The Lallantop
X
Advertisement

जेएलएफ में जा पाता है स्कैन किया हुआ 'आदमी'

यहां आने-जाने-खाने-पीने सब पर आपको स्कैन किया जा रहा है. यह स्कैनिंग आपके भीतर के आदमी की भी स्कैनिंग है.

Advertisement
JLF
Photo : Per Ståhlberg
pic
अविनाश
21 जनवरी 2017 (Updated: 6 सितंबर 2022, 11:35 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

जयपुर लिट फेस्ट (जेएलएफ) के दसवें संस्करण को देख कर साल 2011 में उमेश विनायक कुलकर्णी के निर्देशन में आई मराठी फिल्म ‘देउल’ याद आती है. यह फिल्म एक निश्चल और सरल व्यक्ति के स्वप्न से शुरू होती है. यह स्वप्न भगवान दत्ता स्वामी से संबंधित है. इस स्वप्न के खुलासे के बाद एक गरीब गांव कैसे धर्म, राजनीति और बाजार के असर में आकर परंपराच्युत, भ्रष्ट और संवेदनहीन होता है... ‘देउल’ इसकी दास्तान है. ‘देउल’ का अर्थ हिंदी में मंदिर है. नाना पाटेकर, गिरीश कुलकर्णी और सोनाली कुलकर्णी जैसे बेहतरीन कलाकारों के अभिनय से रची यह फिल्म हंसाते हुए भी एक गंभीर विमर्श में मुब्तिला रहती है और खुद में मौजूद कुछेक पात्रों के अकेलेपन और दर्द को उत्सव में बदल देती है, लेकिन इस नकारात्मकता और पराजय में कोई गैरजिम्मेदारी नहीं बल्कि एक टीस है जो सोचने पर बाध्य करती है. यह टीस ‘देउल’ को एक बड़ी फिल्म बनाती है. 

जेएलएफ में अजमेर से आई एक अध्यापिका बताती हैं कि वह इस लिट फेस्ट को साल 2008 से ही देखती आ रही हैं. पहले यहां इतनी भीड़ नहीं होती थी. नमिता गोखले खींच-खींच कर लोगों को सेशन सुनने के लिए बाध्य करती थीं. लेकिन फिर इस साहित्य उत्सव में धर्म, राजनीति, सिनेमा और बाजार से जुड़े लोकप्रिय लोगों को बुलाना और उनका आना शुरू हुआ. और अब आप देख ही रहे हैं कि कोई ऐसी जगह नहीं है जहां आपको धक्का या किसी अपरिचित की कुहनी न लगे. यहां आने-जाने-खाने-पीने सब पर आपको स्कैन किया जा रहा है. यह स्कैनिंग आपके भीतर के आदमी की भी स्कैनिंग है. इस प्रक्रिया से आजिज आ चुके एक स्थानीय लेखक ने बताया कि इस पूरे उत्सव में एक वक्त में इतना फर्जीवाड़ा हो रहा है कि लगता ही नहीं कि साहित्य के नाम पर ये सब भी हो सकता है. वह आगे बताते हैं कि यह उत्सव साहित्य का उत्सव नहीं है. दरअसल, यह अपसंस्कृति की चाशनी में लिपटा हुआ टूरिज्म है. 

राजस्थानी रजवाड़े जो मुरझा रहे थे, उन्हें इस उत्सव ने खाद-पानी दे दिया. आखिर राजघराने से वास्ता रखने वाली एक मुख्यमंत्री जो अपने कुल असर में एक सोशलाइट है, आखिर अपने मुरझा रहे वर्ग के लिए और क्या कर सकती थी कि अपने सारे संसाधन और खजाने एक ऐसे उत्सव के लिए खोल दे जो हाशिए की आवाजों की मुखरता वाले एक दौर में उच्चवर्गीय-अस्मिता-संकट के मसले को इतने बाजारू ढंग से सुलझा सके. डिग्गी पैलेस से करीब 14 किलोमीटर दूर स्थित प्रताप नगर में हिंदी के सबसे बड़े कवियों में से एक ऋतुराज रहते हैं. वह इतने बड़े कवि हैं कि हिंदी साहित्य के प्रकाशकों को उनकी कोई खबर नहीं है. वह इतने बड़े कवि हैं कि हिंदी साहित्य के जिन प्रकाशकों ने उनके कविता-संग्रह छापे हैं, वे साल में एक बार रॉयल्टी के नाम पर उन्हें कभी 114, कभी 335 तो कभी 420 रुपए का चैक भेज देते हैं. एक प्रकाशक ने उनके कविता-संग्रह पर रॉयल्टी देना तो दूर कोई कॉन्ट्रेक्ट तक भी साइन नहीं किया. उसे साफ लगता है कि उसने ऋतुराज को छाप कर उन पर एहसान किया है. इस प्रकाशक का नाम नोट कर लीजिए, यह इलाहाबाद का साहित्य भंडार है. ऋतुराज एक बार को छोड़ कर कभी जेएलएफ में नहीं गए हैं. स्थानीय होने और बुलावा आने के बावजूद वह ऐसा क्यों करते हैं, यह पूछने पर वह जेएलएफ को भयावह बताते हैं. 

मुहावरे में कहें तो जिन्हें ठीक से पानी पिलाए जाने की जरूरत है, ऐसे लोगों को तीन दिन में लाखों बार 30 रुपए की मसाला चाय पिला चुके व्यक्ति से यह पूछने पर कि आपको पता है कि साहित्य क्या होता है? राजस्थानी परिधान में सर्वहारा होने से कुछ दूरी पर खड़ा वह व्यक्ति अपनी बहुत व्यस्तता और कुछ संकोच में शर्माते हुए कहता है कि यही सब होता होगा... बड़े लोगों का कुछ काम. लगभग सारे कला-उत्सवों में पंडाल की तरह मौजूद रहने वाला एक फेस्टिवलखोर जरा-सा छेड़ने पर बेसुरे सितार की तरह बज उठता है. वह कहता है कि इस लिट फेस्ट में मैनिपुलेशन बहुत हावी है. 

कुछ चेहरे कई-कई सेशंस में नजर आते हैं. दलित साहित्य पर अनु सिंह चौधरी बात कर रही हैं. बताइए उन्हें भला क्या पता है दलित साहित्य के बारे में. यों लगता है कि इस उत्सव पर विचारवंचित लोग ही हावी हैं. सारा सुख वही लूट रहे हैं जो किसी के प्रति कमिटेड नहीं हैं. एक सेशन से दूसरे सेशन के बीच में इतने विज्ञापन हैं कि लगता ही नहीं कि आप बाजार से दूर हैं. दिल्ली से आए और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे दो छात्र बताते हैं कि वे यहां पहली बार आए हैं. उन्हें यहां मजा आ रहा है. वह कान में यह भी बताना चाहते हैं कि लड़कियों की लाइन यहां सब जगह लड़कों से लंबी है. आखिरी किताब कौन-सी पढ़ी थी, यह पूछने पर वे बगलें झांकने लगते हैं. बुक स्टोर में क्या उनका जाना हुआ यह पूछने पर वे कहते हैं कि अभी नहीं गए लेकिन जाएंगे जरूर. 

जयपुर लिट फेस्ट के प्रसंग में यहां तक आते-आते यह लगने लगता है कि इसके कर्ता-धर्ता संभवत: वर्तमान की वास्तविक पीड़ाएं जानते हैं और इसलिए ही उन्हें सार्वजनिक स्पेस में प्रस्तुत नहीं करते हैं, क्योंकि यह प्रकटीकरण न सिर्फ उन्हें बल्कि उस सार्वजनिकता को भी एक अनिर्वचनीय प्रायश्चित से भर देगा, जो ऐसे अवसरों पर प्रस्तुत होती है. इस मायने में जेएलएफ के प्रायोजक, आयोजक, संयोजक, सहयोगी और ज्यूरी ऐसे प्रकटीकरणों से जो उनके बेहद मॉड किस्म के डेलीगेट्स के लिए असुविधाजनक हों, बचकर एक ऐसा रास्ता चुनते हैं जो कतई अनैतिक, भ्रष्ट और गैरजिम्मेदार है. 

भिन्न-भिन्न भारतीय भाषाओं में प्रतिवर्ष भारतीय यथार्थ के जटिल और क्रूरतम सत्य के नजदीक जाकर बेहद बारीकी और कलासंपन्न वैभव के साथ बहुत सारी रचनाएं संभव हो रही हैं. इन्हें अक्सर बड़े श्रम के साथ यातनाएं झेल कर खुद के खर्चे पर या आपसी सहयोग के बलबूते पर मुमकिन किया जाता है. इस प्रकार की रचनाओं को देख पाना भी उतना ही मुश्किल होता है, जितना कि उन्हें रचना. ऐसी सच्चाइयों के विरुद्ध जाकर जेएलएफ जारी है. तीसरे दिन भी कई सेशन हुए, लेकिन इन पंक्तियों का लेखक बहुत ईमानदारी से स्वीकार करता है कि उत्सव-स्थल के बहुत नजदीक होने के बावजूद उसने किसी भी सेशन में हिस्सा नहीं लिया. 

*** 

इन्हें भी पढ़ें :

मैं प्रोफेशनल मुस्लिम नहीं हूं : सईद नकवीजेएलएफ पहला दिन: संक्षेप ही तो समस्या है

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement