The Lallantop
Advertisement

1996, अटलांटा, जब लिएंडर ने इतिहास को पलटा था

भारतीय टेनिस के सबसे उजले खिलाड़ी के जन्मदिन पर ख़ास

Advertisement
Img The Lallantop
Image : REUTERS
pic
मियां मिहिर
17 जून 2018 (Updated: 17 जून 2018, 05:31 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

"उसे खेलते देखना ऐसा है जैसे कोई इंसान खुद पर ही मिट्टी का तेल छिड़ककर, फिर दांतों तले माचिस की तीली सुलगा रहा हो."

चर्चित खेल पत्रकार रोहित ब्रिजनाथ का ये कथन एक 23 साल के लड़के के लिए था. लड़का जो 1996 में अटलांटा गए 49 सदस्यीय भारतीय अोलंपिक दल का हिस्सा था. विश्व में 126वीं रैंकिंग, अौर ग्रैंड स्लैम सिंगल्स मुकाबलों में एक भी जीत नहीं थी उसके नाम तब तक. लेकिन एक खूबी थी उसमें. जैसे ही उसके नाम के पीछे india जुड़ता था, उसे जैसे चिंगारी लग जाती थी. डेविस कप मुकाबलों में देश का प्रतिनिधित्व करते हुए उसने कई यादगार मैच खेले थे.

नाम था, लिएंडर पेस.

लिएंडर एक समृद्ध विरासत के साथ खेलों में आए थे. उनका बचपन कोलकाता में बीता. उनके पिता वेस पेस डॉक्टर होने के साथ हॉकी में देश का प्रतिनिधित्व कर चुके थे. वे साल 1972 के म्यूनिख अोलंपिक में कांसे का तमगा जीतने वाली हॉकी टीम में मिडफील्डर थे. लिएंडर की मां भी भारतीय बास्केटबॉल टीम की कप्तान रही थीं. पहली बार लिएंडर का नाम तब चमका जब 1990 में उन्होंने विम्बलडन में जूनियर सिंगल्स का खिताब जीतकर इतिहास बनाया. कुछ समय ऐसा भी था कि वे जूनियर सिंगल्स की रेटिंग में नंबर 1 पर रहे.

लेकिन अोलंपिक में नज़र उन पर नहीं थी. फिर एक-एक कर बड़ी इमारतों का गिरना शुरु हुआ. पहले राउंड में जब अमरीकी खिलाड़ी अौर विश्व नम्बर 20 रिची रेनबर्ग मुकाबले से चोट की वजह से बाहर हुए, तो ये लिएंडर की किस्मत समझा गया. लेकिन वेनेज़ुएला के निकोलस परेरा (75) को 6-3, 6-2 से हराने में लिएंडर ने ज़्यादा समय नहीं लिया. पर तीसरे राउंड में मुकाबला बड़ा था. सब उनकी चुनौती खत्म मानकर चल रहे थे. स्वीडिश खिलाड़ी टॉमस एंक्विस्ट को उन दिनों ब्यॉन बोर्ग अौर स्टीफ़न एडबर्ग का उत्तराधिकारी माना जा रहा था अौर वे विश्व टेनिस की दुनिया के मज़बूत खिलाड़ी थे. इसीलिए टॉमस एंक्विस्ट (10) को सीधे सेटों में हराकर युवा पेस अचानक खबरों में आ गए. एक अौर मैच, अौर मैडल की संभावना. अचानक लोगों की नज़रें इस 23 साल के बेचैन नौजवान की अोर घूम गईं. अौर एक खास संख्या फिज़ाअों में गूंजने लगी − 44.


भारत को 44 साल हुए थे खेलों के इस सबसे बड़े मेले में कोई व्यक्तिगत पदक जीते. के डी जाधव के 1952 में हेलसिंकी अोलंपिक में भारत के लिए कुश्ती में जीते मैडल के बाद सिर्फ़ अकाल था पदक तालिका में दिखाने को. अौर 1952 से 1996 में फासला इतना लम्बा है कि लोगों ने अब उम्मीद करना भी छोड़ दिया था.

लेकिन अचानक, एक भारतीय वहां खड़ा था. मौके के ठीक सामने. लेकिन आगे खड़ी चट्टान थी. आंद्रे अगासी. दुनिया का सबसे स्टाइलिश खिलाड़ी. सबसे मारक भी. देश के लिए जान लगाकर खेलनेवाला. विश्व नंबर 3. लेकिन सेमीफाइनल में लिएंडर ने चमत्कार किया. अगासी के खिलाफ पहले सेट को टाइब्रेकर तक ले गए. लेकिन सेट पाइंट पर एक गलती अौर अगासी मैच 6-7, 3-6 से ले उड़े. लिएंडर हारे थे, लेकिन उन्होंने सबके दिल जीत लिए थे. टेनिस की दुनिया में एक नए खिलाड़ी का ही नहीं, एक नए देश का भी सूर्योदय हो रहा था. मैच के बाद आंद्रे के पिता माइक अगासी लिएंडर के पिता वेस पेस से एक मुलाकात में बोले, "कमाल. मेरा बेटा तो अच्छा खेलेगा ये सबको उम्मीद थी, लेकिन तुम्हारा बेटा तो इन दिनों ऐसा खेल रहा है जैसे टॉप 4 का हिस्सा हो."


Image courtesy India Today archive
Courtesy India Today archive

अचानक लगा कि मैडल का 44 साल पुराना ख्वाब फिर टूट गया. लेकिन नहीं, ये ग्रैंड स्लैम नहीं अोलंपिक था. क्रिकेट के असली फॉर्मेट टेस्ट की तरह यहां भी एक अौर मौका अभी मिलना था. कांसे के पदक के लिए ब्राज़ील के फर्नांडो मैलिगेनी से भिड़ना था लिएंडर को. लिएंडर के लिए ये मैच था, लेकिन हर भारतीय को अब एक ही संख्या दिखाई दे रही थी, 44. दोस्त महेश भूपति ने तनाव कम करने को उनके साथ शाम बिताई. लेकिन 44 का आंकड़ा संदर्भों से जा नहीं रहा था.


लिएंडर भी इससे बाहर नहीं थे. मैच के पहले एक दोस्त ने कहा, 'बस जाअो अौर अपना सर्वश्रेष्ठ दो'. सुनकर लिएंडर फुसफुसाए, 'नहीं. मुझे जीतना ही है. मैं बहुत करीब आ गया हूं'. सभी के मन में यही बात थी. सुबह टीम के चिकित्सक लिएंडर से बोले, 'बस तुम्हीं हो जो ये कर सकते हो. प्लीज़ हमको ये मैडल दिलवा दो'. 

अौर मैच में लिएंडर 3-6 से पहला सेट हार गए. कांसे का मैडल भी हाथ से जाता दिख रहा था. उनका स्वत:स्फूर्त खेलने का अंदाज़ एकदम से स्थिर हो गया था. लेकिन वो हारे नहीं थे. जब तकनीक अौर खेल नहीं चला तो उन्होंने भीतर से अपनी इच्छाशक्ति को निकाला अौर दांव पर लगा दिया. अगले दो सैट के स्कोर 6-2, 6-4 थे. मैच के बाद जब उनसे लॉकर रूम में पूछा गया कि आखिर उन्होंने ये चमत्कार दिखाया कैसे? वो हारी हुई बाज़ी जीते कैसे? उनका जवाब था, 'जिगरे से'.

लिएंडर पेस के नाम आज 18 ग्रैंडस्लैम खिताब हैं. लेकिन आज भी उनकी वो कांसेवाली जीत सबको याद रहती है, जिसने उस मनहूस 44 के आंकड़े को हमेशा के लिए इतिहास में दफन कर दिया. लिएंडर की वो जीत टेनिस के लिए ही नहीं, समूचे भारतीय खेलों के लिए कितनी उजली थी, ये इसी से अंदाज़ा लगाइये कि उसके बाद भारत किसी अोलंपिक में से खाली हाथ वापस नहीं आया. हमारे खिलाड़ी लिएंडर के कमाए कांसे को हर नए अोलंपिक में खुरचते रहे अौर 2004 में राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने उसे चांदी में, अौर 2008 में अभिनव बिंद्रा ने उसे आखिरकार सोने में बदल दिया.


वैसे नाश्ते की टेबल पर बात चलती है तो आज भी लिएंडर मज़ाक में कहते हैं कि उन्हें गोल्ड मैडल ही जीतना था, क्योंकि कांसे का पदक तो उनके घर में पहले से था. लेकिन फिर वो संख्या याद में गूंजती है − 44, अौर सब उजला हो जाता है.

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement