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राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर लगाया लाखों सरकारी नौकरियां खत्म करने का आरोप, BJP ने किया पलटवार

BJP बोली, 'राहुल गांधी झूठ बोलकर जनता को गुमराह कर रहे हैं'

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राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर सरकारी नौकरियां खत्म करने का आरोप लगाया है (फोटो: पीटीआई)
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19 जून 2023 (Updated: 19 जून 2023, 22:16 IST)
Updated: 19 जून 2023 22:16 IST
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भूमिका चाहे जितनी बांध ली जाए, एक पंक्ति की ख़बर है: बीते दस सालों में पौने तीन लाख सरकारी नौकरियां कम हो गई हैं. स्थायी नौकरियां लगातार कम हो रही हैं, कॉन्ट्रैक्ट वाली नौकरियां उसी गति में बढ़ रही हैं.

बीती 26 मई को नरेंद्र मोदी सरकार के 9 साल पूरे हुए. बहुत सारे संगठनों ने अपने-अपने आग्रहों के तईं इन 9 सालों की विवेचना की. आर्थिक मोर्चे से जुड़ी एक ख़बर आई है, जो सरकार के इन 9 सालों को फिर से कटघरे में खड़ा करती है. सरकार का ही एक आंकड़ा कहता है कि बीते साल दस सालों में क़रीब पौने तीन लाख सरकारी नौकरियां कम हुई हैं. राहुल गांधी ने बाक़ायदा आंकड़ों के साथ ट्विटर पर सरकार को घेरा. कहा, हर साल 2 करोड़ रोज़गार का झूठा वादा करने वालों ने नौकरियां बढ़ाने की जगह, 2 लाख से ज़्यादा खत्म कर दीं! पलट कर सरकार ने उनके आंकड़ो को ग़लत बता दिया. अपना आंकड़ा दे दिया. दोनों तरफ से हो रही आंकड़ेबाज़ी के बीच सच क्या है? क्या वाक़ई सरकार ने सरकारी कंपनियों में रोज़गार कम किए हैं? क्या वाक़ई सरकार इन कंपनियों को प्राइवेटाइज़ करना चाहते हैं, जैसा कांग्रेस इशारा कर रही है?

2012-13 से 2021-22 तक की पब्लिक इंटरप्राइज़ेज़ सर्वे रिपोर्ट की समीक्षा करें, तो मालूम होता है कि पिछले एक दशक में केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों यानी Central Public Sector Enterprises (CPSEs) में सरकारी नौकरियों में क़रीब पौने तीन लाख की कमी आई है. अब ये है कि CPSE क्या है? CPSE मतलब भारी उद्योग और सार्वजनिक उद्यम मंत्रालय के तहत आने वाली कंपनियां. आज की तारीख़ में इस सर्वे में 389 CPSE शामिल हैं, जिनमें से 248 चालू हैं. उदाहरण बता देंगे, तो और साफ़ हो जाएगा. मसलन,

- Oil and Natural Gas Corporation (ONGC),
- भारत इलेक्ट्रॉनिक्स,
- ऑयल इंडिया,
- National Mineral Development Corporation (NMDC),
- Bharat Heavy Electricals Limited (BHEL) और
- Gas Authority of India Ltd (GAIL).

ये CPSE हैं. इसमें भेल और गेल, PSU कंपनियां हैं. PSU, यानी पब्लिक सेक्टर यूनिट. ये CPSE के तहत ही एक सबसेट है. वापस ख़बर पर लौटते हैं-- दस साल में पौने तीन लाख नौकरियां. समीक्षा में और क्या-क्या है? ये बताते हैं.

> सात CPSE ऐसे हैं, जहां पिछले दस सालों में कुल रोज़गार में 20,000 से ज़्यादा की कमी आई है.
> BSNL में रोजगार क़रीब 1.8 लाख कम हो गया. मार्च 2013 में जहां 2 लाख 55 हज़ार से ज़्यादा कर्मचारी थे, वहीं मार्च 2022 में केवल 74 हज़ार कर्मचारी रह गए हैं.
> वहीं, स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (SAIL) में 61 हज़ार से ज़्यादा और MTNL में 30 हज़ार से ज़्यादा नौकरियां घटी हैं.

दिलचस्प बात ये है कि जिन कंपनियों में नौकरी का नुक़सान हुआ, उनमें कंपनियां फ़ायदे में भी रही हैं और नुक़सान में भी. BSNL और MTNL, 2021-22 में घाटे में चल रही टॉप-10 दस कंपनियों में थीं. जबकि, SAIL और ONGC 2021-22 में सबसे ज़्यादा नफ़ा कमाने वाले CPSE में हैं.  आप देखिए, कटौती चारों में हुई है. मगर कंपनी के तौर पर SAIL और ONGC नफ़े में है. और BSNL और MTNL नुक़सान में. आंकड़ों की इस समीक्षा में एक बात और सामने निकल कर आती है कि अनुबंध वाले रोज़गार या कॉन्ट्रैक्ट वाली नौकरियां बढ़ी हैं.

> मार्च 2013 में कुल 1.7 लाख कर्मचारियों में से 17% कॉन्ट्रैक्ट पर थे. वहीं, दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों की संख्या 2.5% थी.
> 2022 में कॉन्ट्रैक्चुअल कर्मचारियों की हिस्सेदारी बढ़कर 36% हो गई है. और वहीं, दैनिक कामगारों की 6.6%.
> कुल मिलाकर, आज हालत ये है कि मार्च 2022 तक CPSE में कुल कार्यरत लोगों में से 42.5% लोग ठेके पर हैं. कॉन्ट्रैक्चुअल वर्कर्स की श्रेणी में आते हैं.

कहा जा सकता है कि सरकारी कंपनियां स्थायी कर्मचारियों की जगह कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मचारियों को रख रही है. ऐसा नहीं है कि सारी ख़बर डराने वाली ही है. Times of India के अतुल ठाकुर की रिपोर्ट के मुताबिक़, कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं, जिन्होंने नौकरियां पैदा की हैं. इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ऐसी ही एक कंपनी है. जिसने पिछले दस बरस में लगभग 80 हज़ार नौकरियां पैदा की हैं. दस CPSE ने 10 हज़ार से ज़्यादा नौकरियां पैदा कीं और 13 ने 10,000 से अधिक रोजगार कम किए. ये तो हुई ख़बर. अब आ जाते हैं राजनीति पर. कांग्रेस नेता और पूर्व सांसद राहुल गांधी ने नौकरियों के घटने को सरकार की साज़िश से जोड़ दिया. ट्वीट किया,

"क्या किसी प्रगतिशील देश में रोज़गार घटते हैं? हर साल 2 करोड़ रोज़गार का झूठा वादा करने वालों ने नौकरियां बढ़ाने की जगह, 2 लाख से ज़्यादा खत्म कर दीं! इसके ऊपर इन संस्थानों में कॉन्ट्रैक्ट भर्तियां लगभग दोगुनी कर दीं. क्या कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी बढ़ाना आरक्षण का संवैधानिक अधिकार छीनने का तरीका नहीं है? क्या ये आखिर में इन कंपनियों के निजीकरण की साज़िश है? उद्योगपतियों का ऋण माफ, और PSU’s से सरकारी नौकरियां साफ! ये कैसा अमृतकाल?"

इसके जवाब में भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने राहुल के ट्वीट को री-ट्वीट करते हुए लिखा कि राहुल गांधी अपनी झूठ बोलने और जनता को गुमराह करने की आदत से मजबूर है. "पर्दाफ़ाश" करने के लिए कुछ तथ्य दिए. लिखा,

"2013 में पब्लिक सेक्टर के उद्यमों में कुल 20.3 लाख लोगों को रोज़गार मिला था. BSNL-MTNL के पुनर्गठन और Air India के निजीकरण के बावजूद, 2022 तक ये संख्या 19.8 लाख हो गई. इसके अलावा, Mission Recruitment के तहत, CPSEs ने पिछले साल जून से 20 हज़ार से ज़्यादा नए रोज़गार पैदा किए हैं, जो इस साल के आंकड़ो में दिखाई देंगे."

भाजपा IT सेल के प्रमुख ने भी लंबा ट्वीट लिखा,

"कंपनियों ने वित्त वर्ष 2013-14 में 1.29 लाख करोड़ रुपये के मुक़ाबले वित्त वर्ष 2021-22 में 2.49 लाख करोड़ रुपये का फ़ायदा कमाया है. यानी 93% की बढ़ोतरी. सभी CPSEs का कुल मूल्य 31 मार्च, 2014 को ₹9.5 लाख करोड़ था, जो अब बढ़कर ₹15.58 लाख करोड़ हो गया है. 65% की वृद्धि. कांग्रेस को PSU की स्थिति पर घड़ियाली आंसू बहाना बंद कर देना चाहिए."

ग़ौर करिए, राहुल गांधी कह रहे हैं 2022 में 14.6 लाख नौकरियां हैं और भाजपा की तरफ़ से कहा जा रहा है, 19.8 लाख. इन दोनों में सच क्या है? इसके लिए हम सरकार की रिपोर्ट की ओर ही गए. रिपोर्ट के टेबल-5.1 में CPSE में रोज़गार के आंकड़े दिए हुए हैं. इसके मुताबिक़,

रेगुलर कर्मचारी हैं - 8 लाख 41 हज़ार 94
डेली रेट वर्कर्स हैं - 96 हज़ार 690
और अनुबंध माने कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मचारी हैं - 5 लाख 24 हज़ार 423
कुल संख्या - 14.6 लाख.

सरकारी रिपोर्ट में तो हमें यही आंकड़ा मिला. 19.8 लाख का कोई आंकड़ा नहीं मिला. हालांकि, सरकार के नेता अपने डिफ़ेंस में यही दावा कर रहे हैं. कहां से कर रहे हैं? नहीं मालूम. राहुल गांधी जिसे निजिकरण कह रहे हैं, उसे सरकार विनिवेश, माने Disinvestment कहती है. माने ऐसी प्रक्रिया जिसमें सरकार किसी सरकारी उद्यम में अपनी हिस्सेदारी को घटाती है या हिस्सेदारी को पूरी तरह से खत्म कर पैसा जुटाती है.

भारत में 1991 में आर्थिक उदारीकरण का फैसला लिया गया. निजी क्षेत्र के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोल दिया गया. इसी दौरान विनिवेश की प्रक्रिया भी शुरू हुई. प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों के विनिवेश की शुरुआत की. लेकिन ये शुरुआती स्तर पर था. बेहद छोटे स्तर पर.  

इसे नेक्स्ट लेवल पर ले जाने का फैसला किया प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने. यह वाजपेयी ही थे जिन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बड़े पैमाने पर निजीकरण का साहसिक फैसला लिया. 1999 में वाजपेयी ने अपनी सरकार में इसके लिए एक नया मंत्रालय भी बनाया. विनिवेश मंत्रालय. अरुण शौरी को इसका मंत्री बनाया गया. वाजपेयी सरकार ने भारत एल्यूमिनियम कंपनी (बाल्को), हिंदुस्तान ज़िंक, इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड और विदेश संचार निगम लिमिटेड VSNL जैसी सरकारी कंपनियों को बेचने की प्रक्रिया शुरू की.

इसके अलावा वाजपेयी ने बीमा सेक्टर में विदेशी निवेश का रास्ता भी खोला. इससे पहले तक बीमा क्षेत्र सरकारी कंपनियों के हवाले ही था. वाजपेयी सरकार ने बीमा कंपनियों में विदेशी निवेश की सीमा 26 फ़ीसदी तक तय किया था. बाद में नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे 49 फीसद तक बढ़ा दिया.

25 सितंबर 2021 को इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख में रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट अजय शंकर और IIM कलकत्ता के रिटायर्ड प्रोफेसर सुशील खन्ना लिखते हैं,  

"1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में बड़े सुधारों की शुरुआत की. बड़ा मुनाफा बना रहीं सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को निवेश, अधिग्रहण और प्रबंधन के फैसलों में स्वायत्तता दी गई. इन सार्वजनिक उपक्रमों को ग्लोबल बनने और विदेशों में संपत्ति बनाने और अधिग्रहण के लिए प्रोत्साहित किया गया."

वाजपेयी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के वर्चस्व वाले क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया और कई सार्वजनिक कंपनियों के निजीकरण का फैसला किया. इससे प्राइस रिफॉर्म्स यानी मूल्य सुधारों की एक सीरीज शुरू हुई. उन सेक्टर्स में जहां सरकारी कंपनियों का वर्चस्व था. जैसे- बिजली, पेट्रोलियम, उर्वरक और रसायन आदि. सरकारी कंपनियों के प्रॉडक्ट सस्ते होते थे. प्राइवेट सेक्टर की एंट्री की सुविधा के लिए इन प्रोडक्ट्स का बाजार मूल्य या वैश्विक मूल्य वसूलने के लिए प्रोत्साहित किया गया. दूसरा प्रश्न था गुणवत्ता का.

सरकारी कंपनियों में क्वालिटी कंट्रोल एक बड़ी समस्या रही. इसका एक उदाहरण हम आयुध निर्माणी या ऑर्डनेंस बोर्ड के हवाले से दे सकते हैं. इंसास एक बेहतरीन डिज़ाइन वाली राइफल थी. लेकिन प्रॉडक्शन के दौरान क्वालिटी में सातत्य नहीं था. कई बार सेना ने शिकायत की, कि एक राइफल दूसरी राइफल से बिलकुल अलग होती थी. अंततः हमने इंसास को पुलिस और पैरामिलिट्री के हवाले कर दिया. और अब सेना के लिए नई राइफलें ली जा रही है.

NDA सरकार के मूल्य सुधारों का एक अनपेक्षित परिणाम यह था कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की ताकत और दक्षता स्पष्ट हो गई. 2018 तक केंद्रीय सरकारी कंपनियों का मुनाफा 1 लाख 75 हजार करोड़ रुपए हो गया जो 2003-04 में 43 हजार करोड़ रुपए था. हालांकि वाजपेयी के निजीकरण के प्रयासों का काफी विरोध भी हुआ था. RSS और उसके अनुषांगिक संगठनों का विरोध भी वाजपेयी को झेलना पड़ा. कहा गया कि प्राइवेटाइजेशन से कंपनियां मुनाफे को ही अपना उद्देश्य बना लेंगी. सरकारी कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन से नौकरियों में आरक्षण भी खत्म हो जाएगा. सरकारी कर्मचारियों को रिटायरमेंट के बाद पेंशन की स्कीम बंद करने का फैसला पहले ही वाजपेयी सरकार कर चुकी थी. 2004 के चुनाव में बीजेपी हार गई. इस हार को निजीकरण के खिलाफ जनादेश के रूप में भी देखा गया. यही वजह थी कि अगली UPA सरकार ने निजीकरण के किसी भी नए प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया.  

2014 में NDA की वापसी हुई. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने. और अपने गुरू अटल बिहारी वाजपेयी के पदचिन्हों पर आगे बढ़ते हुए उन्होंने फिर से कंपनियों के प्राइवेटाइजेशन की प्रक्रिया शुरू की. 2021 में एयर इंडिया को 18 हजार करोड़ रुपए में टाटा ने खरीद लिया. इसके अलावा सरकार LIC, NTPC, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, NHPC,HAL जैसी कंपनियों में सरकार अपनी हिस्सेदारी बेच चुकी है.

लेकिन प्राइवेटाइजेश के खतरे भी हैं. अजय शंकर और सुशील खन्ना ये भी लिखते हैं कि जरूरत के समय सरकारी कंपनियों का सपोर्ट न करने से नुकसान भी हुआ है. HMT के पतन के साथ भारत अपने मशीन टूल्स का 80 फीसद आयात करने को मजबूर है. BHEL के प्रति बेरुखी ने भारत के इलेक्ट्रिसिटी मार्केट को चाइनीज प्रोडक्ट्स से भर दिया है. प्राइवेटाइजेशन, भारत की संप्रभुता और आर्थिक स्वतंत्रता से समझौता करता है. अगर भारत को चीन का सामना करने में पश्चिमी देशों के पीछे नहीं जाना है तो अपने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को भी मजबूत करना होगा.

अब ये तय है कि सरकार नए उद्यमों में पांव नहीं डालेगी. वो पॉलिसी बनाएगी और बाज़ार की शक्तियां अपने हिसाब से इन नियमों के तहत कंपटीशन में हिस्सा लेंगी. थ्योरी ये है कि इससे बढ़िया गुणवत्ता का प्रॉडक्ट मिलेगी और दाम भी कम होंगे. लेकिन निजी क्षेत्र एक मोर्चे पर वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाया है, जिससे सार्वजनिक क्षेत्र की साख बनी. सार्वजनिक क्षेत्र में जनरल मैनेजर की तनख्वाह तो बढ़िया थी ही, चपरासी और गार्ड को भी वो वेतन मिलता था, कि वो अपने बच्चों को केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाता था. इलाज के लिए उसके पास सरकारी सेवा के तहत मिलने वाला इंश्योरेंस था. निजी क्षेत्र ने भी नौकरियां दी हैं. लेकिन वहां बेहतर तनख्वाह वाले पदों की संख्या बेहद सीमित है. छोटे समझे जाने वाले कामों के लिए नाम मात्र की तनख्वाह मिलती है. और जॉब सिक्योरिटी नहीं है. इसीलिए इन परिवारों से अच्छा ह्यूमन रिसोर्स निकलने की संभावनाएं कम हो जाती हैं. हम आज एफिशियंसी और प्रॉफिट के नाम पर जो कॉस्ट कटिंग कर रहे हैं, वो हमारे भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है. क्योंकि हम कैपिटल के नाम पर सोशल कैपिटल को तज रहे हैं. इन चीज़ों पर ध्यान दिए बगैर निजीकरण के लक्ष्य जो सरकार ने तय किए, उन तक हम बस आंकड़ों में ही पहुंच पाएंगे. और तब यही बहस चलती रहेगी कि नौकरियां 14 लाख दी गईं कि 19 लाख.

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