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वो भारतीय जनरल जिसके सर पुर्तगाल के तानाशाह ने 60 लाख का इनाम रखा था!

पुर्तगाल के शहरों की दीवार में जिसके पोस्टर चिपके रहते थे.

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1961, 1971, और 1967 के हीरो सगत सिंह को जनरल सैम मानेकशा ने मिजोरम में अलगाववादियों से निपटने की जिम्मेदारी दी जिसे उन्होंने बखूबी निभाया (तस्वीर : Wikimedia Commons)
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कमल
14 जून 2023 (Updated: 14 जून 2023, 10:06 IST)
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1960 के दशक में पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन के कॉफ़ी घरों में एक भारतीय की तस्वीर लगी रहती थी. जिसके ऊपर लिखा होता, जो इस शख़्स को पकड़कर लाएगा, ज़िंदा या मुर्दा उसे 10 हज़ार डॉलर, यानी इंफ़्लेशन को जोड़ें तो आज के हिसाब से लगभग 60 लाख का ईनाम दिया जाएगा. इस भारतीय का नाम था लेफ़्टिनेंट जनरल सगत सिंह. इनके सिर इनाम रखा क्यों हुआ था? दरअसल ये सगत सिंह ही थे, जिन्होंने गोवा की पुर्तगाल से आज़ादी में निर्णायक भूमिका निभाई थी. हालांकि उनकी जांबाज़ी का क़िस्सा सिर्फ़ यही पर ख़त्म नहीं हो जाता. 1967 में उन्होंने नाथु ला दर्रे की रक्षा के लिए चीन को मुंह तोड़ जवाब दिया था. और 1971 में पाकिस्तानी फ़ौज के सरेंडर की जो मशहूर फ़ोटो है, उसमें भी जनरल नियाज़ी के पीछे वही खड़े दिखते है. क्या है लेफ़्टिनेंट जनरल सगत सिंह (Sagat Singh) की कहानी. चलिए जानते हैं.

गोवा की मुक्ति और ऑपरेशन विजय 

सगत सिंह का जन्म साल 1918 में हुआ था. राजस्थान के शहर चुरु में. सन 1938 में उन्हें बीकानेर रियासत की फ़ौज की नौकरी की. कुछ समय ईरान में रहे और 1941 में सिंध में अपनी सेवाएं दीं. साल 1945 में उन्हें ब्रिगेड मेजर बनाया गया. आज़ादी के बाद जब बीकानेर का भारत में विलय हुआ, सगत सिंह भारतीय फ़ौज से जुड़ गए. 1950 में उन्हें गोरखा  रेजिमेंट में कमीशन किया गया. और 1960 तक वो 50वीं पैराशूट ब्रिगेड के कमांडर बन ग़ए. तब ये ब्रिगेड तब भारतीय सेना की इकलौती पैराशूट ब्रिगेड हुआ करती थी. 

राजस्थान के चूरू जिले की रतनगढ़ तहसील के गांव कुसुमदेसर के निवासी सगत सिंह का जन्म 14 जुलाई 1919 को हुआ था (तस्वीर: wikimedia Commons)

सगत सिंह के कमांडर बनने का क़िस्सा भी बड़ा दिलचस्प है. दरअसल पैराशूट ब्रिगेड का कमांडर सिर्फ़ उसी को बनाया जाता था जो खुद भी एक पैराट्रूपर हो. लेकिन सगत शुरू से रायफल रेजिमेंट का हिस्सा रहे थे. यानी उन्होंने पैराट्रूपिंग की ट्रेनिंग नहीं ली थी. जब कमांडर बनने की बारी आई, सगत सिंह की उम्र 40 वर्ष हो चुकी थी. फिर भी उन्होंने फ़ैसला किया कि वो ट्रेनिंग लेंगे और 40 वर्ष की उम्र में इस परीक्षा में पूरे सम्मान के साथ पास हुए. पैराट्रूपर्स वाली मरून बेरेट हासिल करने के एक साल के अंदर ही नवंबर 1961 में उन्हें दिल्ली बुलाया गया. और एक महत्वपूर्ण मिशन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई. गणतंत्र की स्थापना के बाद भारतीय फ़ौज का सबसे बड़ा मिशन- ऑपरेशन विजय. जिसका उद्देश्य था, गोवा की आज़ादी. गोवा 1961 तक पुर्तगालियों के क़ब्ज़े में था.

ऑपरेशन विजय के तहत सबसे पहले पैराट्रूपर्स भेजे जाने थे, जो सीधे हवा से पंजिम में लैंड करते. इसके बाद एक पैदल टुकड़ी मडगांव में एंटर होती होती और दोनों तरफ़ से सेना का क़ब्ज़ा हो जाता. 18 दिसंबर के रोज़ पैराशूट से लैंड करने वाले सबसे पहले सैनिकों में सगत सिंह भी एक थे. 19 तारीख़ की सुबह जब उनकी टुकड़ी शहर की तरफ़ बढ़ी, गोवा की पुर्तगाली सरकार ने पुल वगैरह सब तोड़ डाले थे. सगत सिंह और उनके साथियों ने तैरकर नदी पार की. जब वो पंजिम के किनारे पहुंचे तब तक रात हो चुकी थी. इसलिए उन्होंने अपने साथियों से सुबह होने तक इंतज़ार करने को कहा. क्योंकि आबादी वाले इलाक़े में रात को हमले से आम लोगों के मारे जाने का ख़तरा था.      

इसके बाद सुबह जब सगत सिंह अपने साथियों के साथ शहर में घुसे, गोवा की जनता ने मुक्तिदाता के रुप में उनका स्वागत किया. और 'गोवा के मुक्तिदाता’, इसी नाम से उनकी ख्याति पुर्तगाल तक भी पहुंची. BBC से बातचीत में इस क़िस्से का ज़िक्र करते हुए जनरल वी के सिंह बताते हैं कि 1962 में एक रोज़ कुछ अमेरिकी टूरिस्ट सगत सिंह से मिले. उनमें से एक ने सगत सिंह से पूछा,  क्या आप ब्रिगेडियर सगत सिंह हैं?"

जवाब हां में मिला. साथ ही सगत सिंह ने पूछा, "लेकिन आप ये क्यों पूछ रहे हैं?". तब एक टूरिस्ट ने जवाब देते हुए कहा, “हम अभी अभी पुर्तगाल से आ रहे हैं. वहां जगह जगह आपके पोस्टर लगे हुए हैं. आपके चेहरे के नीचे लिखा है कि जो आपको पकड़ कर लाएगा उसे हम दस हज़ार डॉलर का इनाम देंगे.”

इस पर हंसते हुए जनरल सगत ने कहा, “ठीक है आप कहें तो मैं आपके साथ चलूं?”. पर्यटक ने हंसते हुए कहा, “नहीं अभी हम पुर्तगाल वापस नहीं जा रहे हैं.”     

चीन को मुंह तोड़ जवाब दिया 

बहरहाल कहानी पर आगे बढ़ते हुए चलते हैं साल 1964 पर. उस साल सगत सिंह ने पैरा ब्रिगेड की कमांड छोड़ दी और उन्हें 17वीं माउंटेन डिविज़न की कमांड दे दी गई. मेजर जनरल के रूप में उन्होंने डिविज़न की कमांड सम्भाली और पूर्वोत्तर की सीमा की देखरेख करने लगे. इसी दौरान उन्होंने वायुसेना में दिलचस्पी दिखानी शुरू की. और युद्ध में वायुसेना के इस्तेमाल के गुर सीखे. और 1964 में मिज़ोरम में हुए विद्रोह को ख़त्म करने के लिए हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल किया. अपनी इस सूझबूझ के चलते उन्हें परम विशिष्ट सेवा पदक से सम्मानित किया गया. 1965 में जब पश्चिमी मोर्चे पर पाकिस्तान से युद्ध हो रहा था, तब भी सगत सिंह पूर्व का मोर्चा संभाले हुए थे. 1965 में उनका पाला पाकिस्तानी सैनिकों के बजाय चीनी सैनिकों से पड़ा.

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जनरल सगत सिंह को 4 कोर की कमान दी गई थी जिसने 1971 के बांग्लादेश युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई थी  (तस्वीर: EasternCommand_IA/Twitter)

1965 की लड़ाई का फ़ायदा उठाकर चीन ने सीमा पर नाथु ला और जेलेप ला दर्रे के पास पांच हज़ार सैनिक तैनात कर दिए. ये बड़ा ख़तरा था क्योंकि नाथु ला पर चीन का क़ब्ज़ा हो जाता तो वो सिक्किम में गंगटोक तक घुस आते. क़रीब 2 साल तक चीनी फ़ौज ने नाथु ला दर्रे पर अपने सैनिक तैनात रखे. इस दौरान जब भी भारतीय सैनिक सीमा पर बाड़ लगाने की कोशिश करते, चीनी सैनिक उन पर हमला कर देते. जिसके चलते आए दिन हाथापाई और झड़पें होती रहती. 

11 सितंबर 1967 के रोज़ एक ऐसा मौक़ा भी आया जब चीनी सैनिकों ने भारतीय सैनिकों पर गोली चला दी. स्थिति नाज़ुक हो चली थी क्योंकि अगर भारतीय सैनिक भी गोली चलाते तो बड़े युद्ध की स्थिति खड़ी हो सकती थी. वहीं अगर वो कोई जवाब ना देते तो इससे चीनी सैनिकों की घुसपैठ को और बढ़ावा मिलता. ऐसी स्थिति में सगत सिंह ने ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने फ़ौजियों को वापसी गोलीबारी का आदेश दिया. बाक़ायदा चीनी सैनिकों के बंकरों पर बमबारी भी की गई. इस घटना के कुछ रोज़ बाद चीनी सैनिकों ने एक बार फिर हमले की कोशिश की. इस बार उन्हें मुंह तोड़ जवाब मिला और उनके 400 से ज़्यादा सैनिक मारे गए. इस घटना के बाद चीन ने कभी नाथु ला पर घुसपैठ की कोशिश नहीं की.    

लौटेंगे तो मेरी लाश के ऊपर से 

सगत सिंह की ज़िंदगी में इसके बाद अगला बड़ा पल आया साल 1970 में. इस साल वो लेफ़्टिनेंट जनरल के पद पर पहुंचे और उन्हें तेज़पुर आसाम भेजा गया. यहीं से उन्होंने 1971 के युद्ध में हिस्सा लिया. 1971 में उन्हें मेघना नदी के पश्चिमी इलाक़े की ज़िम्मेदारी मिली थी. मेघना बांग्लादेश में सबसे बड़ी नदियों में से एक है और तब इसे पार करने का एकमात्र ज़रिया एक रेलवे का पुल हुआ करता था, जिस पर पाकिस्तानी फ़ौज का क़ब्ज़ा था. भारतीय फ़ौज के आक्रमण को देखते हुए पाक फ़ौज ने ये पुल ही उड़ा दिया ताकि भारतीय फ़ौज नदी के उस पार ढाका तक ना पहुंच पाए. पुल की मरम्मत में काफ़ी समय लग सकता था इसलिए लेफ़्टिनेंट जनरल सगत सिंह ने मेजर जनरल बी.एफ़. गोंज़ाल्विज़ के साथ मिलकर एक दूसरा रास्ता निकाला. उन्होंने सैनिकों को हवाई जहाज़ से उतारने का फ़ैसला किया. बाक़ायदा मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों को नदी पार कराने के लिए भी इसी तरीक़े का इस्तेमाल किया गया. इस दौरान नौ हेलिकॉप्टरों ने 60 उड़ाने भरकर 584 सैनिकों को मेघना नदी के पार उतारा.

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30 नवंबर 1976 को रिटायर हुए जनरल सगत सिंह ने अपना अंतिम समय जयपुर में बिताया (तस्वीर: Wikimedia Commons)

ये कदम जनरल सगत ने बिना उच्चाधिकारियों की अनुमति के उठाया था. और उनके इस कदाम से जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा इतने नाराज़ हुए थे कि उन्होंने सगत सिंह को उन्हें फोन पर चेतावनी देते हुए वापस आने की हिदायत दे डाली थी. लेकिन जनरल सगत टस से मस नहीं हुए और उन्होंने जनरल अरोड़ा को जवाब दिया, "over my dead body".
यानी "लौटेंगे तो मेरी लाश के ऊपर से जाना पड़ेगा."

जनरल सगत सिंह का ये फ़ैसला एकदम सही साबित हुआ क्योंकि इस फ़ैसले से कुछ ही दिनों में आसानी से चांदपुर और दौड़कंदी के इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया गया. और कुछ ही रोज़ में सेना ढाका तक पहुंच गई. जैसा पहले बताया जिस रोज़ जनरल नियाज़ी ने आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर दस्तख़त किए तब सगत सिंह भी वहां मौजूद थे. देश को दी गई अपनी विशिष्ट सेवाओं के लिए सगत सिंह को साल 1976 में देश के तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया गया. इसी साल वो फ़ौज से रिटायर हुए क़रीब 25 साल बाद साल 2001में दिल्ली के सैनिक अस्पताल में 82 साल की उम्र में उनका निधन हो गया.

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