"हमसे ज्यादा ज्ञानी, ज्यादा अमीर लोग दुनिया में हैं. पर मैं जानता हूं मैं मालिकका बंदा हूं." -राजेश विवेक राजेश विवेक उन एक्टर्स में से थे जिन्हें लोग उनकेनाम से नहीं, किरदारों से जानते हैं. फिर वो स्वदेस का पोस्टमास्टर हो या लगान कागुरन. मरते हैं तो नाम पता चलते हैं. फिर हल्का सा धक्का सा लगता है. जब पता चला वोमर गए, एक वीडियो चल गया दिमाग में. बिखरे, धूल से सने हुए उलझें बालों में 'गोला'पकड़े एक आदमी कहता, "आगे आइके घुमावत है! अब आ, आ आ..."हैदराबाद में मरे. दिल का दौरा आया था. 66 की उम्र में. 'स्वदेस' में जब पहलवानीकरते देखा था, लगा नहीं था ये आदमी ऐसे दिल के दौरे अचानक मर जाएगा.https://www.youtube.com/watch?v=43-lULnrB-kजौनपुर के एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे राजेश. गीता-रामायण का खूब पाठ होताघर में. धार्मिक किताबों के करीब रहे. और इनके किरदारों में खुद को ढूंढ़ते. "घर मेंजब रामायण या गीता पढ़ते थे तो मैं अपने आप को उससे एसोसिएट करता था. मैं राम हूं,कृष्ण हूं, कृष्ण, हूं, परशुराम हूं, सोचता था. पिता मुस्कुराते थे तो मैं भीमुस्कुराता था. वो रोते थे तो मैं भी रोता था." और बची हुई कमी मां पूरी कर देती.राम नवमी पर बेटे को राम बना के स्कूल भेज देती थी. जन्माष्टमी पर बलराम की तरह सजाकर भेज देती. इन किरदारों को निभाना मां ने सिखाया राजेश को.मां कविताएं खूब पढ़ा करती थी. राजेश को भी पोएट्री में इंटरेस्ट आया. 7 साल की उम्रमें पहली कविता लिखी. नेहरु के समय जब चाइना ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था. कविताचीनियों को मार भगाने की बात करती थी.स्कूल में साइंस के स्टूडेंट थे. एक दिन मेंढक काट रहे थे. मेंढक बेहोश न हो पायाथा. राजेश के ऊपर कूद पड़ा. तभी तय किया कि मैं साइंस के लिए नहीं बना हूं. आर्ट्सपढूंगा. पर स्पोर्ट्स और बॉडी बिल्डिंग में लगातार इंटरेस्ट रहा. स्कूल से कॉलेजमें आते आते सोचा, मिलट्री में चला जाऊं. कभी सोचा सर्कस में चला जाऊं. स्पोर्ट्समें जाऊं. फिर कॉलेज के नाटक देखे. बड़े नौटंकी टाइप के लगे. तो तय किया कि कॉलेज काथिएटर बेहतर बनाएंगे. भगवती चरण वर्मा का नाटक 'दो कलाकार' था. उसे डायरेक्ट किया.पोएट का किरदार प्ले किया. बस तय कर लिया कि एक्टर बनूंगा. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामाने उन्हें तराश दिया.महाभारत में भीष्म पितामह बनने गए थे. पर वेद व्यास बने. "बी आर चोपड़ा की महाभारतमें भीष्म पितामह का रोल करने गया था. लेकिन वो उसको मिल चुका था. खन्ना मुकेश को.तो मुझे वेद व्यास का रोल मिला. आदमी जब भी कुछ करता है तो कोई जरुरी नहीं उसकाप्रसाद तुरंत मिल जाए. पर लोगों को आप याद रह जाते हैं. इस रोल की वजह से मुझेहॉलीवुड से ऑफर आए." बॉलीवुड में श्याम बेनेगल ने ब्रेक दिया. फिल्म 'जूनून' से.फिर कई साइड रोल किए. शेखर कपूर की 'बैंडिट क्वीन' में बाबा मुस्तकिम बने. आशुतोषगोवारिकर के फेवरेट रहे. 'लगान' हो, 'स्वदेस', 'जोधा अकबर', या फिर 'व्हाट्स योरराशी'.स्वदेस के ऑडिशन का एक सीन यूट्यूब पर मिला. 54 साल के आदमी में एक नन्हा बच्चामिला.https://www.youtube.com/watch?v=AFh5hXpGopM "मैं बच्चा बनना चाहता हूं. जो टुकुरटुकुर चंदा मामा को देखता है. निकलते हुए सूरज को देखता है. उड़ती हुई तितली कोदेखता है. खिलते हुए फूल को देखता है. इस बच्चे का मैं गुलाम हूं. यही राज है मेरीहेल्थ का." लगान में गुरन ज्योतिषी बनने वाले राजेश को एक ज्योतिषी ने कहा था बचपनमें. या ये राजा बनेगा, या साधु. राजेश तो और भी बहुत कुछ बने. विलेन से लेकरकॉमेडियन तक. वीराना से लगान तक. अलग अलग रोल निभाकर."सब सीन प्रिंटेड आ जाते थे. पर जब क्रिकेट की बारी आई तो मैं ऑन द स्पॉट डायलॉगबनाता था. आशुतोष (गोवारिकर) के कान में बोलता था, अब ये बोल दूं? वो तुरंत कहताहां. क्रिकेट वाले सीन के सभी डायलाग मैंने ऑन द स्पॉट बनाए थे." राजेश की आखिरीफिल्म 2015 में आई थी. इस तेलुगु फिल्म का नाम था 'येवड़े सुब्रमण्यम'.DU में हिंदी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं मुन्ना पांडे. लल्लनटॉप के रीडर भी. उन्हेंकुछ याद आया तो उनने साझा किया. राजेश विवेक के बारे में वो क्या लिखते हैं. पढ़ाजाना चाहिए.पहाड़ी (गढ़वाली) परिधान में एक बच्चे को गोद में लिए शहरी दांव पेंचों से अनजान एकयुवती जो अभी-अभी ऋषिकेश कहे जाने वाले पुजारी शहर वाले देहों की बस्ती से बचकरनिकली है और रामनामी ओढ़े धर्मध्वजा वाहक पंडित जी के चंगुल में जा फंसने औरपुलिसिया हस्तक्षेप के बाद अब शमशान में शरणागत है.वह ऊंचे पहाड़ों वाले मुखबा गांव (गंगोत्री) से अपने कलकतिया पति को तलाशने और उसकीअमानत सौंपने अकेले ही निकली है. पर वह इस जगह (और जगहों पर भी जहां पाप धोने केनाम पर गंगा में डुबकी लगाकर निवृत हुआ जाता है और गंगा को थोडा और मैला कर दियाजाता है) पर वह दुखियारी या अकेली अबला मां की सहानुभति नहीं ले पाती वह केवल एकदेह है शहर चाहे जो हो नाम चाहे जो हो. उस जगह एक गंगा सुबह-शाम आरती से पूजी जातीहै और उसी शहर में दूसरी की देह नोची जाती है नोचने का प्रयास किया जाता है.वह सुकून, सहानुभूति और निश्चिंतता का अहसास एक चांडाल से पाती है. वह लाशों के बीचअधिक सुरक्षित है बजाय जिन्दा लोगों के बीच. लब्बोलुआब यह कि यह फ़िल्म बेशक किन्हीवाहियात वजहों से लोगों को याद हो पर मुझे इस चांडाल और उसकी क्षणिक किन्तुसुकूनदायक उपस्थिति की वजह से याद रही.Source Youtubeराजेश विवेक वह चांडाल आप बनकर आये थे. आपके प्रति, आपके उस किरदार के प्रति मांकसम बहुत श्रद्धा हो आई थी. लगान,स्वदेश,जोधा अकबर हालिया कड़ी में थे. पर वैसेचांडाल कितने जरुरी हैं. आपके किरदार के साथ आपको सलाम. राजेश का अंतिम संस्कारशुक्रवार को मुंबई में हुआ मरा हुआ शरीर भी खत्म हो जाएगा. लेकिन आवाज रह जाएगी:"आगे आइके घुमावत है! अब आ."