यह 60 के दशक के शुरुआती सालों की बात है. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मद्रास केएक नेता को कांग्रेस में एक नई जान फूंकने के इरादे से दिल्ली लाते हैं. उसेकांग्रेस का अध्यक्ष बनाते हैं. वह नेता कांग्रेस को रिवाइव करने के लिए नई-नईप्लानिंग करता है. कुछ केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को सरकार से हटाकर उनसबको पार्टी संगठन में भेजता है. लेकिन इसी दौर में मद्रास में उसकी जड़ों मेंमट्ठा डालने का काम शुरू होता है. और इस काम को अंजाम देता है उसी दौर में तमिलनाडुसे दिल्ली आया एक नेता. वह नेता राज्यसभा एमपी बनकर दिल्ली आया था. लेकिन 5 साल बादजब वापस लौटा तो मुख्यमंत्री का ताज उसका इंतजार कर रहा था. वहीं नेहरू जिस नेता कोदिल्ली लाए थे, वह प्रधानमंत्री बनते-बनते तो चूका ही, मद्रास का निजाम भी गंवाबैठा और साथ ही नेहरू की बेटी जिसे उसने प्रधानमंत्री बनाया था, वह भी उसका साथछोड़ने में जरा भी नहीं हिचकीं.यह सब सुनकर आप सोच रहे होंगे कि आखिर मैं मद्रास के किन 2 नेताओं की बात कर रहाहूं, तो चलिए अब आपको उनके बारे में बता ही देते हैं. नेहरू जिस नेता को कांग्रेसअध्यक्ष बनाकर लाए थे, उनका नाम था के कामराज जो उस वक्त मद्रास के मुख्यमंत्री थे.वहीं 1962 में मद्रास से जो दूसरे नेता राज्यसभा पहुंचे थे, उनका नाम था कांजीवरमनटराजन अन्नादुरै. शार्ट में कहें तो सी एन अन्नादुरै. वही अन्नादुरै जिन्होंने1967 के विधानसभा चुनाव में मद्रास में कामराज और उनकी कांग्रेस को ऐसी पटखनी दी किआजतक वहां कांग्रेस पनप नहीं पाई. कांग्रेस ही नहीं बल्कि कोई दूसरी राष्ट्रीयपार्टी भी वहां पर अपने पांव नहीं जमा सकी.पेरियार (दाएं) के साथ अन्नादुरै.आज हम उनकी चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज से 52 साल पहले यानी 1969 में 60 बरसकी उम्र में अन्नादुरै का निधन हो गया था. उसके बाद उनकी पार्टी और सरकार की कमानएम. करूणानिधि के पास आ गई थी.अन्नादुरै थे कौन और कैसे उन्होंने डीएमके की शुरुआत की?अन्नादुरै कांचीपुरम की एक मिडिल क्लास फैमिली से आते थे. शुरुआत उन्होंने एककाॅलेज लेक्चरर के तौर पर की थी. अंग्रेजी पढ़ाते थे. लेकिन जल्दी ही पत्रकारिताकरने लगे. इसी दौरान पेरियार और उनकी पार्टी द्रविड़ कड़गम के संपर्क में आए.पेरियार पक्के नास्तिक थे और हिंदू देवी-देवताओं पर उनका रत्ती भर भी भरोसा नहींथा. अन्नादुरै पर भी उनका काफी प्रभाव था. लेकिन 1949 आते-आते दोनों के रास्तेज़ुदा हो गए. दोनों के बीच एक ऐसा मुद्दा आ गए जहां दोनों की सोच एकदम विपरीत थी.यह मुद्दा था पेरियार का 15 अगस्त 1947 को शोक दिवस के रूप में मनाने का फैसला.पेरियार मानते थे इस आजादी से समूचा मद्रास प्रेसीडेंसी उत्तर भारतीयों के वर्चस्ववाले केन्द्रीय शासन में चला जाएगा. लेकिन अन्नादुरै ने पेरियार की इस सोच का विरोधकिया और उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से होने वाले चुनावों में भाग लेने की अपील की.पेरियार नहीं माने जिससे अन्नादुरै उनसे अलग हो गए और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK)के नाम से अपनी नई पार्टी खड़ी कर ली.एम करूणानिधि (बाएं) ने अन्नादुरै के निधन के बाद DMK की कमान संभाली.द्रविड़ नाडु की मांगअन्नादुरै 40 के दशक से ही एक अलग राष्ट्र ‘द्रविड़ नाडु’ की मांग का समर्थन कर रहेथे. तमिल भाषा में नाडु का मतलब होता है राष्ट्र. अपनी नई पार्टी में भी उन्होंनेइस बात पर जोर दिया और ‘द्रविड़ नाडु’ की मांग पर कायम रहे. लेकिन पहले भाषा के आधारपर मद्रास प्रेसीडेंसी के विभाजन और बाद में भारत-चीन युद्ध से पैदा हुएराष्ट्रीयता के माहौल ने उनकी इस मांग को बेतुका बना दिया. अन्नादुरै ने भी चीन केमुद्दे पर सरकार का खुलकर साथ दिया.हालांकि कई लोग यह भी कहते हैं कि 1962 में राज्यसभा में आने के बाद देश के बाकीहिस्सों से आनेवाले सांसदों से उनका लगातार साबका पड़ता रहा और दिल्ली की सियासत केकंपोजिट कल्चर के अनुभवों ने उन्हें समय के साथ लिबरल बना दिया. और तब उन्होंनेद्रविड़ नाडु की अपनी मांग को ठंडे बस्ते में डाल दिया.वाजपेयी और अन्नादुरै : तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई.1962 में मद्रास राज्य से राज्यसभा चुनाव जीतकर अन्नादुरै दिल्ली पहुंचे. इसी दौरमें अटल बिहारी वाजपेयी भी राज्यसभा पहुंच गए. वाजपेयी को राज्यसभा इसलिए आना पड़ाक्योंकि वे बलरामपुर की अपनी लोकसभा सीट गंवा बैठे थे. फिल्म एक्टर बलराज साहनी कीवजह से वाजपेयी ने यह सीट गंवा थी. बलराज साहनी ने तब कांग्रेस कैंडिडेट सुभद्राजोशी के समर्थन में दिन-रात बलरामपुर में कैंपेन किया था.राज्यसभा में अक्सर वाजपेयी और अन्नादुरै में तीखी नोक-झोंक होती. नोक-झोंकस्वाभाविक भी थी क्योंकि कहां हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा लगाने वाली जनसंघके नेता वाजपेयी और कहां हिंदी और हिंदू धर्म की मूर्ति पूजा और वर्ण व्यवस्था केघोर विरोधी अन्नादुरै.अन्नादुरै को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाते राज्यपाल सरदार उज्जल सिंह.अन्नादुरै जब मद्रास और अन्य राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग करते तब भीवाजपेयी उनके विरोध में खड़े हो जाते. और जब वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने काविरोध करते तब भी वाजपेयी उनकी क्लास लगा देते.लेकिन इन सबके बावजूद अन्नादुरै और वाजपेयी पक्के दोस्त बन चुके थे. अन्नादुरै तोराज्यसभा में भी वाजपेयी की हिंदी भाषा पर कमांड की खूब तारीफ करते जबकि वाजपेयी भीतमिल साहित्य के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाने के मक़सद से अक्सर अन्नादुरै केफ्लैट पर पहुंच जाते. इतना ही नहीं, 1962 में चीन युद्ध के वक्त प्रधानमंत्री नेहरूने ऑल पार्टी मीटिंग बुलाई तब वाजपेयी और अन्नादुरै साथ-साथ पहुंचे. उस मीटिंग मेंजब अन्नादुरै बोलने लगे तब सबको बहुत आश्चर्य हुआ. कल तक द्रविड़ नाडु की बात करनेवाला नेता ऑल पार्टी मीटिंग में देश की एकता और अखंडता की बातें कर रहा था और सरकारके हर कदम का समर्थन भी कर रहा था.हिंदी विरोधी आंदोलन और DMK का सत्ता में आना 1965 में मद्रास राज्य में हिंदी विरोधी आंदोलन भड़क गया. और इसकी वजह थी संविधानसभा का संकल्प. दरअसल 1950 में जब संविधान लागू किया जा रहा था तब उसमें हिंदी कोराजभाषा बनाए जाने की बात कही गई थी. लेकिन दक्षिण के राज्यों के विरोध को देखतेहुए इसे 15 वर्ष के लिए टाल दिया गया. फिर 1963 में जब संसद में हिंदी को राजभाषाबनाने का बिल लाया गया तब दक्षिण के राज्यों में फिर इसका विरोध शुरू हो गया. भारीहंगामे के बीच संसद ने इस बिल को पारित किया. लेकिन इस दरम्यान जो सबसे आश्चर्यजनकबात नोट की गई, वह थी सांसद अन्नादुरै का अलग लाइन लेना. वे अब विरोध की बजाए एकत्रिभाषा फ़ार्मूला सुझा रहे थे. उनके फार्मूले के तरह हर राज्य के लोगों को अपनीमातृभाषा और अंग्रेजी के अलावा एक और देशी भाषा पढ़ाई जानी चाहिए.लेकिन दिल्ली में उनके रूख के ठीक उलट मद्रास में उनकी पार्टी के सेकेंड इन कमांडमाने जाने वाले एम करूणानिधि जबरदस्त तरीके से हिंदी विरोधी आंदोलन चला रहे थे. कईजगहों पर यह आंदोलन हिंसक भी हो गया था. 26 जनवरी 1965 को जब हिंदी को राजभाषा कादर्जा दिया गया तब उसके 2 दिन पहले यानी 24 जनवरी को DMK ने पूरे मद्रास राज्य मेंशोक दिवस मनाया.अन्नादुरै को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाते राज्यपाल सरदार उज्जल सिंह.इस हिंदी विरोधी आंदोलन ने मद्रास में कांग्रेस विरोधी माहौल पैदा कर दिया था. औरइस माहौल को दोनों हाथों से कैश करने के लिए मद्रास में सिर्फ और सिर्फ एक पलिटिकलपार्टी मौजूद थी. और वह थी अन्नादुरै की DMK. 1967 में जब मद्रास राज्य मेंविधानसभा चुनाव हुआ तब वहां की 222 सीटों में से 137 सीटें अकेले DMK ने जीती औरपूर्ण बहुमत हासिल कर लिया. अन्नादुरै मुख्यमंत्री बन गए जबकि उनके खास सिपहसालारएम करूणानिधि को ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर बनाया गया.कामराज की हार से दुखी 1967 के चुनाव के नतीजे ज्यों ज्यों आ रहे थे, DMK के नेता खुशी मना रहे थे. उनकेलोग सड़कों पर निकल कर झूम रहे थे. लेकिन जिन्हें राज्य की सत्ता संभालनी थी वेचिंतित नजर आ रहे थे. चिंतित इसलिए कि कामराज और मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम अबविधानसभा में नहीं होंगे. कामराज को DMK के ही एक स्टूडेंट लीडर ने हरा दिया था.अन्नादुरै की यह सोच उनके नेहरूवियन मानसिकता को दर्शा रही थी. 1948 में नेहरू भीबहुत दुखी हुए थे जब एक बाबा ने फैजाबाद की असेंबली सीट पर सोशलिस्ट नेता आचार्यनरेन्द्र देव को हरा दिया था.के कामराज 60 के दशक में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे.बहरहाल सत्ता अन्नादुरै के हाथ में आ चुकी थी. वे मुख्यमंत्री बन चुके थे. हिंदीविरोधी आंदोलन ने उनकी पार्टी को मद्रास की कमान सौंप दी थी. उनके मंत्री और वे खुदअपने तमाम ड्रीम प्रोजेक्ट्स मसलन स्कूली शिक्षा में सुधार, सरकारी बसों मेंस्टूडेंट्स को टिकट लेने से छूट वगैरह लागू कर रहे थे. लेकिन वे खुद अपना एक ड्रीमप्रोजेक्ट लागू नहीं कर सके. वह प्रोजेक्ट था उनका त्रिभाषा फार्मूला, जिसके लिएउन्होंने संसद में काफ़ी पैरवी की थी. दरअसल उस दौर में मद्रास में हिंदी विरोध काआलम ऐसा था कि लोग उनके त्रिभाषा फार्मूला को हिंदी थोपने के चश्मे से देखने लगते.लिहाजा उन्होंने इस मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना ही उचित नहीं समझा.हालांकि 1968 में वे द्विभाषी फार्मूला लेकर जरूर आए और मद्रास राज्य में लोगों केलिए तमिल के अलावा अंग्रेजी पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया. 1968 के अंत में उन्होंनेएक और काम किया. मद्रास राज्य का नाम बदलकर तमिलनाडु करने का प्रस्ताव विधानसभा सेपास करवाया और उसे केन्द्र के पास भेज दिया. केन्द्र से मंजूरी मिलने के बाद 14जनवरी 1969 को तमिलनाडु नाम प्रचलन में आ गया. हालांकि अन्नादुरै ज्यादा दिनों तकतमिलनाडु के मुख्यमंत्री नहीं रह सके. उन्हें कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी ने जकड़लिया था. राज्य का नाम बदलने के 20वें दिन यानी 3 फरवरी 1969 को उनका निधन हो गया.अन्नादुरै की शवयात्रा में उमड़ी भीड़.मृत्यु के बाद भी वे एक रिकार्ड बना गए. गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में जगह पागए. और इसकी वजह थी उनकी शवयात्रा में उमड़ी भीड़. एक अनुमान के मुताबिक उनकीशवयात्रा में लगभग डेढ़ करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया था. यह तब भी एक रिकार्ड था औरअब भी एक रिकार्ड है. कहा जाता है कि भारी भीड़ के सामने उनकी सरकार के मंत्री एमकरूणानिधि ने अकेले उनके शव को उठा लिया. यह देखकर भीड़ इमोशनल हो गई और इसी इमोशनके सहारे करूणानिधि ने नेतृत्व की होड़ में पार्टी के अन्य बड़े नेताओं जैसेनेदुनसेझियन और अंबाझगन वगैरह को पछाड़ दिया और खुद मुख्यमंत्री बन गए.