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RSS मोदी सरकार से कितना नाराज है? इसके लिए वाजपेयी से संघ का 'मनमुटाव' जानना बहुत ज़रूरी है

RSS प्रमुख Mohan Bhagwat कभी मणिपुर की याद दिलाते हैं तो कभी मर्यादा की. हाल ही में उन्होंने मनुष्य को सुपरमैन बनने की चाह की बात कही है. विपक्ष इसे PM मोदी से जोड़कर देख रहा है. क्या वाकई BJP और RSS के बीच कोई खटपट चल रही है?

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Modi Mohan Bhagwat
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ RSS प्रमुख मोहन भागवत. (इंडिया टुडे)
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सौरभ
20 जुलाई 2024 (Updated: 21 जुलाई 2024, 17:24 IST)
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4 जून के बाद बीजेपी निशाने पर है. पार्टी सत्ता में है तो लाज़मी है, विपक्ष कोई कसर छोड़ना नहीं चाहेगा. वो भी तब जब चुनाव में पूर्ण बहुमत ना मिला हो. लेकिन क्या यही वजह है कि बीजेपी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के निशाने पर भी है. RSS, जिससे पार्टी का अस्तित्व जुड़ा रहा है. और उससे पहले सवाल ये उठता है कि क्या वाकई बीजेपी RSS के निशाने पर है?

पहले सरसंघचालक मोहन भागवत का ये बयान देख लीजिए.

मनुष्य है, लेकिन मानवता नहीं है, इंसानियत नहीं है, वो मनुष्य बन जाए पहले. वहां जाने के बाद लगता है कि वो सुपरमैन, अतिमानव, अलौकिक बनना चाहता है. वह रुकता नहीं. उसको लगता है देव बनना चाहिए. वो देवता बनना चाहता है. लेकिन देवता कहते हैं कि हमसे तो भगवान बड़ा है. और भगवान कहता है मैं तो विश्वरूप हूं.

इस पूरे बयान में ना तो बीजेपी का जिक्र है ना ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का. लेकिन कांग्रेस समेत बीजेपी के विरोधियों का कहना है कि मोहन भागवन का ये बयान प्रधानमंत्री के उस बयान पर तंज है जिसमें उन्होंने कहा कि वो नॉन-बायोलॉजिकल हैं.

जब तक मां जिंदा थी, मुझे लगता था कि शायद बायोलॉजिकली मुझे जन्म दिया गया है. लेकिन मां के जाने के बाद मैं सारे अनुभवों को जोड़कर देखता हूं. तो मैं कन्विंस हो चुका हूं कि परमात्मा ने मुझे भेजा है. ये ऊर्जा बायोलॉजिक शरीर से नहीं मिल सकती. ईश्वर को मुझसे कुछ काम लेना है, इसलिए मुझे विधा भी दी है, इसलिए मुझे सामर्थ्य भी दिया है. प्रेरणा भी वही दे रहा है, पुरुषार्थ करने का सामर्थ्य भी वही दे रहा है.

इन दोनों बयानों का आपस में कोई मेल नहीं दिखता. पर बीजेपी के विरोधियों के लिए इतना भर काफी था.

मोहन भागवत का ये पहला बयान नहीं था जिसे नरेंद्र मोदी या बीजेपी की आलोचना के तौर पर देखा गया हो. और सिर्फ मोहन भागवत ही नहीं हैं जिन्होंने ऐसे बयान दिए. संघ के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार भी पार्टी पर अहंकारी होने का आरोप लगा चुके हैं. हालांकि बाद में उन्होंने अपने बयान को संशोधित किया. संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र ने भी बीजेपी के फैसलों पर सवाल उठा दिए.

मसलन, 9 जून को नई सरकार का गठन होता है और 10 जून, 2024 नागपुर में सरसंघचालक सरकार को मणिपुर के साथ-साथ मर्यादा का भी पाठ पढ़ा देते हैं. उनके बयान के अलग-अलग हिस्सों को देखते हैं.

# ‘जो मर्यादा का पालन करते हुए काम करता है, गर्व करता है, लेकिन अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों में सेवक कहलाने का अधिकारी है.’ 

# ‘मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है. बीते 10 साल से राज्य में शांति थी, लेकिन अचानक से वहां कलह होने लगी या कलह करवाई गयी, उसकी आग में मणिपुर अभी तक जल रहा है, त्राहि-त्राहि कर रहा है, उस पर कौन ध्यान देगा? जरूरी है कि इस समस्या को प्राथमिकता से सुलझाया जाए.’

ये बयान सरकार के गठन के अगले ही दिन आ गया था. और तीन दिन बीते कि इंद्रेश कुमार ने तो अहंकारी तक कह दिया. 13 जून को जयपुर में इंद्रेश कुमार ने कहा-

“लोकतंत्र में रामराज्य का विधान देखिए, जिन्होंने राम की भक्ति की लेकिन अहंकारी हो गए, उन्हें 241 पर रोक दिया. सबसे बड़ी पार्टी बना दिया, लेकिन जो वोट और ताकत मिलनी चाहिए थी, वो भगवान ने अहंकार के कारण रोक दी.”

हालांकि, इस बयान पर सरकार की ज्यादा ही फजीहत होने लगी तो इंद्रेश कुमार को कोर्स करेक्शन करना पड़ गया. कुछ ही घंटों में उन्होंने पीएम मोदी की तारीफ भी कर दी. और कह दिया कि जिन्होंने राम का विरोध किया है, सत्ता से बाहर वही गए हैं.

मगर, तीर कमान से छूटने के बाद वापस नहीं लौटता. नेता सफाई कितनी भी दे लें. तो सवाल घूमफिर कर वहीं लौटता है कि क्या वाकई बीजेपी और नरेंद्र मोदी संघ के निशाने पर हैं.

थोड़ा और पीछे चलते हैं. कहते हैं ताली एक हाथ से नहीं बजती. इतने बयानों के बीच जेपी नड्डा के उस 'कालजयी' बयान पर प्रकाश डालने की जरूरत है जो अब उनका और बीजेपी दोनों का पीछा नहीं छोड़ रहा. लोकसभा चुनाव के बीच बीजेपी अध्यक्ष ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा-

'शुरू में हम अक्षम होंगे. थोड़ा कम होंगे. तब RSS की जरूरत पड़ती थी. आज हम बढ़ गए हैं और सक्षम हैं तो BJP अपने आप को चलाती है.'

नड्डा के इस बयान के परिपेक्ष में अगर संघ से आ रहे बयानों को जोड़ा जाएगा तो ऐसा ही प्रतीत होगा कि बीजेपी और संघ के बीच में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. तो क्या वाकई जो बीजेपी संघ से जन्म लेती है, जिसके शीर्ष नेता संघ के पूर्णकालिक प्रचारक रहे हों, उसकी संघ से ही अनबन हो सकती है.

इस मसले पर वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं-

समस्या मनोवैज्ञानिक है. संघ और बीजेपी के बीच इससे बड़े-बड़े विवाद हो चुके हैं. मौजूदा हालात में ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि कोई खटपट वाली परिस्थिति बनी हो. हां, इतना जरूर है कि दोनों के बीच बातचीत में कुछ कमी आ गई है. 

दरअसल, राय जिस बात की ओर इशारा कर रहे हैं मसला वहीं अटका है. कहा जा रहा है कि संघ और बीजेपी के बीच कम्यूनिकेशन गैप हो गया है. और संघ इस बात की उम्मीद कर रहा है कि अगर कोई गतिरोध जैसी परिस्थिति बन भी गई है तो बीजेपी उसे तोड़े. संघ की तरफ से भले ही पार्टी के कामकाज को लेकर कोई आदेश ना दिया जाता रहा हो, लेकिन ऐसी परंपरा जरूर रही है कि पार्टी अपने फैसलों में संघ का मशविरा जरूर शामिल करती रही है.

वरिष्ठ पत्रकार और RSS पर 'संघम शरणम् गच्छामि' किताब लिखने वाले विजय त्रिवेदी कहते हैं कि

यहां दो बातें हैं. पहली ये कि क्या संघ और बीजेपी अलग-अलग हैं. अगर हम ऐसा मानेंगे तो मोहन भागवत के बयानों से ऐसा लगेगा कि बीजेपी और संघ के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. लेकिन अगर आप दोनों को एक मानेंगे तो परिस्थिति कुछ वैसी ही बनती है जैसी एक बड़ा भाई राह भटक जाने पर छोटे भाई को समझाने की कोशिश करता है. वहां गुस्से में भी प्रेम होता है.

बीजेपी के एक दशक के शासन में ऐसा कभी नहीं देखा गया कि संघ की तरफ से किसी बात पर गुस्सा जाहिर किया गया हो या सार्वजनिक तौर पर विरोध ही जताया गया हो. इसकी वजह थी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी का राष्ट्रीय फलक पर मजबूती से उभर कर आना. सत्ता की जड़ों में बीजेपी जितना मजबूत होती जा रही थी नरेंद्र मोदी उतने ही चुनौती रहित. कहा तो यह भी जाता है कि बीजेपी को इस बात का गुमान हो गया था कि पीएम मोदी के चेहरे पर कहीं भी चुनाव जीता जा सकता है. कम से कम उत्तर भारत में तो जीता ही जा सकता है. लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद पार्टी को पानी की थाह लगी.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार सत्ता में आई बीजेपी को पहली बार गठबंधन की बैसाखी की जरूरत पड़ी. कहा यह भी जाने लगा कि संघ को किनारे करने का नतीजा चुनाव में भुगतना पड़ा. सत्ता पर पार्टी की पकड़ कमजोर हुई तो विरोध के वो सुर भी सुनाई देने लगे जो पिछले एक दशक से शून्य पड़े थे. बीजेपी के शासन में आने के बाद पहली बार अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP)  ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला. NEET और NET परीक्षा विवाद के बीच कई राज्यों में ABVP ने NTA के खिलाफ प्रदर्शन किया.

संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र में RSS विचारक रतन शारदा ने एक लेख लिखा जिसमें महाराष्ट्र में अजित पवार की पार्टी से गठबंधन करने को लेकर आलोचना की गई. उन्होंने लिखा कि NCP से गठबंधन रणनीतिक भूल थी और वही महाराष्ट्र में पार्टी की हार की वजह बनी.  10 जून को मोहन भागवत ने अपने बयान में आम सहमति की परंपरा भी याद दिलाई थी. रतन शारदा के लेख में भी इशारा उसी ओर भी किया गया है.

इंडिया टुडे मैग्जीन के 17 जुलाई के अंक में अनिलेश महाजन ने BJP और RSS के संबंधों पर लेख लिखा है. जिसमें उन्होंने दोनों के बीच टकराव जिन बातों को लेकर हुआ, उन्हें रेखांकित किया है. और इनमें एक अहम बिंदु बीजेपी में दल बदलुओं के प्रवेश को लेकर भी है. RSS, उनसे नफरत करने वालों और दागी अतीत वालों को पार्टी में शामिल करने के पक्ष में नहीं है. जबकि बीजेपी का कहना है कि किसे शामिल करना है किसे नहीं, इसको लेकर पार्टी सचेत और सतर्क है और विचारधारा को लेकर प्रतिबद्ध है.

लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अजित पवार से साथ गठजोड़ ने बीजेपी की भ्रष्टाचार विरोधी छवि को डेंट पहुंचाया है. पवार को सालों तक देवेंद्र फडणवीस भ्रष्टाचारी बताते रहे. रैलियों में कहते रहे कि अजित पवार जेल जाएंगे. लेकिन आज महाराष्ट्र में फडणवीस अजित पवार के साथ सरकार में डिप्टी सीएम हैं.

दूसरी तरफ बीजेपी की आधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक 30 राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. जिनमें से 9 दूसरी पार्टियों से बीजेपी में आए हैं. यानी लगभग एक तिहाई प्रवक्ता वो हैं जो कल तक विरोधी दलों के बैनर तले टीवी पर बैठकर बीजेपी और संघ को पानी पी-पीकर कोसते थे.

अनिलेश महाजन के लेख के मुताबिक एक और बात जिसको लेकर टकराव की स्थिति बनती है वो है अहम पदों पर नियुक्तियां. संघ का कहना है कि मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और दूसरे अहम ओहदों पर अधिकारियों की नियुक्ति करते वक्त अधिक सलाह-मशविरे की दरकार है. लेकिन बीजेपी का इस मसले पर कोई घोषित रुख नहीं है.

और यहां पर एक नया मुद्दा सामने आता है बीजेपी के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव का. द हिंदू की पॉलिटिकल एडिटर निस्तुला हेब्बार इसको लेकर एक किस्सा सुनाती हैं. वो कहती हैं-

2014 के लोकसभा चुनाव का आखिरी फेज़ खत्म होने के बाद नरेंद्र मोदी मोहन भागवत से मिलने गए. तब दोनों इस बात से आश्वस्त हो चुके थे कि इस बार बीजेपी की ही सरकार बनने जा रही है. तब पार्टी के अध्यक्ष थे राजनाथ सिंह. नरेंद्र मोदी ने कहा कि राजनाथ तो अब सरकार में आएंगे. गडकरी मंत्री बनेंगे. और उन्होंने इशारों-इशारों में ये बता दिया था कि पार्टी अध्यक्ष उनकी ही पसंद का होगा. और पार्टी अध्यक्ष बने भी मोदी के खास अमित शाह. यहां से दूरियां बननी शुरू हो गई थीं. इसके बाद पार्टी और संघ में समन्यवयक के पद की बारी आई. संघ के पदाधिकारी 7 RCR (अब लोक कल्याण मार्ग) गए उनसे बात करके ही कृष्ण गोपाल को समन्यवयक बनाया गया. 2019 में जब 300 से ज्यादा सीटें आ गईं, तो सरकार और संघ में दूरियां ज्यादा बढ़ गईं. लेकिन इस बार 240 सीटें आने पर संघ भी ये कह रहा है कि हमारी भी सुनी जानी चाहिए.

मगर क्या बीजेपी सुनने के मूड में है? मोदी 3.0 कैबिनेट, स्पीकर का चुनाव और सरकार में शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति के साथ ही नरेंद्र मोदी सरकार ने ये संदेश देने की कोशिश की है कि सबकुछ पहले जैसा ही है. कुछ बदला नहीं है, मोदी और बीजेपी दोनों पहले की तरह ही मजबूत हैं. इसी विषय पर बीजेपी और संघ को नज़दीक से देखने वाले भानुचंद्र नागराजन कहते हैं

संघ चाहता है कि अगर जरूरत है तो कोर्स करेक्शन किया जाए. जो स्थिति कुछ समय पहले कांग्रेस की थी वैसी बीजेपी की नहीं होनी चाहिए. कि बार-बार हार के बावजूद आंख मूंदकर कर चलते हैं. लेकिन बीजेपी फिलहाल ये स्वीकार करने को ही तैयार नहीं है कि कहीं कुछ गलत भी हुआ है.

इसी विषय पर राम बहादुर राय एक महत्वपूर्ण बात जोड़ते हैं. वो कहते हैं,

जब 2014 में बीजेपी को 282 सीटें मिली थीं तब संघ के कुछ शीर्ष पर बैठे लोग चाहते थे कि जीत का श्रेय उन्हें भी मिले. हालांकि, बीजेपी के ज्यादातर नेताओं को जन्नत की हकीकत मालूम थी. उनकी तरफ से जीत का श्रेय लेने की होड़ कम दिखाई दी. 2019 में जब बीजेपी अपने सर्वश्रेष्ठ पर पहुंची तो भी श्रेय नरेंद्र मोदी को ही दिया गया. अब 2024 में जब पार्टी 240 पर आ पहुंची है, तो संघ चाहता है कि अगर ये हार है तो हार की जिम्मेदारी भी तो कोई लेगा.

तो क्या बिगड़ जाएंगे रिश्ते?

साल 1998. देश में आम चुनाव हुए. अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में NDA की सरकार बनती है. वाजपेयी शपथ ग्रहण से पहले अपने मंत्रियों की एक लिस्ट राष्ट्रपति को भेज चुके होते हैं. रात का वक्त था. वाजपेयी डिनर टेबल पर बैठे थे. तभी उनके दरवाज़े सह सरकार्यवाह केएस सुदर्शन की गाड़ी रुकती है. उनकी बेटी नमिता जबतक अटल को इस बात की जानकारी देतीं, सुदर्शन तमतमाते हुए डाइनिंग हॉल तक पहुंच चुके थे. सुदर्शन ने मंत्रियों की लिस्ट मांगी. उनसे दो नाम कटवाए. वाजपेयी को राष्ट्रपति के पास नई लिस्ट भेजनी पड़ी. और जिन दो लोगों के नाम कटे थे उनमें पहले थे जसवंत सिंह और दूसरे प्रमोद महाजन.

ये किस्सा विजय त्रिवेदी ने अपनी किताब ‘संघम् शरणम् गच्छामि’ में लिखा है.

यानी जो टकराव इस समय संघ और बीजेपी के बीच दिख रहा है उसका तापमान पहले के विवादों की तुलना में काफी कम है. जिस बात को राम बहादुर राय ने भी रेखांकित किया है. जसवंत सिंह और प्रमोद महाजन, वाजपेयी के बेहद करीबी सहयोगियों में थे. बावजूद इसके उनके नाम संघ ने कटवा दिए. हालांकि ये भी सच है कि दो साल बाद जब तब के सर संघचालक रज्जू भइया ने वाजपेयी से प्रधानमंत्री पद छोड़ने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया.

अनिलेश महाजन कहते हैं,

पहली एनडीए सरकार के दौरान और उसके बाद तत्कालीन सरसंघचालक केएस सुदर्शन और अटल बिहारी वाजपेयी और फिर लालकृष्ण आडवाणी के बीच जो कुछ हुआ. उसकी तुलना में मौजूदा तनाव कुछ भी नहीं है.

दरअसल, संघ और बीजेपी दोनों इस बात को बखूबी जानते हैं कि दोनों को ही एक-दूसरे की जरूरत है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बीजेपी के सत्ता में काबिज होने के बाद संघ के विस्तार की राह आसानी हुई है. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक 2014-15 में देशभर में 33,333 स्थानों पर संघ की कुल 51,330 दैनिक शाखाएं लगती थीं, जो 2022-23 में बढ़कर 68,651 पहुंच गईं. साथ ही 12,847 साप्ताहिक मिलन समारोह बढ़कर 26,877 पर पहुंच गए हैं. ऐसा संभव नरेंद्र मोदी सरकार में ही हुआ है.

दूसरी तरफ लोकसभा के चुनावी नतीजे देखकर बीजेपी भी इस बात को समझ चुकी है कि संघ की जमीनी पकड़ से हाथ छुड़ाकर नुकसान ही होना है. इसी साल महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में चुनाव होने हैं. और तीनों ही राज्यों में फिलहाल बीजेपी बहुत अच्छी स्थिति में नजर नहीं आ रही है. लोकसभा में बहुमत से पिछड़ने के बाद अगर बीजेपी राज्यों में चुनाव हारती है तो गठबंधन में पकड़ कमजोर हो सकती है.

वीडियो: नेता नगरी: PM मोदी और BJP पर मोहन भागवत क्यों बयान दे रहे? अंदर की कहानी नेतानगरी में खुली!

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