ऑपरेशन राजीव: दुनिया की सबसे ज्यादा ऊंचाई पर लड़ी गई जंग की कहानी
1987 में भारतीय सेना ने सियाचिन में पाकिस्तान की क़ायद पोस्ट पर कब्जा जमाया और नया नाम दिया 'बाना पोस्ट'.
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सियाचिन ग्लेशियर - जिसका नाम आते ही बर्फ से ढके सफेद पहाड़ अपने आप आंखों के सामने आ जाते हैं. और उन पहाड़ों पर दिखने लगते हैं सफेद कपड़े पहने, आंखों को पूरा ढंकने वाला काला चश्मा लगाए, हाथों में राइफल लिए मुस्तैद इंडियन आर्मी के जवान .
लेकिन आपको पता है, एक समय ऐसा भी था जब हिमालय की इन चोटियों पर हमारे सैनिक पहरा नहीं देते थे. सियाचिन तब भी हमारा ही था. बस सियाचिन ग्लेशियर पर भारतीय सैनिकों को निगरानी की जरूरत नहीं पड़ती थी.
तो फिर ऐसा क्या हुआ कि सियाचिन की माइनस 50 डिग्री की खून जमा देने वाली ठंड में दिन-रात भारतीय जवानों को चौकन्ना रहने की ज़रूरत आन पड़ी? इसके पीछे जो कहानी है, वो किसी समझौते, बातचीत या किसी छोटी-मोटी लड़ाई की नहीं है. ये कहानी है दुनिया में सबसे ज़्यादा ऊंचाई पर लड़ी गई जंग की.
1947 में भारत और पाकिस्तान- दो अलग अलग मुल्क बनकर आज़ाद हुए. जम्मू - कश्मीर रियासत ने आज़ाद रहना चाहा तो पाकिस्तान ने उसपर हमला कर दिया. तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने रियासत का भारत में विलय कर दिया. भारत की फौज तत्काल जम्मू कश्मीर पहुंची और न सिर्फ श्रीनगर को बचाया, बल्कि पाकिस्तान की फौज को तकरीबन 700 किलोमीटर लंबे एक मोर्चे पर रोक भी लिया. इसे कहा गया - सीज़ फायर लाइन. 1965 और 1971 की लड़ाई के दौरान इस मोर्चे में बहुत ज़्यादा परिवर्तन नहीं हुआ. 1971 की लड़ाई के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हुआ. इसमें तय हुआ कि सीज़फायर लाइन को अब कहा जाएगा लाइन ऑफ कंट्रोल. कोई पक्ष इस लाइन में एकतरफा बदलाव की कोशिश नहीं करेगा. भारत और पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर अपने मतभेद आपस में सुलझा लेंगे.
लेकिन पाकिस्तान ने शिमला समझौते को कभी पूरा मान दिया ही नहीं. तीन युद्धों के बाद पाकिस्तान समझ गया था कि सीधी लड़ाई में जम्मू-कश्मीर को हथियाना संभव नहीं है. तो इस बार उसने एक नई तरकीब निकाली. और इस तरकीब को खेला गया धीमे-धीमे खिसक रही बर्फ की एक नदी- सियाचिन पर.
पाकिस्तान की चालाकी
लद्दाख में पड़ने वाले सियाचिन ग्लेशियर पर पाकिस्तान की नजर आज़ादी के बाद से ही थी. 70 दशक में पाकिस्तान ने विदेशी टूरिस्टस को सियाचिन के आसपास के इलाकों में माउंटेनियरिंग करने की ''इजाज़त'' देनी शुरू कर दी. ताकि ये बता सके कि सियाचिन ग्लेशियर भी पाकिस्तान के हिस्से में ही आता है. और 1980 आते-आते तो उसने ये कहना भी शुरू कर दिया कि सियाचिन पाकिस्तान का है. और इसके लिए उसने छल का सहारा लिया.
दरअसल 1948 में सीज़फायर लाइन, लद्दाख में पॉइंट NJ9842 पर जाकर खत्म होती थी. क्योंकि यहां से आगे, खासकर उत्तर की ओर बर्फीली चोटियां थीं. किसी ने सोचा नहीं था कि इन चोटियों पर भी लड़ाई हो सकती है. इसीलिए यह कह दिया गया कि लाइन NJ9842 से आगे ग्लेशियर की ओर उत्तर की दिशा में जाती है. इसीलिए इसके आगे मोर्चे/LoC को न नक्शे और न ही ज़मीन पर दर्शाना ज़रूरी समझा गया.
इसी का फायदा उठाते हुए 1960 के दशक से ही पाकिस्तान ने सियाचिन के इलाके को अपनी हद में दिखाना शुरू कर दिया था. और वहीं से ये गड़बड़ अमेरिकी नक्शों में पहुंची. और फिर धीरे धीरे दुनिया में इस गलत नक्शे का प्रसार होने लगा. इस नक्शे के ही चलते दुनिया भर के पर्वतारोही सियाचिन जाने के लिए पाकिस्तान की सरकार से इजाज़त मांगने लगे. इस तरह सियाचिन पर पाकिस्तानी दावे को बल मिलने लगा.
फिर आया ढेर सारी उथल-पुथल का साल - 1984. भारत को ऐसी खुफ़िया जानकारी मिली जिसने हिंदुस्तान में सेना के जनरलों की नींद उड़ गई. 1984 में पाकिस्तान ने यूरोप की एक कंपनी को बर्फीली पहाड़ियों पर पहनने वाले कपड़ों का बड़ा ऑर्डर दिया था. ये इशारा भर काफी था. इतनी बड़ी तादाद में बर्फीली पहाड़ियों पर पहनने वाले कपड़ों की ज़रूरत आखिर पाकिस्तान को थी कहां. जवाब सामने था- सियाचिन ग्लेशियर.
'पाकिस्तान के मंसूबों का पर्दाफाश'
अबतक भारतीय सेना यहां निगरानी नहीं रखती थी. लेकिन पाकिस्तान के मंसूबों को भांपते हुए सेना ने प्लान बनाया कि इससे पहले पाकिस्तान सियाचिन पर कब्जे की कोशिश करे, इंडियन आर्मी को सियाचिन अपने कब्जे में ले लेना है. भारत ने अपनी फौज के लिए हाई ऑल्टीट्यूड गेयर मंगवाया और 13 अप्रैल 1984 को इंडियन आर्मी ने शुरू किया ऑपरेशन मेघदूत. पहले 18,000 फीट ऊंचे बिलाफोंड-ला पास और तीन दिन बाद 20,000 फीट ऊंचे सिया-ला पास पास पर अपना कब्जा जमा लिया. सियाचिन ग्लेशियर पर जगह-जगह तिरंगा नज़र आने लगा. भारत ग्लेशियर पर से पाकिस्तान और चीन दोनों पर नज़र रख सकता था.
जाहिर है, ये बात पाकिस्तान को हजम होने वाली नहीं थी. ठीक 4 साल बाद अप्रैल 1987 में पाकिस्तान अपनी साजिश में कामयाब हो गया और उसने सियाचिन की उस चोटी पर कब्जा कर लिया जिसकी ऊंचाई थी 21 हजार 153 फीट. यानी अब पाकिस्तानी सेना हमारी सेना से भी ऊंची पोजिशन पर थी. और पाकिस्तान ने इस पोस्ट का नाम दिया कायद पोस्ट - मोहम्मद अली जिन्ना के नाम पर.
इस ऊंची पोस्ट पर पाकिस्तानी फौज के स्पेशल सर्विस ग्रुप (SSG) के जवान पहरा देते थे. बाद के सालों में पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे परवेज़ मुशर्रफ उस दौर में सियाचिन में तैनात SSG ब्रिगेड के कमांडर होते थे. कायद पोस्ट से पाकिस्तान भारतीय सेना के मूवमेंट पर नज़र भी रख सकता था, और ज़रूरत पड़ने पर गोलीबारी भी कर सकता था. और उसने ऐसा बार-बार किया.
इसीलिए भारत ने तय किया कि अब हर हाल में पाकिस्तान को कायद पोस्ट से खदेड़ना है. ब्रिगेड कमांडर सीएस नग्याल ने ये काम दिया जम्मू एंड कश्मीर लाइट इंफेंट्री रेजीमेंट (जैक लाई) को. प्लान तैयार हुआ, टीम चुनी गई और 29 मई 1987 को लेफ्टिनेंट राजीव पांडे के नेतृत्व में 13 सैनिकों की एक टुकड़ी निकल पड़ी.
पहला अटैक
इस टीम का पहला लक्ष्य था दुश्मन की पोज़िशन और उसकी ताकत का पता लगाना. राजीव पांडे की टीम ने चढ़ाई शुरू की तो सामने थी बर्फ की एक दीवार. ये पहाड़ 80-85 डिग्री के कोण पर खड़ा था. लेफ्टिनेंट राजीव पांडे ने प्लान बनाया कि इस पर चढ़ने के लिए रस्सियां बांधी जाएं और रस्सियों के सहारे ऊपर चढ़ा जाए. जवानों ने रस्सियां बांधना शुरू किया और अभी थोड़े ही आगे बढ़े थे कि दुश्मन को पता लग गया. और जब तक हमारे जवान कुछ समझ पाते पाकिस्तान ने फायरिंग शुरू कर दी. ऊंचाई पर बैठा दुश्मन अगर पत्थर भी फेंक रहा था तो गोली के बराबर था. कुछ ही देर में पाकिस्तान की फायरिंग में भारतीय सेना के 13 में से 9 जवान शहीद हो गए जिसमें लेफ्टिनेंट राजीव पांडे भी शामिल थे. ये भारतीय सेना के लिए झकझोर देने वाला सबक था क्योंकि सेना अभी शहीद जवानों के पार्थिव शरीर भी लाने की स्थिति में नहीं थी. लेकिन जैक लाई के जवानों ने अब ठान लिया था कि उस चोटी पर फतह हासिल करने के अलावा कुछ भी मंज़ूर नहीं है. एक बार फिर से जैक लाई की 8 बटालियन के 62 जवानों का चुना गया जिन्हें अब तक के सबसे कठिन ऑपरेशन को पूरा करने का जिम्मा दिया गया. कैप्टन बाना सिंह बताते हैंबटालियन के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल डीएस रावत ने जवानों से कहा, ''तुम में से अगर एक भी जिंदा वापस नहीं आया तो मुझे ज़रा भी अफसोस नहीं होगा लेकिन पाकिस्तान के कब्जे वाली वो पोस्ट हर हाल में हासिल करनी है.''ऑपरेशन की तारीख तय की गई 30 जून. 62 जवान की एक टुकड़ी चुनी गई, जिसे लीड कर रहे थे मेजर वरिंदर सिंह. लेकिन जिस दिन ये टीम पहुंची उसी दिन भयानक ठंड की वजह से दो जवानों की मौत हो गई. इसके बाद तय हुआ कि ऑपरेशन 30 जून को नहीं, जल्दी शुरू होगा. और फिर भारतीय सेना ने लॉन्च किया ऑपरेशन राजीव. इस ऑपरेशन का नाम शहीद लेफ्टिनेंट राजीव पांडे के नाम पर रखा गया. 62 सैनिकों की टीम में दो अफसर, तीन जेसीओ और 57 जवान थे. तीनों जेसीओ के नेतृत्व में तीन टीमें बनाई गईं. पहली टीम थी सूबेदार हरनाम सिंह की और दूसरी टीम थी सूबेदार संसार चंद की. तीसरी टीम थी नायब सूबेदार बाना सिंह की, जिसे रिजर्व में रखा गया . दूसरी कोशिश 24 जून 1987 सूबेदार हरनाम सिंह की पहली टीम चढ़ाई के लिए निकल पड़ी. जमीन पर घुटनों तक बर्फ की चादर थी. घंटों चलने के बाद भी हरनाम सिंह की टीम ज्यादा दूर नहीं जा पाई. फिर ये तय किया गया कि जो रस्सियां लेफ्टिनेंट राजीव पांडे की टीम ने ऊपर चढ़ने के लिए लगाई थीं उनको ढूंढा जाए. इसके साथ ही इस टीम के पास एक और टास्क था - राजीव पांडे की टीम में शहीद हुए 9 जवानों के शव खोजना. जवानों ने लेफ्टिनेंट राजीव की पट्रोल ने जो रस्सियां बांधी थी, उन्हें ढूंढ लिया और शहीद हुए जवानों के शव भी मिल गए. रस्सियां मिलते ही सूबेदार हरनाम सिंह की टीम ने चढ़ना शुरू कर दिया ताकि जल्दी से जल्दी ऊपर पहुंचा जाए. जवानों ने अभी मुश्किल से 50 मीटर ही चढ़ाई की थी कि टीम में आगे चल रहे नायक तारा चंद ने सामने से कुछ हलचल देखी. नायक तारा ने तुरंत अपने साथियों को अलर्ट किया. लेकिन जब तक भारतीय जवान फायरिंग पोजीशन ले पाते, दुश्मन ने फायरिंग शुरू कर दी. पहली गोली नायक तारा चंद को लगी. दुश्मन लगातार गोलियां चला रहा था. भारतीय सैनिकों ने जब गोली चलाने की कोशिश की तो पता चला बंदूकें ठंड की वजह से जाम हो चुकी है. ऊपर बैठे पाकिस्तान के सैनिक अपनी बंदूकों को स्टोव जला कर सेंक रहे थे और फिर भारतीय जवानों पर फायरिंग कर रहे थे. तारा चंद के साथ ही दो और जवान वहीं पर शहीद हो गए. सूबेदार हरनाम सिंह और उनके साथियों ने बर्फ में ही छिपने की जगह बनाई और अपनी जान बचाई . नीचे से कवर फायर देने के लिए भी एक टीम तैनात थी. लेकिन उसने इसलिए गोली नहीं चलाई कि कहीं अपनी ही गोली अपने ही सैनिक को ना लग जाए. और इस तरह पहली कोशिश असफल रही. मेजर वरिंदर ने अपने जवानों के साथ बात की. पहली नाकाम कोशिश से हर सबक लेते हुए तैयारी की गई. 25-26 जून की रात भारतीय सेना ने एक बार फिर कोशिश की. इस बार सूबेदार संसाद चंद की टीम पाकिस्तानी पोस्ट पर धावा बोलने के लिए निकली. संसार चंद की टीम को कवर देने के लिए नीचे एक मीडियम मशीन गन और एक रॉकेट लॉन्चर भी लगाया गया ताकि इस बार कहीं कोई गड़बड़ ना हो. सूबेदार संसार की टीम के साथ एक लाइट मशीन गन से लैस टीम भी भेजी गई थी. जवानों ने रास्ता बनाकर चढ़ाई शुरू की. भयानक बर्फबारी और घुप अंधेरे के बीच जवान चढ़ते चले जा रहे थे. दूसरी तरफ पाकिस्तान ऊपर से बैठा लगातार गोलीबारी कर रहा था क्योंकि उसे ये अंदाजा लग गया था कि भारतीय जवान हार मानने वाले नहीं हैं. सूबेदार संसार दुश्मन तक पहुंच ही गए थे लेकिन इस बार भी सारी बंदूकें -25 डिग्री की ठंड की वजह से जाम हो गईं. सूबेदार संसार ने तुरंत अपना रेडियो निकाला अपना ताकि अपने कमांडर से और टीम भेजने को कहें. लेकिन तभी उनको पता चला कि उनका रेडियो सेट ही काम ही नहीं कर रहा. और वो अपने कमांडर से बात नहीं कर पाए जो उनसे महज 100 मीटर की दूरी पर थे. सूबेदार संसार सिंह ने अपने एक साथी राम दत्त को ऑर्डर दिया कि वो नीचे जाकर अपने कमांडर से दूसरी टीम भेजने को कहें. राम दत्त ने जवाब दिया यस सर और राइफल टांगकर चल दिए. राम दत्त अभी चले ही थे कि दुश्मन की गोली सीधे आकर उनको लगी. राम दत्त 500 मीटर की ऊंचाई से नीचे गिर गए. और उनकी बॉडी कभी नहीं मिल सकी. सारी कोशिशों के बाद भी ये ऑपरेशन कामयाब नहीं हो सका. फाइनल असॉल्ट तीन दिन बिना खाना पानी और लगातार बर्फबारी के बीच बिताने के बाद भी भारतीय जवान पीछे हटने को तैयार नहीं थे. लेकिन अब मौसम थोड़ा साफ हो रहा था और एक नई चीज देखने को मिल रही थी कि पाकिस्तान की तरफ से गोलीबारी कम हो रही थी. ये इस बात का इशारा था कि दुश्मन के पास अब गोलियां खत्म हो रही थीं . यही मौका था जिसे भारतीय सेना किसी भी कीमत पर जाने नहीं देना चाहती थी. अब तक भारतीय सेना को ये पता चल गया था कि ऊपर बैठे पाकिस्तान की पोस्ट पर करीब 17 जवान तक हो सकते है. इस बार मेजर वरिंदर सिंह ने खुद मोर्चा संभाला. और इसके बाद दो टीमें बनाई गईं. बारी थी दुश्मन पर फाइनल असॉल्ट की. पहली टीम थी मेजर वरिदंर सिंह की जिसमें 8 जवान थे और दूसरी टीम थी नायब सूबेदार बाना सिंह की, जिसमें 5 जवान थे. बाना सिंह बताते हैं-
पहली दो कोशिश नाकाम होने के बाद मेजर वरिंदर सिंह ने अपने जवानों को बुलाया और कहा- सबसे आगे मैं चलूंगा और इस बार अगर किसी ने पीछे लौटने की कोशिश की तो सबसे पहले मैं उसे गोली मार दूंगा.मेजर ने इस बार रणनीति भी बदल दी. इस बार चढ़ाई दिन में शुरू की गई. दोनों टीमें अलग-अलग रास्ते से निकलीं. मेजर वरिंदर जवानों के साथ चढ़ते चले जा रहे थे. लेकिन वो अभी कुछ दूर ही निकले थे कि दुश्मन की गोली आकर सीधे मेजर के सीने पर लगी. मेजर वहीं घायल होकर गिर पड़े. जवानों के सामने उनका कमांडर घायल पड़ा था. दूसरी तरफ नायब सूबेदार बाना सिंह ने वो रास्ता चुना, जिसके बारे में दुश्मन सोच भी नहीं सकता था. अपने पांच जवानों की टीम के साथ बाना सिंह पहाड़ पर उस तरफ से बढ़े जहां 90 डिग्री की चढ़ाई थी. बाना सिंह ने दोपहर डेढ़ बजे चढ़ाई शुरू की. लेकिन बर्फीला तूफान इतना तेज था कि सामने कुछ भी दिख नहीं रहा था. ये मौका बाना सिंह के लिए बेहद मुश्किल था. लेकिन जीरो विजिबिलिटी होने की वजह से दुश्मन के लिए भी देख पाना लगभग नामुमकिन था. यानी इस बार कवर देने के लिए खुद कुदरत ने मोर्चा संभाल लिया था . जवान लगातार बर्फबारी के बीच बर्फ की उस दीवार पर चढ़ते चले जा रहे थे. कंधे पर बंदूक थी और पीठ पर गोला बारूद और कुछ सामान. रस्सी के सहारे बैलेंस बनाकर जवान खुद को ऊपर खींच रहे थे. घंटों की चढ़ाई के बाद जवान आखिरकार उस चोटी पर चढ़ने में कामयाब हो गए. बाना सिंह जब ऊपर पहुंचे तो देखा कि वहां दुश्मन की सिर्फ एक पोस्ट है. अब समय इंतजार करने का नहीं था. चढ़ाई की थकान मिटाने का नहीं था. लेकिन बंदूकें इस बार भी जाम हो गई थीं. 'क़ायद पोस्ट से बाना सिंह पोस्ट' बाना सिंह ने तुरंत ने एक ग्रेनेड निकाला और दुश्मन के बंकर की तरफ भागे. भागते हुए बाना सिंह ने ग्रेनेड की पिन खींची और उसे पाकिस्तान के बंकर में फेंक दिया और बाहर से बंकर का दरवाजा बंद कर दिया. एक ही झटके में बंकर में बैठे सारे पाकिस्तानी सैनिक मारे गए. लेकिन पाकिस्तान के कुछ सैनिक बंकर के बाहर भी थे. क्योंकि हथियार काम कर नहीं रहे थे, जवानों में हाथापाई हुई. भारतीय जवानों ने कई पाकिस्तानी सैनिकों को मार-मार कर सियाचिन की सबसे ऊंची चोटी से नीचे फेंक दिया. कुछ पाकिस्तानी सैनिकों को बाना सिंह ने खुद बुरी तरह पीटा और नीचे फेंक दिया. दुश्मन के कुछ सैनिकों ने ये देख कर कि अब मौत ज्यादा दूर नहीं है खुद ही पहाड़ी से छलांग लगा दी. मिशन पूरा हो चुका था. दुनिया में सबसे ज़्यादा ऊंचाई पर लड़ी गई लड़ाई बाना सिंह के नाम हो चुकी थी. 21 हजार फीट ऊंची सियाचिन की चोटी पर अब भारत का झंडा लहरा रहा था. बाना सिंह की टीम के जवान इतने थक चुके थे कि जश्न मनाने की हिम्मत भी नहीं बची थी. बाना सिंह के जवानों ने पाकिस्तान के जवानों का राशन देखा और उन्हीं का चावल बना कर खाया. अगले दिन ब्रिगेडियर सीएस नग्याल ने इलाके का दौरा किया और लौट कर सीधे सूबेदार बाना सिंह को गले को लगा लिया. और ये ऐलान किया कि अब ये चोटी कायद पोस्ट के नाम से नहीं बाना पोस्ट के नाम से जानी जाएगी. सूबेदार बाना सिंह को सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया.