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एक फोन कॉल ने पाकिस्तान की खोली पोल, फिर गिरा 1000 पाउंड का बम और छिन गया कारगिल

कारगिल विजय दिवस के 25 साल पूरे होने आपको बता रहे हैं कारगिल की पूरी कहानी. कैसे एक फोन कॉल से पाकिस्तान की पोल खुली? ऑपरेशन सफ़ेद सागर क्या था? इजरायल ने इस युद्ध में भारत की मदद कैसे की? और कारगिल में कैसे भारत ने अपनी पहली बड़ी जीत हासिल की?

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कारगिल युद्ध में गोरखा राइफल्स और IAF के ऑपरेशन ने युद्ध का रुख पलट दिया था | प्रतीकात्मक फोटो: इंडिया टुडे
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कमल
24 जुलाई 2024 (Updated: 28 जुलाई 2024, 08:30 IST)
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साल 1999. मई महीने का आख़िरी हफ्ता. कारगिल (Kargil) की शुरुआत पाकिस्तान (Pakistan) ने की थी. अब बारी थी भारत के जवाब की. काम मुश्किल था. युद्ध की शुरुआत के बाद पूरे मई महीने के दौरान भारतीय फौज को काफी नुकसान उठाना पड़ा था. हालांकि फौज के हौंसले बुलंद थे. A Soldier's Diary: Kargil the Inside Story में हरिंदर बवेजा एक किस्से का जिक्र करती हैं, तोलोलिंग पर चढ़ाई के दौरान एक बम ठीक कश्मीर सिंह के बगल में आकर फूटा. हाथ टूटकर अलग हो गया. सोचिए इसके बाद कश्मीर सिंह ने क्या किया होगा?

वे उठे, अपना कटा हुआ हाथ उठाया और चलते रहे. जबरन उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाया गया. इस दौरान उनके आस-पास खड़े सैनिकों में से किसी ने पूछा, टाइम क्या हुआ है? कश्मीर सिंह ने ये सुना और बोले, ‘मेरे कटे हुए हाथ में घड़ी बंधी है. जाकर देख लो.’

कारगिल विजय दिवस के 25 साल पूरे होने पर हम पेश कर रहे हैं, एक स्पेशल सीरीज़. पांच अंकों में आपको बताएंगे कारगिल की पूरी कहानी. पिछले दो आर्टिकल में हमने जाना कि पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठ का प्लान कैसे तैयार हुआ और कैसे भारत को घुसपैठ का पता चला. आज जानेंगे.  

  • कैसे एक फोन कॉल से पाकिस्तान की पोल खुली?
  • ऑपरेशन सफ़ेद सागर क्या था?
  • इजरायल ने इस युद्ध में भारत की मदद कैसे की?
  • कारगिल में कैसे भारत ने अपनी पहली बड़ी जीत हासिल की?
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गोरखा राइफल्स के जवान
रावलपिंडी निशाने पर

कारगिल युद्ध को लेकर अक्सर सवाल उठता रहता है कि भारत ने LOC पार क्यों नहीं की? जबकि भारतीय सेना के पास अच्छा मौका था. हालांकि इस युद्ध में एक मौका आया था. जब भारत ने बॉर्डर पार करने की तैयारी कर ली थी. सिलसिलेवार घटनाओं की शुरुआत होती है, एक फोन कॉल से. दो लोगों में बात चल रही है,

क्या आपने कल की खबर सुनी? मियां साहेब (नवाज़ शरीफ) ने अपने भारतीय काउंटरपार्ट से बात की है. उन्होंने कहा- मामले को तूल आप लोग दे रहे हैं. वे तनाव कम करने के लिए विदेश मंत्री सरताज अजीज को दिल्ली भेज सकते हैं

ये बातचीत हो रही थी पाकिस्तान के आर्मी चीफ परवेज़ मुशर्रफ और जनरल अज़ीज़ खान के बीच. साल 1999. मई महीने का तीसरा हफ्ता. मुशर्रफ बीजिंग में थे. और इस वक्त तक अपनी जीत को लेकर कतई ओवर कॉन्फिडेंट थे. इसी चक्कर में उन्होंने ध्यान नहीं दिया कि उनकी ये बातचीत भारतीय सुरक्षा एजेंसियां सुन रही थीं. इस फ़ोन कॉल को टैप कर रिकॉर्ड किया गया. और इसके जरिए भारत ने दुनिया के सामने प्रूव कर दिया कि कारगिल में घुसपैठ करने वाले मुजाहिदीन नहीं, पाकिस्तानी सैनिक थे. 

11 जून को ये टेप दुनिया के सामने रखे गए. इसके अगले ही रोज़ पाकिस्तान के विदेश मंत्री सरताज अज़ीज़ दिल्ली आए. बैठक हुई. भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने दो टूक कहा, 'पाकिस्तान अपने घुसपैठियों को वापिस बुलाए. और कैप्टन सौरभ कालिया समेत 6 भारतीय फौजियों को टॉर्चर करने वाले जवानों को सजा दी जाए.' 

पूर्व भारतीय डिप्लोमेट, विवेक काटजू हिंदुस्तान टाइम्स के एक आर्टिकल में बताते हैं कि सरताज की मुलाक़ात प्रधानमंत्री वाजपेयी से भी हुई थी. वाजपेयी अभी तक इस धोखाधड़ी पर हैरान थे. उन्होंने सरताज से मिलते ही कहा,

क्यों सरताज साहब, लाहौर की बस कारगिल कैसे पहुंच गई. 

सरताज अजीज हालांकि अभी भी इस बात पर डटे हुए थे कि कारगिल में उनके लोग नहीं हैं. बैठक बेनतीजा रही. सरताज लौट गए. इस मुलाक़ात के बात एक और दिलचस्प घटना हुई. 

साल 2016 में आई NDTV की एक रिपोर्ट के अनुसार, सरताज के लौटते ही एयर फ़ोर्स की एक मीटिंग बुलाई गई. इस घटना का लेखा-जोखा स्क्वॉड्रन डायरी में दर्ज़ किया गया था. जिसमें लिखा था,

12 जून की रात एयरफोर्स हेडक्वॉर्टर से ऑर्डर दिया गया कि 13 जून की सुबह हमले के लिए तैयार रहें. हमने पाकिस्तानी करेंसी अपने पास रखी और अपने घरवालों को चिट्ठियां भी लिख डाली थीं. हमारा उड़ने का प्लान सुबह 6.30 बजे का था. जवान पायलट इस हमले को लेकर एक्साइटेड थे.

NDTV की रिपोर्ट के अनुसार, इस ऑपरेशन के तहत MIG-27 को रावलपिंडी एयरबेस पर हमला करना था. साथ में MIG-21 और MIG-29 भी इस ऑपरेशन के लिए तैयार थे. हालांकि आख़िरी वक्त में ये प्लान कैंसिल कर दिया गया. क्योंकि ऊपर से इस ऑपेरशन को फाइनल हरी झंडी नहीं मिली. प्रधानमंत्री वाजपेयी के सख्त निर्देश थे. LOC पार नहीं करना है. एयर फ़ोर्स के लिए ये बड़ी मुश्किल थी. इसके बावजूद IAF ने कारगिल युद्ध में बड़ा असर डाला. कारगिल में IAF ने ऑपरेशन सफ़ेद सागर को अंजाम दिया था.

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वाजपेयी कारगिल घुसपैठ की खबर सुनकर पाकिस्तान की धोखाधड़ी पर बहुत हैरान हुए थे
कैसे हुई ऑपरेशन सफ़ेद सागर की शुरुआत?

8 मई, 1999 की तारीख. एयर चीफ़ मार्शल AY टिपनिस अपने ऑफिस में बैठे थे. शाम को उनके दफ़्तर में एयर मार्शल बेन ब्रार एंटर करते हैं. ब्रार तब एयर फ़ोर्स वाइस चीफ़ थे. और दोनों शाम को साथ बैठकर चाय पिया करते थे.

उस रोज़ ब्रार आए तो भौहें तनी हुईं, चहरे पर शिकन थी. बैठते ही बोले, “सर कारगिल से कुछ दिक्कतों की खबर आ रही है”. चीफ़ मार्शल टिपनिस पूछते हैं, वेस्टर्न कमांड या आर्मी स्टाफ़ से कोई खबर?

तीनों सेनाओं के बीच अगले कुछ दिनों में एक संयुक्त ड्रिल होने वाली थी, नाम था ब्रह्मास्त्र, जो काफ़ी पेचीदगी वाला अभ्यास था. टिपनिस मानकर चल रहे थे कि अगर कारगिल में दिक्कत ज़्यादा होती, तो अब तक ड्रिल कैंसिल होने की खबर उन तक आ जाती.

अगले दिन यानी 9 तारीख को कारगिल से सीरियस सिचुएशन की खबर आने लगी थी. आर्मी चीफ़ वेद प्रकाश मलिक देश से बाहर थे. इसलिए टिपनिस ब्रार को वाइस चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ से मिलकर हालात के बारे में पता करने को कहते हैं.

लेफ़्टिनेंट जनरल चंद्रशेखर तब वाइस चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ हुआ करते थे. चंद्रशेखर, ब्रार को बताते हैं कि आर्मी घुसपैठियों से निपट रही है. इसके बाद चंद्रशेखर अपनी एक शिकायत भी दर्ज कराते हैं.

चंद्रशेखर बताते हैं कि उन्होंने जम्मू कश्मीर, एयर ऑफ़िसर कमांडिंग इन चीफ़ (AOC-in-C) से फ़ायर सपोर्ट मांगा, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया. चंद्रशेखर चाहते थे कि आर्मी को MI-25/35 हेलिकॉप्टर दिए जाएं. लेकिन AOC-in-C, जम्मू कश्मीर का कहना था कि इतनी ऊंचाई पर MI-25 काम को सही से अंजाम नहीं दे पाएंगे.

ब्रार, चंद्रशेखर को बताते हैं कि जम्मू कश्मीर AOC-in-C के पास वैसे भी अथॉरिटी नहीं है. और इसके लिए उन्हें एयर चीफ़ मार्शल से बात करनी चाहिए. लेफ़्टिनेंट जनरल चंद्रशेखर फ़िलहाल के लिए बात टाल देते हैं. इधर एयर चीफ़ मार्शल टिपनिस के पास खबर आती है कि आर्मी चीता हेलिकॉप्टर को अटैक के लिए तैयार कर रही है.

ये सुनते ही टिपनिस समझ जाते हैं कि सिचुएशन बहुत सीरीयस है. 2006 में छपे एक आर्टिकल में टिपनिस लिखते हैं,

अंडों के खोल के बराबर मज़बूत चीता को ऑफ़ेन्सिव पर लगाना ऐसा था, मानो मुर्गी को हलाल करने के लिए भेजा जा रहा हो.

इसके बाद कहानी पहुंचती है 24 मई को. एयरफ़ोर्स अभी तक अटैक में शामिल नहीं हुई थी. 24 मई को तीनों सेनाध्यक्षों की मीटिंग हुई. आर्मी चीफ़ वेद मलिक वायुसेना से अटैक हेलिकॉप्टर की मांग कर रहे थे. लेकिन एयर चीफ़ मार्शल एवाई टिपनिस इसके लिए तैयार नहीं थे. वजहें दो थीं.

- IAF की एंट्री से युद्ध का दायरा बढ़ सकता था 

-कारगिल की पीक्स पर बैठे पाकिस्तानी सैनिकों के पास स्ट्रिंगर मिसाइल थीं. जिनसे वो आसानी से हेलिकॉप्टर्स को निशाना बना सकते थे.

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एयर चीफ़ मार्शल एवाई टिपनिस

टिपनिस ने मीटिंग में ये दोनों बातें रखीं लेकिन आर्मी चीफ़ मलिक कोई दलील सुनने को तैयार नहीं थे. उन्हें जल्द से जल्द अटैक के लिए हेलिकॉप्टर चाहिए थे. उन्होंने सवाल दागा, 

क्या तुम्हें लगता है 40 साल के करियर में मैंने हेलिकॉप्टर ऑपरेशन के बारे में कुछ नहीं सीखा.

सिचुएशन संभालने के इरादे से टिपनिस मलिक से कहते हैं कि उन्हें खुद हेलिकॉप्टर के बारे में सब कुछ नहीं पता है. लेकिन मामला इससे भी ठंडा नहीं होता. 

अगर तुम ऐसा ही चाहते हो तो ऐसा ही सही, मैं खुद ही इससे निपट लूंगा”, ये कहते हुए आर्मी चीफ़ कमरे से बाहर निकल जाते हैं. एयर चीफ़ मार्शल के लिए ये पशोपेश में डाल देने वाली बात थी.

टिपनिस लिखते हैं कि आर्मी और एयर फ़ोर्स का रिश्ता ख़राब ना हो, ये सोचकर वो दोबारा आर्मी चीफ़ से मिले और कहा कि उन्हें उनके हेलिकॉप्टर मिल जाएंगे. बस उन्हें 24 घंटे का वक्त चाहिए. 

इसके बाद 25 मई को एक और मीटिंग होती है. अबकी प्रधानमंत्री अटल बिहारी भी मीटिंग में मौजूद थे. अपने चिर परिचित लहजे में अटल कहते हैं, “ठीक है, कल से शुरू करो”. ऑपरेशन सफ़ेद सागर को हरी झंडी मिल चुकी थी. एक शर्त के साथ - 'चाहे कुछ भी हो, LOC पार नहीं होनी चाहिए.'

ऑपरेशन सफ़ेद सागर शुरू

26 मई की सुबह ऑपरेशन सफ़ेद सागर की शुरुआत हुई. शुरुआत में भारत के MI हेलिकॉप्टर पाकिस्तानी बंकरों को निशाना बना रहे थे. हालांकि हेलिकॉप्टर के साथ ये दिक्कत भी थी कि निश्चित ऊंचाई तक उड़ सकते थे और वहां ये मिसाइलों की रेंज में आ रहे थे.

इस चक्कर में दो दिनों के अंदर भारत के 6 हेलिकॉप्टर नष्ट हो गए.  IAF ने फाइटर जेट्स को उतारा लेकिन कारगिल की धुंध भरी पहाड़ियों में उन्हें जरुरत थी, लेज़र गाइडेड बम (LGB) की, जो घने कोहरे और बादलों के बीच निशाना लगा सके.   

इजरायल आया भारत की मदद को

कारगिल युद्ध के वक्त भारत के पास 60 LGB थे. लेकिन एयरफोर्स इन्हें यूज़ करने से कतरा रही थी. वजह - उस वक्त किसी को पता नहीं था, लड़ाई कितनी लम्बी चलेगी? अगर सीमा के आर-पार युद्ध होता तो, ये सभी बम पाकिस्तान में एक खास टार्गेट के लिए काम आते, मसलन कोई पुल या रेल लाइन.

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प्रतीकात्मक फोटो

इसलिए एयरफोर्स इन्हें कारगिल में नहीं चलाना चाहती थी. ताकि लड़ाई बढ़ने पर भारत की तैयारी पर असर ना पड़े. इसके अलावा एक दिक्कत और थी. भारत के पास टार्गेटिंग पॉड्स नहीं थे. यानी वो इंस्ट्रूमेंट जो टारगेट को पहचाने और उस तक निशाना लगाने के काम आते हैं.

इस मामले में 1997 में भारत और इजरायल में एक डील हो चुकी थी. हालांकि पॉड्स आने में अभी वक्त था. कारगिल युद्ध छिड़ने तक इनकी डिलीवरी का समय नहीं आया था. बावजूद इसके इज़रायल ने युद्ध के बीचों बीच पॉड्स की डिलीवरी की. इतना ही नहीं अपने इंजीनियर भी भेजे.

टार्गेटिंग पॉड्स का इंतज़ाम होने के बाद, अब सवाल था कि बम कौन सा चलाया जाए?

इज़रायल के पॉड्स के साथ Paveway-II LGB बम इस्तेमाल होने थे. इनके आधे स्पेयर पार्ट अमरीका से आने थे, और आधे ब्रिटेन से. लेकिन 1998 में भारत ने न्यूक्लियर बम टेस्ट किए थे और इस वजह से हथियारों के इंपोर्ट पर बैन लगा हुआ था. तो एयरफोर्स ने तय किया कि उनकी जगह देसी बम चलाया जाए. 

देसी माने एयरफोर्स का पारंपरिक 1000 पाउंड का बम. तो एयरफोर्स ने फ्रांस में बने फाइटर जेट पर इज़रायल में बना टार्गेटिंग पॉड लगाकर उसमें एक देसी बम चलाने का प्लान बनाया. इस कॉन्फिगरेशन के साथ इन फाइटर जेट्स को कभी टेस्ट नहीं किया गया था. 30 हज़ार फीट की उंचाई पर जाकर इज़रायली पॉड का सॉफ्टवेयर बंद पड़ जाता था, क्योंकि उसमें एक बग था. लेकिन एयरफोर्स ने रिस्क लिया और टाइगर हिल की लड़ाई के दौरान इन पॉड्स ने बड़ा असर डाला.

25 जून की सुबह दो मिराज-2000 फाइटर जेट टाइगर हिल की ओर बढ़े. टाइगर हिल से 7 किलोमीटर दूर से पहले जेट ने जुगाड़ वाला बम चला दिया, वो जुगाड़, जो उस दिन से पहले कभी आज़माया नहीं गया था. लेकिन बम टाइगर हिल पर बने दुश्मन के बंकर पर लगा, तो वहां सिर्फ एक पाकिस्तानी फौजी ज़िंदा बचा. बम का वार अचूक था.

ये भी पढ़ें: 'भारत घुटनों पर आकर गिड़गिड़ाएगा...' गैंग ऑफ फोर ने कैसे बनाया था कारगिल घुसपैठ का प्लान?

इस हमले के दौरान एयर चीफ मार्शल AY टिपनिस खुद एक जेट में बैठे थे. उन्होंने अपनी आंख से पाकिस्तान आर्मी का कमांड एंड कंट्रोल सेंटर तबाह होते देखा.

ऐसा ही एक हमला कारगिल के पूर्वी सेक्टर में स्थित मंथो धालो पर हुआ. यहां पाकिस्तानी सेना का सप्लाई डम्प था. चार मिराज-2000 सॉर्टी पर निकले और एक सिंगल अटैक में 250 किलो के 6 बम गिराए.

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सैनिकों को 80 डिग्री में एक सीधी चढ़ाई चढ़नी होती थी

इस एक हमले में 300 पाकिस्तानी फ़ौजी मारे गए. और पाकिस्तानी ऑपरेशन की कमर टूट गई. हरिंदर बवेजा अपनी किताब में लिखती हैं कि एयर फ़ोर्स के ऑपरेशन से पहले सेना का मनोबल गिरा हुआ था. भारत को भारी नुकसान हो रहा था. लेकिन जब 26 मई को एयरफोर्स ने धार दिखाई. फौज में एक नए जोश का संचार होने लगा. 

पहली बड़ी जीत

जैसा पिछले आर्टिकल में बताया, कारगिल की लड़ाई दो सेक्टर्स में बंटी हुई थीं. बटालिक सेक्टर और कारगिल सेक्टर. कारगिल में तोलोलिंग जैसी पीक्स चैलेंज पेश कर रही थीं. लेकिन बटालिक में भी ऑपरेशन उतना ही मुश्किल था.

तोलोलिंग के बारे में पूर्व आर्मी चीफ वेद प्रकाश मलिक कह चुके हैं कि तोलोलिंग में जीत कारगिल वॉर का टर्निंग पॉइंट था. हालांकि बटालिक सेक्टर में जिस लड़ाई ने युद्ध का रुख मोड़ा, वो थी खालुबर की लड़ाई. खालुबर पीक के ठीक पीछे पाकिस्तान की 5 नॉर्दर्न लाइट इंफेंट्री ने रसद की सप्लाई लाइन बनाई हुई थी.

पाकिस्तान के सैनिक यहां से भारतीय फ़ौज की पूरी गतिविधि पर नज़र रख सकते थे. इस पर चढ़ने के लिए 80 डिग्री में एक सीधी चढ़ाई चढ़नी होती थी. वो भी बर्फ़ के बीच, माइनस डिग्री तापमान पर. जून के महीने में भारतीय फौज ने दो बार इसे कब्ज़ाने की कोशिश की. लेकिन ऊपर से लगातार हो रही फ़ायरिंग के बीच इस काम को अंजाम देना लगभग नामुमकिन साबित हुआ.

अंत में ये जिम्मेदारी दी गई 1/11 गोरखा राइफ़ल्स को. तीन कम्पनियों को इस काम के लिए आगे भेजा गया. ब्रावो, चार्ली और CO कम्पनी. ब्रावो कम्पनी सबसे आगे थी. जिसमें शामिल थे लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे. 

चार्ली कंपनी को लीड करने वाले कर्नल अजय तोमर, लेफ़्टिनेंट मनोज को याद करते हुए बताते हैं,

खालुबर की नुकीली चट्टानों पर चढ़ने के लिए मनोज चारों हाथ पांव के बल चल रहा था

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गोरखा राइफल्स

2 जुलाई को ऑपरेशन शुरू हुआ. 6 घंटे के चढाई के बाद ये लोग स्टॉप नाम के पाइंट तक पहुंचे. इसके आगे चलते हुए खालुबर के बेस तक पहुंचना था. आगे चढ़ाई और कठिन थी.

इसलिए इन लोगों ने अपने हथियारों के अलावा बाक़ी एक्स्ट्रा सामान वहीं छोड़ दिया. आगे के सफ़र में ज़ोरों की बर्फ़ पढ़ने लगी. इसका एक फ़ायदा हुआ कि रात में दुश्मन द्वारा देखे जाने का ख़तरा कम हो गया. लेकिन साथ ही रेडियो सेट ने काम करना बंद कर दिया. कर्नल तोमर याद करते हुए बताते हैं,

जनक बहादुर हमारा कम्पनी हवलदार था. उसे चोट लगी थी. इसलिए मैंने उसे बेस कैम्प में रुकने को कहा. लेकिन वो हमारे साथ आया. जब रेडियो सेट ख़राब हुआ, जनक बहादुर दौड़कर एक से दूसरी प्लैटून तक जाता था, और निर्देश पहुंचाता था.

खालुबर ऑपरेशन के लिए गोरखा राइफ़ल्स के जवान 14 घंटे तक चढ़ाई करते रहे. पूरी चढ़ाई के दौरान ऊपर से भारी गोलाबारी हो रही थी. तापमान शून्य से 29 डिग्री नीचे था. चढ़ाई की शुरुआत में तीनों कम्पनियों को मिलाकर कुल 100 लोग थे. लेकिन आख़िरी के 500 मीटर पहुंचते-पहुंचते सिर्फ़ 70 बचे. कई गोली से घायल हुए, तो कई वीरगति को प्राप्त हो चुके थे. इस मिशन को कमांड कर रहे कर्नल ललित राय बताते हैं,

साथियों के लहुलूहान शरीरों के सपने आज भी कई बार रातों को जगा देते हैं.

ये भी पढ़ें: भारतीय सैनिकों की आंखें फोड़ीं, जिस्म सिगरेट से दागा, जब कारगिल में पाकिस्तान ने पार की हैवानियत की सारी हदें

भयानक हालात के बावजूद कर्नल राय और उनके साथी आगे बढ़ते रहे. खालुबर पीक पर एक मशीन गन तैनात थी. साथ ही उसकी बाई तरफ़ चार बंकर बने हुए थे. जिनसे लगातार गोली बारी हो रही थी. कर्नल राय ने लेफ़्टिनेंट मनोज के साथ एक टीम को बंकरों की तरफ़ भेजा और खुद सीधा चोटी का रुख़ किया.

कैप्टन मनोज ने ग़ज़ब साहस दिखाते हुए चारों बंकरों को हथगोलों से नष्ट कर दिया. इस दौरान उनके पैर में गोली लगी लेकिन वो फिर भी आगे बढ़ते रहे. कुछ ही देर में 11 राइफ़ल्स के जवानों ने खालुबर पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इसी दौरान लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे वीरगति को प्राप्त हो गए. लड़ाई हालांकि अभी भी जारी थी. 

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पहाड़ियों पर तापमान माइनस में था

कर्नल राय बताते हैं,

चोटी पर क़ब्ज़ा करने तक हम में सिर्फ़ आठ लोग सही सलामत थे. पाक सैनिक भाग चुके थे. लेकिन चूंकि ये उनकी सप्लाई लाइन थी. इसलिए हमें पता था, वो एक बार फिर हमला करेंगे.

पाक फ़ौजियों ने ऐसा ही किया. लेकिन कर्नल राय और उनके आठ साथी उनका मुक़ाबला करते रहे. कर्नल राय बताते हैं,

मेरी राइफ़ल में दो ही गोलियां बची थीं. मैंने सोचा एक से दुश्मन को मारुंगा और दूसरी मैंने अपने लिए बचा के रख ली.

पीक पर मौजूद सभी जवान तनाव में थे. ऐसे में एक दिलचस्प वाक़या हुआ. कर्नल राय बताते हैं कि पाकिस्तानी पंजाबी भाषा में गाली देते हुए आ रहे थे. मैंने उन्हें जवाब देने की कोशिश की. लेकिन मेरी पंजाबी उतनी अच्छी नहीं थे. ऐसे में मैंने अपने साथियों से कहा,

दुश्मन तुम्हारे कमांडिंग अफ़सर को गाली दे रहा है. और तुम चुपचाप बैठे हो

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खालुबर की लड़ाई भी कम मुश्किल वाली नहीं थी

वहां मौजूद सभी लोग गोरखा फ़ौजी थे. इनमें से एक भी गाली देने में माहिर नहीं था. इसलिए कुछ सेकेंड तक वे सब एक दूसरे की तरफ देखते रहे. फिर उनमें से एक बोला, "साब ने हुकुम किया है तो गाली तो देना ही पड़ेगा". सबने आपस में तयकर ज्ञान बहादुर नाम के एक जवान को इसकी ज़िम्मेदारी दी.

ज्ञान बहादुर खड़ा हुआ और एकदम सख़्त लहजे में चिल्लाकर बोला,

ओ पाकिस्तानी! तुम इधर आया तो तुम्हारा मुंडी उखाड़ देगा.

ये सुनकर कर्नल राय ने उससे कहा, "पाकिस्तानी ये सुनकर हंसते हंसते मर जाएंगे कि ज्ञान बहादुर को गाली देना तक नहीं आता".

अचानक इस तनाव भरे माहौल में सबकी हंसी छूट गई. ज्ञान बहादुर आगे बोला, 'अबा त खुकरी निकालेरा तेसलइ ठीक पारछू'.

यानी 'अब तो खुकरी निकाल कर ही उसको ठीक करुंगा."

खालुबर पीक पर जब ये वाक़या हो रहा था. पाक फ़ौज के 40 जवानों की टुकड़ी एक और हमले की आस में इस ओर बढ़ रही थी. कोई चारा न देख कर्नल राय को उस वक्त एक आइडिया सूझा. उन्होंने अपने रेडियो से दूर पहाड़ी पर मौजूद एक फ़ौजी अफ़सर से कहा, मुझसे रेफ़्रेन्स लेकर पीक की तरफ़ गोला बारी करो.

कुछ ही मिनटों में बोफ़ोर्स से पीक की तरफ गोला बारी होने लगी. कर्नल राय और उनके साथी चट्टान की दरारों में छुप गए. और बोफ़ोर्स तोपों ने पाकिस्तानी अटैक को एक बार फिर पीछे खदेड़ दिया. कुछ देर में भारतीय फ़ौज की कुछ और टुकड़ियां खालुबर तक पहुंची और पीक पर पूरी तरह भारत का क़ब्ज़ा हो गया. इस पूरी मुठभेड़ के दौरान पाकिस्तान का एक सिपाही युद्ध बंदी बना लिया गया था. कर्नल राय बताते हैं,

उस फ़ौजी का नाम नाइक इनायत अली था. युद्ध बंदी बनने के बाद उसने सिर्फ़ इतना कहा कि वो किसी गोरखा को देखना चाहता है.

कर्नल राय ने अपने एक जवान को उसके सामने पेश किया और उसने उसे अपनी खुकरी निकाल कर दिखाई. बाद में इनायत अली को दिल्ली भेज दिया गया. खालुबर पीक पर क़ब्ज़े के लिए किए गए ऑपरेशन के लिए 1/11 गोरखा बटालियन को 'Unit Citation' और 'THE BRAVEST OF THE BRAVE’ का टाइटल मिला. और अदम्य साहस दिखाने के लिए लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे को परम वीर चक्र और कर्नल ललित राय को वीर चक्र से सम्मानित किया गया.

वीडियो: तारीख: भारत को पाकिस्तान की घुसपैठ का कैसे पता चला? कारगिल की पूरी कहानी

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