The Lallantop
X
Advertisement

हरकिशन सिंह सुरजीत: जिन्होंने रूस के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को उनके मुंह पर डांट दिया था

पार्टी दफ्तर में अपने खाने का बर्तन खुद धोते थे.

Advertisement
Img The Lallantop
हरकिशन सिंह सुरजीत 1992 से लेकर 2005 तक कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के जनरल सेक्रेटरी रहे थे.
pic
सौरभ द्विवेदी
23 मार्च 2021 (Updated: 23 मार्च 2021, 10:14 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
आज ही के दिन सरदार हरिकिशन सिंह सुरजीत का निधन हुआ था. साल था 2008. कमाल के आदमी थे. एक वाक्य में कहूं तो,
लास्ट कॉमरेड, हू न्यू डेल्ही मैनूवरिंग्स.
सुरजीत किताबी कॉमरेड नहीं थे. घड़ी-घड़ी मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन नहीं बतियाते थे. जमीन का अंदाजा था उन्हें. इसलिए उन्हें वीपी सिंह, मुलायम, मायावती से लेकर जयललिता और अमर सिंह तक से बतियाने में गुरेज नहीं था. वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चा को वाम मोर्चे ने समर्थन दिया. तब नंबूदरीपाद सीपीएम के मुखिया थे. मगर इन सबमें सबसे ज्यादा एक्टिव सुरजीत ही थे. वीपी सिंह चाहते थे कि बीजेपी भी सरकार का हिस्सा बने. मगर कॉमरेड ने साफ कर दिया. हम भी बाहर हैं, वह भी बाहर रहें तभी समर्थन मिल पाएगा आपको. उन दिनों रामो-वामो टर्म चलते थे इस सरकार के लिए.
सुरजीत पार्टी की उस लाइन को दुरुस्त कर रहे थे जो सल्किया के अधिवेशन में ली गई थी. ये पश्चिम बंगाल की एक जगह है. यहां 1978 में सब नेता बैठे. नंबूदरीपाद महासचिव बने. तय हुआ कि सुंदरैया वाली लाइन अब छोड़ी जाए. क्या थी ये लाइन. कि हथियार उठाकर क्रांति करनी है. नई लाइन- एक डेमोक्रेटिक सेटअप में, पार्लियामेंट्री तरीकों से सत्ता हासिल की जाए और उसका इस्तेमाल किसान मजदूर अल्पसंख्यकों के हक में किया जाए. इसके लिए पार्टी ने तय किया कि वह गैरकांग्रेसी दलों के साथ गठजोड़ करेगी.
1991 की चेन्नई कांग्रेस में सुरजीत ने सल्किया को याद किया. और एक लाइन जोड़ी-
''अब कांग्रेस के साथ साथ हिंदुत्व के नाम पर पॉलिटिक्स कर रही पार्टियों को हराने के लिए हर मुमकिन गठजोड़ करने का वक्त आ गया है.''
सुरजीत को लगता था कि उत्तर भारत में, खासकर यूपी और बिहार में, बीजेपी को मुलायम और लालू हरा सकते हैं. उनके हिसाब से सेकुलर और मंडल के मसीहा भी. इसीलिए 1996 और 1997, दो मौकों पर, जब कई दलों के गठजोड़ से बने यूनाइटेड फ्रंट को प्रधानमंत्री चुनना था, सुरजीत ने मुलायम पर हाथ रखा.
मुलायम सिंह यादव और लालू यादव के साथ हरकिशन सिंह सुरजीत.
मुलायम सिंह यादव और लालू यादव के साथ हरकिशन सिंह सुरजीत.


हालांकि सुरजीत की पहली पसंद सब जानते हैं. ज्योति बसु. वीपी सिंह के इनकार के बाद ज्योति बाबू और कॉमरेड सुरजीत को लगता था कि अब लेफ्ट को अपने रीजनल अवतार से बाहर आना होगा. कुछ महीने ही सही, देश चलाएं ताकि जनता को अपनी नीयत दिखाएं. मगर प्रकाश करात और दूसरे शुद्धतावादियों को ये अवसरवाद लगा. फिर सुरजीत पीसमेकर और पीस ब्रेकर की भूमिका में आ गए. देवेगौड़ा चुने गए. दूसरी बारी में सीताराम केसरी के पीएम बनने के सपने को सुरजीत ने ही ध्वस्त किया. फिर जीके मूपनार के नाम पर वीटो किया. मुलायम को हौसला दिया. लालू को नहीं. क्योंकि उन पर चारा घोटाले का प्रेत मंडरा रहा था. फिर सुरजीत मॉस्को चले गए. मुलायम को लगा, आ गई बारी. पर पीछे से खेल हो गया. और सहमति बनी एक ऐसे नेता पर, जिसका जनाधार सिर्फ इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बुद्धिजीवियों के बीच था.
भगत सिंह से प्रभावित होकर हरकिशन सिंह ने क्रांति करने की सोची. इसमें पहला कदम उन्होंने रखा 16 साल की उम्र में होशियारपुर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में झंडा फहराकर. इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा था.
भगत सिंह से प्रभावित होकर हरकिशन सिंह ने क्रांति करने की सोची. इसमें पहला कदम उन्होंने रखा 16 साल की उम्र में होशियारपुर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में झंडा फहराकर. साल 1932 में उन्हें इसके लिए जेल भी जाना पड़ा था.


इन सबके बीच 1996 का एक वाकया याद आता है. केंद्र में देवेगौड़ा सरकार बन चुकी थी. यूपी में चुनाव होने थे. रामविलास पासवान चाहते थे कि जनता दल मुलायम सिंह की सपा के साथ गठजोड़ करे. शरद यादव चाहते थे कि बसपा के साथ करे. गठजोड़ के लिए मुलायम भी राज़ी थे. बसपा संग. मगर एक शर्त थी. न तो मायावती सीएम बनेंगी न मैं. मायावती ने इनकार कर दिया. आखिरी में सबको (जनता दल और लेफ्ट पार्टियों को) झक मार सपा संग आना पड़ा.
उन दिनों चंदौली में एक छोटी सी जनसभा थी. उसमें सुरजीत ने जनता दल वालों पर तंज कसते हुए कहा,
"हम तो जनता दल के साथ हैं. मगर उन्हें खुद पता नहीं वो किसके साथ हैं. जाना चाहते हैं दिल्ली, बैठ जाते हैं मुंबई की ट्रेन में."
अपनी एक जनसभा को संबोधित करते हरकिशन सिंह सुरजीत.
अपनी एक जनसभा को संबोधित करते हरकिशन सिंह सुरजीत.


ऐसे थे सुरजी. व्यक्तिगत जीवन में सरल. विदेश यात्रा पर जाते तो गीजर के गर्म पानी से डिप वाली चाय बना लेते. पार्टी दफ्तर में आखिरी तक खाना खाने के बाद अपनी प्लेट खुद धोते.
अपनी विचारधारा के लिए समर्पित. गोर्बाचोव को साफ बोल दिया था मुंह पर-
''आप लोग जिस हिसाब से कम्युनिज्म चला रहे हैं, ये कुछ ही दिन का मेहमान है.''
ये साल 1987 की बात है. जल्दी ही उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई. समर्पण ऐसा कि जब सोवियत संघ खत्म हुआ तो क्यूबा को अनाज भिजवाया. पार्टी की तरफ से भी और नरसिम्हा राव से दरख्वास्त कर सरकार की तरफ से भी.
बीजेपी और कांग्रेस को पटखनी देने के लिए किसी को भी साथ लाने और साथ होने के लिए तैयार. कह सकते हैं कि ये अंग्रेजी कहावत उनके लिए ही बनी थी- 
पॉलिटिक्स इज आर्ट ऑफ पॉसिबल्स.


वीडियो देखें: उस मुख्यमंत्री की कहानी जो नकलची छात्रों को गिरफ्तार करवा देता था

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement