फिजिक्स का Nobel Prize पाए 3 वैज्ञानिकों ने क्या किया, जो बड़ी बीमारियां मिटा देगा?
साल 2023 के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार (The Nobel Prize in Physics for 2023) तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है. इन तीनों वैज्ञानिकों को जिस तकनीक/ प्रयोग के लिए नोबेल मिला है, उसके जरिए किसी एटम के अंदर गति कर रहे इलेक्ट्रॉन को ऑब्जर्व किया जा सकेगा. इस तकनीक से, कई बीमारियों का इलाज करने और नए इलेक्ट्रॉनिक गैजेट बनाने में मदद मिल सकती है.
साल 2023 के लिए नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की जा रही है. भौतिकी का नोबेल पुरस्कार (The Nobel Prize in Physics for 2023) तीन वैज्ञानिकों को दिया गया है. जिस तकनीक/प्रयोग के लिए उन्हें नोबेल मिला है, उसके जरिए किसी एटम के अंदर गति कर रहे इलेक्ट्रॉन को ऑब्जर्व किया जा सकेगा. बताया गया है कि इस तकनीक से कई बीमारियों का इलाज करने और नए इलेक्ट्रॉनिक गैजेट बनाने में मदद मिल सकती है.
वैज्ञानिकों ने क्या किया है?फिजिक्स का नोबेल पाने वाले ये तीन वैज्ञानिक हैं- ऐनी एल'हुइलियर (Anne L’Huillier), पियरे एगोस्टिनी (Pierre Agostini) और फ़ेरेन्क क्रॉस्ज़ (Ferenc Krausz). नोबेल प्राइज की वेबसाइट पर इन तीनों के लिए लिखा है,
"इन वैज्ञानिकों ने परमाणुओं और अणुओं के अंदर इलेक्ट्रॉनों की दुनिया की खोज के लिए नए टूल दिए हैं. उन्होंने लाइट की बहुत छोटी पल्सेज (तरंगें) बनाने का तरीका दिखाया है. इन तरंगों के इस्तेमाल से उन बहुत तेज प्रक्रियाओं को मापा जा सकता है, जिनमें इलेक्ट्रॉन मोशन करते हैं."
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ये काम कितना बड़ा है?मूवीज में आपने देखा होगा- सेब पर गोली चलाई जाती है. आपको क्या दिखाई-सुनाई देता है? गोली चलने की आवाज और सेब के हिस्से. हालांकि इस पूरे काम में कुछ ही सेकंड्स लगते हैं, लेकिन आप नंगी आंखों से सेब पर गोली के हिट करने और सेब के टुकड़े होने की प्रक्रिया को नहीं देख सकते. अगर देखना है तो आपको बहुत तेज शटर-स्पीड वाले कैमरे की जरूरत होगी. लेकिन सेब तो बड़ी चीज है.
इस ब्रह्मांड में बहुत कुछ ऐसा होता है जो सेब से करोड़ों-अरबों गुना छोटे स्तर पर होता है. ऐसी क्रियाएं होती हैं जिनकी स्पीड सेब पर लगी गोली की स्पीड से करोड़ों-अरबों गुना तेज होती है. मिसाल के लिए एटॉमिक और सब-एटॉमिक लेवल पर होने वाली क्रियाएं. हम सब जानते हैं कि कोई भी पदार्थ, इसके लाखों छोटे-छोटे एटम (परमाणुओं) से मिलकर बना होता है. परमाणुओं के अंदर होते हैं नाभिक. और इनके अंदर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन. किसी एटम या प्रोटॉन या न्यूट्रॉन की गति या उनका किसी भी तरह का मूवमेंट, पिकोसेकंड (माने 10 की घात माइनस 12) या फेम्टोसेकंड (10 की घात माइनस 15) के टाइम में होता है. इतने कम टाइम में होने वाले किसी एटम के मूवमेंट को वैज्ञानिकों ने लाइट की बहुत छोटी पल्सेज के इस्तेमाल से देख लिया. कह सकते हैं कि बहुत-बहुत ज्यादा हाई-स्पीड शटर कैमरा लगाकर.
लेकिन किसी एटम में नाभिक के चारों ओर इलेक्ट्रॉन्स मूव करते हैं. उनकी स्पीड, एटॉमिक लेवल के मूवमेंट्स की स्पीड से भी बहुत कम टाइम में होती है. कितने टाइम में? एटोसेकंड्स में. यानी 10 की घात माइनस 18 के टाइम में. ये एक फेम्टोसेकंड का भी हजारवां हिस्सा है, जिसमें इलेक्ट्रॉन्स मूव करते हैं. इस मूवमेंट को देखने का तरीका अभी तक वैज्ञानिकों के पास नहीं था. फोटोग्राफी की न्यूनतम सीमा फेम्टोसेकंड तक ही थी. एटोसेकंड की रेंज में लाइट की पल्सेज बना पाना मुमकिन नहीं लग रहा था. लेकिन अब ऐनी, पियरे और फ़ेरेन्क ने इलेक्ट्रॉन्स के मूवमेंट को देखना, उसे ऑब्जर्व करना मुमकिन बना दिया है. इन तीनों वैज्ञानिकों ने लाइट की ऐसी पल्सेज बनाई हैं जिसके जरिए इलेक्ट्रॉन को देखा जा सकता है. उनकी स्टडी की जा सकती है.
एटोसेकंड फिजिक्सअगर कोई भी एक्शन हो रहा है तो इसका मतलब है कि सामने जो भी दृश्य या चीजें हैं वो बदल रही हैं. और ऐसे में अगर आपको उस एक्शन को मेजर या कैप्चर करना है तो दो चीजें जरूरी हैं- एक लाइट और दूसरी चीज है- एक शर्त. शर्त ये है कि मेजरमेंट का रेट, चीजों में हो रहे बदलाव के रेट से ज्यादा होना चाहिए. इसे एक और उदाहरण से समझिए- मान लीजिए आप एक चलती हुई ट्रेन की फोटो ले रहे हैं. और अगर आपके कैमरे की शटर-स्पीड अच्छी नहीं है तो ट्रेन की फोटो धुंधली आएगी. साफ़ तस्वीर के लिए शटर स्पीड भी तेज होनी चाहिए. ये एक सीमा तक ही तेज हो सकती है. जितनी चाहें उतनी नहीं.
और एटॉमिक लेवल पर जो घटता है, उसे कैद करने के लिए लेजर लाइट चाहिए होती है. कौन सी लेजर लाइट? छोटी वेवलेंथ वाली लाइट पल्सेज. लेकिन ये पल्सेज भी जितनी मर्जी चाहें उतनी छोटी नहीं हो सकतीं. फिजिक्स की बेसिक जानकारी रखने वालों को भी पता है कि लाइट में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव या वाइब्रेशन होते हैं. जिनकी तय वेवलेंथ होती है. एक सबसे छोटी लाइट पल्स का साइकिल भी कम से कम एक वेवलेंथ जितना लंबा होना चाहिए. और लेजर सिस्टम से जितनी भी तरीके की लाइट बनती हैं, उनकी वेव का एक साइकिल पूरा होने में भी कुछ फेम्टोसेकंड्स का वक़्त लगता है. वैज्ञानिक फेम्टोसेकंड्स में होने वाले एटॉमिक मूवमेंट्स को कैद करने के लिए फेम्टोसेकंड पल्स तो बना चुके थे. लेकिन जैसा हमने आपको पहले ही बताया, इलेक्ट्रॉन्स, फेम्टोसेकंड्स से भी कम टाइम (एटोसेकंड्स) में मूवमेंट करते हैं. ऐसे में इलेक्ट्रॉन्स के मूवमेंट को कैद करने के लिए एटोसेकंड पल्स की जरूरत थी.
एटोसेकंड पल्स कैसे बनीं?ऐनी, पियरे और फ़ेरेन्क, एटोसेकंड पल्स बनाने के लिए कई सालों से काम कर रहे थे. इसके लिए उन्होंने कई अलग-अलग तरीके की वेवलेंथ वाली लाइट्स को आपस में मिक्स किया. नोबेल वेबसाइट के मुताबिक, साल 1987 में एनी ने एक तथ्य पता लगाया. उन्होंने देखा कि जब एक लेजर लाइट वेव को एक नोबल गैस (आदर्श गैस) के मीडियम से गुजारा गया, तो ये लाइट वेव, परमाणुओं के साथ संपर्क में आई और इससे कुछ इलेक्ट्रॉन्स को अतिरिक्त ऊर्जा मिली. यही ऊर्जा बाद में लाइट के रूप में एमिट हुई. माने प्रयोग से एक नई तरह की लाइट वेव भी पैदा हुई. इसके बाद एनी इस प्रोजेक्ट पर काम करती रहीं.
इसी तरह साल 2001 में पियरे भी ऐसी लाइट पल्सेज की सीरीज बनाने में सफल रहे, जिसमें हर पल्स सिर्फ 250 एटोसेकंड की थी. इसके बाद फ़ेरेन्क क्रॉस्ज़, एक पूरी सीरीज से एक अकेली लाइट पल्स बनाने में सफल हुए. ये अकेली लाइट पल्स 650 एटोसेकंड की थी. कुल-मिलाकर तीनों का प्रयोग सफल रहा.
फायदे क्या होंगे?टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के हैदराबाद सेंटर के एम कृष्णमूर्ति ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार से बात करते हुए कहा है कि ये एक शानदार काम है. इन तीनों वैज्ञानिकों ने जो वैज्ञानिक उपलब्धि हासिल की है उससे बड़े बदलाव आएंगे. उन्होंने ये भी बताया कि इस एक्सपेरिमेंट के डेटा में पॉल कॉर्कम नाम के एक और वैज्ञानिक का भी योगदान है.
फिजिक्स की नोबेल कमेटी की अध्यक्ष इवा ओल्सन कहती हैं कि इससे इलेक्ट्रॉन्स की दुनिया का रास्ता खुल जाएगा. एटोसेकंड फिजिक्स उस मकैनिज्म को समझने का मौक़ा देती है जो इलेक्ट्रॉन्स पर आधारित है. अब अगला कदम है, इस मकैनिज्म का इस्तेमाल करना. इस सफलता से किसी बीमारी को पहचानना, खून में मॉलिक्यूलर लेवल पर चीजों को समझना आसान हो जाएगा. इसके अलावा कहीं ज्यादा आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स बनेंगे.
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