साइकिल से चांद तक, ऐसे हुई थी ISRO की शुरुआत
कैसे लांच हुआ था पहला रॉकेट?
साल 1969. नील आर्म स्ट्रोंग ने चांद पर पहला कदम रखा. इंसान का छोटा सा कदम. इंसानियत की बड़ी छलांग. इस घटना से कुछ साल पहले की बात है. भारत के केरल राज्य के एक छोटे से गांव में एक आदमी साइकिल चला रहा था. कहना चाहिए साइकिल के बगल में चल रहा था. साइकिल पर रखा था एक छोटे से रॉकेट का एक हिस्सा. साइकिल के दो पहिये बैल गाड़ी के चार पहियों में तब्दील हुए. तमाम जुगाड़ बिठाए गए. पैसे नहीं थे. संसाधन नहीं थे. लेकिन फिर भी पहिये रुके नहीं. साल 2023.
पहिए अब चांद की सतह तक पहुंच चुके हैं. (Chandrayaan) साइकिल चलाने वाले वो हाथ अब नहीं हैं. वो आंखें कबके बुझ चुकी हैं. जिन्होंने सपना देखा था. देश को चांद तक पहुंचाने का. उन्हीं कुछ नामी और अनाम लोगों को याद करते हुए आज बात करते भारत के स्पेस मिशन के शुरुआती दिनों की. कैसे धर्म का एक प्रतिनिधि एक वैज्ञानिक को अपना पूजा का स्थल देता है, ताकि विज्ञान तरक्की कर सके. कैसे एक गिरिजा घर में रखी गई भारत के स्पेस मिशन की नींव? (ISRO History)
चांद तक पहुंचने का सबूत क्या?कहानी शुरू होती है साल 2008 से, चंद्रयान मिशन लांच होने में कुछ ही दिन बाकी थे. एक रोज डॉक्टर कलाम (APJ Abdul Kalam) इसरो के तत्कालीन अध्यक्ष जी माधवन नायर से मिलने गए. डॉक्टर कलाम ने पूरे मिशन की जानकारी लेने के बाद एक सवाल पूछा,
“माधवन, तुम दुनिया को क्या सबूत दिखाने जा रहे हो कि हम चाँद पर पहुंच गए?”
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर कलाम आगे बोले,
“जब हमने एवरेस्ट और अंटार्कटिका में मिशन चलाया, तो हमने वहां पर अपना झंडा फहराया था. चन्द्रमा से जुड़े इस मिशन के मामले में, हम दुनिया को ढेर सारे डिजिटल डेटा के आसरे भरोसा दिलाना चाहते हैं. क्या आपको नहीं लगता कि हमें कुछ और करना चाहिए?”
जिस समय कलाम साहब ये सवाल उठा रहे थे, उस वक्त डॉ. कलाम भारत के पूर्व राष्ट्रपति और देश के सबसे सम्मानित वैज्ञानिक दिमाग थे. इसलिए उनकी बात को हल्के में नहीं लिया जा सकता था. लिहाजा इसरो में इस पर विचार-विमर्श शुरू हुआ. मुश्किल ये थी कि अब फाइनल लांचिंग से पहले बहुत कम वक्त बचा था.
नायर अपनी आत्मकथा, 'रॉकेटिंग थ्रू स्काइज' में लिखते हैं. डॉक्टर कलाम के इस सवाल ने मेरा पूरा दृष्टिकोण बदल दिया. लिहाजा बहुत कम वक्त होने के बावजूद हमने चंद्रयान के साथ एक Moon Impact Probe भेजा. इसी प्रोब के जरिए भारत चन्द्रमा पर पहली हार्ड लैंडिंग करने में सफल रहा. और यही वो मौका भी था. जब भारत का झंडा पहली बार चांद पर लहराया.
जैसे ही चंद्रयान -1 मिशन सफल हुआ, डॉ. कलाम ने नायर से कहा. "तुम, दोस्त, तुमने यह किया है!" उन्होंने पूरे नियंत्रण कक्ष से कहा, ''आज एक ऐतिहासिक दिन है क्योंकि भारत ने इस शानदार मिशन को पूरा किया है. मैं आपमें से हर एक को बधाई देता हूं!”
नई दिल्ली लौटने से पहले, डॉक्टर कलाम ने एक और सुझाव दिया. सुझाव ये कि जिस जगह Moon Impact Probe लैंड किया, उस का नाम भारत के पहले प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरु के नाम पर रखा जाए. जिनके जन्मदिन पर लैंडिंग की गई थी और जिनके विजन ने इसरो की स्थापना में बड़ी भूमिका अदा की थी. सरकार से अनुमति प्राप्त करने के बाद, उस साइट का नाम "जवाहर स्थल" रखा गया.
आज से 60 साल पहले, 21 नवंबर 1963 को, तिरुअनंतपुरम के बाहरी इलाके थुम्बा से एक छोटे रॉकेट ने उड़ान भरी थी, जिसने भारत में अंतरिक्ष युग के जन्म की घोषणा की. ताड़ के पेड़ों से घिरा यह गांव जल्द ही थुंबा इक्वेटोरियल रॉकेट लॉन्च स्टेशन (टीईआरएलएस) के नाम से जाना जाने लगा और बाद में विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) बन गया.
भारत के वैज्ञानिकों की तरफ से स्पेस में हुई कोशिशों का इतिहास बताता है कि कैसे धीरे-धीरे, अंतरिक्ष पर होने वाली रिसर्च पर केंद्रित संस्थानों की स्थापना हुई और उन्हें आगे बढ़ाया है. भारतीय वैज्ञानिक ईवी चिटनिस ने इस पूरी जर्नी में शामिल लोगों के निबंधों का एक कलेक्शन किया है. इसका टाइटल है, “फ्रॉम फिशिंग हैमलेट टू रेड प्लैनेट: इंडियाज स्पेस जर्नी”. इसमें दर्ज है कि इस तरह का पहला संगठन अहमदाबाद, गुजरात में बनाया गया था. जो फिजिक्स रिसर्च लैबोरेट्री थी.
विक्रम साराभाई के साथ, कुछ वैज्ञानिकों ने यहां काम किया लेकिन उनके पास फंड्स की किल्लत थी. चिटनिस बताते हैं कि कैसे वो अपने काम के लिए एक मेज के तौर पर दो बक्से और एक एस्बेस्टस शीट को एक साथ रखते थे.
अहमदाबाद में जहां रिसर्च का काम होता था, राकेट लांचिंग के लिए एक विशेष स्थान की जरुरत थी. इसके लिए थुम्बा को चुना गया. थुम्बा केरल की राजधानी तिरुअंतपुरम में पड़ता है. इस छोटे से गांव का चयन इसलिए किया गया क्योंकि ये मैग्नेटिक इक्वेटर पर पड़ता था. इस स्थान से राकेट लांच करना, रिसर्च के लिए काफी उपयोगी साबित होता. इसलिए एक दिन, डॉ. विक्रम साराभाई और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सहित उनके साथी वैज्ञानिक थुम्बा में स्थान तलाशने गए. थुम्बा में एक चर्च था. डॉक्टर साराभाई चर्च के बिशप से बात करने गए. लेकिन बिशप ने उन्हें एक निश्चित उत्तर देने के बजाय, उन्हें उस सप्ताह रविवार की सामूहिक सभा में आने के लिए कहा, जहाँ वो उस संडे प्रेयर में आए लोगों से इस बारे में चर्चा करने के बाद इसके बारे में कोई फाइनल फैसला करने वाले थे
उन लोगों से बिशप ने वैज्ञानिक मिशन के बारे में चर्चा की और चर्च को वैज्ञानिकों को सौंपने के लिए अपनी मंडली से अनुमति मांगी.. अपनी किताब इग्नाइटेड माइंड्स: अनलीशिंग द पावर विदइन इंडिया में डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलामबताते हैं. बिशप ने चर्च में आए सभी लोगों से पूछा कि क्या उन्हें चर्च की जमीन विज्ञान के इस्तेमाल के लिए देनी चाहिए या नहीं. सभी लोगों ने हां में जवाब दिया. इस तरह भारत के पहलेराकेट लांच सेंटर की शुरुआत हुई. कागज़ी कार्रवाई के बाद ग्रामीणों को 100 दिनों के भीतर एक बिल्कुल नए चर्च के साथ एक नए गांव में शिफ्ट कर दिया गया. बिशप का घर जल्द ही एक कार्यालय में बदल दिया गया, चर्च कार्यशाला बन गया, और जानवरों का शेड भंडारण घरों और प्रयोगशालाओं में तब्दील हो गया. सोचिये, कहाँ से कहाँ से की यात्रा की है हमारे वैज्ञानिकों ने. कम फंडिंग और कुछ सुविधाओं से प्रभावित हुए बिना, मुट्ठी भर उत्साही युवा भारतीय वैज्ञानिकों ने अपने पहले रॉकेट को असेंबल करना शुरू कर दिया.
साइकिल से चांद तकशुरुआत में, थुम्बा में कोई कैंटीन या किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं थी, इसलिए वैज्ञानिक हर दिन अपने नाश्ते और रात के खाने के लिए साइकिल से त्रिवेन्द्रम के रेलवे स्टेशन जाते थे. वे अपना दोपहर का भोजन पैक करवा लेते थे. उन दिनों उनके पास एक ही जीप थी. जो काम के लिए हमेशा व्यस्त रहती थी, इसलिए वैज्ञानिकों को कहीं भी जाने के लिए या तो पैदल चलना पड़ता था या साइकिल का इस्तेमाल करना पड़ता था. हालांकि वर्किंग डेज बहुत व्यस्त होते थे, लेकिन वैज्ञानिक के पास छुट्टियों या सप्ताहांत के दौरान करने के लिए कुछ खास नहीं होता था. इसलिए, वे या तो कोवलम या शंकुमुखम के समुद्र तटों पर जाते थे या श्रीकुमार थिएटर में एक पुरानी हॉलीवुड फिल्म देखते थे.
जब ये सब हो रहा था, तब इसरो की स्थापना नहीं हुई थी. 1962 में, प्रधानमंत्री नेहरू और डॉक्टर साराभाई ने मिलकर Indian National Committee for Space Research (INCOSPAR) की स्थापना की, जो डिपार्टमेंट ऑफ़ एटॉमिक एनर्जी ( (DAE) का एक ही एक हिस्सा था, जिसके हेड थे, भारतीय वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा.
INCOSPAR ही आगे चलकर 1969 में इसरो बनता है. यानि Indian Space Research Organisation. इसरो की स्थापना के बाद और 1972 में भारत सरकार ने बनाया एक डेडिकेटेड संगठन, Department Of Space के नाम से. अंतरिक्ष से संबंधित प्रोजेक्ट्स के रिसर्च को इससे काफी बढ़ावा मिला. इसरो को भी DOS के अंतर्गत लाया गया.
1969 में अपनी स्थापना के बाद से, देश की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जाने वाले कुल 89 लॉन्च मिशनों को पूरा किया है. डॉक्टर साराभाई विदेश से पढ़े थे.
शीत युद्ध के दौरान भी उन्होंने यूएसएसआर और अमेरिका दोनों से संबंध बनाए. और जरुरी संसाधन जुटाने में कामयाब रहे. कोशिशें रंग लाईं और 21 नवंबर, 1963 को एक छोटे अमेरिकी साउंडिंग रॉकेट, जिसे नाइकी अपाचे के नाम से जाना जाता है, उसने केरल के त्रिवेंद्रम के पास मछली पकड़ने वाली बस्ती थुम्बा से उड़ान भरी. यही वो राकेट था, जो बैलगाड़ी और साइकिल में लादकर लांच साइट तक ले जाया गया था. इस पहले रॉकेट का भार 715 किलो था. पहली उड़ान में ये रॉकेट 30 किलो का पेलोड लेकर उड़ा था.
इसके बाद उम्मीदों ने उड़ान भरी. सपनों ने उड़ान भरी. जिसका एक सुंदर लम्हा बीते 23 अगस्त को हम सबने जीया. 1963 उस प्रतिष्ठित यात्रा का प्रस्थान बिन्दु था, चंद्रयान-3 उस यात्रा का एक सम्मानित पड़ाव है. हिंदी फिल्मों के उस कालजयी डायलाग याद कीजिए, दी गेम इज स्टिल ऑन. धन्यवाद उन सभी का जिनका अतीत हमारे वर्तमान की थाती है.
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