जब 24 हजार फ़ीट ऊंचाई पर प्लेन के पायलट को नींद आ गई!
जब पायलट की नींद ने ली १५८ लोगों की जान!
ये बात है साल 2010 की. 22 मई की तारीख. एक प्लेन एक्सीडेंट हुआ. एक्सीडेंट का कारण- लैंडिंग करते हुए प्लेन ने देरी कर दी. रनवे की लम्बाई ढाई किलोमीटर थी. लेकिन प्लेन उतरा डेढ़ किलोमीटर के मार्क पर. ये बड़ी गलती थी. क्योंकि रुकने के लिए रनवे की लंबाई कम थी और आगे थी एक गहरी खाई. प्लेन गिरा और उसके टुकड़े हो गए. आधे लोग वहीं मारे गए, जो बचे, आग में जिंदा जल गए. हादसे की जांच हुई. कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर सुना गया तो उसमें दो आवाजें थी. एक फर्स्ट ऑफिसर और दूसरी पायलट की. हालांकि दोनों आवाजों में एक अंतर था. को-पायलट की आवाज में शब्द थे, जबकि पायलट की आवाज में सिर्फ खर्राटे. पूरी उड़ान के दौरान प्लेन का मुख्य पायलट सो रहा था.
पायलट लंबी तान के सो गयारात के 2 बजकर 36 मिनट: UAE से एयर इंडिया एक्सप्रेस की फ्लाइट 812 टेक ऑफ करती है. ये एक बोइंग 737 प्लेन था, जिसमें क्रू सहित कुल 166 लोग सवार थे. फ्लाइट को कर्नाटका में मैंगलोर इंटरनेशनल एयरपोर्ट में लैंड करना था और इसके कैप्टन थे, सर्बियाई मूल के ज़्लाटको ग्लूसिका. फ्लाइट के फर्स्ट ऑफिसर या जिसे हम को-पायलट कह देते हैं, उनका नाम था हरबिंदर अहलुवालिया. दोनों अनुभवी थे और कई बार इस रुट पर उड़ान भर चुके थे. UAE से मैंगलोर पहुंचने में लगभग साढ़े तीन घंटे का समय लगना था. इसलिए ज़्लाटको ने टेक ऑफ के बाद कमान अहलुवालिया के हाथ सौंप दी. और खुद लम्बी तान के सो गए. फ्लाइट निश्चित गति से उड़ती रही.
सुबह पांच बजकर 41 मिनट: कैप्टन ज़्लाटको की नींद अचानक टूटी. अहलुवालिया लैंडिंग की तैयारियां कर रहे थे. उन्होंने मैंगलोर एयर ट्रैफिक कंट्रोल (ATC) से संपर्क किया. और मौसम, रनवे, लैंडिंग से जुड़ी जानकारियां ले लीं. फ़्लाइट मैंगलोर एयरपोर्ट से सिर्फ़ 20 मिनट दूर थी. मैंगलोर एयरपोर्ट के बारे में खास बात ये है कि ये एक पहाड़ी पर बना है. रनवे एक उठी हुई जमीन पर बने हुए हैं. देखने में ऐसा लगता है मानों किसी टेबल की सतह पर रनवे बने हुए हों. इसी के चलते ऐसे रनवे को टेबल टॉप रनवे बोला जाता है. इनके दोनों छोरों पर समतल जमीन नहीं होती. प्लेन रनवे से आगे गया तो सीधे खाई में गिरेगा. ऐसा ना हो, इसके लिए रनवे के एंड में रेत के ढेर रखे जाते हैं. ताकि प्लेन उनसे टकरा के रुक जाए.\
भारत में मैंगलोर के अलावा दो और ऐयरपोर्ट हैं, जिनमें टेबल टॉप रनवे है. करेल का कोझिकोड ऐरपोर्ट और मिज़ोरम का लेंगपुई ऐरपोर्ट. ऐसे एयरपोर्ट्स पर लैंडिंग काफ़ी पेचीदा हो सकती है. इसलिए केवल स्पेशली ट्रेंड पायलट्स को ये ज़िम्मेदारी दी जाती है. फ्लाइट 812 में ये जिम्मेदारी कैप्टन ज़्लाटको की थी. लेकिन उस रोज़ लगभग दो घंटे की नींद ले चुके ज़्लाटको उनींदे थे. इसलिए फ्लाइट की कमान अहलुवालिया के हाथ में थी. वो लैंडिंग के लिए तैयार हो रहे थे कि तभी ATC ने उन्हें बताया, मैंगलोर एयरपोर्ट का रडार दो दिन से ख़राब है.
गलत सिग्नल पकड़ाआम तौर पर एयरपोर्ट से 240 किलोमीटर दूर से फ्लाइट अपना डिसेंट शुरू कर देती है. यानी धीरे-धीरे ऊंचाई कम करती जाती है. लेकिन उस रोज़ राडार की खराबी के चलते 148 किलोमीटर की दूरी से फ्लाइट नीचे उतरना शुरू हुई. इसका मतलब था फ्लाइट को सामान्य से ज्यादा तेज़ी ने नीचे की ओर मुड़ना था. ताकि वो ठीक समय पर रनवे पर पहुंच जाए. अहलुवालिया ने स्पीड बढ़ाई और रनवे की ओर बढ़ चले. ये एक बड़ी गलती थी लैंडिंग की जिम्मेदारी ज़्लाटको को लेनी चाहिए थी. जिन्हें इस काम के लिए खास ट्रेनिंग मिली थी.
अहलुवालिया ने एक गलती और की. उन्होंने पर्याप्त स्पीड से डिसेंट नहीं किया. 5 बजकर 59 मिनट पर उन्हें अहसास हुआ कि वो आठ हजार पांच सौ फ़ीट की ऊंचाई पर हैं. उन्हें इससे काफी नीचे होना चाहिए था. अहलुवालिया ने लैंडिंग गियर गिराया और स्पीड ब्रेक लगा दिए. ताकि प्लेन नीचे की ओर जाए लेकिन ज्यादा तेज़ी से आगे नहीं. हालांकि इससे भी कुछ फायदा न हुआ. फ्लाइट जब तक रनवे की सीध पर आई. वो अभी भी तय सीमा से दो गुना ऊंचाई पर थी. इनके अलावा उस रोज़ एक और गलती हुई थी, जिसका अहलुवालिया को अभी तक अहसाद नहीं हुआ था.
मैंगलोर में लैंडिंग में मदद के लिए ILS सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता था. ILS यानी इंस्ट्रूमेंट लैंडिंग सिस्टम. ये सिस्टम एक सिग्नल छोड़ता है. जिसे ग्लाइड स्लोप कहते हैं. आमतौर पर लैंडिंग से पहले, प्लेन का कम्प्यूटर ये सिग्नल पकड़कर अपने लिए एक फ्लाइट पाथ कैलकुलेट कर लेता है. लेकिन इस सिस्टम में कई बार एक दिक्कत भी पैदा हो जाती है. ILS का सिग्नल कई बार रिफ्लेक्ट होकर बाउंस हो जाता है. अगर प्लेन ठीक ऊंचाई पर न हो तो वो गलत सिग्नल पकड़ कर गलत रुट बना लेता है.
ढाई किलोमीटर का रनवे, एक किलोमीटर ही बचाउस रोज़ भी ऐसा ही हुआ. ज्यादा ऊंचाई पर होने के कारण फ्लाइट 812 ने गलत ग्लाइड स्लोप पकड़ लिया. जो सामान्य से 6 डिग्री ज्यादा था. प्लेन और तेज़ी से डिसेंट करने के चक्कर में 3 हजार फ़ीट प्रति मिनट की गति से नीचे आने लगा. बिलकुल तिरछे ऐंगल पर. इस रेट पर लैंडिंग करना मौत को बुलावा देने के सामान था. ये बात कैप्टन ज़्लाटको को पता थी. उन्होंने अहलुवालिया को ये बात बताई भी. “ऊंचाई बहुत ज्यादा है”, उन्होंने अहलुवालिया से कहा. अहलुवालिया को पहली बार लगा कि कोई गड़बड़ हो गई है. पूरी गलती उनकी नहीं थी. लैंडिंग की जिम्मेदारी कैप्टन की थी. जो नींद के चलते काफ़ी देर से चुस्त हो पाए. उन्होंने तुरंत प्लेन की कमान अपने हाथ में ले ली.
प्लेन तेज़ी ने रनवे की तरफ बढ़ रहा था. बिलकुल तिरछे ऐंगल में. ऐसी सिचुएशन में स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर के अनुसार प्लेन को दुबारा उड़ाकर लैंडिंग के लिए दुबारा कोशिश करनी होती है. एविएशन की भाषा में इसे ‘गो अराउंड’ करना कहते हैं. अहलुवालिया ने अपने कैप्टन ये बात कही. लेकिन कैप्टन ने बात अनसुनी करते हुए ऑटोपायलट बंद किया और मैन्युअल लैंडिंग की तैयारी करने लगे. प्लेन इतनी स्पीड में था कि उसका पिछला पहिया रनवे से टकराया और प्लेन ने उछाल मार दी.
स्पीड कम करने के लिए कैप्टन ने रिवर्स थ्रस्ट ऑन किया. रिवर्स थ्रस्ट यानी इंजन का उल्टी दिशा में घूमना ताकि वो प्लेन की स्पीड काम करने में मदद करे. प्लेन अब रनवे को छू चूका था. लेकिन जब तक वो उतरा, वो ढाई किलोमटर के रनवे पर डेढ़ किलोमीटर आगे पहुंच चुका था. यानी रुकने के लिए उसके पास बस 1000 मीटर की दूरी थी. प्लेन की स्पीड अभी भी बहुत ज़्यादा थी. पायलट ने ऑटोब्रेक सिस्टम ऑन किया. फिर भी प्लेन की स्पीड इतनी कम न हुई कि वो समय से रुक सके.
अहलुवालिया आगे अंजाम देख रहे थे. वे चिल्लाकर बोले, ‘रनवे ख़त्म हो गया है’. ये बात लगभग पक्क्की हो चुकी थी कि प्लेन इसी तरफ चलता रहा तो रनवे से आगे चला जाएगा. पायलट भी ये बात समझ चुके थे. हड़बड़ी में उन्होंने दुबारा टेक ऑफ की कोशिश की. अभी कुछ देर पहले हमने बताया कि प्लेन के प्लेन के स्पीड कम करने के लिए उन्होंने रिवर्स थ्रस्ट चलाया था. इतनी जल्दी प्लेन को रिवर्स से फॉरवर्ड थ्रस्ट में लाना मुश्किल था. पायलट ने फिर भी कोशिश की लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी. प्लेन रनवे से आगे बढ़ते हुए बालू के ढेर पर चढ़ गया. उसकी स्पीड इतनी तेज़ थी कि ये भी उसे रोकने के लिए काफी नहीं था.
प्लेन का दायां पंख रनवे के एंड पर मौजूद कंक्रीट के फ्रेम से टकराया, जो ILS सिस्टम लगाने के लिए बनाया गया था. इसके बाद वो सीधे एक खाई में जा गिरा. प्लेन के दो टुकड़े हुए और आग लग गई. प्लेन में सवार 166 में से आधे लोग शुरुआती टक्कर में ही मारे गए. बाकी लोग आग से घिरे थे. इनमें से सिर्फ आठ किसी तरह प्लेन से निकलने में कामयाब रहे. बाकी लोग जलने से या धुंए से दम घुटने से मारे गए.
दुर्घटना की वजह क्या थी?दो कारण थे. पहला पायलट का सोना. कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर से पता चला कि उड़ान की शुरुआत से अगले 110 मिनट तक कैप्टन ज़्लाटको सोए हुए थे. उड़ान के दौरान सिर्फ़ आखिरी 23 मिनट में वो होश में थे.
दूसरा कारण- लैंडिंग के वक्त कमान फ़र्स्ट ऑफ़िसर अहलुवालिया के हाथ में थी. जबकि इस एयरपोर्ट पर लिए लैंडिंग ज़्लाटको को करनी चाहिए थी. अगर अहलुवालिया लैंडिंग करते भी तो दोनों के बीच इसे लेकर प्रॉपर कम्युनिकेशन होना चाहिए था. जो नहीं हुआ. राडार ख़राब होने के बाद जब लैंडिंग रुट बदला, दोनों में कोई बात नहीं हुई. लैंडिंग के अंतिम मिनटों में पायलट ने कमान संभाली. स्पीड कम करने के लिए उन्होंने ऑटोब्रेक चालू किया. इस बात से अनजान कि आउटब्रेक के सेटिंग मॉडरेट पर था. अगर पायलट मैन्युअल ब्रेक लगाता तो भी संभावना थी कि प्लेन रुक जाता. लेकिन उस रोज़ ऐसा कुछ न हुआ. पहले नींद और फिर पायलट और फर्स्ट ऑफिसर के बीच कम्युनिकेशन की कमी के चलते 158 लोगों की जान चली गई.
इस केस की जांच कर रहे वाइस चीफ ऑफ एयर स्टाफ, एयर मार्शल भूषण नीलकंठ गोखले ने भी इन्हीं कारणों को प्लेन हादसे की वजह माना. जांच कमिटी ने कुछ सुधार भी सुझाए, सुधार कितने लागू हुए ये तो पता नहीं. लेकिन साल 2020 में कोझिकोड में इसी प्रकार एक प्लेन रनवे को पार कर खाई में गिर गया था. ये हादसा भी एक टेबल टॉप रनवे में लैंडिंग के दौरान हुआ था. इसमें 17 लोगों की मौत हो गई थी
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