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दर्द की दवाएं अब कागज के कचरे से बनेंगी, प्रदूषण कम करने का नया जुगाड़ आ गया!

दवाइयां बनाने में जितना प्रदूषण होता है, जानकर सन्न रह जाएंगे.

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painkiller from chemical of pine tree
साइंटिस्ट्स ने चीड़ के पौधों से दर्द की दवाओं के अलावा और भी बहुत कुछ बनाया है. (फोटो सोर्स: आजतक)
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शिवेंद्र गौरव
13 जुलाई 2023 (Updated: 13 जुलाई 2023, 12:31 IST)
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UK की बाथ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने चीड़ के पेड़ से निकलने वाले एक केमिकल से दर्द की दवाइयां जैसे पैरासीटामॉल और आईबुप्रोफेन और परफ्यूम वगैरह बनाने का तरीका खोजा है. इसे बड़ी खोज इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि फार्मास्यूटिकल्स कंपनियां दवाएं बनाने के लिए बड़े पैमाने पर क्रूड ऑयल (कच्चे तेल) से निकलने वाले केमिकल्स का इस्तेमाल करती हैं. जिससे बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है. जबकि दुनिया नेट जीरो कार्बन एमिशन का लक्ष्य पाना चाहती है. वहीं जिस केमिकल के इस्तेमाल से वैज्ञानिक पेनकिलर बना रहे हैं वो असल में पेपर बनाने वाली इंडस्ट्रीज का कचरा है.

वैज्ञानिकों की इस खोज की बात से पहले ये समझना जरूरी है कि दवाओं के प्रोडक्शन से अब तक कितना कार्बन उत्सर्जन, आसान भाषा में कहें तो कितना प्रदूषण बढ़ रहा है.

दवाओं से कितना प्रदूषण?

Theconversation.com पर छपी एक रिसर्च के मुताबिक, दुनिया भर की फार्मास्यूटिकल्स इंडस्ट्री का ग्लोबल वार्मिंग में बड़ा योगदान है. और दवाओं की इंडस्ट्री, दुनिया भर की ऑटोमोटिव प्रोडक्शन इंडस्ट्री यानी गाड़ियां बनाने के उद्योग से कहीं 'गंदी' है. यानी ज्यादा प्रदूषण पैदा करती है. रिसर्च में लिखा गया है कि ये बड़ी हैरान करने वाली बात है कि रिसर्चर्स ने दवा उद्योग के ग्रीनहाउस गैस एमिशन (यानी प्रदूषक गैसों के उत्सर्जन पर) बहुत कम ध्यान दिया.

इस रिसर्च में कुछ चिंताजनक आंकड़े बताए गए हैं. मसलन, रिसर्च में कहा गया है-

- दुनिया की फार्मास्यूटिकल्स इंडस्ट्री में 200 से ज्यादा बड़ी कंपनियां हैं लेकिन बीते 5 सालों में इनमें से सिर्फ 25 कंपनियों ने नियमित रूप से अपने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ग्रीनहाउस गैस उत्पादन का खुलासा किया है. और इनमें से सिर्फ 15 कंपनियां ऐसी हैं जो 2012 से अपना कार्बन उत्सर्जन रिपोर्ट कर रही हैं.

-हमने साल 2015 में दवा कंपनियों द्वारा प्रति 10 लाख डॉलर की कमाई के बदले में किए गए कार्बन उत्सर्जन का आकलन किया है. हमारा निष्कर्ष ये है कि फार्मास्यूटिकल्स इंडस्ट्री, ग्रीन (प्रदूषण रहित) होने से बहुत दूर है.

 -हमने पाया है कि इस इंडस्ट्री ने प्रति 10 लाख डॉलर की कमाई पर 48.55 टन कार्बन डाइऑक्साइड एक्वीवैलेंट (CO₂e) यानी कार्बन डाइऑक्साइड या उसके जैसे दूसरे प्रदूषण फ़ैलाने वाले केमिकल कंपाउंड का उत्सर्जन किया है. इतना कार्बन उत्सर्जन, ऑटोमोटिव सेक्टर से 55 फीसद ज्यादा है. जहां उसी साल (यानी 2015 में) 31.4 टन CO₂e का उत्सर्जन किया है.

-साल 2015 में पूरे फार्मा सेक्टर ने 52 मेगाटन कार्बन डाइऑक्साइड एक्वीवैलेंट (CO₂e) का उत्सर्जन किया. जबकि ऑटोमोटिव सेक्टर ने 46.4 मेगाटन CO₂e का उत्सर्जन किया.

कुल मिलाकर गौरतलब बात ये है कि फार्मा सेक्टर ऑटोमोटिव सेक्टर से 13 फीसद ज्यादा प्रदूषण फैलाता है जबकि वैल्यूएशन के हिसाब से 28 फीसद छोटा है. ऐसे में फैक्ट्री में दवाइयां बनने से बढ़ने वाले प्रदूषण को कम करने की जरूरत है. जिसके लिए वैज्ञानिकों ने दवाई बनाने का नया तरीका खोजा है.

कम प्रदूषण में दवाई

बाथ यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, यूनिवर्सिटी के केमिस्ट्री डिपार्टमेंट और इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबिलिटी की रिसर्च टीम ने बायोरिन्यूएवल केमिकल बीटा-पाइनीन ( (β-Pinene) ) से कई सारी दवाइयां बनाने का तरीका खोजा है. ये बीटा-पाइनीन, असल में टरपेंटाइन (तारपीन का तेल) का एक हिस्सा है. दीवारों और लोहे के सामानों को पेंट करने के लिए उसे तारपीन का तेल मिलाकर पतला करते हैं. ये तारपीन का तेल, चीड़ के पौधों से भी निकलता है. इसके अलावा कागज़ उद्योग में भी हर साल कचरे के रूप में साढ़े तीन लाख टन से ज्यादा तारपीन का तेल निकलता है.

वैज्ञानिकों ने ख़ास तौर पर बीटा-पाइनीन (β-Pinene) से दो एनल्जेसिक दवाएं पैरासीटामॉल और आइबुप्रोफेन बनाई हैं. दर्द से राहत देने वाली गोलियों के तौर पर इन दोनों दवाओं का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है. इसीलिए पूरी दुनिया में हर साल करीब एक लाख टन पैरासीटामॉल और आइबुप्रोफेन का उत्पादन होता है. इनके अलावा वैज्ञानिकों ने तारपीन से कई और केमिकल्स भी बनाए, जैसे- 4-HAP. यानी 4-हाइड्रोक्सीएसीटोफीनोन. इस केमिकल का इस्तेमाल दिल की दवाओं और अस्थमा के इन्हेलर में डाली जाने वाली दवाई साल्ब्यूटामॉल बनाने में होता है. और भी कुछ केमिकल्स बनाए गए जो परफ्यूम और साफ़-सफाई के प्रोडक्ट्स में इस्तेमाल होते हैं.

फायदा क्या होगा?

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस नई खोज से केमिकल इंडस्ट्री में क्रूड ऑयल के इस्तेमाल को कम किया जा सकता है. बाथ यूनिवर्सिटी के केमिस्ट्री डिपार्टमेंट के रिसर्च एसोसिएट डॉ. जॉश टिब्बेट्स का कहना है कि दवाएं बनाने के लिए ऑयल का इस्तेमाल करना टिकाऊ तरीका नहीं है.

वो कहते हैं,

"दवाएं बनाने के लिए ऑयल का इस्तेमाल से न केवल CO₂ का उत्सर्जन बढ़ रहा है बल्कि इसके चलते दवाइयों की कीमत में भी नाटकीय तरीके से उतार-चढ़ाव होता है. क्योंकि हम तेल के लिए उन देशों की भौगोलिक और राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करते हैं जिनके पास तेल के बड़े भंडार हैं. तेल की कीमतें आगे और बढ़ने वाली हैं. जमीन से तेल निकालने के बजाय हम आगे आने वाले वक़्त में इसे बायो-रिफाइनरी मॉडल में बदलना चाहते हैं."

जॉश कहते हैं कि तारपीन बेस्ड हमारे इस बायो-रिफाइनरी मॉडल में हम कागज़ बनाने की इंडस्ट्री से निकले कचरे का इस्तेमाल करते हैं. और कई सारे केमिकल बाई-प्रोडक्ट्स बनाते हैं. जिनका इस्तेमाल कई दवाइयों और प्रोडक्ट्स में किया जा सकता है.

बाथ यूनिवर्सिटी के मुताबिक, इस प्रक्रिया के तहत प्रोडक्ट्स बनाने के लिए एक बड़े रिएक्टर में केमिकल डालने के बजाय, कई फ्लो रिएक्टर का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे प्रोडक्शन लगातर चलता रहता है. इस तरह प्रोडक्शन बढ़ाया भी जा सकता है. हालांकि, ये प्रक्रिया अभी कच्चे तेल पर आधारित प्रक्रिया से महंगी हो सकती है. लेकिन ये प्रक्रिया पौधों से मिलने वाले केमिकल पर आधारित है. और इससे कार्बन-एमिशन कम होगा. 

वीडियो: सेहत: एक्सपायरी डेट निकलने के बाद दवाई क्या ज़हर बन जाती है?

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