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सुरक्षा के नाम पर हॉन्ग कॉन्ग की आज़ादी ख़त्म करना चाहता है चीन!

नैशनल सिक्यॉरिटी लॉ सीधे-सीधे हॉन्ग कॉन्ग की बची-खुची स्वायत्तता का उल्लंघन है.

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नैशनल सिक्यॉरिटी लॉ का विरोध करते हॉन्ग कॉन्ग के लोग (फोटो: एपी)
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स्वाति
27 मई 2020 (Updated: 27 मई 2020, 13:50 IST)
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आज शुरुआत करेंगे एक फिल्म से. एक फिल्म, जो थी तो काल्पनिक मगर उसमें दिखाई गई घटनाएं अब सच हो रही हैं. इस भविष्यद्रष्टा फ़िल्म का नाम है- टेन ईयर्स. 17 दिसंबर, 2015 को रिलीज़ हुई ये फ़िल्म बनी थी हॉन्ग कॉन्ग में. पांच अलग-अलग डायरेक्टरों ने छोटी-छोटी कहानियां बुनकर बताया कि 10 बरस बाद, यानी सन् 2025 में हॉन्ग कॉन्ग कैसा होगा. कैसा था इन पांच कहानियों का हॉन्ग कॉन्ग? हम आपको कुछ दृश्यों की मिसाल देते हैं-
जिस पहले दृश्य की मिसाल ली है हमने, उसमें दिखाते हैं कि चीन की सरकार ने हॉन्ग कॉन्ग के स्कूलों में यूथ गार्ड्स नाम के ग्रुप बनाए हैं. इसका मकसद है बच्चों का ब्रेनवॉश करना. इस ग्रुप का कमांडर क्लास के बच्चों को अपने आस-पास के लोगों, परिवारवालों की जासूसी करना सिखाता है. इस यूथ गार्ड्स में एक बच्चा है, जिसके पिता राशन की दुकान चलाते हैं. लड़के से कहा गया है, वो लोकल कहकर बेचे जाने सामानों की रिपोर्ट करेगा कमांडर के पास. अब उस बच्चे को अपने पिता की भी शिकायत करनी होगी. क्योंकि उसके पिता भी अपनी दुकान पर लोकल अंडे बेचते हैं.
इस लिस्ट का दूसरी कहानी है एक टैक्सी ड्राइवर की. वो टैक्सी चालक शहर के कई व्यस्त इलाकों से सवारी नहीं उठा सकता. क्यों नहीं उठा सकता? क्योंकि वो हॉन्ग कॉन्ग में बोली जाने वाली कैंटोनीज़ भाषा बोलता है. जबकि सरकार का लाया क़ानून कहता है कि चीन की मंडारिन भाषा न बोलने वाले टैक्सी ड्राइवर अब बहुत कम इलाकों में काम कर सकेंगे. अब टैक्सी ड्राइवर की पत्नी को वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की भी चिंता सता रही है. वो पति से कहती है कि बेटे के साथ कैंटोनीज़ में बात न किया करे. ताकि बेटे की मंडारिन अच्छी हो.
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टेन ईयर्स फिल्म का एक दृश्य (फोटो: यूट्यूब स्क्रीनशॉट)

तीसरी कहानी का प्लॉट है एक हत्या की साज़िश. जिसे रचा है सरकारी अधिकारियों ने. ताकि इस हत्या के बहाने लोगों के बीच डर बनाया जाए. ताकि डरे हुए लोग एक ख़ास क़ानून का सपोर्ट करना शुरू करें. इस हत्या को अंजाम देने के लिए अधिकारी चुनते हैं दो छोटे बदमाशों को. उन्हें स्थानीय राजनैतिक पार्टियों के दो नेताओं की हत्या का टारगेट दिया गया है. दोनों बदमाश हत्या की कोशिश करते हैं. मगर साज़िश में शामिल पुलिस उन्हें मार डालती है. फिर पुलिस कहती है कि वो दोनों आतंकवादी थे. इस घटना को ढाल बनाकर जनता से कहा जाता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक सख़्त क़ानून लाना बहुत ज़रूरी है.
फ़िल्म के प्लॉट में सरकार ने जिस क़ानून को लाने के लिए ये साज़िश बनाई, जानते हैं उसका नाम क्या था? इस क़ानून का नाम था- नैशनल सिक्यॉरिटी लॉ. इत्तेफ़ाक देखिए कि इस फ़िल्म की रिलीज़ के 53 महीने बाद हम जब आपको हॉन्ग कॉन्ग की कहानी सुनाने आए हैं, तो उसका संदर्भ यही नैशनल सिक्यॉरिटी लॉ है. चीन की सरकार सच में ही ये क़ानून ला रही है हॉन्ग कॉन्ग के लिए.
कौन है इस क़ानून के निशाने पर? क्या है इस क़ानून का मकसद? ये समझने के लिए आपको वापस 'टेन ईयर्स' की कहानी पर ले चलना होगा. जानते हैं, फ़िल्म की कहानी में इस क़ानून का पहला शिकार कौन बनता है? आज़ाद हॉन्ग कॉन्ग मूवमेंट की एक सदस्य बनती है इसका पहला शिकार. जिसे पहले तो पुलिस ख़ूब पीटती है. और फिर उसे जेल में बंद कर देती है. वहीं जेल में उस ऐक्टिविस्ट की मौत हो जाती है. हॉन्ग कॉन्ग के हालात इस समय बिल्कुल वैसे ही हैं. राजद्रोह, देशद्रोह और बगावत जैसे शब्दों के बहाने चीन की कम्यूनिस्ट सरकार हॉन्ग कॉन्ग की आज़ादी को पूरी तरह कुचलने की तैयारी कर चुकी है. ये पूरा मामला क्या है, आपको बताएंगे. मगर उससे पहले बताएंगे हॉन्ग कॉन्ग का अतीत.
ये बात है 19वीं सदी के चीन की. पश्चिमी देशों, ख़ासकर ब्रिटेन के लिए यहां मुनाफ़े की कई चीजें थीं. इनमें सबसे बढ़कर थे, रेशम, चाय और सिरामिक उत्पाद. ब्रिटेन बड़ी मात्रा में ये चीजें चीन से खरीदता. द्विपक्षीय कारोबार में शामिल देशों की कोशिश होती है कि फलां देश से सामान खरीदो. और उसके बदले अपने उत्पाद उनको बेचो. ताकि आयात और निर्यात के बीच बहुत अंतर न रहे. मगर यहां एक दिक्कत थी. चीन के पास बेचने को एक-से-एक चीजें थीं. मगर पश्चिमी उत्पादों को खरीदने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. वो अपने उत्पादों का भुगतान बस चांदी में लेता. नतीजा, ब्रिटेन को व्यापार घाटा होने लगा.
अफीम युद्ध और चीन की हार
इसको पाटने के लिए ब्रिटेन ने ड्रग्स का सहारा लिया. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में किसानों पर ज़ुल्म करके ख़ूब सारा अफ़ीम उगाती और वो अफ़ीम चीन में सप्लाई कर देती. चीन में एक बड़ी आबादी को अफ़ीम की लत पड़ गई. जवाब में चीन ने अफ़ीम पर बैन लगा दिया. दोनों पक्षों के बीच पहले छुटपुट झड़पें हुईं. फिर ब्रिटिश सरकार ने जंग का ऐलान कर दिया. 1839 से 1842 तक चला ये युद्ध फर्स्ट ओपियम वॉर कहलाता है. ये नाम और युद्ध का ये इतिहास ब्रितानिया हुकूमत के असल चरित्र की एक बड़ी शर्मनाक कहानी है. ये बताती है कि अपनी सभ्यता को सबसे श्रेष्ठ कहने वाले अंग्रेज़ किस हद तक नीचे गिर सकते थे. कि कैसे वो ड्रग्स जैसी ख़तरनाक चीज की लत लगाकर इससे मुनाफ़ा कमाने के लिए युद्ध की हद तक चले गए.
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अफीम की खेती: फोटो (एपी)

क्या हुआ इस युद्ध का नतीजा? नो सप्राइज़, चीन हार गया. उसे मज़बूरन एक अपमानजनक संधि पर दस्तख़त करना पड़ा. कौन सी संधि थी ये? ये थी 1842 की नानजिंग ट्रीटी. इसी संधि के तहत चीन को अपना एक द्वीप अंग्रेज़ों के सुपुर्द करना पड़ा. कौन सा द्वीप था ये? ये था हॉन्ग कॉन्ग आइलैंड. ये पड़ता है मौजूदा हॉन्ग कॉन्ग के दक्षिणी हिस्से में.
तो क्या हॉन्ग कॉन्ग हड़पने के बाद अंग्रेज़ शांत हो गए? नहीं. 14 साल बाद सन् 1856 में ब्रिटेन और चीन के बीच एक और युद्ध लड़ा गया. ये युद्ध कहलाता है सेकेंड ओपियम वॉर. फ्रांस और अमेरिका ने भी इस युद्ध में अंग्रेज़ों की मदद की. चीन के साथ अफ़ीम के इस कारोबार से अमेरिका के भी हित जुड़े थे. अमेरिकी हितों से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी सुनाता हूं आपको. अमेरिका में एक रशेल ऐंड कंपनी हुआ करती थी. इसमें एक अधिकारी थे वॉरेन डेलानो. वॉरेन ने इस कारोबार से ख़ूब पैसा बनाया और न्यू यॉर्क में बस गए. उनकी एक बेटी थी- सारा. उसकी शादी उन्होंने जेम्स रूज़वेल्ट नाम के एक आदमी से कराई. इन्हीं जेम्स और सारा की संतान थे फ्रेंकलिन रुज़वेल्ट, जो कि अमेरिका के 32वें राष्ट्रपति बने.
फिर हारा चीन
ख़ैर, हम वापस लौटते हैं दूसरे अफ़ीम युद्ध पर. चार साल बाद 1860 में ये युद्ध ख़त्म हुआ. एक बार फिर चीन को अपना एक हिस्सा गंवाना पड़ा. इस हिस्से का नाम था काउलून प्रायद्वीप. अंग्रेज़ों ने काउलून प्रायद्वीप को भी हॉन्ग कॉन्ग की अपनी कॉलोनी में मिला लिया.
चीन का अपमान यहीं ख़त्म नहीं हुआ. सदी के आख़िरी दशक में जापान और उसके बीच एक युद्ध हुआ. इसमें भी चीन की हार हुई. उसकी कमज़ोर स्थिति का फ़ायदा उठाकर जर्मनी, रूस और फ्रांस जैसी साम्राज़्यवादी ताकतों ने लीज़ पर उसके इलाके ले लिए. ब्रिटेन ने भी फ़ायदा उठाया. उसने अपने पास मौजूद हॉन्ग कॉन्ग और काउलून प्रायद्वीप में और भी इलाका जुड़वा लिया और इन्हें 99 साल की लीज़ पर चीन से ले लिया. लीज़ का मतलब क्या होता है? ये समझिए एक कानूनी करार है. जिसके तहत एक पार्टी दूसरी पार्टी की ज़मीन, या उसकी कोई इमारत या इस तरह की कोई और संपत्ति अपने इस्तेमाल के लिए किराये पर ले लेती है. जून 1898 में ब्रिटेन और चीन के बीच हुए इस लीज़ वाले समझौते को कन्वेंशन फॉर द एक्सटेंशन ऑफ़ हॉन्ग कॉन्ग टेरेटरी कहते हैं.
इन 99 सालों में हॉन्ग कॉन्ग ने काफी तरक्की की. साउथ चाइना सी में बसाहट का बहुत फ़ायदा मिला इसे. ये रूट समंदर के रास्ते होने वाले वैश्विक कारोबार के सबसे व्यस्त रास्तों में पड़ता है. अपने बंदरगाह पर सामानों की आवाजाही और कारोबार ने इसकी अर्थव्यवस्था को बहुत मज़बूत बनाया. लीज़ की मियाद वैसे तो 1997 में पूरी होनी थी. मगर हॉन्ग कॉन्ग का ट्रांसफर कैसे हो, इसे लेकर 1970 के दशक से ही ब्रिटेन और चीन में बातचीत शुरू हो गई. 1984 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री मारगरेट थैचर और चीन के प्रीमियर झाओ जियांग ने एक संयुक्त समझौते पर दस्तख़त किए. क्या था इस समझौते में? इसमें था हॉन्ग कॉन्ग का भविष्य. इस सिनो-चाइना जॉइंट डेक्लरेशन में चीन एक अलग व्यवस्था बनाने के लिए राज़ी हो गया. क्या थी ये व्यवस्था? ये थी वन कंट्री, टू सिस्टम्स. इस पॉलिसी के तहत चीन अगले 50 सालों तक हॉन्ग-कॉन्ग को कुछ राजनैतिक और सामाजिक स्वायत्तता देने के लिए राज़ी हुआ था.
Sino China Joint Declaration
1984 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री मारगरेट थैचर और चीन के प्रीमियर झाओ जियां के बीच समझौता हुआ था (फोटो: एएफपी)

फिर आया 1997 का साल. अंग्रेज़ों को मिली लीज़ की मियाद ख़त्म हो गई. करार के मुताबिक, अंग्रेज़ों ने हॉन्ग कॉन्ग वापस चीन को लौटा दिया. चीन ने हॉन्ग कॉन्ग को विशेष प्रशासनिक क्षेत्र का दर्जा दिया. अब हॉन्ग कॉन्ग के पास अपना एक मिनी-संविधान था. अपना एक क़ानूनी ढांचा था. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे नागरिक अधिकार भी थे.
इस नए सिस्टम में हॉन्ग कॉन्ग के लोगों के सिर पर 50 साल की एक तलवार लटक रही थी. जिसके बाद उन्हें दिए गए स्वायत्तता के अधिकार छीन लिए जाने थे. इस 50 साल की मियाद 2047 में पूरी होनी है. लोग सोच रहे थे, तब क्या होगा? तब क्या हम भी चीन के बाकी लोगों की तरह तानाशाही झेलेंगे? क्या तब हमको भी अपने नागरिक अधिकार भूल जाने होंगे? मगर फिर एक के बाद एक हुई कई घटनाओं से साफ़ हो गया कि चीन की कम्यूनिस्ट सरकार 50 सालों तक इंतज़ार नहीं करने वाली. वो अभी ही हॉन्ग कॉन्ग को अपने ग्रिप में लेना चाहती है. किसी भी कीमत पर वहां के लोगों की आज़ादी, फ्री-स्पीच के उनके अधिकार छीनना चाहती है.
अंब्रेला मूवमेंट
चीन की इन कोशिशों का पर्दाफ़ाश हुआ कैसे? इसका जवाब हमें हॉन्ग कॉन्ग के बेसिक लॉ पर ले जाएगा. इसके मुताबिक, सिस्टम का मकसद ऐसी व्यवस्था बनाना है जहां हर वयस्क चुनाव में वोट डाल सके. माने एक नागरिक, एक वोट. 2007 में चीन ने कहा कि वो 10 साल बाद, यानी 2017 में हॉन्ग कॉन्ग के लोगों को ये अधिकार दे देगा. मगर फिर आया 2014-15 का साल. इस साल चुनाव सुधार के नाम पर चीन ने बड़ी घपलेबाजी की. कहा कि 1200 सदस्यों की एक नॉमिनेटिंग कमिटी उम्मीदवारों के नाम पर मुहर लगाएगी. यही उम्मीदवार चुनाव में खड़े हो सकेंगे. अब अगर सारे नामांकित उम्मीदवार चीन के ही चुने हुए हैं, तो जीता हुआ उम्मीदवार भी तो उसका ही सपोर्टर होगा.
इस प्रस्ताव के विरोध में हॉन्ग कॉन्ग में जमकर प्रदर्शन हुए. लोकतंत्र-समर्थक प्रदर्शनकारियों का ये प्रोटेस्ट अंब्रेला मूवमेंट कहलाता है. इस नाम की कहानी क्या है? कहानी ये है कि पुलिस प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए उनपर पेपर स्प्रे का छिड़काव करती. उससे बचने के लिए लोग छाता लेकर आने लगे. वो छाते को अपनी ढाल बनाने लगे. धीरे-धीरे ये छाता आंदोलन का प्रतीक बन गया. लेकिन इतने विरोध के बावजूद 2017 के चुनाव में चीन के तय किए तरीके से ही चीन की परस्त कैरी लैम हॉन्ग कॉन्ग की चीफ एक्जिक्यूटिव चुन ली गईं.
Umbrella Movement
अंब्रेला मूवमेंट (फोटो: एएफपी)

क्या हॉन्ग कॉन्ग की मुसीबत इतने पर ख़त्म हो जाती है? जवाब है नहीं. चीन की ही तरह यहां भी सरकार की आलोचना करने वाले गायब कर दिए जा रहे हैं. 2015 में यहां पांच पुस्तक विक्रेता गायब कर दिए गए. उनका कसूर बस इतना था कि उनके यहां बिकने वाली कई किताबें चीन की नज़र में सरकार विरोधी थीं.
ये घटनाएं बड़ी तस्वीर के छोटे-छोटे टुकड़े हैं. इन्हीं में से एक है 2019 का प्रत्यर्पण कानून. इस क़ानून के तहत हॉन्ग कॉन्ग के लोगों को मेनलैंड चीन ले जाकर वहां की दिखावटी अदालतों में उनपर मुकदमा चलाना आसान हो जाता. इस प्रस्तावित कानून के खिलाफ कई महीनों तक हॉन्ग कॉन्ग में प्रोटेस्ट चला. सरकार ने विरोध कुचलने में कोई कसर नहीं रखी. मगर लोग अड़े रहे.
हॉन्ग कॉन्ग में नैशनल सिक्यॉरिटी लॉ का विरोध
अब एक बार फिर लौटते हैं उस शुरुआती ज़िक्र पर, जिसके कारण एक बार फिर हॉन्ग कॉन्ग के लोग विरोध में उतर आए हैं. क्या है इस मौजूदा विरोध का संदर्भ? ये संदर्भ है नैशनल सिक्यॉरिटी लॉ. ये नाम है उस ताज़ा कानून का, जो चीन की सरकार हॉन्ग कॉन्ग में लागू करना चाहती है. चीन का कहना है कि वो स्थानीय प्रशासन को बायपास करके सीधे हॉन्ग कॉन्ग में ये कानून लागू करेगा. ये ऐलान सीधे-सीधे हॉन्ग कॉन्ग की बची-खुची स्वायत्तता का उल्लंघन है. ये चीन के उस 'वन नेशन, टू सिस्टम्स' पॉलिसी का भी सीधा उल्लंघन है.
सीधी सी बात है कि इस क़ानून के बहाने चीन राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हॉन्ग कॉन्ग की आज़ादी ख़त्म करना चाहता है. कौन सी हरकत राजद्रोह है. कौन सी गतिविधि राष्ट्रीय सुरक्षा पर ख़तरा मानी जाएगी. ये तय करने का अधिकार चीन को मिल जाएगा. फिर इस बहाने वो लोकतंत्र समर्थकों और आज़ाद हॉन्ग कॉन्ग की मांग करने वालों को निशाना बनाएगा. जानकार इसे हॉन्ग कॉन्ग की स्वायत्तता और लोकतंत्र की उसकी उम्मीदों के ताबूत में आख़िरी कील बता रहे हैं.


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