स्पेस में पानी-कॉफी पीने वाला कप आ गया है, पलट देंगे तो कमाल करेगा!
पीछे की साइंस बहुत सही है!
'थ्री इडियट्स' देखी होगी. मूवी की शुरुआत में एक डायलॉग है.प्रोफ़ेसर वीरू सहस्त्रबुद्धि कहते हैं,
"ये एस्ट्रोनॉट्स पेन है. स्पेस में फाउंटेन पेन, बॉल पेन कुछ भी नहीं चलता. लाखों डॉलर खर्च करने के बाद साइंटिस्ट्स ने ऐसा पेन इजाद किया. जिससे कोई भी एंगल. कोई भी टेम्पेरेचर और जीरो ग्रेविटी में हम लिख सकते हैं."
इस पर आमिर खान का किरदार रैंचो सवाल करता है,
"एस्ट्रोनॉट्स पेंसिल इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकते?"
इसका जवाब मूवी के आखिर में मिलता है, कि पेन्सिल की टिप टूटकर जीरो ग्रेविटी में घूमती रहेगी. किसी की आंख में जा सकती है. इंस्ट्रूमेंट पैनल में जा सकती है. इसलिए इस पेन का निर्माण जरूरी था.
धरती के बाहर किसी स्पेसशिप में ग्रैविटी जीरो होती है. चीजों का अपना वजन नहीं होता, वो हवा में घूमती रहती हैं. लेकिन अब साइंटिस्ट ने अंतरिक्ष यात्रियों के लिए एक कप इजाद किया है. जिससे स्पेस के दौरान यात्री जीरो ग्रैविटी में कॉफ़ी पी सकते हैं. कॉफ़ी न गिरेगी, न हवा में तैरती रहेगी.
एस्ट्रोनॉट्स इस कप से बिल्कुल वैसे ही किसी बेवेरेज की चुस्कियां ले सकेंगे जैसे हम लोग धरती पर लेते हैं.
कितने सालों से चल रही थी कोशिश?बीते कई सालों से NASA ऐसा कप बनाने की कोशिश कर रहा था. इस कप का ऊपरी हिस्सा बिल्कुल किसी सामान्य कप की तरह खुला है. इससे पहले तक एस्ट्रोनॉट्स को स्पेसशिप में रहते वक़्त सीलबंद पाउच से बेवेरेज कंज्यूम करने होते थे, सामान्य कप में या स्ट्रॉ डालकर पानी, जूस, कॉफ़ी या कोई भी दूसरी ड्रिंक्स वगैरह लेना मुमकिन नहीं था.
बीती 3 मार्च को नासा के इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन रिसर्च एंड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट (ISS Research) ने अपने ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से एक डेमो वीडियो जारी किया है. इस वीडियो में एस्ट्रोनॉट निकोल मान (Nicole Mann) जो कर रही हैं, वो जादू से कम नहीं लगेगा. निकोल के पास एक तरल पदार्थ का पाउच है जिसमें कॉफ़ी है. वो उस पाउच के पाइप के जरिए कॉफ़ी को एक कप में डालती हैं. कप भर जाता है. वो भरे हुए कप को उल्टा घुमा देती हैं. लेकिन कप से कॉफ़ी की एक ड्राप भी कप से बाहर नहीं आती.
स्पेस में कॉफ़ी जीरो ग्रैविटी के चलते नीचे तो नहीं गिरेगी, लेकिन सवाल ये है कि कप में ऐसी कौन सी चुम्बक है जो कॉफ़ी को रोके हुए है और कॉफ़ी एस्ट्रोनॉट के चुस्की लेने पर ही बाहर आएगी.
इस कप के पीछे की साइंस क्या है?दरअसल साइंटिस्ट्स ने एक एक्सपेरिमेंट किया. जिसका नाम है कैपिलरी फ्लो एक्सपेरिमेंट. और ये कप वाला प्रयोग इसी एक्सपेरिमेंट का एक हिस्सा है. कप को बनाने वाले साइंटिस्ट्स कहते हैं कि ये कप सरफेस टेंशन और कप की ज्योमेट्री, इन दोनों के चलते ही ये मुश्किल काम कर पा रहा है. फिजिक्स की बेसिक जानकारी है तो सरफेस टेंशन यानी पृष्ठ तनाव समझते होंगे. आसन भाषा में यूं समझिए कि ये किसी लिक्विड की वो क्वालिटी है जिसके चलते ये दूसरी चीजों से चिपककर माने संपर्क में आने पर उसे गीला कर देता है. ऐसे समझिए कि बालों में सरसों का तेल लगाया हुआ है तो देर से छूटेगा. जबकि बाल पानी से गीले हैं तो तौलिए से झाड़ने पर आसानी से निकल जाएगा. वजह ये कि तेल का सरफेस टेंशन ज्यादा है, पानी का कम.
दूसरी चीज है कप की ज्योमेट्री क्या है? उसकी संरचना क्या है?पृथ्वी पर हमें लगता है कि वजनदार चीजें नीचे जाती हैं. असल में चीजों पर उनके द्रव्यमान के अनुपात में गुरुत्वाकर्षण बल लगता है. लेकिन अन्तरिक्ष में नीचे और ऊपर जैसी कोई चीज नहीं है. हां ये कह सकते हैं कि कॉफ़ी के लिए उसके कप की तली 'नीचे' है और कल का खुला मुंह 'ऊपर.' और यही साइंटिस्ट चाहते थे कि कुछ आर्टिफिशियल ग्रैविटी जैसा कप में बन जाए जिसके चलते कॉफ़ी उसके अन्दर ही बनी रहे. भले ही कप अपनी जगह पर 360 डिग्री घुमा दिया जाए. ये आर्टिफिशियल ग्रैविटी साइंटिस्ट ने कैपिलरी एक्सपेरिमेंट के जरिए बना ली.
अब कैपलरी यानी केशिकत्व क्या है, ये समझ लीजिए. शीशी में मिट्टी का तेल भरके उसमें डाली गई रुई या कपड़े की बनी बाती जलती रहती है. तेल, उस बाती में स्वतः ऊपर चढ़ता रहता है. वो भी ग्रैविटी के अगेंस्ट. कैसे? इसे कहते हैं कैपिलरी फ़ोर्स. चूंकि किसी भी द्रव के अणुओं में आपस में चिपके रहने की प्रवृत्ति होती है. सॉलिड से कम लेकिन गैस से ज्यादा. इसी टेंडेंसी के चलते कैपिलरी राइज़ होता है. पेड़-पौधों के तनों में भी इसी तरह की कैपिलरी होती हैं जिनके जरिए खाद-पानी उनकी जड़ों से ऊपर तक पहुंचता है.
नेचर माइक्रोग्रैविटी में छपे एक पेपर के मुताबिक़ इस एस्ट्रोनॉट कप में कम से कम एक चैनल होता है. ज्यादा भी हो सकते हैं. अब इस कप में भरी कॉफ़ी (या कोई भी ड्रिंक) और कप की दीवार के बीच कैपिलरी एक्शन होता है. जिसके चलते कॉफ़ी इस चैनल में मूव करती है और कप के रिम यानी ऊपरी किनारे पर बनी रहती है. कैपिलरी फ़ोर्स के चलते कॉफ़ी का थोड़ा सा ही हिस्सा चैनल में रहता है बाकी कप में रिम से लेकर उसकी तली तक. और जब एस्ट्रोनॉट्स अपने होंठ कप से लगाते हैं तो कॉफ़ी स्वतः उनके मुंह में आ जाती है. आगे का काम उनका. वे ये तय कर सकते हैं कि उन्हें कितना बड़ा घूंट लेना है.
बची हुई बातें जान लीजिएसाल 2011 में एस्ट्रोनॉट डॉन पेटिट ने स्पेस स्टेशन में अपने समय के दौरान ऐसे ही एक कप के आविष्कार में मदद की थी. उन्होंने इस कप का पेटेंट फिजिसिस्ट मार्क वीज़लोगल (Mark Weislogel) और दो गणितज्ञों पॉल कॉनकस और रॉबर्ट फिंस से शेयर किया.
इसके बाद कई बार एक्सपेरिमेंट्स हुए, जिनमें एस्ट्रोनॉट्स को बबल-फ्री पीने का पानी, नींबू पानी, फ्रूट ड्रिंक, कोको, कॉफ़ी और पीच मैंगो जैसी चीजें पिलाई गईं. इन एक्सपेरिमेंट्स में ड्रिंक्स को जानबूझकर गिराया भी गया. एस्ट्रोनॉट्स को इसे संभालना जमीन से ज्यादा आसान लगा. रिसर्च करने वालों के मुताबिक जमीन के मुकाबले स्पेस में कंप्यूटर के बगल में बैठकर कॉफ़ी पीना ज्यादा सेफ है.
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