जब मुलायम सिंह ने बिल्कुल उसी अंदाज में लिया था अजित सिंह से अपने अपमान का बदला!
कहानी मुलायम और अजित की दोस्ती और दुश्मनी की.
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साल 1987. मार्च का महीना. चौधरी चरण सिंह की तबीयत नासाज़ थी. वह बिस्तर पर थे. हालांकि इस समय तक चौधरी साहब, हेमवती नंदन बहुगुणा को लोकदल का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर चुके थे. वही लोकदल जिसे चौधरी चरण सिंह ने 1979 में बनाया था. लेकिन पिता की बनाई पार्टी पर बेटे अजित सिंह कंट्रोल चाहते थे. इसमें दिक्कत ये थी कि पार्टी के ज्यादातर बड़े नेता जैसे कर्पूरी ठाकुर, नाथूराम मिर्धा, चौधरी देवीलाल और उस समय यूपी में पार्टी की तरफ़ से नेता विपक्ष मुलायम सिंह यादव, बहुगुणा के साथ थे.
29 मई 1987 को पार्टी अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह का निधन हो गया. कहते हैं कि अजित सिंह के इशारे पर लोकदल के ज्यादातर विधायकों ने बैठक बुलाई और इस बैठक में मुलायम सिंह को पार्टी के विधायक दल के नेता के पद से हटा दिया गया. मुलायम जब पार्टी के विधायक दल के नेता नहीं रहे, तो विधानसभा में नेता विपक्ष का पद भी चला गया. मुलायम की जगह नेता विपक्ष बने अजित सिंह के करीबी सत्यपाल सिंह यादव.
इसके बाद पार्टी दो हिस्सों में टूट गई. नए दल बने- लोकदल (अ यानी अजीत) और लोकदल (ब यानी बहुगुणा). देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, शरद यादव, नाथूराम मिर्धा और मुलायम सिंह, बहुगुणा के साथ चले गए. वहीं UP के अधिकतर विधायक अजित सिंह के ही साथ रहे. पार्टी की टूट अलग बात थी. दल बनते-बिगड़ते रहते हैं, लेकिन मुलायम सिंह के लिए बेहद अपमानजनक था नेता विपक्ष के पद से हटाया जाना. इस अपमान का मुलायम ने बदला भी लिया. तरीका भी वही जो अजित सिंह ने उनके खिलाफ़ अख्तियार किया था.
इस बदले की कहानी भी बताएंगे, लेकिन फिलहाल इसे यहीं विराम देते हैं और आते हैं 2021 में. उन्हीं अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी और मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव 2022 का चुनाव साथ लड़ने का ऐलान कर चुके हैं.
यूं तो सपा के साथ लोकदल की जुगलबंदी का इतिहास पुराना है. लेकिन तमाम मौके ऐसे भी आए, जब सपा और लोकदल के सुप्रीम लीडर्स की आपस में नहीं बनी. तकरार, नाराज़गी, मुख़ालफ़त सब चला. आज बात उन्हीं किस्सों की करेंगे. लेकिन शुरू करते हैं शुरुआत से. चौधरी चरण सिंह की पार्टी से मुलायम की शुरुआत! अगर कहा जाए कि धरती पुत्र मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक शुरुआत ही लोकदल से हुई तो गलत नहीं होगा. साल था 1967. उत्तर प्रदेश में चौथी विधानसभा के चुनाव हुए. मुलायम सिंह राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP) से विधायक बने. कांग्रेस के चंद्रभानु गुप्ता मुख्यमंत्री बने, लेकिन सिर्फ़ 19 दिन के लिए. इसके बाद चरण सिंह मुख्यमंत्री बने, लेकिन वो भी कुछ ही दिनों के लिए और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. ये पहली बार था जब उत्तरप्रदेश में कोई विधानसभा अपना कार्यकाल नहीं पूरा कर पाई थी.
इसी बीच 12 अक्टूबर 1967 को लोहिया का देहांत हो गया. 1969 में दोबारा चुनाव हुए, कांग्रेस के चंद्रभानु गुप्ता फिर मुख्यमंत्री बनाए गए. लेकिन इस बार भी सिर्फ़ चंद महीनों के लिए. चौधरी चरण सिंह फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन इस बार राजनीतिक अस्थिरता का स्तर चौथी विधानसभा से भी कहीं ज्यादा था. पांच साल में रिकॉर्ड पांच मुख्यमंत्री बने और दो बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया. इधर मुलायम ने चौधरी चरण सिंह की बनाई नई नवेली पार्टी भारतीय कृषक दल (BKD) जॉइन कर ली थी. और 1974 में BKD के ही टिकट पर चुनाव लड़े और दोबारा विधायक बने.
इसी साल सोशलिस्ट पार्टी और कृषक दल का विलय हो गया और नई पार्टी का नाम रखा गया- भारतीय लोक दल (BLD). साल 1977 आया और BLD जनता पार्टी के साथ हो ली. इसी साल मुलायम सिंह सहकारिता और पशुपालन मंत्री बने. लोग कहते थे जो मुलायम जो काम बचपन से करते आ रहे थे वही मंत्रालय थमा दिया गया. चौधरी चरण सिंह और जनता पार्टी का साथ भी सिर्फ दो साल चला. 1979 में चरण सिंह ने नई पार्टी बना ली. अब पार्टी का नाम भारतीय लोकदल की बजाय हो गया लोकदल.
मुलायम के अलावा कई और समाजवादी नेता भी चरण सिंह के साथ बने रहे. लेकिन मुलायम सिंह, चरण सिंह के सबसे भरोसेमंद लोगों में थे. 1980 में मुलायम सिंह विधानसभा चुनाव तो हार गए, लेकिन चरण सिंह ने मुलायम को विधान परिषद सदस्य बनवाया और यूपी में लोकदल का प्रदेश अध्यक्ष भी नियुक्त किया.
चौधरी चरण सिंह और मुलायम सिंह (फाइल फोटो)
# अजित सिंह की एंट्री- चौधरी चरण सिंह के इकलौते बेटे अजित सिंह IIT खड़गपुर से B.Tech. करने के बाद अमेरिका चले गए थे. आगे की पढ़ाई अमेरिका के इलिनोइस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से की और वहीं IBM में नौकरी करने लगे. चौधरी चरण सिंह ने उन्हें वापस भारत बुलाया और सियासत में एंट्री करवा दी. साल 1986 में अजित सिंह राज्यसभा सांसद बने. और इस तरह देश का पहला आईआईटियन राजनीति में औपचारिक शुरुआत कर चुका था.
पिता की मौत के बाद अजित सिंह पार्टी पर अपनी पकड़ चाहते थे. और इसकी कवायद में उन्होंने मुलायम सिंह के साथ जो किया वो हम आपको पहले ही बता चुके हैं. लेकिन अब बारी थी मुलायम सिंह यादव की. # दिल्ली से लेकर लखनऊ तक अजित की घेराबंदी- 11 अक्टूबर, 1988. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन की तारीख़. इस दिन एक नई पार्टी बनी. नाम रखा गया- 'जनता दल'. जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल अजित, लोकदल बहुगुणा और सोशलिस्ट कांग्रेस सब इसके घटक के तौर पर शामिल हुए. कुछ ही महीने बाद 1989 में यूपी विधानसभा चुनाव होने थे. तब यूपी में कुल विधानसभा सीटें होती थीं 425. सारे कांग्रेस विरोधी एकजुट थे. जनता दल यूपी में 356 सीटों पर लड़ी. जीती 208 पर. कांग्रेस का हाल ये कि लड़ी 410 सीटों पर पर और जीत मिली सिर्फ 94 पर.
जनता दल बेशक सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन बहुमत से 5 सीटें कम थीं. इतने का इंतज़ाम आसानी से हो जाता और हुआ भी. लेकिन लखनऊ से इतर दिल्ली में अलग खेल चल रहा था.
छतरी एक ही थी, सभी घटक दल उसके नीचे रहना भी चाहते थे, लेकिन छतरी थामने की होड़ लगी थी. इस दौरान देवीलाल का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहा था. खुद वी.पी. सिंह भी कई बार कह चुके थे, जो सब चाहेंगे वही होगा. लेकिन देवीलाल ने उल्टा प्रस्ताव वी.पी. सिंह का दे दिया. अजित भी वी.पी. सिंह के ही खेमे में रहे. मुलायम यूं तो अपने राजनीतिक गुरु चंद्रशेखर के साथ थे. लेकिन ऐन मौके पर देवीलाल एंड पार्टी की तरफ़ चले गए और वी.पी. सिंह के नाम पर मोहर लग गई. चंद्रशेखर हत्थे से उखड़े, कहा -'सबसे जोर का हमला अपने ही करते हैं.' लेकिन अब जो होना था हो गया था.
विश्वनाथ प्रताप सिंह और अजीत सिंह (फोटो सोर्स - इंडिया टुडे)
# अजित मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए- सेंटर में वी.पी.सिंह की सरकार बन गई थी. वी.पी.सिंह, अजित सिंह को सीएम बनाना चाहते थे और मुलायम को उनका डिप्टी. लेकिन मुलायम को ये मंज़ूर नहीं था. खुला विरोध कर दिया. वजह वही अजित से 2 साल पुरानी अदावत. इतनी जल्दी अपमान भूलता भी कौन है. इधर चन्द्रशेखर की नजर में भी अजित सिंह को सबक सिखाना ज्यादा ज़रूरी था. उन्होंने भी मुलायम की हां में हां मिला दी. चन्द्रशेखर के समर्थन से मुलायम को बल मिल गया और मुलायम अड़ गए कि अब मुख्यमंत्री तो हम ही बनेंगे.
कहा ये भी जाता है कि वीपी सिंह की चिंता संभावित चुनौती को लेकर भी थी. उन्हें लगता था कि देवीलाल, मुलायम और अजित सिंह अगर एक साथ आ गए तो कांग्रेस छोड़ने के बाद जो धाक उन्होंने बतौर तीसरी धारा अपनी बनाई थी, वो खतरे में पड़ जाती और इसीलिए वीपी सिंह की कूटनीति के तहत अजित सिंह को चढ़ाया गया. अजित से कहा गया कि चौधरी साहब भी पहले यूपी के मुख्यमंत्री बने थे उसके बाद प्रधानमंत्री. तुम्हें भी मुख्यमंत्री पद के लिए आगे आना चाहिए. इस कुटिलता से अनजान अजित सिंह लखनऊ आ गए. दूसरी तरफ़ इन्हीं लोगों ने मुलायम सिंह की भी पीठ पर हाथ रख दिया.
दिल्ली से बतौर पर्यवेक्षक तीन लोग लखनऊ भेजे गए- मधु दंडवते, चिमन भाई पटेल और मुफ्ती मोहम्मद सईद. मुलायम को समझाने की कोशिश भी की गई, लेकिन बात बनी नहीं. अब एक ही चारा था- शक्ति प्रदर्शन. तय हुआ कि विधायक वोट करेंगे और जिसका नंबर ज्यादा मुख्यमंत्री की कुर्सी उसकी.
लेकिन मुलायम के आगे पिता चौधरी चरण सिंह से मिला गठजोड़ का हुनर अजित के काम नहीं आया. बाहुबली डीपी सिंह और बेनीप्रसाद वर्मा ने मुलायम के पक्ष में विधायकों का नंबर बढ़ा दिया. अजित सिंह खेमे के 11 विधायक भी मुलायम को वोट कर गए. नतीजा ये कि मुलायम को मिले मिले 115 वोट और अजित सिंह को मिले 110 वोट. पांच विधायकों के अंतर ने अजित सिंह का मुख्यमंत्री बनने का सपना तोड़ दिया. मुलायम सीएम बन गए. हालांकि बतौर कंपेन्सेशन वी.पी. सिंह अजित सिंह को केंद्र में ले आए और मंत्री बना दिया. # अजित-मुलायम की दोस्ती- भले ही मुलायम मुख्यमंत्री बन गए लेकिन इस पद पर ज्यादा दिन काबिज नहीं रह पाए. और केंद्र में वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद मुलायम सिंह चंद्रशेखर की बनाई नई पार्टी सजपा यानी समाजवादी जनता पार्टी में शामिल हो गए. लेकिन ये साथ भी ज्यादा नहीं चला. मुलायम कहा करते थे भीड़ जुटाएं हम और हुक्म मानें इन सबका.
मुलायम ने आज़म खान, जनेश्वर मिश्र और बेनीप्रसाद वर्मा के साथ मिलकर अपनी अलग पार्टी बना ली. नाम था- 'समाजवादी पार्टी' (SP). अकेले शुरू हुआ मुलायम का राजनीतिक सफ़र बहुत जल्द एक मज़बूत राजनीतिक पार्टी बनने तक पहुंच गया था, जिसके साथ वामपंथी थे, मुसलमान थे और वो लोग थे जो मंदिर आंदोलन के बाद मुलायम और उनकी पार्टी में भाजपा का विकल्प देख रहे थे.
अजित सिंह भी पहले कांग्रेस में गए, फिर अलग हुए और 1996 में अपनी अलग पार्टी बनाई. नाम रखा-राष्ट्रीय लोकदल. दोनों के रास्ते अलग हो चुके थे, हितों के टकराव और रार-तकरार के मौके भी जाते रहे. ऐसे में दुश्मनी अब दोस्ती में बदलने की राह पर थी.
अजीत सिंह और मुलायम सिंह यादव (फोटो सोर्स - आज तक)
# अजित ने बनाया मुलायम को मुख्यमंत्री- साल 2002 में यूपी में 14वीं विधानसभा के चुनाव हुए. किसी को बहुमत नहीं मिला. सपा सबसे बड़ी पार्टी बनी. कुल 143 सीटें सपा ने जीतीं, बसपा 98 पर रही, बीजेपी को 88 सीटें मिलीं, कांग्रेस को 25 और अजित सिंह की रालोद को 14 सीटें मिलीं. सबसे बड़ी पार्टी मुलायम सिंह की सपा थी, लेकिन भाजपा और रालोद ने बसपा को समर्थन दे दिया और मिली-जुली सरकार बना ली. मायावती मुख्यमंत्री बनाई गईं और लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, कलराज मिश्र जैसे नेता सरकार में कैबिनेट मिनिस्टर बने.
लेकिन कई बातों पर मायावती का रवैया भाजपा को पसंद नहीं आ रहा था. मसलन कुंडा वाले रघुराज प्रताप सिंह पर मायावती ने पोटा लगा दिया, उस वक़्त भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे विनय कटियार ने राजा भैया पर से पोटा हटाने को कहा, लेकिन मायावती नहीं मानीं. दूसरा तनाजा हुआ ताज कॉरिडोर बनाये जाने को लेकर. आरोप लगा कि मायावती ने बिना केंद्र सरकार की हरी झंडी मिले काम शुरू करवा दिया. तनातनी बढ़ी और 26 अगस्त, 2003 को मायावती ने इस्तीफ़ा दे दिया. मुलायम तो इसी ताक में थे और उसी दिन मुलायम ने सरकार बनाने का दावा कर दिया. भाजपा मुलायम का साथ देती, उससे पहले ही अजित सिंह ने अपने 14 विधायकों का समर्थन मुलायम को दे दिया. 13 विधायक बसपा से भी टूटकर मुलायम के साथ आ गए और बाद में भाजपा के समर्थन ने मुलायम के नाम पर पक्की सील लगा दी. मुलायम की सरकार बनी और इसी के साथ अजित और मुलायम की दोस्ती भी हो गई. इस सरकार में नंबर दो रहीं अजित सिंह की ख़ास अनुराधा चौधरी. कहा जाता है उस वक़्त RLD में भी वही होता था जो अनुराधा चाहती थीं. # अमर सिंह की एंट्री और दोबारा बात बिगड़ी- 2003 में फिर से शुरू हुई मुलायम और अजित की दोस्ती 2004 के लोकसभा चुनाव में भी कायम रही. गठबंधन हुआ. RLD दस सीटों पर लड़ी और 3 पर जीत हासिल की. बागपत से एक बार फिर अजित सिंह सांसद चुने गए. लेकिन ये वो दौर था जब सपा में अमर सिंह का दबदबा बढ़ रहा था. कहा जाता हैं अमर सिंह और अजित सिंह की आपस में बनती नहीं थी. और इसी का असर सपा-RLD के गठबंधन पर भी पड़ा.
अमर सिंह और मुलायम सिंह (फोटो सोर्स -आज तक)
2007 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए. बसपा के खाते में कुल सीटें आईं 206. सपा की सत्ता से विदाई हुई और मायावती मुख्यमंत्री बनीं. अजित की मुलायम से तनातनी बन हे गई थी सो चुनाव में भी दूरियां बनी रहीं. इस चुनाव में कुल 254 सीटों पर अजित ने अपने प्रत्याशी उतारे. लेकिन जीत मिली सिर्फ 10 सीटों पर.
2009 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह सपा के साथ गठबंधन की बजाय भाजपा का दामन थामते हैं. वजह कांग्रेस और सपा दोनों से बढ़ चुकी दूरी. हालांकि 2004 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार जीत का आंकड़ा थोड़ा बेहतर रहा. 10 की बजाय 7 सीटों पर चुनाव लड़े और 5 पर जीत हासिल की. पिछली बार से 2 सीट ज्यादा. RLD का समर्थन जुटाने का प्रयास कांग्रेस ने किया भी. लेकिन अजित सिंह ने कहा,
'कांग्रेस को अमर सिंह चला रहे हैं. ऐसी सरकार जिसको अमर सिंह चला रहे हों उसे हम समर्थन नहीं दे सकते.'साल 2012. यूपी विधानसभा चुनाव. अजित सिंह की पार्टी RLD ने इस बार सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 46 में से 9 विधानसभा सीटों पर कब्ज़ा किया. लेकिन सपा की अपनी जीती सीटें 224 थीं, जो अखिलेश यादव को स्पष्ट बहुमत वाली सरकार में मुख्यमंत्री बनाने के लिए काफी थीं.
2014 आम चुनाव में अजित सिंह ने UPA के साथ गठबंधन किया. RLD कुल 8 सीटों पर लड़ी और सारी सीटें हार गई. अमर सिंह की इधर सपा से भी खटपट हो गई थी. ऐसे में RLD ने अमर सिंह को फतेहपुर सीकरी से टिकट दिया. लेकिन अमर सिंह बुरी तरह हारे. बाप-बेटे यानी अजित सिंह और जयंत भी अपनी सीट नहीं बचा पाए. सत्यपाल सिंह , अजित सिंह के सजातीय हैं, मुंबई में पुलिस कमिश्नर थे, आनन-फानन में बागपत लाए गए. चुनाव लड़ा और अजित सिंह को 2 लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया. जाटलैंड में अजित सिंह के लिए ये हार पिता की विरासत का अर्श चिटकने जैसी थी, इधर जयंत भी मथुरा में भाजपा की टिकट पर लड़ीं हेमा मालिनी से हार गए.
2017 विधानसभा चुनाव. अजित सपा-कांग्रेस गठबंधन में फिट नहीं हो पाए और RLD ने अकेले चुनाव लड़ा. कुल 277 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन सिर्फ़ एक सीट निकली. सपा-कांग्रेस का गठबंधन भी कोई चमत्कार नहीं दिखा पाया. प्रदेश में भाजपा की प्रचंड बहुमत वाली सरकार बनी और तमाम रस्साकशी के बाद योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने.
2019 के आम चुनाव में अजित सिंह फिर सपा के करीब आए. वजह मौके की नजाकत. 'मोदी-मोदी' इस बार भी जनता पर हावी था. सपा-बसपा के महागठबंधन में रालोद भी शामिल हुई. लेकिन 'बुआ-बबुआ' और छोटे चौधरी कोई चमत्कार नहीं कर सके. महागठबंधन में शामिल बसपा ने 10 और सपा ने 5 सीटें जीतीं. लेकिन RLD के हिस्से एक भी सीट नहीं आई.
और अब एक बार फिर मौके की नज़ाकत है, अखिलेश और जयंत एक साथ हैं, मकसद है भाजपा से राजगद्दी छीनना. जयंत पूरा खम लगा रहे हैं कि अखिलेश मुख्यमंत्री बनें, खबरें ये भी हैं कि रालोद की तरफ़ से जयंत के लिए उप-मुख्यमंत्री के पद की डिमांड है.