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क़ाज़ी की पत्नी हिंदू, लोग बोले, मुसलमान बनाओ, क़ाज़ी बोले दफा हो जाओ

कहानी नज़रूल इस्लाम की, जिन्होंने अजान भी दी और कृष्ण भजन भी लिखे.

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मुबारक
24 मई 2019 (Updated: 24 मई 2019, 07:35 IST)
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2 सितंबर 1922 को बंगाली मैगज़ीन 'गनबानी' में एक आर्टिकल छपा. आर्टिकल का टाइटल था ‘हिंदू मुसलमान’. लिखने वाले ने लिखा था,
“मैं हिंदुओं और मुसलमानों को बर्दाश्त कर सकता हूं, लेकिन चोटी वालों और दाढ़ी वालों को नहीं. चोटी हिंदुत्व नहीं है. दाढ़ी इस्लाम नहीं है. चोटी पंडित की निशानी है. दाढ़ी मुल्ला की पहचान है. ये जो एक दूसरे के बाल नोचे जा रहे हैं, ये उन कुछ बालों की मेहरबानी है, जो इन चोटियों और दाढ़ियों में लगे हैं. ये जो लड़ाई है वो पंडित और मुल्ला के बीच की है. हिंदू और मुसलमान के बीच की नहीं. किसी पैगंबर ने नहीं कहा कि मैं सिर्फ मुसलमान के लिए आया हूं, या हिंदू के लिए या ईसाई के लिए आया हूं. उन्होंने कहा, “मैं सारी मानवता के लिए आया हूं, उजाले की तरह.” लेकिन कृष्ण के भक्त कहते हैं, कृष्ण हिंदुओं के हैं. मुहम्मद के अनुयायी बताते हैं, मुहम्मद सिर्फ मुसलमानों के लिए हैं. इसी तरह ईसा मसीह पर ईसाई हक़ जमाते हैं. कृष्ण-मुहम्मद-ईसा मसीह को राष्ट्रीय संपत्ति बना दिया है. यही सब समस्याओं की जड़ है. लोग उजाले के लिए नहीं शोर मचा रहे, बल्कि मालिकाना हक़ पर लड़ रहे हैं.”
धार्मिक कट्टरता को धता बताने वाला ये आदमी था मशहूर कवि, लेखक, संगीतकार क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम. विद्रोही कवि के नाम से मशहूर क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम को भारत और बांग्लादेश में बेहद सम्मान हासिल है. 5387333c00b6c-Nazrul-Islam

दुक्खू मियां नाम क्यों पड़ा छुटपन में

काज़ी नज़रुल इस्लाम की पैदाइश 24 मई 1899 को पश्चिम बंगाल के आसनसोल के पास चुरुलिया गांव में हुई. एक मुस्लिम तालुकदार घराने में.  घर का माहौल पूरी तरह मज़हबी था. उनके पिता काज़ी फकीर अहमद इमाम थे. एक मस्जिद की देखभाल करते थे. नज़रुल बचपन में काफी खोए-खोए रहते थे. इसके चलते रिश्तेदार इन्हें ‘दुक्खू मियां’ पुकारने लगे.  नज़रुल की शुरुआती तालीम मस्जिद द्वारा संचालित मदरसे में हुई. जहां उन्होंने कुरआन, हदीस और इस्लामी फलसफे को पढ़ा. जब वो सिर्फ 10 साल के थे, उनके पिता की मौत हो गई. परिवार को सपोर्ट करने के लिए नजरूल पिता की जगह काम करने लगे. मस्जिद में. बतौर केयरटेकर. अज़ान देने का काम भी उनके जिम्मे था. इस काम को करने वाले को मुअज़्ज़िन कहते हैं. इसके अलावा वो मदरसे के मास्टरों के काम भी करते. अपनी तालीम भी इस दौरान उन्होंने जारी रखी.

पुराणों का चस्का लगा तो शुरू हुए नाटक

ईमान की तालीम के बाद बारी आई म्यूजिक और लिटरेचर की. नजरूल ने चाचा फ़ज़ले करीम की संगीत मंडली जॉइन कर ली. ये मंडली पूरे बंगाल में घूमती और शो करती. नजरूल ने मंडली के लिए गाने लिखे. इस दौरान बांग्ला भाषा को लिखना सीखा. संस्कृत भी सीखी. और उसके बाद कभी बांग्ला, तो कभी संस्कृत में पुराण पढ़ने लगे. इसका असर उनके लिखे पर नजर आने लगा. उन्होंने कई प्ले लिखे जो हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित थे. मसलन, ‘शकुनी का वध’, ‘युधिष्ठिर का गीत’, ‘दाता कर्ण’.

मुअज्जिन फौजी बन कराची पहुंचा

1917 में नजरूल ने ब्रिटिश आर्मी जॉइन कर ली. 49वीं बंगाल रेजिमेंट में भर्ती हुई. कराची तैनाती मिली. नाटक छोड़ वह फौज में क्यों गए? इस सवाल का जवाब उन्होंने ही लिखा. एक, रोमांच की तलाश और दूसरी, उस वक्त की पॉलिटिक्स में दिलचस्पी. कराची कैंट में नज़रूल के पास ज्यादा काम नहीं था. अपनी बैरक में बैठ वह खूब पढ़ते. लेख और कविताएं लिखते. शुरुआत मादरी जबान बंगाली से हुई. रबिन्द्रनाथ टैगोर से लेकर शरतचंद्र चट्टोपाध्याय तक को पढ़ गए. फिर कराची की हवा लगी. जहां उर्दू का जलवा था. जो फारसी और अरबी से पैदा हुई. तो नजरूल ने रेजिमेंट के मौलवी से फारसी सीखी. फिर इस जबान के महान साहित्यकारों, रूमी और उमर खय्याम को पढ़ा. दो साल पढ़ने के बाद नजरूल ने अपना लिखा छपाने की सोची. साल 1919 में उनकी पहली किताब आई. गद्य की. टाइटल था, ‘एक आवारा की ज़िंदगी’. कुछ ही महीनों के बाद उनकी पहली कविता ‘मुक्ति’ भी छपी.

नर्गिस से शादी क्यों नहीं की

1920 में जब बंगाल रेजिमेंट भंग कर दी गई, वह कलकत्ता आ बसे. जल्द ही उनकी नर्गिस नाम की एक लड़की से सगाई हो गई. वह उस जमाने के मशहूर प्रकाशक अली अकबर ख़ान की भतीजी थीं. 18 जून 1921 को शादी होना तय हुआ. शादी वाले दिन नज़रुल पर ख़ान ने दबाव डाला कि वह एक कॉन्ट्रैक्ट साइन करें. इसमें लिखा था, शादी करने के बाद नजरूल हमेशा दौलतपुर में ही रहेंगे. नज़रुल को कोई शर्त मंज़ूर नहीं थी, लिहाजा उन्होंने निकाह से इनकार कर दिया.

विद्रोही कवि नाम कैसे पड़ा

1922 में काजी की एक कविता ने उन्हें पॉपुलर कर दिया. इतना कि उनका नाम भी बदल गया. कविता का शीर्षक था, ‘विद्रोही’. ‘बिजली’ नाम की मैगज़ीन में ये छपी. इसमें बागी तेवर थे. जल्द ही कविता अंग्रेजी राज का विरोध कर रहे क्रांतिकारियों का प्रेरक गीत बन गई. इसका कई भाषाओं में अनुवाद भी हो गया. नतीजतन वो अंग्रेजों को खटकने लगे और जनता के बीच 'विद्रोही कवि' के नाम से मशहूर हो गए. https://www.youtube.com/watch?v=FCWj33Ng2Q0

नज़रूल ने क्या किया जो टैगोर उनके फैन हो गए

कुछ ही दिनों बाद नज़रुल ने ‘धूमकेतु’ नाम से एक मैगज़ीन निकालनी शुरू की. मैगज़ीन के सितंबर 1922 के अंक में उन्होंने एक कविता छापी. ‘आनंद का आगमन’. इसके भी तेवर बर्तानिया हुकूमत को बागी लगे. पुलिस ने मैगजीन के दफ्तर पर रेड की. नज़रूल गिरफ्तार हो गए. उन्हें मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. माफी मांगने को कहा गया. उन्होंने इनकार कर दिया. फिर उन्हें डेढ़ साल की सजा सुनाई गई. जेल में भी वह साहित्य ही रचते रहे. क्रांति के प्रति उनका ये समर्पण गुरुदेव रबींद्र नाथ टैगोर को छू गया. उन्होंने अपना नया नाटक 'बसंता' नजरूल को समर्पित किया. नजरूल ने भी जेल से एक कविता लिख गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता जताई.

हिंदू से शादी की तो कट्टर मुल्लाओं ने क्या कहा

नज़रुल को प्रमिला से प्यार था. नज़रूल मुसलमान. प्रमिला हिंदू. नज़रूल मौलवियों के खानदान से. प्रमिला ब्रह्म समाज से. दोनों ने साथ तय किया, तो कट्टरपंथी परेशान हो गए. शादी में हज़ार अड़ंगे लगाए. मगर नज़रूल और प्रमिला शादी करके ही माने. फिर नज़रूल के पास कुछ मुस्लिम धर्मगुरु पहुंचे. एक सलाह लेकर. चेतावनी भरे अंदाज में. कि निकाह तो ठीक है मगर अब प्रमिला को कलमा पढ़ मुसलमान बनना होगा. नज़रूल ने उनकी बात एक बार सुनी और फिर बोले, सब के सब दफा हो जाओ यहां से. जाहिर है कि नज़रूल मुसलमान रहे और प्रमिला हिंदू. और इसके चलते दोनों ही तरफ के कमअकल उन्हें अपनी आंख की किरकिरी समझते रहे.

कृष्ण भजन भी लिखा

नज़रुल ने न सिर्फ इस्लामिक मान्यताओं को मूल में रखकर रचनाएं की, बल्कि भजन, कीर्तन और श्यामा संगीत भी रचा. दुर्गा मां की भक्ति में गाया जाने वाला श्यामा संगीत समृद्ध करने में क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का बड़ा हाथ है. कृष्ण पर लिखे उनके भजन भी बहुत मशहूर हुए. पढ़िए उनके लिखे ऐसे ही एक भजन का हिंदी अनुवाद.

अगर तुम राधा होते श्याम मेरी तरह बस आठों पहर तुम रटते श्याम का नाम... वन-फूल की माला निराली वन जाति नागन काली कृष्ण प्रेम की भीख मांगने आते लाख जनम तुम, आते इस बृजधाम... चुपके चुपके तुमरे ह्रदय में बसता बंसीवाला और, धीरे धारे उसकी धुन से बढ़ती मन की ज्वाला पनघट में नैन बिछाए तुम, रहते आस लगाए और, काले के संग प्रीत लगाकर हो जाते बदनाम...

आख़िरी दिनों की बीमारी और कफन दफन की बात

आज़ादी के बाद के उनके दिन बड़ी तकलीफों में बीते. उनकी तबियत अक्सर खराब रहने लगी. 1952 आते-आते तो ऐसे हालात हो गए कि उन्हें मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती कराना पड़ा. उनका एक फैन क्लब हुआ करता था उस वक़्त, जिसने उनके इलाज का बीड़ा उठाया. अगले बीस साल उन्होंने अपनी बीमारियों से जूझते हुए काटे. पत्नी का भी 1962 में देहांत हो गया. 1971 की दिसंबर में बांग्लादेश आज़ाद हो गया. 1972 में उन्हें बांग्लादेश ने अपना ‘राष्ट्रकवि’ घोषित किया. भारत सरकार की इजाज़त से वो उन्हें ढाका बसने के लिए ले गई. चार साल बाद उनकी ढाका में ही मौत हो गई. ढाका यूनिवर्सिटी के कैम्पस में उन्हें दफ़न कर दिया गया. मस्जिद की बगल में. मस्जिद के साए में ही उनका सफ़र शुरू हुआ था. वहीं पे ख़त्म. लेकिन कलमकारों का सफ़र कभी ख़त्म नहीं होता. उनका लिखा उनके शरीर के मिट्टी होने के बाद भी बना रहता है. और उसी में रचे-बसे वो बने रहते हैं.
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"ज़िंदगी एक महाभयंकर चीज़ है, इसे फांसी दे देनी चाहिए"

इन्हीं आंखों से जहन्नुम देखा है, खुदा वो वक़्त फिर कभी न दिखाएं”

सत्ता किसी की भी हो इस शख्स़ ने किसी के आगे सरेंडर नहीं किया

उसने ग़ज़ल लिखी तो ग़ालिब को, नज़्म लिखी तो फैज़ को और दोहा लिखा तो कबीर को भुलवा दिया

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