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मुस्लिम औरतों के हक पर कोर्ट में नई बहस क्यों?

एक मुस्लिम महिला ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दाखिल कर अपने पति से गुजारा भत्ते की मांग की है.

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crpc section 125
मुस्लिम महिलाओं के अधिकार
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मानस राज
20 फ़रवरी 2024 (Published: 21:13 IST)
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एक महिला के अधिकार क्या होंगे? क्या वो धर्म के आधार पर बदल सकते हैं? ये सवाल आया है देश की सुप्रीम कोर्ट के सामने. क्योंकि एक मुस्लिम महिला ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दाखिल कर अपने पति से गुजारा भत्ते की मांग की है. तो हमने सोचा कि आपको बताएं कि-

-सीआरपीसी की धारा 125 क्या है?
-तलाक के बाद मेंटेनेंस को लेकर कानून क्या कहता है?
-और हालिया केस क्या है जिसपर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई.  

इस केस को अच्छी तरह जानने के लिए पहले हमें कुछ चीजों के बारे में समझना पड़ेगा.  मसलन सबसे पहले आपको बताते हैं सिविल कोर्ट और क्रिमिनल कोर्ट का अंतर.  

हमारे देश में मुख्य रूप से 2 तरह की अदालतें हैं. क्रिमिनल कोर्ट और सिविल कोर्ट.  इनके अलावा एक और कंज्यूमर कोर्ट भी होती है जिसमें ग्राहकों और उपभोक्ताओं से संबंधित मामले निपटाए जाते हैं. लेकिन उसे अभी के लिए इग्नोर करते हैं. अभी क्रिमिनल कोर्ट के बारे में जानिए- 
क्रिमिनल लॉ के केसेस में किसी अमुक व्यक्ति बनाम सरकार का मुकदमा बनता है. आपने मुकदमों की सुनवाई के दौरान अक्सर The State vs person, या सरकार बनाम अमुक व्यक्ति, ऐसा सुना होगा.  उदाहरण के लिए अगर किसी एक्स नाम के व्यक्ति ने वाई नाम के व्यक्ति पर हमला किया है तो वाई की ओर से सरकार केस लड़ती है. क्रिमिनल मामलों में ऐसा माना जाता है कि हमला किसी व्यक्ति पर नहीं बल्कि एक नागरिक पर हुआ है जिसकी जिम्मेदारी स्टेट यानी सरकार की है. ऐसे मामलों में व्यक्ति चाहे किसी भी समुदाय का हो, सभी के लिए कोर्ट का प्रोसेस और दी जाने वाली सजा एक समान रेंज में होती है. यदि ऊपर दिए उदाहरण में एक्स और वाई अलग-अलग समुदाय से हैं, तो भी सुनवाई, सजा में समुदाय की आधार पर कोई अंतर नहीं होता.
दूसरी अदालत है सिविल कोर्ट-
क्रिमिनल लॉ से ठीक उलट सिविल मामलों में मुकदमा सरकार के खिलाफ नहीं लड़ना होता. हालांकि कुछ ख़ास मामलों में सरकार भी पक्ष बन सकती है.  लेकिन ऐसा कम ही होता है. सिविल मुकदमा दो व्यक्तियों, दो संस्थानों, समूहों आदि के बीच होता है. उदाहरण के लिए जमीन, प्रॉपर्टी, मानहानि, तलाक जैसे मुद्दों में सिविल मुकदमा दाखिल किया जाता है. क्रिमिनल मामलों और सिविल मामलों में एक अंतर और होता है. सिविल मामलों में जेल जैसी सजा नहीं होती. मामला अक्सर जुर्माने या मुआवज़े से ख़त्म होता है. सिविल कोर्ट के अंतर्गत आने वाला ऐसा ही एक मामला है, तलाक़ का.       
जिसका एक मुख्य पहलू होता है, मेंटेनेंस यानी गुज़ारा भत्ता.

हिन्दुओं में गुजारा भत्ता

अब यहां एक सवाल आता है कि मेंटेनेंस का दावा कौन कर सकता है?
पहले बात करते हैं हिंदू समुदाय के बारे में. हिंदू समुदाय में इस तरह के मामले हिंदू कोड बिल के अंतर्गत आते हैं. हिंदू मैरिज एक्ट 1955 के अनुसार पति या पत्नी, दोनों ही मेंटेनेंस का दावा कर सकते हैं. इसी एक्ट की धारा 24 के अनुसार यदि पति या पत्नी के पास कमाई का कोई ज़रिया न हो तो वो इसको आधार बनाकर अंतरिम मेंटेनेंस का दावा कर सकते हैं. इसके बाद आती है धारा 25. धारा 25 के तहत पति या पत्नी अगर अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं तो वो स्थायी तौर पर मेंटेनेंस का दावा कर सकते हैं. पर कितना भत्ता दिया जाएगा? गुज़ारा भत्ता कितना होगा इसको लेकर कोई तय राशि नहीं है. ये अमाउन्ट कितना होना चाहिए ये अदालत के अपने विवेक पर निर्भर है. 
2020 में इस बात को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी टिप्पणी की थी. कोर्ट ने कहा था कि देश की अदालतें गुज़ारा भत्ता तय करते समय ये ध्यान रखें कि वो भत्ता न्यायोचित हो. इतना अधिक भत्ता निर्धारित न कर दिया जाए जिससे की भत्ता देने वाला गरीबी में आ जाए. जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस सुभाष रेड्डी की बेंच ने कहा था कि गुजारा भत्ता बहुत अधिक खर्चीला नहीं होना चाहिए. ऐसा एक ट्रेंड दिख रहा है कि पत्नी अपनी ज़रूरतों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है वहीं इससे बचने के लिए पति भी अपनी आय को कम कर के दिखाते हैं. बेहतर यही होगा कि पति-पत्नी दोनों से एक-एक शपथपत्र लिए जाएं.  इसमें उनकी आय, संपत्तियों और देनदारियों का डीटेल हो जिससे अदालतों को भत्ता तय करने में आसानी हो.

इससे जुड़े कुछ अन्य प्रावधान भी हैं. जैसे -
-अगर शादी अवैध हो तो भी उससे पैदा हुई संतान सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारे भत्ते की हकदार है. 
-हिंदू अडॉप्शन ऐंड मैंटिनेंस ऐक्ट, 1956 के तहत अगर बेटी की शादी नहीं हुई है तो वो भी गुजारे भत्ते की हकदार है. अगर बेटी मां के साथ पिता से अलग रह रही हो तब भी पिता अपनी अनमैरिड बेटी की मदद करेगा. 
-लिव इन रिलेशनशिप को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने मदन मोहन सिंह बनाम रजनीकांत मामले में कहा की लंबे समय से लिव इन में रह रहे कपल को भी शादीशुदा जोड़े की तरह ही माना जाएगा. शादीशुदा स्टेटस को नकारने वाले को ये साबित करना होगा कि उनकी शादी नहीं हुई है. कोर्ट ने ये भी कहा था कि अगर कपल लंबे समय से साथ हैं तो उनसे पैदा हुई नाजायज संतान भी उनकी फैमिली प्रॉपर्टी में हिस्से की हकदार है.

मुस्लिमों में गुजारा भत्ता

ये तो हुई हिंदुओं में मेंटेनेंस की बात. मुस्लिम पर्सनल लॉ में गुजारे भत्ते के नियम अलग हैं. ये नियम क्या है. इसके लिए आपको जानना होगा, शाह बानो केस के बारे में.  बात है 1985 की. सुप्रीम कोर्ट में एक केस चल रह था,  मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो(Shah Bano) बेगम. ये मामला भी एक मुस्लिम महिला के तलाक के बाद मिलने वाले मेंटेनेंस से जुड़ा था.  सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने उस समय फैसला देते हुए कहा था कि सीआरपीसी की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है और ये मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है. पर इस फैसले को कुछ मुस्लिम संगठनों ने पसंद नहीं किया. उन्होंने इसे मुसलमानों के धार्मिक और पर्सनल लॉ पर हमले के रूप में देखा. लिहाजा, फैसले का विरोध शुरू हो गया. और इस घटना के चलते केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया.

बहरहाल अभी हमने जाना कि मुस्लिमों में मेंटेनेंस के नियम मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 के तहत तय होते हैं.  इसके अलावा दुसरे समुदायों के लिए अलग अलग कानून हैं. मसलन क्रिश्चियन कैनन लॉ आदि. लेकिन अभी हम उनकी बात नहीं करेंगे. अभी हमें जानना होगा,  CrPC सेक्शन 125. क्योंकि सारा पेंच क़ानून की इसी धारा के चलते फंसा है. कैसे? उससे पहले जानिए  CrPC सेक्शन 125. क्या कहता है.  

CrPC सेक्शन 125 
CrPC Section 125 में पत्नी, संतान और माता-पिता के भरणपोषण के संबंध में विस्तार से जानकारी दी गई है. इस धारा के अनुसार पत्नी, बच्चा या मां-बाप जैसे लोग जो अपने पति, पिता या बच्चे पर आश्रित होते हैं, मेंटेनेंस का दावा तभी कर सकते हैं जब उनके पास आजीविका का कोई और साधन उपलब्ध न हो. अब बात आई गुज़ारा भत्ते की तो ये भी दो तरह के होते हैं. एक अंतरिम और दूसरा स्थायी गुज़ारा भत्ता. तलाक के मामलों में स्थायी मेंटेनेंस तब तक दिया जाता है जबतक संबंधित पक्ष माने पति या पत्नी दोबारा शादी न कर ले. या उसकी मृत्यु न हो जाए. पर अगर मामला अदालत में लंबित है तो इस दौरान अंतरिम मेंटेनेंस, माने जब तक मुकदमा चलेगा तबतक भत्ता देने का आदेश दिया जा सकता है.

अब देखिए CrPC सेक्शन 125 लॉ को गौर से देखेंगे तो आपको नज़र आएगा कि धारा 125 और पर्सनल लॉ में टकराव जैसी स्थिति बनती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि मेंटेनेंस आदि के मामले सिविल लॉ के अंतर्गत आते हैं. और अभी तक सिविल मामलों के लिए देश में एकसमान कानून नहीं है. माने हर धर्म या समुदाय के शादी, तलाक, अडॉप्शन और मेंटेनेंस को लेकर अपने कानून हैं. इसके बरक्स CrPC Section 125 एक क्रिमिनल लॉ है. जो सभी के लिए समान है. इसलिए सवाल उठता है कि "क्या मुस्लिम तलाकशुदा महिला भी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पति से गुजारा भत्ते की हकदार है ?"  
यही सवाल आया सुप्रीम कोर्ट के सामने जब हाई कोर्ट के एक फैसले के बाद एक पक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया.  
मामला ये था कि  एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला ने याचिका दायर कर अपने पति से सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ते की मांग की थी. याचिका पर सुनवाई करते हुए फैमिली कोर्ट ने आदेश दिया था कि पति 20,000 रुपये प्रति माह अंतरिम गुजारा भत्ता दे. महिला के पति अब्दुल समद ने इस फैसले को तेलंगाना हाई कोर्ट में चुनौती दी. अब्दुल समद ने अपनी याचिका में कहा कि उसने 2017 में अपनी पत्नी को मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तलाक दिया था. उसके पास इसका सर्टिफिकेट भी है. लेकिन फैमिली कोर्ट ने इसपर कोई विचार नहीं किया. 
तेलंगाना हाई कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए फैमिली कोर्ट के मेंटेनेंस के आदेश को रद्द तो नहीं किया पर मेंटेनेंस अमाउन्ट को बीस हजार से घटाकर दस हजार रुपये प्रति माह कर दिया. इसके अलावा, हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट को 6 महीने के भीतर मामले का निपटारा करने का निर्देश भी दिया था.

 सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर क्या हुआ?
अब्दुल समद ने तेलंगाना हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई. इस मामले की सुनवाई हुई और सुप्रीम कोर्ट में पति ने दलील दी कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार नहीं है. अब्दुल समद पक्ष की दलील थी कि महिला को मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 अधिनियम के प्रावधानों  के तहत ही चलना होगा. यानी वो क़ानून जो शाह बानो केस के बाद लागू हुआ था.  अब्दुल समद पक्ष का दलील थी कि भरण-पोषण के मामले में भी 1986 का कानून मुस्लिम महिलाओं के लिए अधिक फायदेमंद है.

इन दलीलों के आधार पर याचिककर्ता अब्दुल समद ने दावा किया कि उसने अपनी पत्नी को इद्दत की अवधि,, यानी तलाक के बाद 90 से 130 दिन तक के टाइम पीरीयड तक पंद्रह हजार रुपये का भुगतान किया था. इसलिए उसे और भत्ता देने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए.  कोर्ट के सामने सवाल था की इस केस में मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 को प्राथमिकता मिलनी चाहिए या सीआरपीसी की धारा 125 को. इसलिए इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की मदद के लिए सीनियर वकील गौरव अग्रवाल को एमिकस क्यूरी यानी कोर्ट की मदद के लिए न्याय मित्र नियुक्त किया. गौरव अग्रवाल ने अपनी राय देते हुए कोर्ट में कहा कि मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 के बावजूद  सीआरपीसी की धारा 125 निष्प्रभावी नहीं होगी. अग्रवाल ने केरल उच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि धारा 125 की  याचिका और 1986 अधिनियम की धारा 3 याचिका दोनों सुनवाई योग्य हैं और महिला उनमें से किसी एक को चुन सकती है. बहरहाल इस मामले की अंतिम सुनवाई हुई 19 फरवरी 2024 को.  जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने मामले पर सुनवाई पूरी करने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया है. 

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