उसे मार डाला गया.वो दबे-कुचले लोगों की आवाज़ बनता था, वो राजनीति से नाक-भौं सिकोड़ने वाले लोगों कोजगाने का काम करता था, वो नाटकों के माध्यम से समाज को विरोध का ककहरा सिखाने कीप्रथा का शिल्पकार बना, वो, जिसने मुखालफ़त के लोकतांत्रिक लेकिन असरदार तरीके सेलोगों को वाकिफ़ कराया, वो, जिसका नाम सफ़दर हाशमी था, वो जिसे मार डाला गया.12 अप्रैल 1954 को पैदा हुए नाटककार, एक्टर, डायरेक्टर, गीतकार सफ़दर हाशमी का 2जनवरी 1989 में एक प्ले करते वक़्त क़त्ल कर दिया गया था. भारत के थिएटर इतिहास मेंजिस शख्स का रुतबा ध्रुव तारे जैसा है, उन सफ़दर हाशमी की उम्र अपनी मौत के वक़्त महज़34 साल थी.वो मनहूस दिनसन 1989. साल का पहला दिन था. गाज़ियाबाद में जन नाट्य मंच (जनम), सीपीआई (एम) केउम्मीदवार रामानंद झा के समर्थन में नुक्कड़ नाटक कर रहा था. नाटक का नाम था, 'हल्लाबोल'. सुबह के 11 बज रहे थे. गाज़ियाबाद के झंडापुर में आंबेडकर पार्क के नज़दीक सड़कपर नाटक का मंचन हो रहा था. तभी एंट्री होती है मुकेश शर्मा की. मुकेश शर्माकांग्रेस पार्टी से उम्मीदवार था. उसने सफ़दर से प्ले रोक कर रास्ता देने को कहा.सफ़दर ने बोला कि या तो वो कुछ देर रुक जाए या फिर किसी और रास्ते से निकल जाए.गुंडों की गुंडई जाग गई. उन लोगों ने नाटक-मंडली पर रॉड और अन्य हथियारों से हमलाकर दिया. राम बहादुर नाम के एक मजदूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. सफ़दर को गंभीरचोटें आई. उन्हें सीटू (CITU) ऑफिस ले जाया गया. शर्मा और उसके गुंडे वहां भी घुसआए और दोबारा उन्हें मारा. दूसरे दिन सुबह, तकरीबन 10 बजे, भारत के जन-कला आंदोलनके अगुआ सफ़दर हाशमी ने अंतिम सांस ली.शुरुआती दौरदिल्ली के हनीफ़ और कमर हाशमी की औलाद सफ़दर हाशमी अपने स्कूली दिनों में हीमार्क्सवाद की तरफ आकर्षित हो गए थे. दिल्ली यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में मास्टर्सकरते वक़्त सफ़दर को स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (SFI) के साथ काम करने का मौकामिला. जहां वो प्ले लिखने से लेकर उसके मंचन तक की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे.जब वो उन्नीस साल के थे, उन्होंने जन नाट्य मंच की स्थापना की जो मुख्यतः नुक्कड़नाटक आयोजित करता था. 'जनम' के माध्यम से उन्होंने नुक्कड़ नाटकों को जन-विरोध का एकप्रभावी हथियार बनाया.'कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी' उनके शुरूआती कुछ नाटकों में से था, जिसने उन्हें शोहरतऔर बदनामी दोनों दिलाई. ये नाटक उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कीअलोकतांत्रिक हरकतों पर तंज था. 1976 के आते आते उन्होंने सीपीआई की सदस्यता ले ली.आपातकाल के कहरबरपा दौर में, जब नुक्कड़ नाटक जैसी चीज़ का नाम लेना भी घातक था,उन्होंने अलग-अलग यूनिवर्सिटीज में लेक्चरर के तौर पर काम किया.पहला नुक्कड़ नाटकआपातकाल में जब ट्रेड-यूनियंस की कमर टूट गई थी, तब सफ़दर को महसूस हुआ कि उनमेंजोशो-खरोश भरने के लिए 'जनम' जैसे ग्रुप की ज़रूरत है. लेकिन उस वक़्त वो किसी थिएटरग्रुप को चलाने के लिए ज़रूरी फंड्स को मुहैया कराने में असमर्थ थे. वक़्त की ज़रूरतथी ऐसे प्ले जो कम खर्चीले हो, असरदार हो और घूमते-फिरते किए जा सकें. उस ज़रूरत कानतीजा निकला नुक्कड़ नाटक 'मशीन' की सूरत में. महज़ 6 एक्टर और सिर्फ तेरह मिनट कीस्टोरी. नाटक की प्रेरणा एक केमिकल फैक्ट्री के मजदूरों पर गार्ड्स द्वारा किया गयाक्रूर हमला था. मजदूर अपनी साइकिलों के लिए पार्किंग स्पेस और एक ठीक-ठाक से कैंटीनकी मांग कर रहे थे. उनपर फैक्ट्री के सुरक्षकर्मियों ने बेरहमी से हमला बोला. 6मजदूर मारे गए.'मशीन' नाटक ने सांकेतिक तौर पर दिखाया कि कैसे फैक्ट्री मालिक, गार्ड्स और मजदूरसभी पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा हैं. इस नाटक ने महज़ तेरह मिनटों मेंवंचितों के शोषण को प्रभावी तरीके से पेश कर के पूंजीवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ादी. आसान, काव्यात्मक भाषा और अपील करने वाली थीम की वजह से इस नाटक ने भारत केकामकाजी तबके में फ़ौरन लोकप्रियता हासिल कर ली. 'मशीन' को रिकॉर्ड किया गया और भारतकी अन्य भाषाओँ में इसको बनाया गया.यहां से 'जनम' ने और सफ़दर हाशमी ने पीछे मुड कर नहीं देखा. उनकी सक्रियता का आलम येथा कि जब दिल्ली परिवहन निगम ने किराए में बढ़ोतरी की घोषणा की, उसके पांच घंटों केअंदर-अंदर 'जनम' ने 'डीटीसी की धांधली' के नाम से प्ले लिख कर उसका मंचन भी करडाला.मल्टी-टैलेंटेड सफ़दरअपनी तमाम राजनितिक सक्रियता के बावजूद सफ़दर की असली पहचान एक थिएटर आर्टिस्ट केतौर पर ही रही. उन्होंने नाटक लिखे, बच्चों के लिए गीत लिखे, प्रगतीशील मुद्दों केलिए पोस्टर्स बनाए, फिल्म फेस्टिवल्स आयोजित किए, लेख लिखे, मजदूर संगठनों कीहडतालों को समर्थन दिया. कुल मिलाकर लोकतंत्र को सच्चे मायनों में जिया.जब उनकी अंतिम यात्रा निकाली गई, दिल्ली की सड़कों पर मौजूद जनता उसमे शामिल हो गई.आज़ादी के बाद के भारत में ये ऐसी दुर्लभ शवयात्रा थी, जिसमे बिना किसी पूर्वसूचनाके इतने ज़्यादा लोगों ने हिस्सा लिया था. सफ़दर हाशमी नाम के एक सच्चे रंगकर्मी कोजनता द्वारा दी गई ये एक सच्ची श्रद्धांजलि थी.उनकी मौत के तीसरे ही दिन उनकी पत्नी मल्यश्री हाशमी अपने साथियों के साथ गाज़ियाबादमें उसी जगह पहुंची, जहां उनको क़त्ल किया गया था. वो नाटक जिसके मंचन में गुंडों कीदख़लअंदाज़ी से व्यवधान आया था, उन्होंने पूरा किया.सफ़दर हाशमी की मां क़मर हाशमी ने अपनी किताब, 'दी फिफ्थ फ्लेम: दी स्टोरी ऑफ़ सफ़दरहाशमी' में लिखा कि, "कॉमरेड सफ़दर, हम आपका मातम नहीं करते, हम आपकी याद का जश्नमनाते हैं."एक महीने बाद सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (SAHMAT) का गठन हुआ. उस साल सफ़दर केजन्मदिवस 12 अप्रैल को 'नेशनल स्ट्रीट थिएटर डे' मनाया गया.विरासतसफ़दर के हत्यारों को सज़ा दिलवाने में 14 साल लग गए. सभी दस आरोपियों को कोर्ट नेदोषी करार दिया. सफ़दर की मृत्यु तक उनका उपक्रम 'जनम' करीब 24 नुक्कड़ नाटकों के4000 शो कर चुका था. उनकी मृत्यु के बाद से हर साल झंडापुर, गाज़ियाबाद में उसी दिन'जनम' एक कार्यक्रम आयोजित करता है जिसकी ऑडियंस आसपास के इंडस्ट्रियल क्षेत्र कामजदूर तबका होता है.सफ़दर हाशमी प्रतिरोध की वो ज़िंदा आवाज़ थी जिसे मिटाने की कोशिश पूरी तरह नाकामयाबरही. अपनी मौत के बाद से इस आवाज़ को और भी मुखरता हासिल हुई. शोषितों, वंचितों केहक-हुकूक की जहां-जहां बात चलेगी, सफ़दर हाशमी का नाम वहां-वहां पूरी धमक के साथमौजूद मिलेगा.लाल सलाम कॉमरेड!--------------------------------------------------------------------------------इसे भी पढ़ें:उसने ग़ज़ल लिखी तो ग़ालिब को, नज़्म लिखी तो फैज़ को और दोहा लिखा तो कबीर को भुलवादियाजगजीत सिंह, जिन्होंने चित्रा से शादी से पहले उनके पति से इजाजत मांगी थीवो मुस्लिम नौजवान, जो मंदिर में कृष्ण-राधा का विरह सुनकर शायर हो गयावो ‘औरंगज़ेब’ जिसे सब पसंद करते हैंबशीर बद्र शायर हैं इश्क के, और बदनाम नहीं!