जब पाकिस्तान फौज ने 94 हिंदुओं का नरसंहार किया!
पहले पहचान पत्र देने के नामा पर बुलाया स्कूल फिर दो बार आई आर्मी.
“मशीन गन से गोलियां रुकी तब तक लाशों का ढेर लग चुका था. सेना लौट गई. लोग गिरे पड़े थे. अधिकतर मर चुके थे. जो जिन्दा थे, वो मरे होने का बहाना कर रहे थे. इस उम्मीद में की शायद जान बच जाए. लेकिन सेना कुछ देर बाद फिर लौटी. कौन मरा, कौन जिन्दा, ये पहचानने में जहमत लगती, इसलिए तमाम गिरे शरीरों पर केरोसीन डाला गया और आग लगा दी गई.”
हत्या.. युद्ध.. मौतें. ये तीनों चीजें सदा से इंसानी इतिहास का हिस्सा रही हैं. लेकिन युद्धों के भी अपने नियम होते हैं. आप पीठ पर गोली नहीं मारते. शांति का झंडा लहराकर गोली नहीं चलाते. पश्चिम के विचारक एलन वॉट्स का कहना है, ऐसा सिर्फ तब होता है जब युद्ध पैसे या जमीन जैसे चीजों के लालच में लड़ा जाता है. हमला करने वाला ध्यान रखता है की जिन चीजों के लालच में वो युद्ध कर रहा है, उन्हें ही पूरी तरह नष्ट न कर दे. जबकि आदर्शों और विचारधाराओं के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाइयां सबसे विध्वंशक लड़ाईयां होती हैं. ये किस्सा एक ऐसे ही युद्ध का है. 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति के लिए एक युद्ध लड़ा गया. पाकिस्तान की जमीन. उसे रक्षा करने का हक था. कोई और देश होता तो भी विद्रोहियों को रोकने की कोशिश करता. लेकिन पाकिस्तानी फौज ने हदें पार कर दीं. क्या कुछ हुआ. शुरू से जानते हैं.
ये बात है, 26 मई 1971 की. 26 मार्च को शुरु हुआ ऑपरेशन सर्च लाईट अपने अंतिम चरणों में था. जनरल टिक्का खान का आदेश था, "हमें जमीन चाहिए, लोग नहीं". हुक्म की तामील करते हुए पाकिस्तानी फौज ने लाखों बंगालियों को मार डाला. वो सभी लोग जो पाकिस्तान की मुखालफत करते थे.फौज की मदद करने में जनता का एक धड़ा भी शामिल था, जिन्हें रज़ाकार कहते थे. इसके अलावा एक और धड़ा था जो जमात-ए-इस्लामी नाम के एक कट्टर धार्मिक संगठन के सदस्यों से मिलकर बना था. इस धड़े का नाम यूं तो नागरिक शांति कमिटी रखा गया था, लेकिन काम ये एकदम इसका उलटा करते थे. 26 मई की उस काली तारीख को बुरुंगा गांव के लोगों को इसका अहसास हुआ जब पाकिस्तानी फौज पहली बार उनके गांव पहुंची.
बुरुंगा में क्या हुआ?बुरुंगा बांग्लादेश के सिलहट डिविजन का एक गांव है. यहां के बाशिंदे कई रोज़ से मारकाट की ख़बरें सुन रहे थे. जब खबर फ़ैली की फौज उनके गांव में छापा मार सकती है, पूरे गांव में खौफ पसर गया. गांव वाले गुट बनाकर इंजाद अली से मिलने गए. इंजाद गांव की एक यूनियन के अध्यक्ष थे. 25 की दोपहर इंजाद अली जाकर सैफुद्दीन मास्टर से मिले. सैफुद्दीन गांव में बनाई गई शांति कमिटी की इकाई के लीडर थे. दोनों ने मिलकर गांव में एक घोषणा करवाई. अगले रोज़ सब लोग गांव के हाई स्कूल में एकत्रित होंगे. बताया गया कि वहां हर गांव वाले को एक आइडेंटिटी कार्ड मिलेगा. जिसके पास आइडेंटिटी कार्ड होगा, सेना उसे कुछ नहीं करेगी. घोषणा सुनकर लोगों को तसल्ली हुई. सब अपने-अपने घर लौट गए. अगले रोज़ सुबह ठीक आठ बजे सब गांव वाले स्कूल पहुंचे. एक हजार की भीड़ में हिन्दू भी थे और मुसलमान भी.
शांति कमिटी के लीडरों ने लिस्ट बनानी शुरू की. सब कुछ शांति से चल रहा था. तभी 9 बजे धूल का एक गुबार उठन शुरू हुआ. पाकिस्तानी फौज की जीपें गांव में एंटर कर चुकी थीं. साथ में थे अब्दुल अहद चौधरी- रज़ाकार टुकड़ी का कमांडर और अब्दुल खालेक. खालेक गांव का ही एक डॉक्टर था. आर्मी के आते ही माहौल संगीन हो गया. खालेक जीप से उतरकर सीधे सैफुद्दीन मास्टर के पास पहुंचा. सैफुद्दीन के हाथ में एक लिस्ट थी जिसमें गांव वालों के नाम लिखे थे. डॉक्टर खालेक ने लिस्ट ली और उसे क्रॉस चेक करने लगा. इसके बाद उसने आर्मी को इशारा किया. आर्मी पूरे गांव में फ़ैल गई. घर-घर जाकर उन्होंने उन लोगों को इकठ्ठा किया जो स्कूल नहीं पहुंचे थे.
इसके बाद गांव के तमाम लोगों को स्कूल के ग्राउंड में लाइन लगाकर खड़ा किया. लिस्ट में देखकर हिन्दू और मुसलमान की अलग लाइन बनाई गई. मुसलमानों को क्लासरूमों में ले जाया गया. जबकि हिन्दुओं को स्कूल के प्रिंसिपल के ऑफिस में. कमांडर अब्दुल अहद चौधरी ने सभी से जेवरात और पैसे एक जगह इकठ्ठा करने को कहा. इसके बाद मुसलमानों को कलमा पढ़ने को कहा गया. आखिर में उनसे पाकिस्तान का नेशनल एंथम गाने को कहा गया और उन्हें घर भेज दिया गया. ढाका के पत्रकार सहिदुल हसन खोकोन ने इस घटना पर एक रिपोर्ट लिखी है. सहिदुल लिखते हैं की रज़ाकारों के लीडर ने 10-12 लोगों को बाज़ार भेजा- रस्सी लाने के लिए. इस रस्सी से प्रिंसिपल ऑफिस में मौजूद लोगों को बांध दिया गया.
आपबीतीप्रीति रंजन चौधरी स्कूल के टीचर हुआ करते थे. सहिदुल से बात करते हुए वो कहते हैं,
"मुझे 8 बजे स्कूल पहुंचना था. लेकिन मैं लेट हो गया. जब पहुंचा तो मैंने देखा ऑफिस में लोग बंधे हुए थे. फौज ने मुझे देखा तो वो मुझे भी ऑफिस ले गए. ऑफिस में एक खिड़की का कांच टूटा हुआ था. मुझे पता था अगर जान बचानी है तो मुझे यहां से किसी भी तरह निकलना होगा. मैंने टूटे हुए कांच से हाथ डालकर उसे खोला और बाहर छलांग लगा दी. कुछ और लोग भी मेरे पीछे कूदे".
जो नहीं भाग पाए उन्हें एक बार फिर ग्राउंड में खड़ा किया गया. और शुरू हुई गोलियों की बौछार. इस घटना में जिन्दा बच निकले एक और व्यक्ति श्रीनिवास चक्रवर्ती सहिदुल को बताते हैं,
"उन्होंने मजलूम लोगों पर मशीन गन से गोलियां चलाई. उनके हाथ बंधे हुए थे. हर तरफ खून ही खून था. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हुई. एक गोली मेरे बाएं हाथ को लगी थी. मैं जमीन पर गिर गया और मरने का बहाना करने लगा. गोलियां चलाने के बाद वो लोग वहां से चले गए. लेकिन कुछ देर बाद वो लौटे और गिरे हुए लोगों पर केरोसीन डालकर आग लगा दी"
श्रीनिवास आगे बताते हैं,
फौज दोबारा लौटी"उनके जाने के बाद कुछ लोग जो जख्मी मगर जिन्दा थे, उठकर खड़े हुए. ये देखकर पाकिस्तानी फौज एक बार फिर आई और एक बार फिर उन्होंने गोलियां चलाना शुरू कर दिया. मुझे भी पीठ पर गोली लगी लेकिन किस्मत से मेरी जान बच गई. आर्मी लौट गई. मुझे कुछ गांव वालों की आवाज आई. मैंने देखा की ज़ख़्मी लोग पानी के लिए कराह रहे थे. स्कूल की बाल्टी में पानी रखा रहता था. मेरे पिता ज़ख़्मी हालत में ही खड़े हुए और उन्होंने लोगों को पानी पिलाने की कोशिश की. मेरे पिता और भाई की जान नहीं बच पाई."
इस नरसंहार के बाद भी रज़ाकारों और पाकिस्तानी फौज का तांडव शांत न हुआ. पूरे गांव में घूमकर उन्होंने घरों और लूटा और फिर उनमें आग लगा दी. सिलहट की जिला अदालत में काम करने वाले राम रंजन चौधरी भट्टाचार्य बीमार थे. एक फौजी ने उनसे अपने बिस्तर से उठकर भागने को कहा. जैसे ही राम रंजन मुड़े, उनकी पीठ पर गोली मार दी गई.
इस नरसंहार को अंजाम देने के बाद अगले रोज़ सेना फिर आई. अबकी बार सबूत मिटाने. इंजाद अली ने कुछ मजदूरों का इंतजाम किया और जली हुई लाशों को बुरुंगा हाई स्कूल के पीछे ही एक गड्ढा खोदकर दफना दिया गया. ये घटना इतिहास में खोकर रह जाती लेकिन कुछ लोग जो जिन्दा भागने में सफल रहे. युद्ध के बाद उन्होंने पूरी कहानी बताई. उनके अनुसार इस नरसंहार में कुल 94 लोग मारे गए थे. जबकि सरकारी आंकड़ा 78 का है. बांग्लादेश के गठन के बाद साल 1984 में सरकार ने इस घटना स्थल को ईट की दीवार से पाट दिया गया. बाद में इस जगह पर मारे गए लोगों की याद में एकल स्मारक का निर्माण हुआ. रज़ाकारों का क्या हुआ?
साल 2010 में बांग्लादेश सरकार ने एक कमीशन बनाया. पिछले साल यानी 2022 में इस कमीशन ने बंगालियों के नरसंहार के आरोप में 6 लोगों को मौत की सजा सुनाई थी. ये सब रज़ाकार संगठन से जुड़े हुए थे. रज़ाकार शब्द का यूं तो मतलब स्वयंसेवी होता है. लेकिन बांग्लादेश में इसके क्या मायने हैं. इससे किस्से से समझिए,
मां और बेटा आमने-सामनेसाल 1972 में संयुक्त राष्ट्र में एक गज़ब का नज़ारा देखने को मिला. आमने-सामने थे दो देश जो कल तक एक थे. ये उस दौर से पहले की बात थी जब देशों के लिए बाप-बेटे जैसे विशेषण इस्तेमाल नहीं होते थे. फिर भी उस रोज़ दो देशों की लड़ाई असल में मां-बेटे की लड़ाई में बदल गई थी. बांग्लादेश UN से सदस्यता की मांग कर रहा था. वहीं पाकिस्तान इसके खिलाफ था. पाकिस्तान की तरफ से डेलीगेशन को लीड कर रहे थे त्रिदेव रॉय. जो कुछ महीने पहले तक चटगांव की एक कबीलाई जनजाति चकमा के राजा हुआ करते थे. युद्ध के दौरान उन्होंने पश्चिमी पाकिस्तान का साथ दिया, नतीजतन युद्ध के बाद उन्हें भागकर वहां शरण लेनी पड़ी.
इस वफादारी के इनाम में जुल्फिकार अली भुट्टो ने उन्हें बांग्लादेश के खिलाफ डेलीगेशन का लीडर बनाकर UN भेजा. बांग्लादेश के नीति निर्माता मुजीब उर रहमान भी कम न थे. उन्होंने बांग्लादेश की तरफ से बिनीता रॉय को भेज दिया. जो चकमा राजमाता और त्रिदेव रॉय की मां थी. इस लड़ाई में जीत मां की हुई. बांग्लादेश को UN की सदस्यता मिली और त्रिदेव को लौटना पड़ा. हालांकि पाकिस्तान में उन्हें कैबिनेट मंत्री का पद मिला लेकिन त्रिदेव की इस गद्दारी को बांग्लादेश भूला नहीं. उन्हें बंगालियों के नरसंहार के दोषी के रूप में याद किया गया. और एक नाम उनके साथ हमेशा के लिए जोड़ दिया गया, बांग्लादेश में जिसे गाली माना जाता है. - रज़ाकार.
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