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कैसे भारतीय नवाब ने बचाई मिस्र के राष्ट्रपति की जान?

स्वेज नहर का युद्ध : कैसे एक भारतीय ने बचाई मिस्र के राष्ट्रपति की जान?

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Suez Crisis 1956
मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्देल नासेर ने साल 1956 में स्वेज़ नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया जिसके विरोध में ब्रिटेन, फ़्रांस और इज़रायल ने मिस्र पर आक्रमण कर दिया (तस्वीर- wikimedia commons)
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कमल
13 जून 2023 (Updated: 14 जून 2023, 09:09 IST)
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कहते हैं अंग्रेजों का सूरज डूबने के पीछे सबसे बड़ा कारण भारत का उनके हाथ से निकल जाना था. लेकिन सच बात ये है कि ब्रिटेन का वर्चस्व अचानक ख़त्म नहीं हुआ. 1956 तक ब्रिटेन दुनिया की महाशक्ति था. फिर एक रोज़ दुनिया के दूसरे छोर पर बनी नहर के पानी में कुछ लहरें उठीं और जब तक थमी, ब्रिटेन के नाम के आगे महाशक्ति का टैग हट चुका था. साल 1956. मिस्र के राष्ट्रपति ने स्वेज नहर, जो अब तक ब्रिटेन के कंट्रोल में थी, उसके राष्ट्रीयकरण का ऐलान कर दिया. (Suez Crisis 1956)

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इस नहर में फ़्रांस और इज़रायल के भी स्टेक थे. इसलिए तीनों देशों ने मिलकर मिस्र पर हमला कर दिया. इस घटना को स्वेज संकट के नाम से जाना जाता है. आज आपको बताएंगे इस घटना से जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा, जिसका सम्बंध भारत से है. जानेंगे कैसे भारतीय राजदूत ने मिस्र के राष्ट्रपति की जान बचाई और PM नेहरू(Jawaharlal Nehru) ने इस संकट में क्या रोल निभाया?

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Suez Canal
स्वेज नहर दुनिया के सबसे व्यस्त समुद्री मार्गों में से एक है. पूरी दुनिया में होने वाले समुद्री कारोबार का 12 फीसदी आवागमन इसी नहर से होता है (तस्वीर- Wikimedia commons)
कागज़ का एक टुकड़ा और युद्ध का ऐलान 

क़िस्से की शुरुआत होती है जुलाई 1956 से. यूरोप के देश क्रोएशिया के रिजुनी द्वीप पर एक हाई प्रोफ़ाइल मीटिंग हो रही थी. जिसमें शामिल थे तीन लोग. यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप टीटो, मिस्र के राष्ट्रपति, जमाल अब्देल नासेर(Gamal Abdel Nasser) और भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू. मीटिंग के दौरान नासेर के सहायक ने उनके हाथ में काग़ज़ का टुकड़ा थमाया, जिसे पढ़कर नासेर की त्यौरियां चढ़ गई. मौक़े पर तो उन्होंने कुछ नहीं कहा लेकिन वापसी की प्लेन यात्रा में उन्होंने ये नोट नेहरू को दिखाया. नोट में झटका देने वाली खबर थी. नासेर नील नदी पर एक बांध बनवा रहे थे. जिसका फंड वर्ल्ड बैंक से मिलने वाला था. खबर ये थी कि अमेरिका ने अचानक उस फंड पर रोक लगा दी थी.    

अब एक बात यहां पर नोट करिए. हर साल करोड़ों का व्यापार करने वाली स्वेज नहर मिस्र की सीमा में आती है. लेकिन 1956 तक मिस्र को इस रक़म का एक ढेला नहीं मिलता था. इस पर ब्रिटिश और फ़्रेंच मालिकाना हक़ वाली कम्पनी का कंट्रोल था. 1956 में राष्ट्रपति बनने के बाद नासेर ने देश की तरक़्क़ी के लिए नए प्राजेक्ट्स की शुरुआत की. जिनमें से एक वो बांध भी था जिसके लिए ज़रूरी फंड पर अमेरिका ने रोक लगा दी थी. अमेरिका नासेर और सोवियत संघ के बीच बढ़ती नज़दीकियों से चिढ़ा हुआ था. नासेर को हालांकि इससे कोई फ़र्क़ ना पड़ता था. वो खुद को गुटनिरपेक्ष धड़े का हिस्सा मानते थे.

बहरहाल फंड रोके जाने की खबर से नासेर बहुत नाराज़ हुए. उनके साथ मौजूद नेहरू भी स्थिति की गम्भीरता को समझ रहे थे. उन्हें इस बात की चिंता थी कि आवेश में आकर नासेर कोई बड़ा कदम ना उठा लें. क्या था ये बड़ा कदम? वो कुछ दिन बाद पता चला, नेहरू को भी और दुनिया को भी. लेकिन उस वक्त नासेर ने नेहरू को भरोसा दिलाया कि उनका अमेरिका से भिड़ने का कोई इरादा नहीं है. बल्कि उन्होंने नेहरू से कहा कि वो अपने कम खर्च वाले कुछ नए प्राजेक्ट्स पर ध्यान देंगे. नेहरू ने नासेर की इस बात का समर्थन किया और कुछ रोज़ में बात आई गई हो गई. नासेर अपने देश की राजधानी काइरो और नेहरू दिल्ली लौट गए.

इसके बाद कहानी पहुंचती है 26 जुलाई की तारीख़ पर. शाम के वक्त नेहरू को खबर मिलती है कि नासेर ने स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी है(Nationalization of the Suez Canal). एक बड़ी रैली को सम्बोधित करते हुए नासेर ने कहा

“आपकी पुरानी कंपनी वाली सेवाएं समाप्त हुई. अब ये नहर हमारे देश की अमानत हो चुकी है.”

इसके तुरंत बाद कुछ हथियार बंद लोग स्वेज नहर को कंट्रोल करने वाली कम्पनी के ऑफ़िस में घुसे और उसे क़ब्ज़े में ले लिया. नेहरू ने जैसे ही ये खबर सुनी, वो हक्के बक्के रह गए. क्योंकि इस खबर का मतलब था ब्रिटेन और फ़्रांस का ईजिप्ट से युद्ध. आपके मन में सवाल उठ सकता है कि अगर नहर मिस्र में है तो वो जो चाहे करे. इसमें युद्ध की बात कहां से आई. मसला थोड़ा पेचीदा है इसलिए एक बार संक्षेप में लेकिन अच्छे से समझ लेते हैं.

Gamal Abdel Nasser
जमाल अब्देल नासेर हुसैन मिस्र के दूसरे राष्ट्रपति थे. नासेर ने 1952 के राजशाही को उखाड़ फेंकने में महत्व्पूर्ण भुमिका निभाई थी (तस्वीर- timesofisrael)
स्वेज़ नहर का इतिहास 

स्वेज नहर साल 1869 में बनकर पूरी हुई. ये इसलिए बनाई गई थी ताकि भूमध्य सागर और भारतीय महासागर के बीच एक सीधा रास्ता बनाया जा सके. इससे पहले जहाज़ों को भारत आने के लिए अफ्रीकी महाद्वीप का चक्कर लगाकर आना पड़ता था. स्वेज नहर बनाने के लिए एक कम्पनी बनाई गई थी, स्वेज़ कैनाल कंपनी. जिसमें ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका के निवेशकों का पैसा लगा था. कुछ हिस्सेदारी मिस्र की भी थी. लेकिन नहर बनने के कुछ सालों बाद उन्होंने ये हिस्सेदारी ब्रिटेन को बेच दी. धीरे-धीरे पूरे ईजिप्ट पर ब्रिटेन का कंट्रोल हो गया. 1936 में ब्रिटेन ने मिस्र का प्रशासन छोड़ दिया लेकिन स्वेज नहर की रक्षा के लिए उनके 90 हज़ार सैनिक यहीं तैनात रहे.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब ब्रिटेन की माली हालत पतली होने लगी, उन्होंने अपने बाक़ी बचे सैनिक भी वापिस बुला लिए और 13 जून, 1956 के रोज़ स्वेज नहर का इलाक़ा मिस्र के हवाले कर दिया. हालांकि इसके बाद भी नहर का कंट्रोल स्वेज़ कैनाल कंपनी के पास ही रहा. जिसमें जैसा पहले बताया ब्रिटेन और फ़्रांस का हिस्सा था. इसका मतलब जब नासेर ने नहर के राष्ट्रीयकरण की घोषणा की, फ़्रांस और ब्रिटेन में हड़कम्प मचना लाज़मी था. ब्रिटेन में नासेर की तुलना हिटलर से की जाने लगी. और वहां के प्रधानमंत्री एंथनी इडेन ने युद्ध की तैयारी की बातें करना शुरू कर दिया. युद्ध एकदम शुरू नहीं हुआ. जुलाई में स्वेज के राष्ट्रीयकरण का ऐलान हुआ और अगले तीन महीने तक मसले के हल की कोशिश होती रही.

अब देखिए भारत का इस संकट में क्या रोल रहा. अंतराष्ट्रीय मंच पर नेहरू ने इस मामले में खुलकर नासेर का साथ दिया और स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण का समर्थन किया. नेहरू बार -बार नासेर के उस वादे की ओर ध्यान दिला रहे थे, जिसमें उन्होंने कहा था कि स्वेज नहर से जहाज़ों की आवाजाही पर कोई रोक नहीं लगेगी. नेहरू ये कह तो रहे थे लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें युद्ध की चिंता भी थी. वो इस तनाव को सशस्त्र संघर्ष में तब्दील होने से रोकना चाहते थे. UN भी इसी कोशिश में था. इसलिए जुलाई से लेकर अगले कही महीनों तक कई मीटिंग्स का दौर चला.अक्टूबर तक हालात ऐसे बन गए कि लगने लगा चीजें ठीक हो जाएंगी. लेकिन फिर एक रोज़ अचानक ईजिप्ट कर हमला हो गया.

दरअसल जब शांति वार्ता चल रही थी. उसी दौरान इज़रायल ब्रिटेन और फ़्रांस के नेताओं के बीच एक ख़ुफ़िया मुलाक़ात हुई. जिसमें तय हुआ कि तीनों देश मिलकर ईजिप्ट पर हमला करेंगे. इसके लिए एक चालू तरकीब खोजी गई. तय हुआ कि पहले इज़रायल हमला करेगा. मिस्र इसका जवाब देगा और युद्ध रोकने के बहाने ब्रिटेन और फ़्रांस की सेनाएं पहुंच जाएंगी. इस तरीक़े से तीन देशों ने मिस्र पर हमला कर दिया. एंथनी इडेन को उनकी ख़ुफ़िया एजेन्सी MI5 ने सूचना दी थी कि जनता में नासेर के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा है. उन्हें लगा था हमला होते ही जनता नासेर के ख़िलाफ़ विद्रोह कर देगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

भारतीय नवाब ने बचाई नासेर की जान 

नासेर ने ऐलान किया- हम ख़ून की आख़िरी बूंद तक लड़ेंगे. और पूरा ईजिप्ट उनके साथ आ खड़ा हुआ. इसी युद्ध के दौरान का एक दिलचस्प क़िस्सा है जिसका सम्बंध भारत से है. युद्ध ज़ोरों पर था. एक रोज़ अचानक राष्ट्रपति नासेर आधी रात अपने घर से निकले और गाड़ी में सवार होकर उस इलाक़े में पहुंच गए जहां विदेशी राजदूत रहा करते थे. गाड़ी जिस घर के आगे रुकी वो भारतीय राजदूत का घर था. इनका नाम था, अली यावर जंग. जिन्हें नासेर नवाब कहकर बुलाते थे. इसका कारण ये कि अली यावर जंग के पिता हैदराबाद के निज़ाम के यहां नौकरी करते थे. जिन्हें ब्रिटिश सरकार से नवाब की उपाधि मिली हुई थी. नासेर के जंग से इस कदर अच्छे ताल्लुकात थे कि अक्सर उन्हें अपनी कैबिनेट मीटिंग में शामिल कर लिया करते थे.

Jawaharlal Nehru
पंडित जवाहर लाल नेहरू (तस्वीर- wikimedia commons)

बहरहाल उस रोज़ नासेर जब यावर जंग के आवास तक पहुंचे उन्होंने पूरी मिलिट्री पोशाक पहनी हुई थी. कमरे में बैठते ही नासेर ने  जंग को बताया कि उन्होंने मोर्चे पर जाने का इरादा कर लिया है. और अगले ही घंटे वो रवाना हो जाएंगे. जंग को काटो तो खून नहीं. देश का राष्ट्रपति युद्ध में गया और कुछ ऐसा वैसा हो गया तो बड़ा संकट आ सकता था. इतनी रात नेहरू को इत्तिला करना मुश्किल था. दूसरा इतनी दूर से नेहरू नासेर का इरादा बदल पाते, इसमें भी संशय था. लिहाज़ा नवाब जंग ने मामला अपने हाथ में लिया. और नासेर के पास बैठ गए. उन्होंने पूरी रात नासेर को अपनी बातों में उलझाए रखा. इस बीच सुबह हो गई और इत्तिफ़ाक़ से उसी सुबह ब्रिटेन और इज़रायली फ़ोर्सेस ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी.

इस युद्धविराम के पीछे अमेरिका का हाथ था. वहां के राष्ट्रपति आइजनहावर इज़रायल, और ब्रिटेन से इस बात को लेकर नाराज़ थे कि उन्हें इसकी कोई जानकारी क्यों नहीं दी गई. दूसरी तरफ सोवियत संघ ईजिप्ट के समर्थन में   बार-बार परमाणु हमले की धमकी दे रहा था. आइजनहावर इससे बचना चाहते थे. उन्होंने ब्रिटेन, फ़्रांस और इजरायल पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दी. जिसके चलते तीनों को युद्ध विराम करना पड़ा.

वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा इंडियन एक्सप्रेस के एक आर्टिकल में लिखते हैं कि आइजनहावर के इस फ़ैसले में भारत का भी बड़ा रोल था. आइजनहावर और नेहरू के बीच लगातार पत्रों का आदान प्रदान हो रहा था. जिसके बाद दिसंबर महीने में आइजनहावर ने नेहरू को बुलावा भेजा. आइजनहावर के निजी फार्म वाले घर पर दोनों की मुलाक़ात हुई. यहां नेहरू ने स्वेज नहर का मुद्दा उठाया, लेकिन आइजनहावर ने सामने से हंगरी की बात छेड़ दी. 

हंगरी का मुद्दा क्या था?

हंगरी सोवियत यूनियन का एक सैटेलाइट स्टेट हुआ करता था. 1956 में वहां जनता ने सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया. जिसे कुचलने के लिए सोवियत यूनियन की सेना हंगरी के अंदर घुस गई. और हिंसा में सैकड़ों छात्र मारे गए. आइजनहावर चाहते थे कि नेहरू सोवियत संघ पर भी वैसा ही नैतिक दबाव डालें जैसा वो ईजिप्ट के मसले पर ब्रिटेन पर डाल रहे थे. 'The art of intervention' शीर्षक से एक दूसरे आर्टिकल में इंदर मल्होत्रा लिखते हैं, इस मुद्दे पर नेहरू को घर में भी काफ़ी विद्रोह झेलना पड़ रहा था. जय प्रकाश नारायण ने नेहरू को पत्र लिखकर कहा,

“यदि आप हंगरी के बारे में नहीं बोलते हैं तो आपको एक नए साम्राज्यवाद को उकसाने का दोषी ठहराया जाएगा जो पुराने से अधिक खतरनाक है क्योंकि इसने क्रांति का नक़ाब ओड़ रखा है”

इसके बाद UNESCO के एक सम्मेलन में नेहरू सोवियत अतिक्रमण का विरोध करते हैं. और हंगेरियन लोगों के प्रति हमदर्दी जताते हैं. इसी तर्ज़ का एक लेटर वो आइजनहावर को भी लिखते हैं. लेकिन मामला सुलटता नहीं. जब UN में सोवियत अतिक्रमण के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पेश होता है, भारतीय डेलीगेशन उसका विरोध करता है. जिसके चलते नेहरू को संसद में भयंकर विरोध का सामना करना पड़ता है. नेहरू सदन में जवाब देकर पूरे मामले का खुलासा करते हैं. नेहरू बताते हैं कि UN में जो प्रस्ताव पेश हुआ उसमें UN की देखरेख में हंगरी में चुनाव कराने का प्रस्ताव भी शामिल था. यदि भारत इसका समर्थन करता तो कल कश्मीर मुद्दे पर वो फ़ंस सकता था.

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अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहॉवर (तस्वीर- Getty)

इंदर मल्होत्रा लिखते हैं, सोवियत यूनियन के राजदूत ने तब नेहरू से मिलकर उन्हें कश्मीर मुद्दे की याद दिलाई थी. जो एक तरह की धमकी थी कि अगर तुमने हंगरी के मुद्दे पर हमारा समर्थन नहीं किया तो कश्मीर पर वो नहीं करेंगे. हालांकि इंदर मल्होत्रा ये भी बताते हैं कि इस धमकी का असर उम्मीद से उल्टा हुआ. नेहरू ने अपने अगले ही भाषण में सोवियत संघ के तौर तरीक़ों का विरोध किया और हंगरी के लोगों के प्रति समर्थन ज़ाहिर किया. इस भाषण पर तब BBC ने लिखा था, नेहरू के भाषण से पता चलता है, उन्हें हंगरी की उतनी ही चिंता है जितनी ईजिप्ट की.

इस सारे डिप्लोमेटिक दांव पेंच का असर क्या होता है? ईजिप्ट में UN की सेना भेजी गई. ये किसी देश में यूएन पीसकीपिंग फ़ोर्स की तैनाती का पहला मौक़ा था. और इसमें भारतीय सेना की एक टुकड़ी भी शामिल थी. यूएन की निगरानी में इज़रायल, फ़्रांस और ब्रिटेन, तीनों देशों की सेनाओं को बाहर निकलना पड़ा. और स्वेज़ नहर पर ईजिप्ट का कब्ज़ा बरकरार रहा.

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