पिता-पुत्र की वो जोड़ी, जो गांधी परिवार के सात बार करीब आए तो आठ बार दूर गए
बात जितेंद्र और जितिन प्रसाद की.
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जब आप किसी कचहरी के बाहर से गुजरेंगे, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में, तो आपको वकीलों के बस्ते दिखेंगे. बस्ता माने मध्यम और लघु दर्जे के वकीलों के बैठने की जगह, उनका दफ्तर. कचहरी के पास की सड़क पर, चबूतरे पर छोटी सी जगह ली. तिरपाल से छांव की. अपनी कुर्सी-मेज, फर्राटा फैन लगाया और तैयार हो गया वकील का बस्ता. फिर यहीं से सारी वकालत चलती है. बस्तों की बड़ी ख्याति होती है. बड़े और पुराने बस्ते लैंडमार्क बन जाते हैं. कोई पूछे कि कचहरी के बाहर कहां मिलोगे, तो लोग बताते हैं कि फलाने वकील के बस्ते पर. उन बस्तों की और प्रतिष्ठा होती है, जो पीढ़ियों से जमे हैं. एक पीढ़ी ने बस्ता जमाया, अब दूसरी ने संभाल लिया है.
आज हम भी बात करेंगे एक ऐसे ही बस्ते की. ये बस्ता कचहरी का नहीं, राजनीति का है. दो पीढ़ियों ने मिलकर बस्ता जमाया, तीसरी पीढ़ी ने संभाला लेकिन उपेक्षा के भाव के बीच उसने आख़िरकार ये बस्ता तज दिया और ठीक सामने वाले बस्ते में अपनी टाट बिछा ली. पॉलिटिकल किस्से में आज बात करेंगे उत्तर प्रदेश के नेता जितिन प्रसाद की. जिनकी पिछली दो पीढ़ियां कांग्रेस में रहीं. जितिन ख़ुद करीब 2 दशक से कांग्रेसी थे. लेकिन 9 जून 2021 से नहीं. अब वो भारतीय जनता पार्टी के सदस्य हैं. 2022 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं और इसके लिहाज से इसे अहम पॉलिटिकल मूव कहा जा रहा है.
लेकिन जैसा कि हमने कहा कि जितिन का कांग्रेस में जमा ये बस्ता उनके पुरखों का रखा हुआ था. इसलिए किस्सा पुरखों से ही शुरू होगा. शाहजहांपुर का ज़मींदार घराना और टैगोर परिवार
“हमारा जुनून, हमारी इच्छाएं अनियंत्रित हैं. लेकिन ये हमारा चरित्र ही है, जो इन्हें नियंत्रण में रखता है.”ये पंक्तियां गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर की लिखी हुई हैं. मैंने ये पंक्तियां पढ़ीं क्योंकि इस किस्से का आरंभ टैगोर से है और अंत इच्छाओं पर.
रविंद्र नाथ टैगोर के पिता देवेंद्र नाथ टैगोर की 14 संतानें थीं. इनमें रविंद्र नाथ के एक भाई थे – हेमेंद्र नाथ टैगोर. उनका भी साहित्य में, दर्शन में अच्छा योगदान है. 1884 में हेमेंद्र नाथ के घर बिटिया हुई. पूर्णिमा. टैगोर घराने की बिटिया थी. शादी भी बड़े घराने में हुई. शाहजहांपुर के ज़मींदार और अंग्रेज़ों की उच्च सिविल सेवा ‘इंपीरियल सिविल सर्विस’ के अधिकारी सर ज्वाला प्रसाद से पूर्णिमा देवी का ब्याह हुआ. दोनों के बेटा हुआ. नाम रखा गया- कुंवर ज्योति प्रसाद. यहां तक प्रसाद खानदान का कोई ख़ास राजनीतिक इतिहास नहीं था. लेकिन ज्योति प्रसाद ने इसकी नींव रखी. उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस जॉइन की. नेहरू के साथ आज़ादी के आंदोलनों में शामिल रहे. लेकिन अभी भी खानदान का पॉलिटिकल बेस्ट आना बाकी था.
रविंद्रनाथ टैगोर के खानदान और प्रसाद खानदान का पुराना रिश्ता रहा है. (फाइल फोटो)
कांग्रेस में प्रसाद परिवार की राजनीति ज्योति प्रसाद का ब्याह हुआ उस वक्त के कपूरथला स्टेट से आईं पामेला देवी से. बेटा हुआ. नाम रखा गया जितेंद्र. जितेंद्र प्रसाद. जितेंद्र प्रसाद ने उस वक्त के टॉप कॉलेजों से तालीम हासिल की. लखनऊ का कोल्विन तालुकदार कॉलेज. नैनीताल का शेरवुड कॉलेज. और पढ़ाई के बाद पिता के नक्शे-कदम पर चलते हुए 70 की दहाई में जॉइन कर ली कांग्रेस. प्रसाद खानदान की दूसरी पीढ़ी कांग्रेस में आ चुकी थी.
1970 में जितेंद्र प्रसाद को पहली पुख़्ता राजनीतिक पहचान मिली. वे उत्तर प्रदेश विधानपरिषद के सदस्य बने. 1971 में देश में पांचवें लोकसभा चुनाव हुए. इंदिरा गांधी ने ‘ग़रीबी हटाओ’ का नारा दिया तो उत्तर प्रदेश के कद्दावर कांग्रेसी हेमवती नंदन बहुगुणा ने शाहजहांपुर की सीट से ज़मींदार पुत्र को मैदान में उतार दिया. जितेंद्र प्रसाद चुनाव लड़े और जीते. पहली बार सांसद बने. इमरजेंसी के बाद 77 में हुए चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी, जितेंद्र प्रसाद भी हारे. लेकिन कमबैक किया. 1980 में भी इसी सीट से जीते, 84 में भी जीते. जितेंद्र प्रसाद की लॉयल्टी और इनाम इसी बीच कांग्रेस में एक बड़ी टूट भी हुई. 77 के लोकसभा चुनावों की घोषणा के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा ने पार्टी से बगावत कर दी. पूर्व रक्षा मंत्री जगजीवन राम के साथ मिलकर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी पार्टी बनाई. उस चुनाव में इस दल को 28 सीटें मिली, जिसका बाद में जनता दल में विलय हो गया. जब बहुगुणा अलग हुए तो उन्होंने एक संदेश जितेंद्र प्रसाद को भी भिजवाया था. या यूं कहें कि बुलावा भिजवाया था. लेकिन जितेंद्र प्रसाद ने कहा –
“कांग्रेस छोड़ने से अधिक बेहतर मैं समझूंगा कि राजनीति छोड़ दूं. जब तक राजनीति में हूं, कांग्रेसी हूं.”पार्टी से इस लॉयल्टी का फल 84 में जितेंद्र प्रसाद को मिला. राजीव गांधी ने जितेंद्र प्रसाद को AICC का महासचिव बनाया और अपने राजनीतिक सलाहकारों में भी शामिल किया. वरिष्ठ पत्रकार औरंगजेब नक्शबंदी बताते हैं –
“सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में एक बड़ा बदलाव हुआ था. सिंगल विंडो सिस्टम पर काम शुरू हुआ था. सोनिया गांधी के सलाहकारों में सिर्फ एक और एक नाम शामिल रहता था. अहमद पटेल का. लेकिन राजीव गांधी के समय में ऐसा नहीं था. उन्होंने सलाहकारों की पूरी एक टीम तैयार की थी. वे इस संबंध में हॉर्सेज फॉर कोर्सेज़ पॉलिसी पर चलते थे. जिस किस्म की सलाह चाहिए, उससे जुड़ी विशेषज्ञ सलाहकार से बात की जाती थी. राजीव के इस सलाहकार मंडल का अहम हिस्सा थे- जितेंद्र प्रसाद.”इस बात से मशहूर लेखक और पत्रकार राशिद किदवई भी इत्तेफ़ाक रखते हैं. वे कहते हैं –
“राजीव गांधी ने सलाहकारों में अलग-अलग विशेषज्ञों को जगह दी थी. जैसे कानूनी सलाह के लिए पी शिवशंकर, कश्मीर पर सलाह के लिए माखनलाल फोतेदार. और फिर राजीव गांधी के अमर, अकबर, एंथनी के नाम से मशहूर तीन सलाहकार तो थे ही. अरुण सिंह, ऑस्कर फर्नांडीज और अहमद पटेल. लेकिन इतनी ज़बानों से अलग-अलग सलाहें सुनकर राजीव भी कई बार कन्फ्यूज हो जाते थे. कई बार वो झल्लाकर सबसे आख़िरी में आई सलाह मानकर बात ख़त्म कर दिया करते थे. इसका हल निकालने के लिए उन्होंने जितेंद्र प्रसाद को ज़िम्मेदारी दी थी कि वे सबसे सलाह जुटाकर उसका निचोड़ राजीव तक पहुंचाएं. और ये सख़्त शब्दों में कहा गया था कि ये निचोड़ निष्पक्ष हो. जितेंद्र को लखनऊ का इनपुट देने की भी ज़िम्मेदारी दी गई थी. राजीव के दिए काम उन्होंने अच्छे से किए.”कुल मिलाकर राजीव गांधी के कार्यकाल में जितेंद्र प्रसाद की कांग्रेस में जगह मजबूत हुई.
जितेंद्र प्रसाद (बाएं) एक समय राजीव गांधी (दाएं) के विश्वस्त लोगों में गिने जाते थे. (फाइल फोटो)
राजीव की हत्या के बाद समीकरण बदले 1989 से जितेंद्र प्रसाद के लिए हालात बदलने लगे. उनकी शाहजहांपुर में भाजपा प्रत्याशी सत्यपाल यादव के हाथों हार हुई. दो साल देश में भारी सियासी उठापटक के बीच गुजरे और फिर 21 मई 1991 की तारीख़ आई. राजीव गांधी की हत्या कर दी गई. और यहां से जितेंद्र प्रसाद के राजनीतिक समीकरण पूरे तरह पलट गए. उन्हें राजीव की मौत का धक्का तो लगा, लेकिन यहां से उन्होंने अपनी राजनीति का अंदाज भी बदलने की ठान ली.
पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने. राजीव गांधी के समय में नरसिम्हा राव की कुछ ख़ास पूछ-परख नहीं थी. लेकिन जब वे PM बने तो जितेंद्र प्रसाद ने उनसे अच्छे समीकरण साध लिए. 1994 में जितेंद्र प्रसाद को राज्यसभा भेजा गया और साथ ही नरसिम्हा राव ने उनको यूपी का प्रभार सौंप दिया. और इसी बीच ‘जित्ती भाई’ ने वो ग़लती कर दी, जिसे कांग्रेस आज तक यूपी में भोग रही है.
राशिद किदवई बताते हैं कि जितेंद्र प्रसाद के इनपुट पर आंख मूंदकर भरोसा करते हुए नरसिम्हा राव ने UP में कांग्रेस-बसपा गठबंधन पर हामी भर दी. ये सूबे में कांग्रेस के लिए आत्मघाती फैसला साबित हुआ. इसका एक किस्सा मशहूर है. एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांशीराम और जितेंद्र प्रसाद मौजूद थे. पत्रकार बार-बार पूछ रहे थे कि साब गठबंधन तो ठीक है, लेकिन सीटों का क्या बंटवारा हुआ है. जितेंद्र समेत कांग्रेसी नेता इस सवाल को टाल रहे थे. लेकिन बार-बार सवाल आने पर झल्लाकर कांशीराम बोल उठे –
“300 सीट पर हम लड़ेंगे और सवा सौ पर कांग्रेस.”उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही कांग्रेस नेताओं के सिर झुक गए. देश की उस वक्त की सबसे बड़ी पार्टी के लिए ये एक तरह से शर्म की बात थी कि वो सबसे बड़े प्रदेश में सीटों पर इस कदर समझौता कर ले. कांग्रेस-बसपा गठबंधन फ्लॉप रहा और जितेंद्र प्रसाद का गेमप्लान भी.
UP के चुनाव में बसपा से गठबंधन करना जितेंद्र प्रसाद का ही विचार था, जो कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हुआ. तस्वीर में हैं कांशीराम और मायावती. (फाइल फोटो)
केसरी का हटना, सोनिया बनाम जितेंद्र अब आता है जितेंद्र प्रसाद के पॉलिटिकल करिअर का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय. सितंबर 1996 से लेकर मार्च 1998 तक सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. 1998 ही वो समय था, जब सोनिया गांधी सक्रिय राजनीति में उतरने के लिए पूरी तरह तैयार हो गईं. BBC के एक लेख के मुताबिक केसरी और उनके समर्थकों का एक धड़ा सोनिया को सक्रिय राजनीति में आने से रोकना चाहता था. वहीं कांग्रेस का एक धड़ा केसरी को अध्यक्ष पद से हटाना चाहता था. अव्वल तो दक्षिण और उत्तर-पूर्व के नेताओं को उनसे बात करने में समस्या आती थी क्योंकि केसरी अंग्रेज़ी नहीं जानते थे. फिर उत्तर भारत के कई उच्च जाति के नेता उन्हें अध्यक्ष पद पर स्वीकार भी नहीं कर पा रहे थे. केसरी ख़ुद भी उत्तर भारत के ब्राह्मण, ठाकुर कांग्रेसियों को कुछ ख़ास पसंद नहीं करते थे. उस वक्त केसरी के ख़िलाफ रहे नेताओं में जितेंद्र प्रसाद, करुणाकरण, शरद पवार, अर्जुन सिंह जैसे नाम आते हैं.
इस बीच 1998 में चुनाव हुए. कांग्रेस की तरफ से केसरी को चुनाव प्रचार से बिल्कुल दूर कर दिया गया. सोनिया को फ्रंट पर रखा गया. उन्हें किसी राज्य में प्रचार के लिए आगे नहीं किया गया. इस बीच केसरी दिल्ली से जालंधर जाने के लिए निकले. लेकिन विमान अंबाला से ही लौट आया. केसरी के साथ गए गुलाम नबी आज़ाद ने बताया कि विमान में केसरी को सांस लेने में दिक्कत आ रही थी इसलिए अंबाला नहीं गए. नबी ने कहा –
"मुझे चचा की सेहत की बहुत चिंता हो रही थी. वो बहुत दर्द में थे और उनका दम घुट रहा था."ख़ैर, कांग्रेस चुनाव में औंधे मुंह गिरी. अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी जैसे दिग्गज भी सीट नहीं बचा सके. लेकिन हार का ठीकरा केसरी के सिर फोड़ दिया गया. केसरी की तमाम ना-नुकुर के बीच सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनीं.
औरंगजेब नक्शबंदी बताते हैं –
“सोनिया के अध्यक्ष बनने के बाद जितेंद्र प्रसाद को वो तवज्जो नहीं मिली, जो वो सोच रहे थे. अहमद पटेल जैसे नेता सोनिया गांधी के सलाहकारों में शुमार हुए और तमाम अन्य नेता दरकिनार होने लगे. धीरे-धीरे शरद पवार, फोतेदार और तमाम अन्य नेताओं ने जितेंद्र प्रसाद को ये कहकर फ्रंट पर लाना शुरू किया कि तुम चुनाव लड़ जाओ. जबकि ये और कुछ नहीं, बल्कि एक उकसाने की कोशिश भर थी.”राशिद किदवई कहते हैं कि ये वही नेता थे, जो दूसरी तरफ सोनिया को भी कह रहे थे कि मैडम चुनाव होता है तो होने दीजिए, हम लोग देख लेंगे. यानी दोनों तरफ से बैटिंग चल रही थी. इस बीच 1999 में जितेंद्र प्रसाद एक बार फिर शाहजहांपुर से जीतकर लोकसभा पहुंचे. आत्मविश्वास चरम पर था. 2000 में पार्टी के भीतर संगठन के चुनाव हुए. सोनिया गांधी के सामने जितेंद्र प्रसाद को बमुश्किल 4 फीसदी वोट मिले. ये हार करारी से भी आगे जाकर अपमानजनक भी थी. जितेंद्र प्रसाद को इस हार का बड़ा धक्का लगा. हालांकि वो अपनी राजनीतिक पारी का अगला पड़ाव सोचते, इससे पहले 16 जनवरी 2001 को उनका निधन हो गया. जितिन प्रसाद का अभ्युदय इसी बरस राजनीति में पदार्पण हुआ जितेंद्र प्रसाद के नूर-ए-चश्म जितिन प्रसाद का. जितिन ने यूथ कांग्रेस जॉइन की और पिता की कर्मस्थली उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर से ही राजनीति में सक्रिय हुए. 1973 की पैदाइश जितिन दून स्कूल से पढ़े हुए थे. ज्योतिरादित्य सिंधिया, दुष्यंत सिंह, कलिकेश देव उनके साथ पढ़े थे. ये सभी आगे चलकर दिग्गज राजनेता रहे. सिंधिया, दुष्यंत कांग्रेस में आए. कलिकेश बीजू जनता दल से सांसद बने. सिंधिया अब भाजपा में हैं.
दून के बाद जितिन श्री राम कॉलेज से पढ़े. इंटरनेशनल मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट से MBA किया. इधर 2001 में यूथ कांग्रेस में आते ही उन्हें महासचिव की ज़िम्मेदारी भी दे दी गई. यही वो समय था, जब कांग्रेस में कई युवा नेता सामने आए. सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य और ख़ुद राहुल गांधी. पायलट, सिंधिया और जितिन जैसे नेता टीम राहुल में शामिल रहे. औरंगजेब नक्शबंदी कहते हैं कि बेशक पायलट और सिंधिया से राहुल की अच्छी दोस्ती रही है लेकिन जितिन को साथ लेकर चलने की शुरू से एक ये सोच भी थी कि मैसेज जाए कि जिसने राहुल की मां के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था, उनके बेटे को भी कांग्रेस पार्टी में इतना मान मिलता है. माननीय सांसद, माननीय मंत्री 2004 में जितिन को शाहजहांपुर से लोकसभा का टिकट मिल गया. प्रसाद खानदान का नाम और जितेंद्र प्रसाद की करीब ढाई दशक की बनाई राजनीतिक जमीन पर जितिन प्रसाद ने जोरदार आग़ाज किया. जितेंद्र के निधन के बाद एक इमोशनल कनेक्ट भी था. जितिन प्रसाद ने चुनाव जीता. सपा के राममूर्ति सिंह वर्मा 1999 के बाद लगातार दूसरी बार यहां से हारे. करीब 82 हज़ार वोट से जीतकर माननीय सांसद जी पहली बार लोकसभा पहुंचे. पहले कार्यकाल के चौथे बरस में ही सांसद जी को मंत्री जी का दर्जा मिल गया, जब मनमोहन सिंह सरकार में जितिन प्रसाद को इस्पात राज्यमंत्री बनाया गया. उस कैबिनेट में वे सबसे युवा मंत्री भी थे.
इसी साल यानी 2008 में ही UP में परिसीमन के बाद धौरहरा सीट सामने आई. लखीमपुर खीरी के कुछ हिस्से और सीतापुर के कुछ गांवों को जोड़कर ये सीट बनाई गई. 2009 में आम चुनाव हुए तो जितिन प्रसाद धौरहरा से लड़े. इस्पात राज्यमंत्री रहते हुए उन्होंने धौरहरा में एक स्टील फैक्ट्री की नींव डलवाई थी. जितिन प्रसाद के इस काम को धौरहरा ने हाथों-हाथ लिया और वे इस नई सीट के पहले सांसद बने. उन्होंने बसपा के राजेश कुमार सिंह को करीब 1 लाख 91 हज़ार वोट के बड़े अंतर से हराया.
UPA-2 तक जितिन का ग्राफ अच्छा चलता रहा. वे मंत्री थे और राहुल गांधी के करीबी भी. लेकिन इसके बाद समीकरण बदल गए. (फाइल फोटो)
जितिन को इसका इनाम भी मिला. यूपीए-2 में एक बार फिर मंत्री पद. पेट्रोलियम, सड़क-परिवहन जैसे अहम मंत्रालय में उन्हें राज्यमंत्री के तौर पर ज़िम्मेदारी मिली. यहां तक जितिन प्रसाद का पॉलिटिकल करिअर बम-बम चल रहा था. कांग्रेस में वो पीक पर थे. राहुल गांधी से अच्छी दोस्ती थी. लेकिन अभी 2014 की मोदी लहर बाकी थी. एक दांव, जो जितिन ने नहीं चला 2014 में भी जितिन प्रसाद धौरहरा सीट से ही लड़े लेकिन इस बार ऊंट ने करवट बदल ली. जिस फैक्ट्री की नींव 2009 में पड़ी थी, वो अब तक शुरू भी नहीं हो सकी थी. जितिन प्रसाद जनता से कट चुके थे और जनता के बीच उनकी छवि राजशाही किस्म की बनने लगी थी. और फिर चली मोदी लहर. जितिन प्रसाद चुनाव हार गए. यहां से भाजपा की रेखा वर्मा ने जीत हासिल की. जितिन प्रसाद नंबर-2 छोड़िए, नंबर-3 छोड़िए, नंबर-4 पर रहे. उन्हें विजयी प्रत्याशी से करीब 1 लाख 90 हज़ार वोट कम मिले.
लोकसभा में हार के बाद प्रदेश कांग्रेस में कुछ अच्छा करने की हसरत में उन्होंने 2017 में विधानसभा लड़ने की ठानी और तिलहर से टिकट हासिल किया. जितिन अपना जनाधार और जमीनी नेता की छवि पूरी तरह खो चुके थे. अब तक तो जितेंद्र प्रसाद को गुजरे भी 16 बरस हो चुके थे. लिहाजा उनके नाम का भी कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलना था. जितिन विधायकी भी हार गए. भाजपा के रोशन लाल वर्मा ने उन्हें करीब 5 हज़ार वोट के नज़दीकी अंतर से मात दी. लगातार दूसरी हार निराश करने वाली थी लेकिन यहां तक पार्टी का भरोसा जितिन पर कायम था.
2019 के लोकसभा चुनाव आए. कांग्रसे के सामने अब तक अस्तित्व बचाने का संकट मंडराने लगा था. उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमान संभाल रखी थी. राहुल राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर कमांड में थे. इस बीच दिल्ली से जितिन प्रसाद को एक बड़ी सलाह दी गई थी. कि “जितिन जी, आप लखनऊ से लड़ जाइए.”
प्रियंका गांधी ने 2019 में जितिन प्रसाद को लखनऊ से लड़ने की सलाह दी थी. लेकिन जितिन नहीं माने. (फाइल फोटो)
लखनऊ से लड़ना मतलब राजनाथ सिंह के ख़िलाफ लड़ना. हार मिलना करीब-करीब तय था. लेकिन राजनीति में कई बार हार भी नेता को बड़ा बना दिया करती है. सुषमा स्वराज, सोनिया गांधी, बेल्लारी..ये तीन कीवर्ड इस बात को साबित भी करते हैं. लखनऊ से राजनाथ के ख़िलाफ लड़ना जितिन के लिए एक दांव रहता, जो शायद हार के बावजूद उनका राजनीतिक कद बढ़ा देता. लेकिन वो इसके लिए तैयार नहीं हुए. एक लोकसभा और एक विधानसभा हारने के बाद वे तीसरी हार के लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने धौरहरा से अपनी सुरक्षित सीट से ही लड़ने की ठानी. चुनाव लड़े और जितिन फिर हार गए. और न सिर्फ हारे, बल्कि इस बार तो उनकी ज़मानत तक ज़ब्त हो गई. यहां से फिर रेखा वर्मा जीतीं.
वहीं दूसरी तरफ लखनऊ वाला प्रस्ताव ठुकराने की वजह से उनके राहुल-प्रियंका से भी समीकरण बिगड़ गए. जितिन प्रसाद के राजनीतिक सितारे गर्दिश में चले गए. पार्टी से विदाई के समीकरण कैसे बने? 2019 की हार के बाद जितिन प्रसाद को लगने लगा कि अब वे कांग्रेस के साथ मिलकर राजनीतिक सफलता के अध्याय नहीं लिख सकते. कांग्रेस को भी लगने लगा कि अब जितिन से आगे देखने का समय है.
यूपी और कांग्रेस की राजनीति को करीब से समझने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि –
“जितिन प्रसाद उन नेताओं में से रहे है, जो चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए. पार्टी में आते ही वे यूथ कांग्रेस महासचिव बने. पहली बार सांसद बनते ही मंत्री भी बन गए. अपने पिता की बनाई जमीन पर उन्होंने सियासत की. लेकिन ज़मीनी नेता की छवि नहीं बना पाए. कांग्रेस सत्ता में थी और राहुल गांधी के अच्छे परिचित थे तो चीजें शुरुआती दौर में आसान रहीं. लेकिन 2014 के बाद कांग्रेस के साथ-साथ जितिन का ग्राफ भी तेजी से नीचे आ गया. अब प्रियंका गांधी और राहुल गांधी पार्टी की ओवरहॉलिंग करने की सोच रहे हैं. वे पार्टी की राजा-रजवाड़े, वंशवाद वाली छवि को ख़त्म करना चाहते हैं. इसी का उदाहरण है UP में अजय सिंह लल्लू को अध्यक्ष बनाया जाना. जबकि अध्यक्ष बनना जितिन प्रसाद भी चाहते थे. पार्टी को अब लगने लगा है कि जितिन प्रसाद स्ट्रगल नहीं कर सकते.”अजय लल्लू को UP चीफ बनाकर कांग्रेस अब जितिन प्रसाद को सीधा संदेश दे चुकी थी कि पार्टी उनसे आगे का सोच रही है. इस बीच 2020 के अंत में जितिन को पश्चिम बंगाल चुनाव का प्रभारी बनाकर भी भेजा गया लेकिन वो एक लॉस-लॉस सिचुएशन थी. कांग्रेस बंगाल में हारी और इधर UP की राजनीति से भी जितिन दरकिनार हो गए. जितिन की ये भी शिकायत रही कि बंगाल में उनकी बातों को तवज्जो नहीं दी गई और पार्टी ने वही किया, जो अधीर रंजन चौधरी या रणदीप सुरजेवाला ने कहा. जितिन नहीं चाहते थे कि बंगाल में कांग्रेस, इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ गठबंधन करे. जितिन का कहना था कि इससे पार्टी की 2022 UP चुनाव में ब्राह्मणों के बीच छवि कमजोर होगी. जितिन को अपनी ब्राह्मण छवि का भी ख़्याल था. लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई. बंगाल में कांग्रेस हारी. जितिन वहां से भी खाली हाथ लौट आए. उन्हें ये भी लगा कि उन्हें यूपी की सियासत से दूर करने के लिए जान-बूझकर बंगाल भेजा गया था, जहां पार्टी असल में कभी होड़ में थी ही नहीं. भाजपा से करीबी इस बीच 2019 के बाद से ही जितिन प्रसाद की भाजपा से नजदीकियां बढ़ रही थीं. कहा ये भी जाता है कि 2019 में जितिन लखनऊ से नहीं लड़े क्योंकि वे राजनाथ को नाराज नहीं करना चाहते थे. वे 2 साल तक कांग्रेस में रुके, क्योंकि बंगाल चुनाव में उन्हें कोई बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने की उम्मीद थी.
वहीं राजस्थान के कांग्रेसी नेता सचिन पायलट जब पार्टी से नाराज थे तब जितिन प्रसाद ने उनका समर्थन किया था. जितिन ने ट्वीट किया था,
“सचिन पायलट सिर्फ मेरे साथ काम करने वाले नहीं बल्कि मेरे दोस्त भी हैं. इस बात को कोई नकार नहीं सकता कि उन्होंने पूरे समर्पण के साथ पार्टी के लिए काम किया है. उम्मीद करता हूं कि ये स्थिति जल्द सही हो जाएगी. ऐसी नौबत आई इससे दुखी भी हूं.”जितिन प्रसाद उन 23 नेताओं में शामिल थे, जिन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व में बदलाव और पार्टी को ज्यादा सजीव बनाने के लिए पत्र लिखा था. हालांकि बाद में गांधी परिवार के दरबार में माफी मांगने वालों में भी वे ही सबसे पहले बताए जाते हैं.
ये सब समीकरण उनका भाजपा के प्रति झुकाव दिखा रहे थे और ये बात कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी समझ चुका था. इसीलिए धीरे-धीरे उन्हें साइडलाइन किया भी जा रहा था. आख़िरकार 9 जून 2021 को जितिन प्रसाद कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ गए. हालांकि UP के एक नेता को दिल्ली बुलाकर पार्टी जॉइन कराना. मंच पर राष्ट्रीय नेताओं का होना, न कि सूबे के किसी बड़े नेता का. इन सब बातों ने इन कयासों को भी बल दे दिया है कि क्या जितिन के भाजपा में आने को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार को कॉन्फिडेंस में नहीं लिया गया.
कहा जाता है कि जितिन 2019 से ही भाजपा के संपर्क में थे. अब वे इसी पार्टी में हैं और यूपी में ब्राह्मण फेस की बहस फिर जिंदा हो गई है. (फोटो- PTI)
क्या ब्राह्मण चेहरा बनेंगे? लेकिन जितिन प्रसाद भाजपा में आए क्यों? पहली वजह तो यही है कि जितिन को कांग्रेस में अपना भविष्य दिख नहीं रहा. न ही प्रियंका गांधी के प्लान-UP में जितिन की कोई जगह बन रही है. दूसरी वजह- दरअसल जितिन की लंबे समय से एक कोशिश रही है. UP का ब्राह्मण चेहरा बनने की. इसी कोशिश में उन्होंने जुलाई 2020 में ‘ब्रह्म चेतना संवाद कार्यक्रम’ की घोषणा की थी. कहा था कि ये कार्यक्रम ब्राह्मणों के हितों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है. उस वक्त जितिन प्रसाद ने कहा था-
“प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ब्राह्मणों के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है.”उस वक्त कांग्रेस ने इससे किनारा कर लिया था. कई नेताओं ने यह तक कहा कि ये जितिन प्रसाद का निजी मसला है, इससे पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है. अब वो यही हसरत लिए भाजपा में पहुंचे हैं. भाजपा ने भी जितिन को हाथों-हाथ लिया क्योंकि 2018 के बाद से UP में ये कहा जा रहा है कि सरकार को लेकर एक एंटी-ब्राह्मण इमेज बनती जा रही है. ये मैसेज दिल्ली तक भी पहुंचा है. 2018 में लखनऊ में एपल एक्ज़ीक्यूटिव विवेक तिवारी को कथित तौर पर दो पुलिसवालों ने मार दिया. फिर 2020 का बदमाश विकास दुबे एनकाउंटर केस. इसी वजह से अब भाजपा ब्राह्मण फेस को साथ रखना चाह रही है. हालांकि जितिन प्रसाद बहुत बड़े ब्राह्मण फेस हैं, ऐसा राजनीति के जानकार बिल्कुल नहीं मानते. माने भाजपा में आने के बाद भी जितिन को अपनी ज़मीन तलाशनी होगी. वैसे भी दिनेश शर्मा और रीता बहुगुणा जोशी जैसे नामों के बीच जितिन प्रसाद के लिए आते ही पार्टी का ब्राह्मण फेस बन जाना आसान नहीं होगा.