असम की राजनीति का ‘विस्मय बालक’, जिसके साथ हुई ग़लती को ख़ुद अमित शाह ने सुधारा था
हिमंत बिस्व सरमा, जिनसे बात करते हुए राहुल गांधी 'पिडी' को बिस्किट खिला रहे थे.
Advertisement
“ये मेरा कॉलेज के दिनों से परिचित है. छोटे भाई जैसा है. जब इसका तबादला नहीं रुक रहा तो बाकियों का कैसे रोक दूं?”किसी की, किसी से कही इस बात को यहीं रोक दीजिए. और चलिए मेरे साथ साल 2007 में. नक्शे पर पेंसिल रोकिए असम राज्य पर. 2007 के इस असम में कांग्रेस की सरकार है. तरुण गोगोई मुख्यमंत्री हैं. और स्वास्थ्य मंत्रालय का एक फ़रमान आया है. फ़रमान, कि जिसमें पढ़ाई करके निकल रहे सभी डॉक्टरों के लिए 1 से 2 साल किसी रिमोट एरिया में जाकर ड्यूटी करना अनिवार्य कर दिया गया है.
अगला दृश्य एक बंद कमरे का है. तमाम सरकारी अधिकारियों की, मातहतों की एक बैठकी है. अनौपचारिक. तभी तो बैठकी कह रहा हूं, वरना ‘मीटिंग’ कहता. अंग्रेज़ीदां शब्द औपचारिक जान पड़ते हैं. ख़ैर, बैठकी में कुछ डॉक्टरों का तबादला रुकवाने के तमाम आग्रहों के बीच असम के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री एक शख़्स की ओर इशारा करते हैं. ये शख़्स स्वास्थ्य मंत्री के कॉलेज के दिनों का एक साथी है, जो बाद में डॉक्टर बना और अब उसको भी 2 साल धुबरी जिले के एक गांव में अनिवार्य ड्यूटी करनी है. इशारा करते हुए स्वास्थ्य मंत्री वही बात कहते हैं, जिस पर हम आपको रोककर यहां आए हैं.
“ये मेरा कॉलेज के दिनों से परिचित है. छोटे भाई जैसा है. जब इसका तबादला नहीं रुक रहा तो बाकियों का कैसे रोक दूं?”असम के ये स्वास्थ्य मंत्री थे हिमंत बिस्व सरमा. हिमंत ने 10 मई 2021 को असम के 15वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. ये काफी हद तक प्रत्याशित भी था. लेकिन आप इसे अंडरप्ले नहीं कर सकते. क्योंकि हिमंत का शपथ लेना नेशनल पॉलिटिक्स में नॉर्थ-ईस्ट की भूमिका के लिहाज से अहम होने वाला है. कहने वाले कहते हैं कि हिमंत की पॉलिटिक्स का यही अंदाज़ है. Give it on your face
वाला एटीट्यूड. इससे लोगों में भरोसा भी जगता है कि ‘ये डिलीवर करेगा’. कहने वाले कहते हैं कि हिमंत राजनीति की उसी पाठशाला से हैं, जो सिखाती है कि डाल का चूका बंदर और बात का चूका आदमी कभी मुकाम तक नहीं पहुंचता. कहने वाले कहते हैं कि हिमंत बिस्व सरमा की राजनीति का तो ये पहला पड़ाव भर है. पिक्चर अभी बाकी है. कहने वाले कहते हैं कि अगर भाजपा बंगाल में न हारती तो मुमकिन है कि असम की कुर्सी भी हिमंत की न होती.
असम के 15वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेते हिमंत बिस्व सरमा. तारीख़- 10 मई 2021. (फोटो- PTI)
सब कहन-कथन हैं, बातें हैं. और बातें करते हैं. हिमंत बिस्व सरमा के बारे में. असम का ‘विस्मय बालक’ इंडिया टुडे मैग्ज़ीन के डिप्टी एडिटर कौशिक डेका बताते हैं कि हिमंत 9-10 बरस के रहे होंगे, जब उनका परिचय प्रफुल्ल कुमार महंत और भृगु फुकन से हुआ. बात 1979-80 के करीब की है. तब ये दोनों नेता असम की राजनीति में अपनी पहचान काबिज ही कर रहे थे. इनके साथ गली-मोहल्लों की चौपाल से लेकर मंच की व्यवस्था तक, 10 साल का लड़का साथ में दिखता तो लोग अचरज खाते. फॉर ऑब्वियस रीज़न. डेका बताते हैं कि उन दिनों हिमंत को असम में राजनीति का ‘विस्मय बालक’ कहा जाता था. वंडर बॉय. जो महज 10 की उमर में दो दिग्गज नेताओं के काफिले में शामिल हो चुका था.
ये तस्वीर कुछ दिन पहले हिमंत बिस्व सरमा ने ही ट्वीट की थी. 1979-80 की तस्वीर है. भृगु फुकन (चश्मे में), प्रफुल्ल महंत (पेन पकड़े हुए) के साथ हिमंत (कुछ पढ़ते हुए). (फोटो- हिमंत बिस्व सरमा ट्विटर)
कॉटेनियन 1901 में ब्रिटिश प्रांत असम के मुख्य आयुक्त हुए थे- सर हेनरी स्टैडमैन कॉटन. उन्होंने गुवाहाटी में एक कॉलेज खुलवाया. उन्हीं के नाम पर नाम मिला – कॉटन कॉलेज. फिलहाल इसे स्टेट यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त है. कॉटन कॉलेज का आदर्श वाक्य है - अप्रमत्तेन वेद्धव्यं.
ये कठोपनिषद की सूक्ति है. अर्थ है –
“एकाग्रचित्त होकर अपने टारगेट को हिट करो!”अब इसे प्राकृतिक इत्तेफ़ाक कहें या किसी के सफल होने के बाद उसके साथ जोड़ा जाने वाला मानव निर्मित इत्तेफ़ाक, लेकिन इस एक लाइन से आप हिमंत का पॉलिटिकल करियर परिभाषित कर सकते हैं. क्योंकि उनका हर एक कदम असम के मुख्यमंत्री बनने के लक्ष्य से ही उठाया गया था. कॉलेज के दिनों से हिमंत का यही एकलौता लक्ष्य था. जब वे 22 साल के थे, तो उनकी एक दोस्त हुआ करती थीं. रिनिकी. हिमंत, रिनिकी को पसंद करते थे. लेकिन तब हिमंत के पास छात्र राजनीति के अलावा बता पाने के लिए कुछ था नहीं. रिनिकी ने पूछा कि अगर मेरी मां पूछेंगी कि लड़का करता क्या है तो मैं क्या जवाब दूंगी? हिमंत ने जवाब दिया -
"अपनी मां से कहना कि लड़का एक दिन असम का मुख्यमंत्री बनेगा."आगे चलकर हिमंत और रिनिकी की शादी हुई और कॉलेज टाइम का ये दिलचस्प किस्सा ख़ुद रिनिकी ने बताया. उस दिन, जिस दिन हिमंत असम के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे.
हिमंत के शपथ ग्रहण के दिन वो और उनकी पत्नी रिनिकी. दोनों कॉलेज के दिनों से साथ हैं. (फोटो- PTI)
ख़ैर, हम उनके छात्र जीवन की बात कर रहे थे. हिमंत ने 85 में कॉटन कॉलेज में दाख़िला लिया. राजनीति में तो वो पहले से ही सक्रिय थे. अब असम स्टूडेंट यूनियन यानी कि आसू का भी हिस्सा बन गए. इंडिया टुडे के कौशिक डेका बताते हैं कि कॉलेज के दिनों में हिमंत की छवि लोगों को साथ लेकर चलने वाले की बनी. वो अपने स्तर पर साथियों की निजी से निजी मदद भी किया करते थे और इन संबंधों को बरकरार भी रखते थे. यही वजह है कि आज भी उनके कॉलेज के तमाम परिचित किसी न किसी तरह उनके साथ जुड़े हैं. उनकी लॉयल्टी है हिमंत के साथ.
कॉटन कॉलेज ने हिमंत की राजनीति को आगे बढ़ाया. यूं भी इस कॉलेज का राजनीतिक इतिहास समृद्ध रहा है. आज की तारीख़ में असम के 15 में से 7 मुख्यमंत्री कॉटन कॉलेज ने ही दिए हैं. हिमंत इस फेहरिस्त की लेटेस्ट एंट्री हैं. हिमंत 92 में कॉटन कॉलेज से पासआउट हुए. 94 में कांग्रेस जॉइन कर ली.
रही बात पढ़ाई-लिखाई की तो हिमंत ने 1990 में ग्रेजुएशन और 1992 में पॉलिटिकल साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन किया. 1991-92 में कॉटन कॉलेज गुवाहाटी के जनरल सेक्रेटरी रहे. सरकारी लॉ कॉलेज से LLB किया. और गुवाहाटी कॉलेज से PhD की डिग्री भी ली. हिमंत और जालुकबाड़ी 1996 में हिमंत को कांग्रेस का टिकट मिल गया. जालुकबाड़ी सीट से. सामने थे असम गण परिषद के कद्दावर नेता भृगु फुकन. वही भृगु फुकन, जिनके साथ हिमंत 10 बरस की उम्र में घूमा करते थे. जिन्होंने हिमंत को स्टूडेंट पॉलिटिक्स के दिनों में सियासी बारीकियां सिखाईं. हिमंत ने पहला चुनाव उन्हीं के सामने लड़ा. जायंट किलिंग की ज़िम्मेदारी थी, लेकिन हिमंत असफल रहे. उन्हें फुकन के हाथों हार मिली. इस हार के बाद हिमंत की इत्तेफाकन मुलाकात हुई तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहा राव से. उन्होंने हिमंत को सलाह दी -
"कैंडिडेट हार भले जाए, लेकिन उसे अपनी सीट छोड़कर नहीं जाना चाहिए."ये सलाह हिमंत के लिए काम कर गई. उन्होंने जालुकबाड़ी नहीं छोड़ा. अगले 5 साल तक गली-गली, घर-घर गए. लोगों से मिले. अपने स्तर पर जो मदद हो सकती थी, की. यानी जनसंपर्क का उनका वही कॉटन कॉलेज मॉडल. लोग हिमंत से जुड़े. 2001 में एक बार फिर हिमंत जालुकबाड़ी से खड़े हुए. एक बार फिर सामने थे भृगु फुकन. फुकन इस बार NCP से मैदान में थे. हिमंत ने इस बार चार बांस, चौबीस गज साध दिया. जालुकबाड़ी सीट निकाल दी. भृगु फुकन को हरा दिया.
एक वो साल था. और एक ये 2021 है. हिमंत 5वीं बार लगातार जालुकबाड़ी सीट से जीते हैं. अब तो आलम ये है कि हिमंत के लिए कहा जाता है कि वे जालुकबाड़ी में बिना प्रचार के जीतते हैं. इस बार भी उन्होंने पूरे असम में प्रचार किया, लेकिन जालुकबाड़ी में नहीं. इलाके में धमक का अंदाजा लगाइए कि हिमंत इस बार एक लाख, एक हज़ार, चार सौ चवालीस वोट से जीते हैं. कांग्रेस में उत्थान और मोहभंग 2004 में पहली बार हिमंत को मंत्री पद मिला. 2006 में कांग्रेस राज्य की सत्ता में वापस आई तो हिमंत को स्वास्थ्य मंत्रालय जैसी अहम ज़िम्मेदारी दी गई. 2011 में शिक्षा मंत्री. लेकिन 2011 से समीकरण बिगड़ने लगे. तरुण गोगोई का राजनीतिक जीवन अब उत्तरार्ध पर था और 42 साल के ‘युवा’ राजनेता हिमंत अब तक ख़ुद को असम के अगले मुख्यमंत्री के तौर पर देखने लगे थे. इसकी वजह भी थी. 2011 तक हिमंत ने अपनी टीम खड़ी कर दी थी. उनके चुनावी मैनेजमेंट के चर्चे होने लगे थे. लेकिन इस बीच तरुण गोगोई ने अपने बेटे गौरव को राजनीति में लॉन्च कर दिया. गौरव इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर दिल्ली में नौकरी कर रहे थे. लेकिन पिता के निर्देश पर उन्होंने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की डिग्री ली और असम आ गए. 2012-13 से उन्हें असम में पार्टी के फ्रंट पर रखा जाने लगा. हिमंत ख़ुद को साइडलाइन महसूस करने लगे. 2014 के लोकसभा चुनाव में गौरव को कलियाबोर सीट से टिकट मिला. वो जीते और यहीं से हिमंत को कांग्रेस में अपना भविष्य दिखना बंद हो गया.
रजत सेठी ने असम चुनाव 2016 में भारतीय जनता पार्टी का पॉलिटिकल कैंपेन रचा था. उन्होंने ‘ दी लास्ट बेटल ऑफ सराईघाट ’ नाम से किताब भी लिखी है, जिसमें नॉर्थ-ईस्ट में भाजपा के उदय की कहानी है. रजत बताते हैं -
“हिमंत बातों को ऑन द स्पॉट कहने वाले नेताओं में से रहे हैं. कांग्रेस में 2011-12 से ही उन्होंने शीर्ष नेतृत्व से अपनी नाख़ुशी ज़ाहिर करनी शुरू कर दी थी. लेकिन बात आई-गई में रह गई. 2014 से ही हिमंत भाजपा के संपर्क में आ गए थे. 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी वे भाजपा के संपर्क में रहे. इसके बाद उन्होंने आख़िरी विकल्प के तौर पर दिल्ली जाकर राहुल गांधी से बात की लेकिन फिर जो हुआ, वो आपको पता ही है.”राहुल गांधी से हुई किस बात का ज़िक्र रजत कर रहे हैं?
2006 में स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद हिमंत की लोकप्रियता में काफी इजाफा हुआ. लोगों ने उनकी पॉलिसी और उन पॉलिसी को अमल में लाने के तरीकों को पसंद किया. (फाइल फोटो- PTI)
हिमंत, राहुल और पिडी के बिस्किट 2015 में हिमंत कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ गए. कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होंने बताया कि राहुल गांधी के साथ उस मुलाकात में क्या हुआ था.
“मैं, सीपी जोशी, तरुण गोगोई, हमारे प्रदेश के अध्यक्ष. बात करते हुए सीपी जोशी और गोगोई जी के बीच थोड़ा झगड़ा जैसा हो गया. तो वो कुत्ता (राहुल गांधी का पालतू) टेबल पर आया और जो कॉमन प्लेट में बिस्किट था, उससे बिस्किट उठाया. मैं उम्मीद कर रहा था कि राहुल इस झगड़े में कुछ बोलेंगे कि आप लोग झगड़ा मत करो. उन्होंने मुझे देखा और हंसे कि भाई कुत्ता उठाकर के ले गया. अब मैं चाहता था कि वो किसी को बेल मार कर के बुलाएंगे कि प्लेट चेंज करो. प्लेट भी चेंज नहीं हुई. मैं तो हैरान हो गया भाई. ऐसे कैसे देश चलेगा. मैं आते आते उन्हें बोल कर आया कि राहुल जी, धन्यवाद आपने मुझे इतना काम करने का मौका दिया.”यहां एक नया नाम आया सीपी जोशी का. परिचय कराते चलते हैं. सीपी जोशी उस वक्त राजस्थान कांग्रेस के बड़े नेता थे. राहुल गांधी के काफी करीबी थे और पार्टी महासचिव थे. फिलहाल सीपी जोशी राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष हैं.
हां तो हिमंत और राहुल की उस मुलाकात का कोई नतीजा नहीं रहा. इसके बाद 2017 में राहुल गांधी ने एक ट्वीट में अपने डॉगी पिडी का ज़िक्र किया. इस पर फिर आया हिमंत का बयान -
“मैंने पहले ही बताया था. हम लोग असम के गंभीर मुद्दे पर राहुल गांधी से मिलने गए थे. लेकिन वो अपने कुत्ते को खाना खिलाने में व्यस्त थे. आज इस ट्वीट से ये ज़ाहिर भी हो गया.”
हिमंत के साथ गुगली किसने की?The CaravanPpl been asking who tweets for this guy..I'm coming clean..it's me..Pidi..I'm way 😎 than him. Look what I can do with a tweet..oops..treat! pic.twitter.com/fkQwye94a5
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) October 29, 2017
की एक स्टोरी में हिमंत बिस्व सरमा के भाजपा में आने से जुड़े किस्से का ज़िक्र है. अक्सर कहा-सुना जाता है कि उनको भाजपा में लाने वाले शख़्स थे राम माधव. लेकिन पत्रकार कौशिक डेका बताते हैं कि असल में वो शख़्स थे अगस्त 2014 से नवंबर 2015 तक असम भाजपा के अध्यक्ष रहे सिद्धार्थ भट्टाचार्य.
तो हुआ यूं कि राम माधव ने हिमंत को भाजपा में लाने की ज़िम्मेदारी दी सिद्धार्थ को. सिद्धार्थ को हिमंत से बातचीत में ये अंदाजा हुआ कि हिमंत कांग्रेस में अब अच्छा महसूस नहीं कर रहे, लेकिन ये भी सच है कि वो भाजपा में अपने भविष्य को लेकर काफी सोच-विचार में हैं. सिद्धार्थ ने Caravan रिपोर्टर कृष्ण कौशिक से बात करते हुए कहा था –
“मैं ये जान गया था कि सरमा काफी होशियार हैं और महत्वाकांक्षी भी. उनके पास बहुत सारा समर्थन था और पैसा भी. राज्य के दो बड़े मीडिया ब्रांड हैं – नियोमिया वार्ता और न्यूज़ लाइव. दोनों में हिमंत का अच्छा प्रभाव था. ये सारी बातें उनके पक्ष में थीं.”इन्हीं वजहों से भाजपा हिमंत को हर हाल में पार्टी में लाना चाहती थी. जुलाई 2015 में सिद्धार्थ, हिमंत को लेकर दिल्ली गए. ये तय था कि वहां जाकर हिमंत भाजपा जॉइन कर लेंगे. लेकिन हिमंत की तरफ से ही किसी विश्वस्त ने ये बात लीक कर दी. बात फैलते ही सर्बानंद सोनोवाल खेमे में हड़कंप मच गया. सोनोवाल ने किरेन रिजिजू के साथ आनन-फानन में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. हिमंत बिस्व सरमा पर लुइ बर्गर स्कैम को लेकर गंभीर आरोप लगाए. ये एक ऐसा केस था, जिसमें कथित तौर पर अमेरिका की कंपनी ने भारत में अपने प्रोजेक्ट पास कराने के लिए कई नेताओं को पैसे दिए थे. ये 2010 का एक वॉटर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट था, जिसमें गोवा और असम के मंत्रियों को पैसे देने की बात सामने आ रही थी. इसी को लेकर हिमंत पर आरोप लगे. उनका भाजपा में आना टल गया. अमित शाह बोले- ग़लती का समाधान है अब हिमंत के लिए स्थिति नाज़ुक हो चुकी थी. वे कांग्रेस से करीब-करीब पल्ला झाड़ ही चुके थे और भाजपा में आने से पहले ही विवाद हो गया था. माया मिली न राम वाली स्थिति होती दिख रही थी. कुछ दिन बाद वे और सिद्धार्थ मिलने गए अमित शाह से, जो उस वक्त भाजपा अध्यक्ष थे. शाह ने कहा –
“ये तो ग़लती हुई (प्रेस कॉन्फ्रेंस के संदर्भ में). लेकिन ग़लती हुई तो उसका समाधान भी है.”शाह का इतना कहना था और कुछ ही दिन के अंदर हिमंत बिस्व सरमा ने भारतीय जनता पार्टी जॉइन कर ली. 21 अगस्त की तारीख़ थी. सोनोवाल की प्रेस कॉन्फ्रेंस के ठीक एक महीने बाद.
हालांकि हिमंत के भाजपा में आने के बाद उनके और सोनोवाल के बीच की इक्वेशन अच्छी रही. आवश्यकता, आविष्कार की जननी है. सोनोवाल बहुत कुशल मैनेजमेंट और संगठन वाले आदमी नहीं थे. इसलिए उन्हें हिमंत की ज़रूरत थी. और हिमंत कांग्रेस में बगावत करके भाजपा में आए थे, इसलिए उन्हें सोनोवाल की ज़रूरत थी. दोनों साथ हो लिए. 2016 में होने वाले चुनाव के लिए उन्हें पार्टी का संयोजक बनाया गया. इसके बाद की कहानी जगजाहिर है. कांग्रेस 26 सीटों पर सिमट गई जबकि बीजेपी के खाते में 60 सीटें आईं.
असम के पत्रकार बताते हैं कि एक बार हिमंत भाजपा में आ गए, फिर उनके और सोनोवाल के संबंध अच्छे रहे. दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते हैं. (फाइल फोटो- PTI)
दो बड़े विवाद रही बात लुइस बर्गर केस की तो The Lallantop को दिए इंटरव्यू में हिमंत ने इस पर कहा था –
“कांग्रेस वालों से मैं पूछता हूं कि मेरा नाम कहां है इस केस में? जो भी काम दिया गया था, वो गोगोई साब के दस्तख़त से दिया गया था न कि मेरे. मैं तो कोर्ट में भी गया, गोगोई साब के ख़िलाफ़ मानहानि का केस भी किया. कोर्ट ने गोगोई साब से पूछा कि हिमंत का नाम कहां है. वो जवाब देने में फेल हो गए.”जब बात हो ही रही है तो बताते चलें कि हिमंत का नाम शारदा चिटफंड घोटाले में भी आता है. इस पर भी उनका वही जवाब रहा –
“मेरा नाम कहां है? ममता बनर्जी मेरा नाम लेती हैं लेकिन उनके तो ख़ुद के ऊपर आरोप हैं. CBI ने चार्जशीट में मेरा नाम प्रोसेक्यूशन विटनेस में डाला था. तब मैं कांग्रेस में था. वो कागज लेकर मैं सोनिया गांधी के घर गया कि देखिए मैडम मैं विटनेस हूं, आरोपी नहीं. सोनिया जी ने कहा कि 2 महीने रुक जाओ. मैंने कहा कि बिल्कुल 3 महीने रुक जाता हूं. मैं 3 महीने बाद गया तो सोनिया जी ने कहा कि राहुल जी से मिल लो. और फिर वही कहानी.”रावण और दस सिर असम चुनाव 2016 में भारतीय जनता पार्टी का पॉलिटिकल कैंपेन रचने वाले रजत सेठी बताते हैं –
“जब हिमंत अपने 10 विधायक लेकर भाजपा से जुड़े तो भाजपा में इसे लेकर बहुत आम सहमति नहीं थी. लोकल लेवल पर भी नेताओं में ये इंप्रेशन था कि किसी की पैराशूट लैंडिंग करा दी गई है. फिर हिमंत को चुनाव प्रभारी भी बना दिया गया. भाजपा में उस वक्त एक बात बड़ी चर्चित थी कि असम में रावण अपने 10 सिर के साथ आ गया है. हिमंत और उनके 10 विधायक के लिए.”लेकिन हिमंत ने भाजपा के इस अंदरूनी असंतोष को अपने मैनेजमेंट और पर्सनल लेवल पर उनके जो संबंध रहे हैं, उनके दम पर मैनेज किया. इसमें बड़ी मदद RSS से भी मिली. उनके पार्टी में आने के बाद प्रोद्युत बोरा (Prodyut Bora ) ने पार्टी छोड़ दी थी. प्रोद्युत ने Caravan रिपोर्टर कृष्ण कौशिक से बातचीत में कहा था कि सिद्धार्थ भट्टाचार्य (प्रदेश अध्यक्ष) ने BJP के रिमोट-कंट्रोल (RSS की तरफ इशारा) की तरफ से आया मैसेज साफ-साफ बता दिया था कि हिमंत का रास्ता न रोका जाए.
हिमंत बिस्व सरमा को अमित शाह और RSS का विश्वासपात्र बताया जाता है. इसकी वजह ये भी है कि हिमंत ने लगातार पार्टी को नतीजे दिए हैं. (फाइल फोटो- PTI)
हिमंत की 360 डिग्री पॉलिटिक्स हिमंत बिस्व सरमा के लिए कहा जाता है कि वे 360 डिग्री पॉलिटिक्स करते हैं. सबको अपने में समां लेते हैं. ये पार्टी या वो पार्टी, किसी से बैर नहीं. क्या वाकई ऐसा है? असम चुनाव 2021 से पहले दि लल्लनटॉप ने कुछ ऐसी ही बात की थी AIUDF के अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल से, जो इस चुनाव में भाजपा के कतई विरोधी धड़े में थे. अजमल बोले -
"हिमंत बिस्व सरमा तो बहुत अच्छे दोस्त हैं. हमारी दोस्ती पॉलिटिक्स में आने से बहुत पहले की है. दुश्मन के अंदर भी कुछ अच्छी क्वालिटी है तो उसकी तारीफ़ करनी पड़ेगी. आज के असम में हिमंत की बात अलग है. आज भी वो कहता फिर रहा है कि जो आसू से निकला है, वो भी मेरा है. अखिल गोगोई भी मेरा है. कितने लोग उसके पैसे पर लड़ रहे हैं, ये हमको भी नहीं मालूम. हमारी पार्टी में भी हो सकता है कि किसी ने मदद ली हो उसकी. वो दोस्तों का दोस्त है, दुश्मनों का दुश्मन है. जब तक कांग्रेस में था, उससे हमारी दोस्ती थी. जबसे उसने गेरूआ कपड़ा पहन लिया, रास्ते अलग हो गए. मैंने कहा कि आप CM बनना चाह रहे हो तो गेरूआ कपड़ा उतारो, हम आपको चीफ मिनिस्टर बनाएंगे."अजमल की इस बात का ज़िक्र जब हिमंत के सामने किया गया तो वे बोले -
"ये बदरुद्दीन अजमल जी की बहुत दिन से तमन्ना है कि वो मुझको CM देखना चाहते हैं. ये उनकी पर्सनल चॉइस है. लेकिन उनके सपोर्ट से मुझको बनना नहीं, ये मेरी पर्सनल चॉइस है. मेरे आज भी उनसे निजी संबंध अच्छे हैं. उनको कोविड हुआ था. मैंने 10 बार फोन किया. लेकिन मेरी जो विचारधारा या मेरी जो पॉलिटिक्स है, उसके हिसाब से मैं बदरुद्दीन अजमल के वोट से चौकीदार भी नहीं बनना चाहता."असम की राजनीति में कोई हिमंत के साथ हो या उनके सामने हो, उसके निजी संबंध हिमंत से अच्छे ही रहे हैं. हिमंत ख़ुद भी कहते हैं कि मैं लोगों की जमकर मदद करता हूं और उनसे जमकर मदद लेता हूं. हिमंत की इस 360 डिग्री पॉलिटिक्स ने उनकी हर चुनावी अभियान में जमकर मदद की भी है. मुस्लिम और मियां मुस्लिम मुस्लिम और मियां मुस्लिम के ज़िक्र के बिना हिमंत बिस्व सरमा की कहानी अधूरी है. भाजपा में आने के बाद ये बहस उनकी राजनीतिक पारी के प्रमुख आधारों में से एक रही है. इस पर हिमंत का कहना रहा है –
“सभी मुस्लिम, मियां नहीं हैं. लेकिन सभी मियां, मुस्लिम हैं. एक असम में सामान्य मुस्लिम है, जो ग़रीब है. उन्हें आर्थिक, सामाजिक मदद चाहिए और हम उनके साथ हैं. दूसरा वर्ग है असम के मुस्लिम, जिनका असम पर उतना ही अधिकार है जितना हमारा. तीसरे आते हैं, जो असम के कल्चर को चैलेंज करना चाहते हैं. ये लोग एक नई भाषा निकाले हैं, जिसको इन्होंने नाम दिया है मियां लैग्वेज. वो मियां म्युजियम बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वो कविता लिखते हैं- मियां पोएट्री. मियां भाषा असल में असमी भाषा और बंगाली भाषा का मिक्स है.”दरअसल असम में भाषा की लड़ाई है. असमी बोलने वाले और दूसरी भाषा वाले. दूसरी भाषा में भी यहां बांग्ला बोलने वाले तमाम लोग हैं, जिनसे किसी का कोई बैर नहीं. गुवाहाटी से नीचे आने पर यहां बांग्ला आबादी बढ़ती जाती है. छोटे-छोटे पॉकेट्स में बांग्लाभाषी कई जगह बसे हैं. लेकिनि बांग्ला-मुस्लिम या आसान करें तो बांग्लादेशी मुस्लिमों के लिए विपरीत हवा है. यही भेद मुस्लिम और मियां मुस्लिम का है, जो हिमंत भी बताते हैं. और इसी के आधार पर उन्होंने अपनी राजनीति को आगे बढ़ाया है. और इसी डिबेट के दम पर हिमंत ने CAA के मुद्दे को चुनावी फैक्टर बनने ही नहीं दिया. बनता तो भाजपा को नुकसान हो सकता था.
असम की राजनीति के जानकार बताते हैं कि बदरुद्दीन अजमल (बाएं) की पार्टी AIUDF का कांग्रेस से गठबंधन होना भाजपा औऱ हिमंत के पक्ष में रहा. हालांकि अजमल और हिमंत के निजी संबंध अच्छे रहे हैं. (फोटो- PTI)
कौशिक डेका बताते हैं –
“CAA फैक्टर बनता भी तो कैसे? एक इंसान ये सोच ले कि मैं CAA की वजह से भाजपा को वोट नहीं दूंगा. लेकिन दूसरी तरफ कांग्रेस थी, जिसने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से गठबंधन कर रखा था. तो लोग उधर से भी बिदके. अब ये लोग जिस भी तीसरे मोर्चे को वोट देंगे तो समझ लीजिए कि वो वोट कांग्रेस का था, जो तीसरे मोर्चे को गया. नुकसान भाजपा का हुआ ही नहीं.”अपर-लोअर असम को भी साधा रजत सेठी इस पूरी बहस में एक एंगल और जोड़ देते हैं. अपर असम और लोअर असम का. वो बताते हैं कि असल में हिमंत बिस्व सरमा के पूर्वज वाराणसी से थे. उन्हें वहां से लाकर असम में बसाया गया. ये हिंदू ब्राह्मण हैं. इसलिए लोअर असम में इनकी लोकप्रियता ठीक-ठाक रही है, जहां अहोम आबादी कम है. अपर असम में भी अब स्वीकार्यता बढ़ी है, जहां अहोम आबादी ज़्यादा है.
अहोम कौन? असम में 17वीं सदी में अहोम राजा राज करते थे. अहोम वंश ने असम को हज़ारों साल बचाकर रखा. मुहम्मद गोरी की सेना का भी सामना किया. मुगलों की सेना का भी. कभी-कभी हार जाते, पर किसी को टिकने ना देते. कतई साहसी कौम.
ख़ैर, रजत से इतर कौशिक डेका अपर और लोअर असम के इस डिवीज़न को ख़ारिज करते हैं. वे कहते हैं कि असम और लोअर असम को जातीय आधार पर नहीं बांटा गया है. गुवाहाटी से नीचे जाने पर लोअर असम, ऊपर जाने पर अपर असम.
असम में विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद हिमंत. वो असम के पहले नेता हैं, जिन्होंने शिक्षा मंत्री का पद संभालने के बाद मुख्यमंत्री का पद भी संभाला. (फोटो- PTI)
हां लेकिन ये सच है कि हिमंत की लोकप्रियता लोअर असम में ही ज़्यादा रही है. लोकनीति-CSDS
की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2021 के चुनाव से पहले लोअर असम के 16 फीसदी लोग हिमंत को मुख्यमंत्री देखना चाहते थे, जबकि अपर असम में ये आंकड़ा 6 फीसदी था. मुस्लिम-मियां मुस्लिम की बहस का हिमंत के लिए इस गैप को पाटने में अहम योगदान रहा. हिमंत ने कोविड काल में भी अच्छा काम करके दिखाया. इसका भी लोगों में इंप्रेशन बना कि CAA तो जब आएगा, तब आएगा. लेकिन फिलहाल सामने कोविड की समस्या है, जिसमें ये इंसान ही डिलीवर करके देगा. और ‘डिलीवर करके देगा’ वाली ही ये छवि हिमंत बिस्व सरमा ने असम की राजनीति में बनाई है. वो Go to man रहे. फिर चाहे गोगोई के कार्यकाल की बात हो, चाहे 2016 से 2021 तक सोनोवाल के. छवि हमेशा शैडो सीएम की रही. और अब तो ये शैडो सीएम असम के मुख्यमंत्री की शपथ ले चुके हैं. एक महत्वाकांक्षा, जिसका सार्वजनिक इज़हार दस बरस पहले हो चुका था, वो अब पूरी हो चुकी है. लोग कहते हैं कि बंगाल चुनाव हारने के बाद भाजपा थोड़ी तो अंडर प्रेशर आई है. इसी वजह से वो हिमंत को गुस्सा नहीं करना चाहती थी. बंगाल जीतते तो शायद तस्वीर अलग होती. हिमंत का असम वाया दिल्ली रूट लेकिन संतोष कुमार इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखते. संतोष पत्रकार हैं और 'भारत कैसे हुआ मोदीमय' नाम से किताब भी लिख चुके हैं. वो कहते हैं -
"सर्बानंद सोनोवाल को तो संभवतः 2016 के बाद से ही ये इंप्रेशन मिल गया होगा कि हिमंत का कद लगातार बढ़ रहा है. वो शैडो-CM की भूमिका में तो थे ही. इस बार भी चुनाव जीतने पर हिमंत का मुख्यमंत्री बनना करीब-करीब तय ही था. दिल्ली में आलाकमान से भी इस बारे में बात ज़रूर हुई होगी. अमित शाह लगातार हिमंत के पक्ष में रहे हैं और हिमंत पर उनका जबरदस्त भरोसा है. इसका कारण भी है हिमंत की परफॉर्मेंस. कोई बात स्पष्ट तौर पर सामने तो नहीं आई है लेकिन मुमकिन है कि सोनोवाल जी को वापस केंद्रीय कैबिनेट में बुलाने पर बात बनी होगी. क्योंकि दिल्ली की लीडरशिप अब हिमंत को सिर्फ असम ही नहीं, पूरे नॉर्थ-ईस्ट के मैनेजर के तौर पर देख रही है."संतोष इस बात को नकारते हैं कि अगर बंगाल में नतीजे भाजपा के पक्ष में आते तो हिमंत को मुख्यमंत्री पद न मिलता. वे कहते हैं कि भाजपा ये बात अच्छे से जानती है कि हिमंत के राज्य में सभी पार्टियों से अच्छे संबंध हैं. वे जिस दिन चाहेंगे, दूसरी जगह से समर्थन लेकर सरकार बना लेंगे. इसलिए हिमंत के साथ पार्टी कभी कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं रही.
हालांकि इंडिया टुडे के सीनियर जर्नलिस्ट राजदीप सरदेसाई इस बात को ख़ारिज नहीं करते. वे कहते हैं कि कहीं न कहीं तो ये बात थी ही कि हिमंत को CM नहीं बनाया तो वे कुछ बड़ा कदम उठा सकते हैं. वे साफ कहते हैं कि असम से अब तक कोई ऐसा नेता नहीं निकला, जो हिमंत की तरह अग्रेसिव पॉलिटिक्स करता रहा हो. हिमंत के इलेक्शन मैनेजमेंट को हर कोई जानता है, इसलिए भाजपा भी उन्हें 2016 के बाद दूसरी बार मुख्यमंत्री पद से दूर रखकर कोई रिस्क नहीं लेना चाह रही थी. BJP यूं भी अब हिमंत को ट्रबलशूटर के तौर पर देखती है. जून 2020 में जब मणिपुर में बीजेपी गठबंधन की सरकार गिरने का ख़तरा मंडराने लगा था तो हिमंत को रातों-रात इंफाल भेजा गया था. यानी पार्टी उन्हें असम का CM बनाकर पूरे नॉर्थ-ईस्ट का मैनेजर टाइप बनाने की दिशा में देख रही है.
एक सच ये भी है कि हिमंत को लोग असम से बाहर भी पहचानने लगे हैं. समय बताएगा कि क्या ये राष्ट्रीय राजनीति में नॉर्थ-ईस्ट की मजबूत दस्तक हैं? फिलहाल तो हिमंत ने ही बता दिया है कि दिल्ली से उनके लिए क्या मैसेज है – “कुछ समय नॉर्थ-ईस्ट में रुकिए.”