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मुजस्समों में रूह फूंकने वाला ये कौन है, जिसकी पहली मूर्ति बाबरी अटैक के बाद तोड़ी गई

रहते पाकिस्तान में हैं. दादा हिंदुस्तानी थे.

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पंडित असगर
21 दिसंबर 2016 (Updated: 6 फ़रवरी 2017, 07:16 IST)
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माइकल एंजलो. एक ऐसा मूर्तिकार, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसकी बनाई गईं मूर्तियां ऐसी होती थीं कि जैसे अभी बात करने लगेगी. कहा जाता है, 'उन्होंने एक मूर्ति बनाई और फिर ये कहकर उसके घुटने पर हथौड़ा दे मारा कि तुम मुझसे बात क्यों नहीं करते.' इटली के थे, जो 6 मार्च 1475 में पैदा हुए और 88 साल बाद दुनिया से गुजर गए. मगर उनकी बनाई मूर्तियों ने उन्हें जिंदा रखा. इन्हीं माइकल एंजलो को अपना उस्ताद मानने वाला एक मूर्तिकार पाकिस्तान के सिंध में है. नाम से फ़कीर मगर, मुजस्समा (मूर्ति) ऐसा बनाते हैं कि जैसे वो उनसे बातें करेगा.


माइकल एंजलो की घुटना टूटी मूर्ति.
माइकल एंजलो की घुटना टूटी मूर्ति.

फ़कीर मेघवाड़ उर्फ़ फकीरा फकीरो भले ही पाकिस्तान में रहते हो, लेकिन हिंदुस्तान से भी रिश्ता रहा है उनका. क्योंकि उनके दादा गुजरात में रहते थे. आज़ादी के वक्त देश का बंटवारा हुआ और उनके दादा पाकिस्तान के सिंध इलाके में अमरकोट के करीब शादीपली में जाकर बस गए.
फकीरो के वालिद घर बनाने वाले मिस्त्री, मजदूर थे. वो उस वक्त मिट्टी से कच्चे घर बनाते, फिर मंदिरों की दीवारों पर नक्श बनाने लगे. मस्जिदों की मीनारों पर खूबसूरत डिज़ाइन बनाए. और फिर वो मंदिरों में रखी मूर्तियों पर काम करने लगे. फकीरो की नादान उम्र मिट्टी को रौंधते हुए, मसलते हुए. उससे खेलते हुए गुजरी. पढ़ाई करना शुरू किया.
फ़कीरो मेघवाड़ उर्फ़ फ़कीरो फकीरा. photo- ibrahim kanbhar
फ़कीरो मेघवाड़ उर्फ़ फ़कीरो फकीरा. photo- ibrahim kanbhar

पढ़कर आते और फिर भाई के साथ मिलकर बाप की गूंथ का रखी गई मिटटी का सत्यनाश मार देते थे. घर के आंगन में उछल-कूद करते हुए खिलौने बनाते थे. और बाप की डांट खाते थे. क्योंकि वो मिट्टी उनके पिता ने मूर्तियों के लिए तैयार करके रखी होती थी.
फकीरो और उनके भाई मान सिंह बड़े हुए. तो मिट्टी के खिलौने भी बड़े होकर मुजस्मों में तब्दील हो गए. यानी अब वो खिलौने नहीं बनाते, बल्कि बाप का हाथ बंटाने लगे. मान सिंह की सरकारी नौकरी लग गई. उन्होंने मिट्टी की छुट्टी कर दी, मगर फकीरो ने जारी रखा. स्कूल जाना और मिट्टी से खेलना. यानी मुजस्समों को शक्ल देना, हर बार नया तराशा हुआ आकार. जैसे उनमें बस रूह फूंकनी बाकी हो.
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उफ़! किस्मत कब धोखा दे जाए कुछ नहीं पता होता. वो 12वीं पास कर चुके थे. कॉलेज में पढ़ाई करना चाहते थे. तभी उनके भाई और पिता का रोड एक्सीडेंट हो गया. बुरी तरह जख्मी. सारी जिम्मेदारी फकीरों पर आ गई. न कॉलेज रहा, न फिर पढ़ने की ख्वाहिश. घर के खर्चे पूरे करने के लिए मूर्तियां बनाने लगे. और ये ही मूर्तियां उनकी पहचान बनती गईं.
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मूर्ति बनाने की पूरी तरह से शुरुआत उन्होंने साल 1990 में की. एक बार फिर किस्मत ने पलटा खाया. हिंदुस्तान की आग ने उनकी फनकारी को भी कुचलने का काम किया. अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहाया गया. जिसका असर ये हुआ हिंदुस्तान में मस्जिद को तोड़ने वालों की तरह पाकिस्तान में भी मूर्तियों को निशाना बनाया गया और फकीरो की उस मूर्ति को तोड़ दिया गया, जिसको बनाकर उन्होंने मूर्तिकार की पहचान बनाई थी.
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इस हादसे के बाद वो बेहद दुखी थे, उनकी फनकारी को ठेस पहुंची थी. मज़हबी एहसास जख्मी हुए. लेकिन फिर से उनपर उनकी फनकारी हावी हो गई. और उन्होंने उस मूर्ति को फिर से ज्यादा खूबसूरत बना दिया. ये मूर्ति हनुमान की थी.
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फकीरों ने महसूस किया कि वो अपनी फनकारी को सिर्फ मंदिरों में ही क्यों कैद रखें उन्होंने लोगों के मुजस्में बनाने शुरू कर दिए. घर में ही एक स्टूडियो बनाया और लोगों को सामने अलग-अलग अंदाज़ में बैठाकर उनके मुजस्समें बनाए. उनके खूबसूरत मुजस्समें मशहूर होते गए. इतना ही नहीं उन्होंने पाकिस्तान के हालात पर भी मुजस्समें बनाए. जिसमें उनका एक मुज्समा ज्यादा फेमस हुआ. वो एक बूढ़े आदमी का था जो सूखा पड़ने की वजह से खुद सूख गया था. उनके बनाए गए मुजस्समों की नुमाइश होने लगी. लोग देखने आने लगे.
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सिंधी टीवी चैनल से जुड़े इब्राहिम कंभर फकीरो फकीरा के बारे में लिखते हैं, ' हाथ, हथौड़ा, पत्थर, छैनी, मिट्टी, चूना, फाइबर, सीमेंट, पेंसिल और रंग इन सब चीजों का दुःख, दर्द, गम, ख़ुशी, परेशानी, उलझन, मुस्कुराहट, इत्मीनान, बैचेनी, इंतजार, सुख या अरमानों से क्या ताल्लुक है? तो सुनो, अगर कोई इनको जोड़कर ज़माने के सामने कोई रिश्ता या ताल्लुक पेश कर सकता है तो वो फकीरो जैसा है मुजस्समा (मूर्तिकार) हो सकता है और कोई नहीं. वो मिट्टी में हाथ डाले तो हम कलाम (तुमसे बात करते हुए) होते मुजस्में जन्म लेते हैं. अगर हाथ में पेंसिल उठाए तो वो तस्वीर, तस्वीर नहीं, एक सच, एक हकीकत, एक जिंदगी का गुमान देने लगती है.'
फ़कीरो आगे बढ़ते गए न उन्हें मज़हबी हमले हरा सके और न गरीबी. जब सड़क हादसे के बाद गरीबी ने उनके करियर को खत्म करना चाहा तो उनका हुनर सहारा बन गया. आज वो अपनी एक पहचान रखते है. लोग सीखने आते हैं. इतनी कामयाबी के बाद बि सरकार की नज़रों सेओझल हैं. दूसरे देशों से उन्हें ऑफर मिले. मगर वतन की मोहब्बत उनके अंदर कुलाचे मारती है. अपना देश छोड़कर नहीं जाना चाहते. इसकी वो दो वजह बताते हैं, पहली वतन की मोहब्बत, दूसरी अपने रिश्तेदार, जिनको नहीं छोड़ना चाहते.

इन तस्वीरों पर भी एक नज़र

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