The Lallantop
Advertisement

क्या महिलाओं के दिमाग का वजन पुरुषों से कम होता है? कम हो तो बुद्धि भी कम होगी?

लल्लनटॉप चुनाव यात्रा का एक वीडियो है. इसमें हमारी साथी सोनल बिजनौर के एक स्कूल के छात्रों से बात कर रही हैं. इसी दौरान एक बच्चे ने तर्क दिया, ‘लड़कियों में दिमाग 150 ग्राम कम होता है. आप सर्च कर लीजिए.’

Advertisement
brain size in women and men
दिमाग के वजन का बुद्धि से कितना लेना-देना है? (सांकेतिक तस्वीर.)
pic
राजविक्रम
4 मई 2024 (Updated: 6 मई 2024, 09:34 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

लल्लनटॉप चुनाव यात्रा चल रही है. यात्रा के दौरान हमारी साथी सोनल बिजनौर के एक स्कूल में पहुंचीं. वहां कुछ बच्चों से बातचीत की. इसी दौरान लड़कियों और लड़कों को लेकर बातें होने लगीं. एक बच्चे ने तर्क दिया, ‘लड़कियों में दिमाग 150 ग्राम कम होता है. आप सर्च कर लीजिए.’

बच्चे की बात के लोग कई मतलब निकाल सकते हैं. मसलन, क्या ‘कम दिमाग’ वाली बात वजन को लेकर कही गई या फिर बुद्धि को लेकर? बच्चे तो वही सीखते हैं, जो आसपास देखते, सुनते हैं और पढ़ते हैं. लेकिन ये कुछ ग्राम कम वजन महिलाओं के लिए एक बड़ा बोझ बना हुआ है. जो सदियों पहले के मिथकों पर आधारित है, जब वैज्ञानिकों ने दिमाग के बारे में इतना समझा तक नहीं था.

दिमाग के वजन का बौद्धिकता से क्या लेना-देना? 

औसतन जिगर और कुछ और अंगों का वजन भी कम होता है. फिर दिमाग की चर्चा क्यों? अगर वजन के आधार पर लड़कियों के दिमाग को ‘कम’ कहा जाता है, तो लड़कों के दिमाग को 'मोटा' क्यों नहीं? खैर आपके मन में सवाल आएगा कि इन शब्दों के फेर का क्या लेना-देना? 

लेना-देना है. जैसे गैर-यूरोपीय लोगों को अलग-अलग तरीकों से 'असभ्य' कहने की कोशिश की गई. इतिहास में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया, जो इंसानों के लिए इस्तेमाल करने लायक तक नहीं थे. लोगों को गुलाम बनाया गया. कयास लगाए गए कि उनमेें सोचने-समझने की क्षमता कम होती है. इस सब में शब्दों की बड़ी भूमिका रही है, जिनसे सांचे तैयार किए गए. सांचे, जिनमें नियम-कायदे भी ढाले गए.

ठीक ऐसेे ही, लड़कियों के दिमाग के वजन के आधार पर भी कई कयास लगाए गए. लड़कियों-लड़कों के दिमाग की निराधार तुलनाएं की गईं, कि लड़कों को गणित में मजा आता है और लड़कियों को मल्टी-टास्क करने में. मल्टी-टास्क बोले तो घर के काम का एक ‘टेक्निकल’ नाम. फिर कहा गया कि इसके पीछे की वजह दोनों के दिमाग की संरचना में अंतर है. यहां तक कि सालों के रिसर्च भी इसी सब के इर्द-गिर्द घूमते रहे. ये मिथक अब तक कहीं न कहीं से, किसी न किसी रूप में उभर आता है. जैसा उस बच्चे के मन में था, जो हमें कवरेज के दौरान मिला.

इसीलिए आइए जानते हैं लड़कियों और लड़कों के दिमाग के बारे में आज का न्यूरोसाइंस क्या कहता है? और ये दिमाग के साइज का बुद्धि से कुछ लेना-देना है भी या फिर ये बस अपनी ही सोच में सिमटे हुए लोगों का तकिया कलाम है?

सवाल की शुरुआत स्कूल की कहानी से थी, तो पहले मामले को इसी तरीके से ही समझते हैं. माने इतिहास की कुछ सच्ची कहानियों के जरिए.

सबसे अव्वल दिमाग वालों की तस्वीर!
साल्वे कांफ्रेंस में मेरी क्युरी के साथ तमाम वैज्ञानिक (Image: doi.org/10.3932/ethz-a-000046848)

1927 में विज्ञान की एक बहुत बड़ी सभा हुई. नाम था, ‘सॉल्वे कॉन्फ्रेंस’. इसकी तस्वीर को दुनिया की सबसे मेधावी तस्वीर कहा जाता है. वजह ये कि इसमें विज्ञान जगत के वे तमाम नाम हैं, जिनसे कक्षा दसवीं से लेकर पोस्ट ग्रेजुएशन तक फिजिक्स की किताबें पटी पड़ी हैं. जैसे हाइजनबर्ग, नील्स बोर, श्रॉडिंगर, मैक्स प्लैंक, पाउली और आइंस्टाइन.

इनको विज्ञान का सबसे प्रतिष्ठित माना जाने वाला नोबेल पुरस्कार भी मिला है. लेकिन ये अव्वल दिमाग भी वो काम न कर पाए, जो एक महिला साइंटिस्ट ने किया था. मेरी क्युरी. दो बार की नोबेल पुरस्कार विजेता. वो भी फिजिक्स और केमिस्ट्री, दोनों विषयों में. ऐसा करने वाली वे अकेली इंसान हैं. ऐसा न आइंस्टाइन कर पाए, न स्टीफन हॉकिंग्स.

ये भी पढ़ें - मेरी क्युरी: आइंस्टाइन भी वो कमाल न कर पाए जो इस महिला वैज्ञानिक ने कर दिखाया

एटॉमिक बॉम्ब की जननी

ओपनहाइमर. नाम तो आपने सुना ही होगा. पर क्या लिस मेथ्नर (Lise Meitner) का नाम सुना है? इन्होंने न्यूक्लियर फिजन की थ्योरी पर काम किया था, जिसके बिना एटॉमिक बॉम्ब की कल्पना भी मुश्किल थी. अमेरिकी प्रेस ने इन्हें ‘एटॉमिक बॉम्ब की जननी’ (mother of the atomic bomb) नाम दिया था.

इनके साथी हान्न को न्यूक्लियर फिजन को लेकर नोबेल पुरस्कार दिया गया. लेकिन एक महिला और यहूदी होने के चलते लिस के काम को वो तवज्जो नहीं मिली. और लिस अकेली नहीं थीं, जिनके कामों को वो सम्मान नहीं मिला, जिसकी वो हकदार थीं.

जीव विज्ञान का ‘पारस पत्थर’

ऐसी ही कहानी है ब्रिटिश केमिस्ट रॉसलिंड एल्सी फ्रेंकलिन की. DNA की संरचना की खोज में इन्हें बहुत अहम माना जाता है.  DNA की संरचना को लोग जीव विज्ञान की दुनिया का पारस पत्थर मानते हैं, जिसके खोजे जाने के बाद ही तमाम तरक्कियां संभव हो पाईं. वॉट्सन और क्रिक ने DNA की संरचना के बारे में बताया. इसके लिए दोनों को नोबेल पुरस्कार भी दिया गया.

लेकिन इस सब में रॉसलिंड के योगदान को अंधेरे में रखा गया. माना जाता है कि DNA की संरचना की खोज रॉसलिंड के लिए एक एक्स-रे के बिना मुश्किल थी. 

ये थी, ‘फोटोग्राफ 51’. लेकिन उनके योगदान को भी वो सम्मान नहीं दिया गया. कारण अब तो आप जानते-समझते ही हैं. अब लोग मानने लगे हैं कि DNA की संरचना बता पाने में रॉसलिंड का बराबर का योगदान था.

ये भी पढ़ें - ज्यादातर लोग दाहिने हाथ को वरीयता क्यों देते हैं? क्या इसमें दिमाग का भी कुछ 'लोचा' है?

फोन में मैप तो आपने इस्तेमाल किया ही होगा. अमेरिकी गणितज्ञ ग्लैड्सी वेस्ट (Gladys West) नहीं होतीं, तो कहीं पहुंचने का आधा टाइम किसी पनवाड़ी से रास्ता पूछने में निकालना पड़ता. क्योंकि इनके बिना आज ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (GPS) न बन पाता. इसका इस्तेमाल तमाम ऑनलाइन मैप करते हैं.

इसके अलावा जेन गुडाल, शकुंतला देवी, वर्जीनिया वुल्फ, अमृता शेरगिल बस चंद नाम हैं, जिन्होंने अपनी जगह बनाई. अलग-अलग पेशों में. तमाम मुश्किलों के बावजूद.

इन मुश्किलों के उदाहरण आज भी देखने मिलते हैं

24 मार्च, 2024 को न्यूयॉर्क टाइम्स में एक खबर छपी. उन महिलाओं के बारे में, जिन्हें अपनी कोख खोनी पड़ती है. ताकि पीरियड्स की वजह से काम का नुकसान न हो. 

ये सिर्फ एक घटना नहीं है. आंकड़े भी महिलाओं की मुश्किलों के बारे में बताते हैं. UNICEF के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल करीब 15 लाख लड़कियों का बाल विवाह होता है. माने ये दिमाग से इतर समाज के भेदभाव का भी मामला है.

अब ये कहानियां सिर्फ बताने के लिए नहीं हैं. इनसे दो बातें निकल कर आती हैं, जिसे समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. तमाम महिलाओं ने पुरुषों के जितने और कई मामलों में पुरुषों से बड़े काम भी किए हैं. ये इस बात का सबूत है कि महिलाओं में बुद्धिमत्ता की कोई कमी नहीं है. वहीं एक बात ये भी निकलकर सामने आती है कि उनकी उपलब्धियों को वो सम्मान नहीं मिला, जो शायद उनके पुरुष होने पर मिलता. माने उनके सामने कुछ मुश्किलें हमेशा से रही हैं. आज भी हैं.

ये कांच की वो मोटी दीवार है, जिसने महिलाओं को सालों से ऊपर बढ़ने से रोका है. आज भी रोकती है. कुछ महिलाएं मुश्किल से इसे तोड़कर निकल पाती हैं. लेकिन फिर ये ‘कम दिमाग’ बोलने वाले लोग आ जाते हैं, अपने पूर्वग्रहों के साथ.

रिसर्च इस बारे में क्या कहते हैं?

विज्ञान का एक जाना-माना जर्नल है, 'नेचर'. दुनिया भर के रिसर्च वगैरह छापता है. DNA वाला रिसर्च, जिसका जिक्र हमने किया था, वो भी इसी में छापा गया था. 27 फरवरी, 2019 को इस जर्नल में एक लेख छपा. सब्जेक्ट था न्यूरो-सेक्सिज्म (Neurosexism). माने दिमागी तंत्रिकाओं के आधार पर लिंग भेद. 

उदाहरण से समझते हैं. गूगल सर्च करने पर आपको महिलाओं और पुरुषों में दिमाग के साइज या वजन का भेद देखने में मिलता है. मालूम पड़ता है कि महिलाओं के दिमाग का वजन पुरुषों से कुछ कम होता है. लेकिन इसका मतलब क्या है? या कहें इसका कितना गलत मतलब निकाला जा सकता है. इस बारे में कुछ साल पहले एक रिसर्च आई थी, जिसमें कहा जा रहा था,

आखिर आदमी और औरतों के दिमाग में अंतर समझ लिया गया है.

वो कैसे? कहा गया यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में, 21 आदमियों और 27 महिलाओं के दिमाग के MRI से. आज के हिसाब से ज्यादा बड़ा रिसर्च नहीं था. लेकिन तब इस पर खबरें छपीं, किताबें, ब्लॉग… यहां तक कि टीवी में प्रोग्राम भी चलाए गए.

ब्रिटिश न्यूरो-बॉयोलॉजिस्ट जीना रिपन इस बारे में बताती हैं,

2010 की एक सुबह मैं उठी. CBS चैनल पर एक प्रोग्राम आ रहा था. शो में कहा गया कि आदमियों के दिमाग में ग्रे मैटर साढ़े 6 गुना ज्यादा होता है. वहीं महिलाओं में 10 गुना वाइट मैटर ज्यादा होता है. 

ग्रे और वाइट मैटर रंग और काम के आधार पर दिमाग का कुछ हिस्सा होता है. जीना आगे बताती हैं कि इस अंतर के हिसाब से तो औरतों के दिमाग को 50% ज्यादा बड़ा होना चाहिए. लेकिन रिसर्च में शायद इस सब का हिसाब नहीं रखा गया. वो कहती हैं कि ध्यान तो ग्रे और वाइट मैटर के साथ IQ या बुद्धिमत्ता में संबंध बताने में लगाया जा रहा था.

जीना ने अपनी किताब ‘द जेंडर्ड ब्रेन’ में इस मिथक के बारे में विस्तार से लिखा है. लिखती हैं कि सालों के मिथकों ने आदमियों और औरतों के दिमाग को अलग बताने की कोशिश की हैं. इसमें कुछ रिसर्च भी शामिल हैं, जिन्हें मीडिया या समाज ने या तो गलत समझा, या तो वो रिसर्च बाद में खुद गलत नजर आए. 

मसलन, 1995 में नेचर जर्नल में छपा एक रिसर्च. इसमें दावा किया गया था कि महिलाओं के दिमाग में भाषा को प्रोसेस करने वाला हिस्सा एक समान नहीं रहता, जैसा पुरुषों में होता है. लेकिन 2008 में हुए एक बड़े रिसर्च में इस बात को नकार दिया गया.

ये भी पढ़ें - क्या गुलाबी रंग को 'लड़कियों का रंग' हिटलर ने बनाया?

लग सकता है, दिमाग का आकार बड़ा होने से बुद्धि भी ‘बड़ी’ होती होगी. लेकिन जब छोटे सिर के आदमियों और बड़े सिर वाली महिलाओं में ये अंतर देखा गया, तब ऐसा कुछ देखने को नहीं मिलता. यहां तक कि इस सब का उनकी आदतों और जीवन में तरक्की से भी कोई लेना देना नहीं है. जिसे दिमाग के अलग-अलग हिस्सों में अंतर से जोड़कर बताया जाता है. 

जीना के मुताबिक, मॉडर्न न्यूरोसाइंस इस बात को नहीं मानता. वो लिखती हैं कि इंसानी दिमाग 'प्लास्टिक' होता है. माने ये जिंदगी भर बदलता रहता है. हम जो काम करते हैं, सीखते हैं, उसी के मुताबिक हमारे दिमाग केे अलग-अलग हिस्से भी विकसित होते हैं. जैसे किसी टैक्सी चला रहे और टैक्सी चला कर रिटायर हो गए शख्स के दिमाग अलग-अलग हो सकते हैं. माने एक समय दिमाग का जो हिस्सा ज्यादा एक्टिव था, वो समय के साथ बदल भी सकता है. 

वो लिखती हैं, “इंसानी दिमाग जीने वाले की जिंदगी का आइना हैं. न कि उसके जेंडर का.”

वोे ये भी कहती हैं कि अब हम जानते हैं कि हमारा दिमाग अनुभवों के हिसाब से आगे के लिए तैयार होता है. इसलिए पुरुषों और महिलाओं के दिमाग के अंतर को समझने से पहले, उनके जीवन के अंतरों को समझना चाहिए. समझना चाहिए कि सदियों से हमारे समाज में क्या दोनों को एक जैसे मौके दिए गए हैं?

ये मिथक जन्में कैसे?

जीना के मुताबिक शुरुआती दिमागी रिसर्च में कई बातें सही ट्रैक पर नहीं थीं.

  • जब पुरुषों और महिलाओं के दिमाग में अंतर समझने की कोशिश की जा रही थी, तब रूढ़िवादी सोच और महिलाओं को लेकर एक सांचा था. कई रिसर्च भी उसी सांचे के हिसाब से डिजाइन की गईं.
  • जो डाटा रिसर्च में निकलकर आया, उसे इसी आधार पर समझने की कोशिश भी की गई.
  • जब रिसर्च में कोई अंतर सामने आता, तो उसके छपने के चांस ज्यादा होते थे. बजाय दोनों के दिमाग में कोई अंतर ना सामने आने के. हेडलाइंस भी उसी की बनती थीं. 

अब इस सब से ऐसे विचार मजबूत होते गए, जो शारीरिक के साथ मानसिक क्षमता में भी पुरुषों को महिलाओं से बेहतर मानते हैं. मसलन पुरुष नक्शा देखने, गाड़ी चलाने, विज्ञान, गणित वगैरह में तो अच्छे होते हैं, जबकि महिलाएं होम साइंस और मल्टीटास्क के रोल के लिए बनी हैं.

इन विचारों को समाज में खूब हवा दी गई. विज्ञान के हवाले से कोई रैंडम तर्क उठा कर दावे गढ़े गए. लेकिन आज न्यूरोसाइंस मानता है कि हमारा दिमाग किसी निर्वात में काम नहीं करता. हमारे जीवन के अनुभवों का इस पर असर पड़ता है. 

जीना ये भी कहती हैं कि बचपन से लिंग के आधार पर परवरिश भी की जाती है. लड़कियों के खेलने के लिए गुड़िया, तो लड़कों के खेलने के लिए ट्रक. इसके अलावा दिमाग के जिन MRI के आधार पर ये सब बातें कही गईं, वो तकनीक भी इतनी विकसित नहीं थी.

इस बारे में दिल्ली के एक मनोचिकित्सक डॉ जितेंद्र जाखड़ ने दी लल्लनटॉप को बताया,

“महिलाओं और पुरुषों में दिमाग के साइज और बुद्धिमत्ता का कोई तुक नहीं है. हां, महिलाओं के दिमाग के कुछ हिस्से पुरुषों से थोड़े अलग हो सकते हैं. इससे उनकी जिंदगी और भावों के कुछ अंतरों को समझा जा सकता है. लेकिन ये अंतर इतने नहीं होते, कि इनसे दोनों के किसी जटिल समस्या को हल कर पाने या न कर पाने का आधार बनाया जाए.”

चलते-चलते एक बात और. बाहर से देखने में पुरुष का दिमाग बड़ा है और महिला का छोटा. लेकिन अंदर का क्या? दिमाग के अपने कई हिस्से होते हैं. मेडिकल फील्ड के जानकार बताते हैं कि पुरुषों और महिलाओं के दिमाग में औसतन 100 ग्राम का अंतर होता है. लेकिन महिलाओं के दिमाग के अंदर का कोई हिस्सा पुरुषों से बड़ा हो सकता है तो कोई उनसे छोटा. 

वेरी वेल माइंड के लिए केंड्रा चेरी का एक आर्टिकल है जिसका मैसच्युसेट्स जनरल हॉस्पिटल के साइकाइट्री विशेषज्ञ स्टीवन गैन्स ने मेडिकल रिव्यू भी किया है. आर्टिकल कहता है कि दिमाग के जो हिस्से (फ्रंटल लोब और लिम्बिक कॉर्टेक्स) प्रॉब्लम सॉल्विंग और भावनाओं को कंट्रोल करते हैं, वे महिलाओं में ज्यादा बड़े होते हैं. वहीं याद्दाश्त और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं वाले हिस्से (पार्शियल कॉर्टेक्स और अमेग्डाला) पुरुषों में ज्यादा बड़े हो सकते हैं.

ये रिसर्च आधारित एक मेडिकल जानकारी है. दूसरे स्पेशलिस्ट कुछ और बता सकते हैं, क्योंकि दिमाग को समझने का प्रयास जारी है और जारी रहेगा. इसलिए तथ्य भी बदल सकते हैं. बच्चों को भी ये बताइए ताकि बड़े होकर वे लैंगिक विमर्श में तथ्यों का जाने-अनजाने गलत इस्तेमाल न करें.

वीडियो: तारीख: हिटलर और अमेरिकी राष्ट्रपति ने गुलाबी रंग को महिलाओं का रंग कैसे बनाया?

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement