वो सादा आदमी जो 'प्रधानमंत्री' होने के ग्लैमर से हमेशा दूर रहा
चंद्रशेखर अपने स्टाफ को भी वही खाना खिलाते थे, जो वो खुद खाते थे.
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ये लेख डेली ओ के लिए शांतनु मुखर्जी ने लिखा है. वेबसाइट की इजाज़त से हम इसका हिंदी अनुवाद आपको पढ़वा रहे हैं. शांतनु स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप में थे और चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री रहते उनकी सुरक्षा में तैनात थे. इस लेख में वो चंद्रशेखर से जुड़े अपने अनुभव आपसे बांट रहे हैं.
एसपीजी की अपनी नौकरी में मैं कई प्रधानमंत्रियों की सुरक्षा में तैनात रहा. लेकिन जो अनुभव मुझे चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री रहते हुए, वो मेरी पेशेवर ज़िंदगी के कुछ यादगार पलों में शामिल है. वो महज़ सात महीने तक देश के प्रधानमंत्री रहे. लेकिन उनकी शख्सीयत की खूबियों को करीब से देखने के लिए इतना वक्त काफी था. आमतौर पर देश के प्रधानमंत्री बड़े व्यस्त रहते हैं और उनकी सुरक्षा की चिंता एसपीजी को करनी होती है. लेकिन चंद्रशेखर एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो अपने सिक्योरिटी स्टाफ का बराबर ध्यान रखते थे.
चंद्रशेखर
दिल्ली की ठंड हड्डियां कंपकंपा देती है. तो ठंड के मौसम में पूरी रात 7 रेसकोर्स रोड पर तैनात एसपीजी स्टाफ को चाय मिलती रहती थी. ये चंद्रशेखर के चलते था. इतना ही नहीं, बतौर पीएम चंद्रशेखर जब भी दौरे पर होते तो उनकी ज़िद होती कि उनके स्टाफ को भी वही खाना परोसा जाए जो उनके लिए बनता था. उनके दो विदेशी दौरों पर भी चंद्रशेखर इस ज़िद पर अड़े रहे. उनका परिवार भी इस बात का बराबर ध्यान रखता था.
एक बार चंद्रशेखर अपने संसदीय क्षेत्र के दौरे पर थे. वापस दिल्ली लौटने के लिए हैलिपैड की ओर बढ़ते हुए उन्होंने बातों ही बातों में मुझ से पूछा कि मेरा अगला प्लान कहां का है. मैंने बताया कि मैं इलाहाबाद जा रहा हूं, अपने माता पिता से मिलने. इतना सुन कर चंद्रशेखर अपने सेक्रेटरी को किनारे लेकर गए और कुछ कहने लगे. फिर दिल्ली रवाना हो गए.
उन दोनों के बीच क्या बात हुई थी, ये मुझे तब पता चला जब सेक्रेटरी ने मेरी कार में धोती, साड़ी और मिठाइयां रखीं. मैंने मना किया तो सेक्रेटरी ने कहा कि पीएम साहब का आदेश साफ है. आप इन्हें लेने से मना नहीं कर सकते, पीएम की ओर से आपके माता-पिता के लिए उपहार हैं. मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ. चंद्रशेखर का यही व्यवहार उनके पूरे स्टाफ के साथ रहा, चाहे वो मेरी तरह एसपीजी का हो या कोई एडमिनिस्ट्रिटिव अधिकारी.
सख्त होने से भी नहीं हिचकते थे
लेकिन उनके इस स्वभाव का मतलब ये कतई नहीं था कि वो सख्त फैसले नहीं लेते थे. एक बार उल्फा (ULFA)के कराए हमले में नॉर्थ ईस्ट काडर के एक आईपीएस अधिकारी की बीवी की मौत हो गई. उग्रवादियों से खतरा महसूस होने पर उस अधिकारी ने अपने राज्य बिहार में अस्थाई ट्रांसफर ले लिया. फिर कुछ दिनों बाद उस अफसर के बड़े भाई (जो खुद भी एक सीनियर आईपीएस अधिकारी थे), प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पास अपने भाई को बिहार काडर में स्थाई रूप से ट्रांसफर कराने की अर्ज़ी लेकर पहुंच गए. चंद्रशेखर ने अर्ज़ी ठुकरा दी. बोले,''आपके भाई ने आईपीएस जॉइन किया है, ये जानकर कि इस नौकरी में खतरा बराबर बना रहता है. अगर हर कोई अपनी जान बचाने के लिए मुश्किल पोस्टिंग वाले काडर छोड़ने लगा तो फिर उग्रवादियों से लड़ेगा कौन?''
इसी तरह उनमें लोक-लुभावन फैसले लेने के मोह से खुद को दूर रखने का संयम और ताकत भी थी. उनसे पहले प्रधानमंत्री रहे वीपी सिंह इस मामले में थोड़े कच्चे थे. तो जब भी छात्र गुट उनसे यूपीएससी की परीक्षा में एज लिमिट बढ़ाने की मांग को लेकर मिलते, वो उनसे घुमा फिरा कर बात करते. वो मांगे मानते नहीं थे, लेकिन जवाब इस तरह देते कि छात्रों की उम्मीद बंधी रहती. इससे वीपी सिंह इनकार करने के बाद पैदा होने वाले गुस्से से बचे रहते. वीपी ने प्रधानमंत्री रहते उनके लिए कुछ नहीं किया.
तो वीपी सिंह की विदाई के बाद छात्र चंद्रशेखर से मिलने आऩे लगे. चंद्रशेखर ने छात्रों से पहली ही मुलाकात के बाद अपने सेक्रेटरी को इस काम में लगा दिया. लेकिन सेक्रेटरी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि छात्रों की मांगों को मानना संभव नहीं है. अगली मुलाकात में जब छात्र आए तो चंद्रशेखर ने यही बात छात्रों से कह दी. इसे छात्रों ने इस तरह लिया कि चंद्रशेखर वीपी सिंह के किए वादे से पलट रहे हैं. उनके खिलाफ प्रदर्शन होने लगे. एक बार तो साउथ ब्लॉक जाते हुए कुछ छात्र उनके काफिले के सामने कूद गए. काफिले को रुकना पड़ा. चंद्रशेखर खुद अपनी गाड़ी से उतरे और छात्रों को झिड़की दे दी कि यही समय पढ़ाई में लगाएंगे तो हो सकता है कि एग्ज़ाम पास कर लें.
एक बार अलगाववादी अकाली नेता सिमरनजीत सिंह मान चंद्रशेखर से मिलने आए. वो अपनी तलवार साथ लाए थे. प्रधानमंत्री कार्यालय और आवास में तलवारें ले जाने पर मनाही होती है. लेकिन सिमरनजीत के लिए चंद्रशेखर ने इस नियम की अनदेखी की और सिमरनजीत मय तलवार देश के प्रधानमंत्री से मिले. एसपीजी ने शर्त रखी कि मीटिंग के दौरान कमरे का दरवाज़ा बंद नहीं किया जाएगा. ऐन दरवाज़े पर एक अधिकारी तैनात रहा. मीटिंग कुछ देर सामान्य चली. इसके बाद सिमरनजीत ने अपनी तलवार मयान से आधी बाहर निकाल ली और कहा,
''ये तलवार मेरे पुरखों की है और बहुत घातक है''चंद्रशेखर का जवाब भी तैयार था, उन्होंने कहा
''तलवार हमारे बलिया वाले घर में भी है, और वो इस तलवार से बहुत बड़ी है. तो अपनी ये तलवार मयान के अंदर कर लीजिए''
भारत के प्रधानमंत्री और उनके परिवार की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी SPG की होती है
#निधन
8 जुलाई 2007 की सुबह मुझे गृह सचिव का फोन आया. वो चाहते थे कि मैं चंद्रशेखर के परिवार को इस बात के लिए मना लूं कि उनका अंतिम संस्कार यमुना के किनारे (राज घाट, शांति वन, किसान घाट वगैरह) पर न करें. चंद्रशेखर का देहांत हो गया था.मैंने गृह सचिव से कहा कि जून 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री के चंद्रशेखर की जगह लेने के बाद से मैं उनसे या उनके परिवार से नहीं मिला था. हमारी आखिरी मुलाकात 16 साल पहले हुई थी. लेकिन गृह सचिव ने कहा कि मैं ही हूं जो चंद्रशेखर के परिवार को मना सकता हूं, क्योंकि वो मुझ पर भरोसा करते हैं.मैं चंद्रशेखर के बेटे से मिला और उन्हें समझाने की कोशिश की. लेकिन तब तक वो अपना मन बना चुके थे. सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की अपील का भी कोई असर न हुआ. चंद्रशेखर को अग्नि वहीं दी गई जहां उनका परिवार चाहता था. क्योंकि आम लोग उनके साथ थे.
चंद्रशेखर की छवि कभी ग्लैमरस नेता की नहीं रही. इतने ताकतवर पद पर रहते हुए भी उनका स्वभाव हमेशा सीधा-सादा रहा. मुझे नहीं मालूम कि वो किस विचारधारा को मानते थे. मैं बस इतना जानता हूं कि उनके छोटे से कार्यकाल में जो कुछ मैंने देखा और महसूस किया, वो मेरी पेशेवर ज़िंदगी के कुछ सबसे अच्छे अनुभव थे.
दी लल्लनटॉप के लिए इस लेख का अनुवाद निखिल ने किया है.
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