल जाते थे. ताकि लतीफ़ फातिमा का हाल चाल पूछ सकें. यादाश्त खो चुकी इस लडकी से उन्हें इश्क हो गया था हालांकि एक अड़चन थी. लतीफ़ फातिमा की किसी और से सगाई हो चुकी थी. फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और फातिमा के माता पिता से मिलकर उनका हाथ मांग लिया. साल 1959 में दोनों की शादी हुई. जनरल शाहनवाज़ के घर में . जो तब तक लोकसभा सदस्य और रेल मंत्रालय में डिप्टी मिनिस्टर बन चुके थे. शादी के 6 साल बाद ताज मुहम्मद और फातिमा को एक बेटा हुआ. नाम पड़ा शाहरुख़ खान. इत्तेफाकों का ये सिलसिला दिल्ली से नहीं शुरू हुआ था. ये कहानी निकली थी पेशावर से.
किस्सा ख्वानी बाज़ार और खुदाई खिदमतगारपाकिस्तान का वो शहर जो कभी फूलों के शहर के नाम से जाना जाता था. पेशावर में एक बाज़ार है, क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार. नाम इसलिए पड़ा क्योंकि लोग कहवे की महक के बीच यहां कहानियां सुनाया करते थे. इस बाज़ार का भारत के आजादी के आंदोलन से एक बड़ा महत्वपूर्ण रिश्ता है. ये बात है साल 1929 की. सीमान्त गांधी से नाम से मशहूर ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार खान ने यहां खुदाई खिदमतगार नाम के एक संगठन की शुरुआत की. जिन्हें बाचा खान भी कहते थे. बाचा खान गांधी से प्रभावित थे. इसलिए उनका संगठन विद्रोह के लिए अहिंसक तरीके अपनाता था.
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साल 1930 में जब गांधी ने दांडी मार्च की शुरुआत की. अंग्रेजों ने बाचा खान और खुदाई खिदमतगारों को जेल में डालना शुरू कर दिया. विरोध के लिए कांग्रेस की एक टीम पेशावर के लिए निकली. उनके स्वागत के लिए हजारों कार्यकर्ता रेलवे स्टेशन पर जमा हुए. लेकिन जैसे ही पता चला कि कांग्रेस के नेताओं को आने से रोका जा रहा है. खुदाई खिदमतगारों ने पेशावर में नए सिरे से बड़ा विरोध शुरू कर दिया. काम रोक दिए गए. दुकानें बंद करा दी गई. जवाब में अंग्रेजों ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोली चला दी. 400 ख़िदमतगार मारे गए.
लाइव हिस्ट्री इंडिया वेबसाइट में खुदाई खिदमतगार आंदोलन पर अदिति शाह का 2018 में लिखा एक लेख छपा है. इसमें अदिति बताती हैं कि तब रॉयल गढ़वाल राइफ़ल्स के सैनिकों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से मना कर दिया था. लिहाजा अंग्रेजों ने ग़ुस्से में आकर पूरी टुकड़ी को ही बर्ख़्वास्त कर दिया था. इस हिंसक कृत्य का तब पूरे भारत में जबरदस्त विरोध हुआ था. और ब्रिटेन के राजा जॉर्ज-छठे को खुद जांच के आदेश देने पड़े थे. इस घटना के बाद खुदाई खिदमतगार आजादी के आंदोलन का एक अभिन्न अंग बन गए. और क़िस्सा ख़्वानी बाजार आजादी की एक महत्वपूर्ण घटना का गवाह बन गया.
इस किस्सा ख्वानी बाज़ार की एक और खासियत थी. यहां कुछ 500 मीटर के फासले पर एक वक्त में तीन लोग रहते थे. एक जो आगे चलकर हिन्दी फिल्म जगत का शो मैन बना. दूसरा जिसे दुनिया ने ट्रेजेडी किंग का नाम दिया. तीसरा शख्स वो था, जिसके बेटे को हिन्दी फिल्म जगत ने बादशाह की हैसियत दी. किस्सा ख्वानी बाज़ार की गली, शाह वाली काताल के एक घर में शाहरुख़ के पिता ताज मीर मोहम्मद का जन्म हुआ था.
पड़ोस में मोहल्ला खुदादाद था, जहां दिलीप कुमार पैदा हुए थे. और यहां से कुछ 400 मीटर दूर डाकी नाल बंदी में राज कपूर का घर हुआ करता था. राज कपूर और दिलीप कुमार ने फिल्मों का रास्ता चुना. जबकि ताज मुहम्मद बाचा खान से प्रेरित होकर आजादी के आंदोलन से जुड़ गए. उनके चार और भाई थे. और एक बहन भी थी. bbc से बातचीत में शाहरुख़ बताते हैं कि उनके एक चाचा को लोग ब्रह्मचारी कहते थे . क्योंकि उन्होंने शादी नहीं की थी. शाहरुख़ के पिता उनसे कहा करते थे कि शाहरुख़ को देखकर उन्हें अपने भाई ब्रह्मचारी की याद आती है क्योंकि वो भी उन्हीं की तरह नाचता और गाता था.
पाकिस्तान से दिल्लीताज मुहम्मद खुद पॉलिटिक्स में इंटरेस्ट रखते थे. और अंग्रेजों के विरोध के चलते कई बार जेल भी जाना पड़ा था. साल 1946 में उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में वकालत पढ़ने के लिए दाखिला लिया. और जब विभाजन की बारी आई. उन्होंने पाकिस्तान जाने की बजाय भारत में ही रहना चुना. बंटवारे के बाद पाकिस्तान सरकार ने बाचा खान को नज़र बंद कर दिया. उनके फॉलोवर्स को जेल में डाल दिया गया. लिहाजा ताज मोहम्मद को भी बंटवारे के बाद लम्बे समय तक पाकिस्तान जाने की इजाजत नहीं मिली.
उन्होंने दिल्ली में वकालत पूरी की. लेकिन बकौल शाहरुख़ कभी प्रक्टिस नहीं की. क्योंकि उन्हें लगता था वकालत में झूठ के बिना काम नहीं चलता. पेशावर में ताज मुहम्मद का परिवार रईस था. लेकिन दिल्ली में वो किराए के मकान में रहते थे. उन्होंने कई छोटे मोटे बिजनेस चलाने की कोशिश की. शाहरुख़ एक जगह बताते हैं कि उनके पिता के पास ट्रक और लारी थी. उन्हें लगता था कि जिनके पास लारी होती है, वो ड्राइवर होते हैं. इसलिए जब पहली बार शाहरुख़ से स्कूल में पूछा गया कि उनके पिता क्या करते हैं. उन्होंने जवाब दिया कि उनके पिता ड्राइवर हैं.
शाहरुख़ के पिता के नेताओं से अच्छे रिश्ते थे . मसलन हरियाणा के गृह मंत्री रहे, कन्हैया लाल पोसवाल उनके गहरे दोस्त थे. और इंदिरा गांधी से भी उनकी जान पहचान थी. साल 1957 में उन्होंने पॉलिटिक्स में हाथ आजमाने की भी कोशिश की. हरियाणा से उन्होंने स्वतन्त्र उमीदवार के रूप में लोकसभा का चुनाव लड़ा. इत्तेफाक कैसे कहानी बनाते हैं. इसका उदहारण इससे अच्छा नहीं मिल सकता कि जिस नेता के खिलाफ शाहरुख़ के पिता ने चुनाव लड़ा था वो भारत एक पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद थे. और भी कमाल इत्तेफाक कि अबुल कलाम आज़ाद का पड़पोता आगे जाकर शाहरुख़ का प्रतिद्वंद्वी बना. मिस्टर परफेक्शनिस्ट- आमिर खान की दादी रिश्ते में मौलाना आज़ाद की भतीजी लगती थीं .
2011 तक शाहरुख़ कश्मीर क्यों नहीं गए?शाहरुख़ कहते हैं कि उनके पिता कभी बहुत अमीर नहीं बन पाए क्योंकि वो इमानदारी को बहुत तरजीह दिया करते थे. हालांकि उनकी मां फातिमा लतीफ़ एक अमीर घराने से आती थीं. उनका परिवार हैदराबाद रियासत में रहता था. लेकिन आजादी के बाद वो मैंगलोर शिफ्ट हो गए थे. शाहरुख़ और उनके माता पिता दिल्ली में राजेन्द्र नगर में रहते थे. कारवां मैगज़ीन में शाहरुख़ के बारे में लिखते हुए इरम आघा लिखती हैं कि शाहरुख की मां मैजिस्ट्रेट की नौकरी थीं.
शाहरुख़ के पिता मीर ताज मुहम्मद का साल 1981 में कैंसर के चलते निधन हो गया था. वहीं उनकी मां 1990 में अचानक चल बसी थीं. शाहरुख़ की बायोग्राफी, ‘किंग ऑफ बॉलीवुड’ में अनुपमा चोपड़ा लिखती हैं,
"माता पिता की मौत ने शाहरुख़ की जिन्दगी पर बहुत बड़ा असर डाला. इससे पहले वो फिल्मों में नहीं आना चाहते थे. बल्कि ओपरा विनफ्रे की तरह अपना एक टीवी शो चलाना चाहते थे. लेकिन फिर माता पिता की मौत ने उन्हें गुस्से और मायूसी से भर दिया. और उन्होंने फैसला किया कि वो इस मायूसी से पार पाने के लिए मुंबई चले जाएंगे".
शाहरुख़ एक जगह बताते हैं., गुस्से में एक रोज़ वो अपने माता पिता की मजार में गए. और वहीं फैसला किया कि वो दिल्ली से मुंबई जाकर फिल्मों में काम करेंगे. आगे जो हुआ, जैसा हम जानते हैं, इतिहास है.
अंत में आपको शाहरुख़ के पिता से जुड़ा एक और किस्सा सुनाते हुए चलते हैं . कई साल पहले कौन बनेगा करोडपति में अमिताभ बच्चन से बात करते हुए शाहरुख़ ने कहा था कि वो कभी कश्मीर नहीं गए. जबकि उनकी दादी कश्मीर से थीं. इसकी एक खास वजह थी. शाहरुख़ के अनुसार उनके पिता ने उनसे कहा था कि जिन्दगी में कम से कम एक बार तीन जगह जरुर जाना. इस्तांबुल, रोम और कश्मीर. बकौल शाहरुख़ उनके पिता ने कहा, "बाकी दो जगह मेरे बिना भी देख लेना. लेकिन कश्मीर मेरे बिना मत देखना"
मीर ताज मोहम्मद को कश्मीर जाने का मौका कभी मिला ही नहीं. इससे पहले ही वो चल बसे. इसी कारण कई बार मौका मिलने के बाद भी शाहरुख़ एक लम्बे समय तक कश्मीर नहीं गए. आखिरकार 2011 में शाहरुख़ कश्मीर गए. उनके अनुसार यश चोपड़ा उनके पिता जैसे थे. इसलिए जब उन्होंने फिल्म जब तक है जान की शूटिंग के लिए कश्मीर चलने की गुजारिश की. शाहरुख़ इंकार नहीं कर पाए.
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