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जब राम मंदिर का ताला खोलने का आदेश देने के बाद जज ने घर लौटकर बंदर को प्रणाम किया

जज को लगा था कि वो बंदर कोई 'दैवीय शक्ति' थी

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1 जनवरी 1986 को अयोध्या के राम मंदिर के उस वक्त के विवादित परिसर का ताला खोला गया था.
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अभय शर्मा
1 फ़रवरी 2021 (Updated: 1 फ़रवरी 2021, 09:29 IST)
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आज 1 फरवरी है. इतिहास में ये तारीख एक ऐसी घटना से जुड़ी है, जिसने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को एक ऐसा मोड़ दे दिया, जिसका परिणाम आगे चलकर बाबरी विध्वंस के रूप में देखने को मिलने वाला था. आज से 35 साल पहले 1 फरवरी 1986 के दिन विवादित ढांचे के परिसर को जिला एवं सेशन जज के आदेश पर तुरंत खोल दिया गया था. सेशन कोर्ट के आदेश और जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इसका पालन किए जाने के बाद भारत की राजनीति तो बदली ही, सामाजिक ढांचा भी काफी ज्यादा प्रभावित हुआ. इस घटना के 35 साल पूरे होने पर आपको इस जजमेंट और इसकी पृष्ठभूमि से जुड़े चर्चित और दिलचस्प तथ्यों से रूबरू कराते हैं. क्या हुआ था 1 फरवरी 1986 को?

इस घटना से करीब एक साल पहले जनवरी 1985 में उमेश चंद्र पांडे नाम के एक युवा वकील ने फैजाबाद के मुंसिफ मजिस्ट्रेट की कोर्ट में एक याचिका दायरी की थी. इसमें मांग की गई थी कि अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित परिसर को पूजा-अर्चना के लिए खोला जाए. लेकिन 28 जनवरी 1986 को मुंसिफ मजिस्ट्रेट हरिशंकर दूबे ने याचिका खारिज कर दी. इसके बाद उमेश चंद्र पांडे इसे लेकर सेशन कोर्ट के पास पहुंचे. वहां 1 फरवरी 1986 को डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज कृष्णमोहन पांडे ने सुनवाई की और फैसला सुरक्षित रख लिया. उसी दिन शाम 4 बजकर 40 मिनट पर उन्होंने फैसला सुनाते हुआ कहा कि अदालत लोगों को परिसर में पूजा करने की अनुमति दे रही है. कोर्ट ने स्थानीय डीएम इंदू प्रकाश पांडे और एसएसपी कर्मवीर सिंह को विवादित परिसर का ताला खोलने का आदेश दे दिया.

प्रशासन ने भी आदेश पर मुस्तैदी से काम किया. आदेश प्राप्त होने के महज 40 मिनट बाद 5 बजकर 20 मिनट पर परिसर का ताला खोल दिया गया. यही मुस्तैदी सरकारी चैनल दूरदर्शन की तरफ से भी दिखाई दी, जो इन्हीं 40 मिनटों के भीतर कैमरा टीम लेकर अयोध्या पहुंच गया. वहां से ताला खोले जाने का लाइव टेलीकास्ट शुरू कर दिया गया. यहां गौर करने वाली बात ये है कि उस समय दूरदर्शन का निकटतम केंद्र लखनऊ था, जो अयोध्या से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर था. कई जानकार सवाल करते हैं कि आखिर कैसे दूरदर्शन की टीम केवल 40 मिनट में वहां पहुंचकर लाइव टेलीकास्ट करने लगी.


6 दिसंबर 1992 को उन्मादी भीड़ ने विवादित ढांचा गिरा दिया था.
6 दिसंबर 1992 को उन्मादी भीड़ ने विवादित ढांचा गिरा दिया था.

खैर, इस फैसले के बाद सियासत तेज हो गई. 'हिंदू-मुस्लिम' के आधार पर सांप्रदायिक गोलबंदी होने लगी. 1984 में बुरी तरह हार कर 2 लोकसभा सीटों तक सिमट चुकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने मौका ताड़ा और राम मंदिर को अपना मुख्य राजनीतिक मुद्दा बना लिया. उस समय भाजपा के अध्यक्ष रहे लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से रथयात्रा निकाली थी. उसके बाद जो हुआ, वो कमोबेश सब जानते हैं.


काले बंदर का मामला

ये फैसला देने वाले डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज कृष्णमोहन पांडे ने 5 साल बाद 1991 में इस पूरे मामले के बारे में जानकारी दी थी, अपनी आत्मकथा के माध्यम से. इसमें उन्होंने लिखा, '1 फरवरी 1986 को जब इस मामले की सुनवाई चल रही थी, तब एक काला बंदर कोर्ट परिसर की छत पर फ्लैग पोस्ट को पकड़े दिन भर बैठा रहा. लोगों ने उसे खाने-पीने की चीजें भी दीं, लेकिन उसने कुछ खाया नहीं. शाम को जब डीएम इंदू प्रकाश पांडे और एसएसपी कर्मवीर सिंह मुझे मेरे आवास तक पहुंचाने आए, तो वो काला बंदर मेरे घर के बरामदे में बैठा था. तब मुझे लगा कि वो कोई 'दैवीय शक्ति' है और मैंने उसे प्रणाम किया.'


ताला खोलने का आदेश देनेवाले जिला जज कृष्णमोहन पांडे बाद में हाईकोर्ट के जज बने.
ताला खोलने का आदेश देने वाले जिला जज कृष्णमोहन पांडे बाद में हाईकोर्ट के जज बने.
कृष्णमोहन पांडे का प्रमोशन 

परिसर को लेकर दिए अपने फैसले के चार साल बाद 1990 में कृष्णमोहन पांडे को प्रमोट कर हाई कोर्ट का जज नियुक्त किए जाने की सिफारिश की गई. सुप्रीम कोर्ट ने कई अन्य जजों की नियुक्ति की फाइल सरकार के पास भेजी. उस वक्त वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री और दिनेश गोस्वामी कानून मंत्री थे. वीपी सिंह की सरकार ने कृष्णमोहन पांडे को छोड़कर बाकी जजों के प्रमोशन पर मुहर लगा दी. बाद में नवंबर 1990 में अयोध्या विवाद और उसके चलते लालकृष्ण आडवाणी की समस्तीपुर में गिरफ्तारी के मामले ने इतना तूल पकड़ा कि वीपी सिंह की सरकार गिर गई. तब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी उनकी सरकार में कानून मंत्री बनाए गए. सुब्रमण्यम स्वामी ने मंत्री पद संभालते ही कृष्णमोहन पांडे की फाइल को सरकार से क्लियर करवाया. तब जाकर 1991 में वे हाई कोर्ट के जज बने. पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के और बाद में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के. वहां से वे 1994 में रिटायर हो गए.

ताला खोलने का फैसला क्या वाकई न्यायिक था?

इस फैसले को एक जुडिशियल डिसीजन मानने को आज भी कई लोग तैयार नहीं हैं. वे इसे कुछ दूसरी घटनाओं से जोड़कर देखते हैं.


राजीव गांधी की राजनीति

1985 में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के गुजारा भत्ते से जुड़े एक मामले पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया. मध्य प्रदेश की एक महिला शाहबानो को उसके पति मोहम्मद अहमद खान ने तलाक दे दिया था. उसने पत्नी को गुजारा भत्ता देने से भी इन्कार कर दिया था. इस मामले पर शाहबानो लंबी कानूनी लड़ाई लड़ते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई थीं. सुप्रीम कोर्ट ने जजमेंट दिया. उसने मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की तमाम दलीलों को खारिज करते हुए आदेश दिया कि शाहबानो को उसका पति गुजारा भत्ता दे.

ये फैसला तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं की बड़ी जीत थी. लेकिन इसके विरोध में देश भर के मुस्लिम संगठन खड़े हो गए. उनके दबाव में राजीव गांधी की सरकार को झुकना पड़ा. सरकार ने तय किया कि संसद के विशाल बहुमत के दम पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट दिया जाए. लेकिन इससे हिंदू संगठनों के नाराज होने का खतरा था. सरकार पर अल्पसंख्यक सांप्रदायिकतावाद को बढ़ावा देने का आरोप लगने की आशंका भी थी.

कुछ जानकार कहते हैं कि हिंदू संगठनों की नाराजगी की आशंका को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने दबाव में विवादित परिसर का ताला खोलने का आदेश सेशन कोर्ट के जरिये दिलवाया था. इस घटना के चश्मदीद रहे पत्रकार हेमंत शर्मा ने एक किताब लिखी है. नाम है 'युद्ध में अयोध्या'. इसमें वे लिखते हैं, 'मैं उस वक्त दिल्ली में मौजूद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के लगातार संपर्क में था. वे कह रहे थे कि कमिश्नर पर दबाव बनाया गया है कि वे किसी प्रकार विवादित स्थल का ताला खोलने का आदेश निकलवाएं.'


खैर, 1 फरवरी 1986 की शाम विवादित परिसर का ताला खुला और पूरे देश ने उसे दूरदर्शन पर देखा. इसके ठीक 4 दिन बाद 5 फरवरी 1986 को संसद ने शाहबानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया.
अयोध्या विवाद राजीव गांधी की सरकार के दौर में परवान चढ़ा.
अयोध्या विवाद राजीव गांधी की सरकार के दौर में परवान चढ़ा.
बनवारी लाल पुरोहित का खुलासा

बनवारी लाल पुरोहित अभी तमिलनाडु के राज्यपाल हैं. एक जमाने में नागपुर से कांग्रेस के सांसद हुआ करते थे. 90 के दशक में भाजपा में आ गए. इन्हीं बनवारी लाल पुरोहित ने 2007 में राजीव गांधी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की कथित बातचीत का खुलासा किया था. बकौल पुरोहित,


"जब राजीव गांधी ने मुझसे पूछा कि आप नागपुर से हैं, इसलिए आपका RSS के सरसंघचालक बाला साहब देवरस से कोई परिचय है? इस पर मैंने उन्हें हां में जवाब दिया. तब राजीव ने मुझसे जानना चाहा कि यदि कांग्रेस सरकार अयोध्या में राम मंदिर बनवा दे तो क्या RSS आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की मदद करेगा?

इसके बाद मैंने राजीव गांधी की मंशा से RSS के लोगों को अवगत कराया. फिर गृह मंत्री बूटा सिंह और कांग्रेस नेता भानू प्रकाश सिंह की देवरस से गुप्त मुलाकात हुई. तय हुआ कि देवरस भी दिल्ली जाकर कांग्रेस नेताओं से मिलेंगे. लेकिन तब तक देवरस बीमार पड़ गए और उनकी जगह राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया ने दिल्ली में कांग्रेस के नेताओं से मुलाकात की. सब कुछ लगभग तय लग रहा था, तभी अचानक देश के हालात बदल गए. नए-नए राजनीतिक प्रयोग शुरू हो गए और मामला वहीं अटक गया."

निर्माणाधीन राम मंदिर का नक्शा)
निर्माणाधीन राम मंदिर का नक्शा

लेकिन मामला सिर्फ शिलान्यास का अटका. इस मामले पर राजनीति अपनी गति से चलती रही. पूरा देश हिंसा और दंगे की चपेट में आता चला गया. नौबत यहां तक पहुंच गई कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. इसके बाद  राजनीतिक दलों ने हाथ खींच लिया और मुद्दा पूरी तरह कोर्ट के हवाले हो गया. ये और बात है कि इस मुद्दे पर राजनीति अपने तरीके से चलती रही. 27 साल बाद नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला सुना दिया. फैसले में विवादित स्थल राम मंदिर के लिए दिया गया. मस्जिद बनाने के लिए पास के ही रौनाही गांव में जमीन दे दी गई.

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