बशीर बद्र शायर हैं इश्क के, और बदनाम नहीं!
आज बशीर बद्र साहब का हैप्पी बड्डे है. लल्लन विश करने के लिए तैयार बैठा है.
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगाइतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगाहम भी दरिया हैं हें अपना हुनर मालूम हैजिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा
सात साल की उम्र से गजलें लिख रहे हैं. इतना तजुर्बा उनको बता गया कि लोगों की जबान पर चढ़ने लायक लिखना बहुत जरूरी है. अगर साहित्य को बचाना है तो उर्दू-अरबी-फारसी को बेजा ठेल कर नहीं लगाना. इसका खयाल आया, तभी तो कहा
"ग़ज़ल चांदनी की उंगलियों से फूल की पत्तियों पर शबनम की कहानियां लिखने का फ़न है. और ये धूप की आग बनकर पत्थरों पर वक्त की दास्तान लिखती रहती है. ग़ज़ल में कोई लफ़्ज ग़ज़ल का वकार पाए बगैर शामिल नहीं हो सकता. आजकल हिन्दुस्तान में अरबी-फ़ारसी के वही लफ़्ज चलन-बाहर हो रहे हैं जो हमारे नए मिज़ाज का साथ नहीं दे सके और जिसकी जगह दूसरी ज़बानों के अल्फ़ाज़ उर्दू बन रहे हैं."
वो शाख़ है न फूल, अगर तितलियां न होंवो घर भी कोई घर है जहां बच्चियां न हों
पलकों से आंसुओं की महक आनी चाहिएख़ाली है आसमान अगर बदलियां न हों
दुश्मन को भी ख़ुदा कभी ऐसा मकां न देताज़ा हवा की जिसमें कहीं खिड़कियां न हों
मै पूछता हूं मेरी गली में वो आए क्योंजिस डाकिए के पास तेरी चिट्ठियां न हों
बेहद मजाकिया आदमी हैं बशीर बद्र साहब. शायरी में तो हैये है, अपने साथ रहने वालों की महफिल में भी अपनी खुशनुमा आदतों के लिए जाने जाते हैं. शराब, सिगरेट का शौक फरमाते नहीं. खेमेबाजी, चुगली और लगाई बुझाई का हुनर भी नहीं है. मोहब्बत के शायर हैं, मोहब्बत बांटते हैं. टाइमपास का क्या जुगाड़ है उनका. मरहूम शायर निदा फाजली उनकी आदतों पर कह गए हैं "जहां भी मिलते हैं, गजलें सुनाते हैं. ये बता कर कि शेर नए हैं."