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‘हिंदी मीडियम’ के राइटर का इंटरव्यूः जिन्हें इरफान ख़ान खुद चुनकर लाए

फिल्म के डायलॉग लोगों को अभी से गुदगुदा रहे हैं. इनके राइटर 'बेशरम' और 'दबंग' जैसी फिल्मों में एक्टिंग भी कर चुके हैं.

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फिल्म हिंदी मीडियम में बच्ची स्वाति दास और पेरेंट्स के रोल में इरफान खान और सबा कमर.
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17 मई 2017 (Updated: 17 मई 2017, 07:17 IST)
Updated: 17 मई 2017 07:17 IST
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इन्हें आपने डायरेक्टर अभिनव कश्यप की फिल्म 'दबंग' में देखा होगा. सलमान खान स्टारर इस फिल्म में इन्होंने सोनाक्षी सिन्हा के भाई का रोल किया था जिसका एक पैर काम नहीं करता. लेकिन अमितोष नागपाल का ये सबसे पॉपुलर किरदार उनकी जरा सी पहचान भी नहीं है. उसी साल 2010 में उन्होंने यादगार टीवी सीरीज 'पाउडर' में काम किया था. 'आरक्षण' और 'फिलम सिटी' जैसी फिल्मों के अलावा उन्होंने 'बेशरम' में भी काम किया है जिसमें वे रणबीर कपूर के कैरेक्टर बबली के दोस्त टीटू बने थे.
इसी साल मार्च में अमेरिका में स्थित उनकी फिल्म 'फॉर हियर ऑर टू गो' भी रिलीज हुई जिसमें अली फजल और ओमी वैद्य जैसे एक्टर्स भी थे. ये एक सपनों से भरे भारतीय पेशेवर की कहानी है जो सिलिकॉन वैली में अपना करियर बनाना चाहता है लेकिन उसे अमेरिका के अजीब इमिग्रेशन सिस्टम का बुरा अनुभव होता है. कहानी में अन्य किरदार भी हैं जो भारतीय हैं और करियर के लिए वहां संघर्ष कर रहे हैं. अमितोष ने इसमें अली फजल के फनी दोस्त को रोल किया.
https://www.youtube.com/watch?v=MM34XI81FaE
अभिनय के अलावा कई चीजें वे समानांतर करते हैं जैसे सॉन्ग राइटिंग जिससे उनके करियर की शुरुआत भी हुई थी. 2008 में दिबाकर बैनर्जी की फिल्म 'ओए लक्की लक्की ओए' में 'जुगनी' के बोल उन्होंने लिखे और 'एबीसीडी चाहिदा मैनू' रैप भी.
वे थियेटर भी करते रहे हैं. फेमस प्ले 'पिया बहरूपिया' का हिस्सा वे हैं जिसके अनेक शोज़ लगातार होते आ रहे हैं. इसमें ताजा कड़ी है नाटक 'गजब कहानी' जो होजे सारामागो के नाटक 'द एलीफेंट्स जर्नी' से एडेप्ट किया गया है और एडेप्ट अमितोष ने ही किया है. अगले हफ्ते से मुंबई में इसका मंचन शुरू हो रहा है.
शुक्रवार को इरफान खान, सबा कमर और दीपक डोबरियाल अभिनीत फिल्म 'हिंदी मीडियम' रिलीज होने जा रही है जिसके डायलॉग अमितोष ने लिखे हैं. इसे डायरेक्ट किया है साकेत चौधरी ने जो इससे पहले 'प्यार के साइड इफेक्ट्स' (2006) और 'शादी के साइड इफेक्ट्स' (2014) का निर्देशन कर चुके हैं. ये कहानी ऐसे माता पिता की है जो अपनी बच्ची का दाखिला दिल्ली की एक अच्छी अंग्रेजी मीडियम स्कूल में करवाना चाहते हैं लेकिन इसके लिए उनकी जिंदगी उलट-पुलट हो जाती है.
फिल्म बेशरम में रणबीर कपूर के साथ अमितोष.
फिल्म बेशरम में रणबीर कपूर के साथ अमितोष.

हिसार, हरियाणा में जन्मे अमितोष इससे पहले माधुरी दीक्षित और जूही चावला स्टारर फिल्म 'गुलाब गैंग' के डायलॉग भी लिख चुके हैं. उनकी आगामी रिलीज के सिलसिले में द लल्लनटॉप ने उनसे बात कीः
‘हिंदी मीडियम’ की राइटिंग टीम में आपका आना कैसे हुआ? इरफान भाई ने जब 'हिंदी मीडियम' को करना अग्री किया तो मुझसे कहा कि एक फिल्म है जो मैं करना चाहता हूं, मुझे स्क्रीनप्ले पसंद आया है, तुम उसके डायलॉग्स करोगे क्या? तो मैंने बोला कि ठीक है. फिर मैं डायरेक्टर साकेत चौधरी और प्रोड्यूसर वगैरह से मिला. हमारी दिल्ली और तमाम चीजों को लेकर कुछ बातें हुईं. फिर उन्होंने कहा, चलो करते हैं. बस वहां से लिखना शुरू हो गया.
इस फिल्म के डायलॉग्स लिखने को लेकर आपने क्या समझ बनाई थी? हर दिन एक नई तस्वीर आती है सामने. कभी-कभी आप डायलॉग लिखते हुए किसी चीज को अपने हिसाब से बदलने की कोशिश करते हो. कभी-कभी उससे थोड़ा ज्यादा बाहर चले जाते हो तो वापस आना पड़ता है. कुछ फिक्स नहीं है कि ऐसा ही चाहिए लेकिन लिखते-लिखते आप समझने लगते हैं. अब इरफान जैसे एक्टर के लिए आप लिख रहे हैं तो मजेदार बात ये है कि उनके साथ दूरी नहीं है. आप जब चांदनी चौक में रहने वाले एक इंसान के बारे में लिख रहे हैं तो उसकी जो लय है, बोलने का तरीका या कुछ और है वो बिलकुल सटीक उन तक पहुंचता है.
आप डायलॉग वैसे तो सब किरदारों के लिए लिखते हैं लेकिन बड़ी मदद हो जाती है जब आपका प्राइमरी एक्टर आपके काम को समझता है. जैसे इस फिल्म में कैरेक्टर दिल्ली का है तो थोड़ा सा उसके अंदर हिंदुस्तानी ज़ुबान है, थोड़ी पंजाबियत है.. उसे रखने की कोशिश की है हमने. और दिल्ली में बड़ा मजेदार होता है जिस तरह से लोग हिंदी और अंग्रेजी के साथ खेलते हैं. अपने नए वर्ड बनाते रहते हैं. हर बार दिल्ली जाओ तो लगता है दिल्ली की शब्दावली में कुछ और इंग्लिश शब्द आ गए हैं जिनको उन्होंने पंजाबी बैकग्राउंड वाला बना दिया है. चाहे ट्विटर हो या फेसबुक हो लेकिन उनकी भाषा बड़ी फनी लगती है. मैं तो हरियाणा से हूं तो मुझे सुनने को भी बड़ा मजा आता है.
https://www.youtube.com/watch?v=GjkFr48jk68
इरफान से आपका वास्ता क्या रहा है? आपने पहले कहां साथ काम किया? एक बार एक वेब सीरीज लिखी तो उस पर उनके साथ थोड़ा सा काम किया. एक फिल्म लिखी थी जो हम करने वाले थे, दुर्भाग्य से फिल्म तो नहीं हुई लेकिन उसकी वजह से हमारा एक रिश्ता बना जिससे उनको मेरा लिखा हुआ समझ आया. पहली बार जब मैंने उन्हें वो फिल्म नरेट की तो मुझे बहुत हंसी आई कि कुछ चीजें ऐसी लिखी हैं पता नहीं मुंबई में किसको समझ आएंगी? जब मेरे शहर का कोई आदमी देख रहा होगा तो ही उसको तो वो बात समझ आएगी. जब मैंने इरफान को सुनाया तो वो इतनी जोर से हंसे उन छोटी-छोटी चीजों पर कि मुझे ऐसी फीलिंग हुई शायद वो मेरा सेंस ऑफ ह्यूमर समझते हैं.
मेरा एक प्ले है 'पिया बहरूपिया' वो भी शायद इरफान दो-तीन बार देखने आए. शायद वहां से भी उनको लगा हो कि मैं 'हिंदी मीडियम' में कॉन्ट्रीब्यूट कर सकता हूं. वैसे वो मुझे अकसर पूछते रहते हैं काम के बारे में.
मुझे बहुत फनी लगता है लोग जिंदगी में जिस तरह बात करते हैं. एक डायलॉग राइटर ही है जो चॉयस रखता है कि उसमें से कितनी बात आपको निकालनी है. ये जो प्रस्तुतिकरण है रियलिस्टिक जिंदगी का, वो बहुत फनी है. चूंकि इरफान खुद ऐसे एक्टर हैं जो बिलकुल जिंदगी का कुछ उठाकर आपको परोसते हैं और आपको लगता है जैसे आप इस आदमी को जानते हो और शायद अभी थोड़ी देर पहले मिले हो. तालमेल बहुत अच्छा बैठता है उनके साथ.
शुरू से लेकर अब तक की जर्नी क्या रही है? बड़ी फिल्मी सी कहानी है. जब 4 साल का था और कोई पूछता था क्या बनना है तो कहता था हीरो बनना है. सब बहुत हंसते थे. घर में पैंपर होता था. उनको लगता था कि आज छोड़ देगा कल छोड़ देगा. फिर बड़ा हुआ. सोचा एक्टर बोलने से कम बेइज्जती होती है तो वो बोलने लगा. फिर कॉलेज में आया तो सोचा थियेटर आर्टिस्ट बोल दो तो ज्यादा इज्जत होती है. लेकिन एक्टर हमेशा बनना था. स्टेज से जुडा रहा हमेशा. ज्यादा काम करनाल (हरियाणा) में किया है. हिसार में पैदा हुआ हूं. तरावड़ी, नीलोखेड़ी, पंचकूला कई जगह वक्त बीता है.
अमितोष.
अमितोष.

करनाल में काम कर रहा था तो दिल्ली आना होता रहा. जागरूक छात्र मोर्चा के साथ काम करता था. दिल्ली आने लगा तो किसी ने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का पता बताया कि यहां से नसीर साहब वगैरह सब निकले हैं. फिर एनएसडी में एडमिशन लिया. हो गया. तीन साल पढ़ा. लगा कि यहीं आऩा था. मेरा रूटीन वो ही हो गया. उठना, रिहर्सल करना, ये करना, वो करना. वो कभी ब्रेक नहीं हुआ. अब बस ये होता है कि ऐसा एक और दिन हो जाए बस.
मुंबई मेरे प्रति बहुत उदार रहा है. बहुत अच्छे से पेश आया है हर बंदा. ‘ओए लक्की लक्की ओए’ के गाने लिखे. नेशनल अवॉर्ड के लिए उसमें नॉमिनेट हुआ. एड फिल्में लिखीं. मैं शीशे में देखता हूं तो एक्टर ही पाता हूं खुद को लेकिन काम कई होते हैं. रेडियो एड मैं लिखने लगा. फिर फिल्म लिखी. कभी कभी एक्टिंग होती थी. ‘दंबग’ की. उसमें अपंग का रोल किया तो वैसे रोल ही मिलने लगे. मैंने कहा हर फिल्म में तो ये नहीं बनूंगा न. फिर ‘पिया बहरूपिया’ नाटक किया अतुल कुमार के साथ. बहुत हिट गया. हम दुनिया भर में घूमे.
फिर अभी फिल्म प्रोड्यूस की ‘एच2एसओ4’. करनाल के मेरे दोस्त की है. उसमें कुछ जटिल किरदार किया. संतोष नहीं था पहले. थियेटर करता था. फिर ये फिल्म की. बीच बीच में कुछ चलता रहा. अभी फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी पंचलाइट पर आधारित फिल्म ‘पंचलैट’ पूरी की है. इसमें गोधन का किरदार किया है. थियेटर के लिए ‘टल्ली ट्यूजडे’ नाटक डायरेक्ट कर रहा हूं. ‘गजब कहानी’ भी लिखा है. सब इसी महीने में हैं.
फिल्म के नाम की तरह क्या खुद भी हिंदी मीडियम से पढ़े हैं? हिंदी मीडियम से पढ़ा हूं. कभी-कभी बीच में चेंज होता था. मेरी मां सरकारी स्कूल में पढ़ाती थीं और पापा की ट्रांसफर हो जाती थी तो मुझे उनके साथ जाना होता था. वैसे एकदम हिंदी मीडियम का स्टूडेंट हूं, जहां छठी क्लास में आपको अंग्रेजी की किताब दी जाती हैं. असल में दिल्ली आकर मेरा वास्ता पड़ा अंग्रेजी ज़ुबान से.
एक वो स्टूडेंट होते हैं जो सरकारी/हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़े हैं और वहां से निकलने के बाद अंग्रेजी और पर्सनैलिटी को डिवेलप करते हैं. दूसरे वो होते हैं जिनकी शुरू से कॉन्वेन्ट या आला दर्जे की स्कूलिंग होती है जो ग्रेजुएशन करने तक परफैक्ट होते हैं. आपको क्या लगता है इन दोनों में से कौन जिंदगी को देखने के किन तरीकों को बच्चा मिस करता होगा या फायदा पाता होगा. दूसरे रास्ते में वो जमीनी, कच्चे अहसास और नोबडी होने की फीलिंग मिस नहीं कर देता? आपने अपना जीवन जिया होता है और आप उसी को बहुत अच्छे से समझते हो. इस फिल्म में एक लाइन है कि "अंग्रेजी एक ज़ुबान नहीं है, क्लास है." तो वो एक सच तो है. ये जो सवाल है कि किसके सामने कैसी परिस्थितियां होंगी और जीवन में कौन कहां निकलेगा, इसमें जरूरत अंग्रेजी भाषा की आ ही जाती है. शायद धीरे-धीरे इंटरनेट जैसी चीजें आने से सुविधा हो गई है. जबकि पहले जो भी हिंदी मीडियम में जाता था उसके पास और कोई रिसोर्स था नहीं. अब टीवी, इंटरनेट, हर आदमी के फोन में कुछ न कुछ है तो फेसबुक, ट्विटर जैसी चीजों के लेवल पर तो देश एक जगह खड़ा है. अब कुछ भी हो बच्चा बात तो करने लगा है. उतनी दूरी नहीं है आज की डेट में.
अमितोष.
अमितोष.

हम जरूर जब निकलते थे और बड़े शहर में आते थे तो अंग्रेजी से वास्ता पड़ता था, पर उसका केवल अंग्रेजी भाषा सीखने से मतलब नहीं होता था. वो कई लेवल पर है. अंग्रेजी में पढ़े होने के बाद भी आप हिंदी मीडियम जैसी क्लास में हो सकते हो. उसका अंग्रेजी भाषा के ग्रामैटिकल ज्ञान से सीधा रिश्ता नहीं है, जितना जिस माहौल से आप हैं, जहां पर कितनी अंग्रेजी में डूबे हुए लोग हैं. मतलब वो एक क्लास डिफरेंस ज्यादा है. और उसमें आपको असहज होना ही है. अगर छोटे शहर से बड़े शहर आए हैं और छोटे शहर के कॉन्वेन्ट में भी पढ़े तो भी बड़े शहर के हिंदी मीडियम में भी आपकी सारी चीजें रीडिक्यूल हो सकती हैं.
हिंदी और अंग्रेजी मीडियम में जो प्रैशर है स्कूलों में, पीयर व स्कोरिंग का उसे लेकर लगता है कि जो दुनिया में आया है सीखकर या जो उसकी एक यूनीकनेस है उसको एक स्टैंडर्ड में बांटने की साजिश है कि सब लोग एक जैसे हो जाएं. मैकडॉनल्ड के बर्गर जैसे हो जाएं. फिर उसमें से एक इंडिविजुअल निकलकर नहीं आता. मतलब गांव की स्कूलों में पढ़ते हुए मुझे इंडिविजुअल चेहरे बहुत याद है. मुझे लगता है कि उनका अपना एक वैयक्तिक परसेप्शन, पर्सनैलिटी बहुत निकलकर आती है, शायद उनका अटेंशन एजुकेशन पर भी कम था वहां का ये क्रिटिसिज़्म भी है लेकिन फिर बहुत सारी ऐसी चीजें भी हैं जिन पर वो निखर पाते थे. जहां आप खुद ही तय करते हैं जिंदगी में बहुत कुछ.
फेवरेट डायलॉग राइटर्स कौन हैं हिंदी फिल्मों में से. मुझे वरुण (ग्रोवर, मसान) बहुत पसंद है. चाहे राइटर या लिरिसिस्ट के तौर पर, उनका काम बहुत ज्यादा पसंद है. स्वानंद (किरकिरे) का बहुत पसंद है. कभी-कभी अन्य फिल्मों के भी पसंद होते हैं, लेकिन ये लोग काफी पसंद हैं. एक cohesiveness दिखती है इनके काम में.
जो पुराने हैं 50 से लेकर 90 के दशक तक के राइटर उनमें से कोई पसंद आता है क्या जिन्हें शायद लोगों ने पर्याप्त नहीं सराहा हो? मेरे ख़याल से ओवरऑल हमारी नजर कम गई है राइटिंग पर. अब धीरे-धीरे कुछ राइटर्स का नाम आता है और पता चलता है, वरना तो हमको सलीम-जावेद और दो-तीन लोग ही याद हैं. बाकी लोगों पर शायद नजर कम गई है. ऐसा चाहे दुनिया भर में ही होगा लेकिन थोड़ा हमारे यहां अज्ञानता ज्यादा है. जबकि सबसे पहले फिल्म शुरू करता है राइटर और सबसे आखिर तक जुड़ा रहता है. डबिंग में कुछ बदलाव हो जाए तो भी और प्रोमो में एक लाइन भी बदलनी हो तो भी मेकर्स बोलते हैं कि आ जाओ.
अमितोष.
अमितोष.

आप बोल रहे हैं नजर कम गई, क्या लगता नहीं आज भी वही हालत है? कुछेक ही हैं जिनके बारे में लोग जान पाते हैं. जैसे 'पिंक' के राइटर हैं रितेश शाह. फिल्म की ताकत ही राइटिंग थी. जूही चतुर्वेदी हैं जिन्होंने 'विकी डोनर' और 'पीकू' लिखी. 'बाहुबली' के राइटर विजयेंद्र प्रसाद का बहुत नाम हो गया. इनके अलावा नाम नहीं चर्चा में आते. तीन-चार नामों पर लोगों का ध्यान तो पहले भी जाता था. जबकि ये देखें कि आने वाले समय में फिल्म उद्योग में सबसे जरूरी स्क्रिप्ट लिखने वाले ही होंगे. ये बहुत टाइम से अहसास है कि राइटिंग पर फोकस करना है लेकिन प्रॉब्लम प्रोसेस में है. वो स्वांतः सुखाय तो नहीं है कि राइटर भी लिखता जाए और फिल्में बना-बना कर रखता जाए. हमारे यहां कमीशन्ड राइटर का कॉन्सेप्ट नहीं है, जब तक ऐसा न हो कि लीड एक्टर कहे कि वो उससे लिखवाना चाहता है. प्राथमिक तौर पर ये एक्टर के बीच में फंसी हुई इंडस्ट्री है. मैं सबकी बात नहीं कर रहा हूं लेकिन ज्यादातर ऐसा है कि एक स्क्रिप्ट एक एक्टर ने अप्रूव कर दी है तो स्क्रिप्ट की कीमत बदल जाती है.
बाकी अभी भी ऐसा है कि स्क्रिप्ट से उत्प्रेरित नहीं होते, यहां ऐसा है कि लो भई ये कहानी है इसको करते हैं. अब ये देखिए हिंदी में कितना कुछ नया लिखा जा रहा है. आप तो लल्लनटॉप से हैं, आप समझेंगे कितना कुछ लिखा जा रहा है. यूपी में कितने नए राइटर्स काम कर रहे हैं. कितनी नई कहानियां हैं जो छपती हैं.  लघुकथाएं हैं. इंट्रेस्टिंग हैं. लेकिन हम फिर भी मुंबई में कह रहे हैं कि हमारे पास राइटर्स नहीं हैं.
राइटर्स के पास काम नहीं है. क्योंकि मेकर कह रहा है कि ये राइटर मेरे पास आता है लेकिन इसके पास चार बाऊंड स्क्रिप्ट रेडी नहीं है! और वो चार बाऊंड स्क्रिप्ट रेडी क्यों करे? और वो कैसे करे? ये सवाल प्रोसेस पर उठाया जाना ज्यादा जरूरी है. क्योंकि अगर वो स्क्रिप्ट लिख लेता है पूरी और प्रोड्यूसर को कहता है कि मैं इस स्क्रिप्ट को बनाना चाहता हूं तो प्रोड्यूसर कहता है चलो तुमने लिख दी है तो रख दो और हम सुनानी शुरू करते हैं. और उस सुनाने-सुनाने में दो साल वो स्क्रिप्ट फंस जाती है. उसका उसको पैसा नहीं मिलता है. फिर वो एक दिन फैसला करता है कि नहीं, मैं कमीशन्ड राइटिंग करूंगा. कोई पैसे देगा तो मैं लिखना शुरू करूंगा. कितना फैथ कोई जुटाए और किस जगह से जुटाए किसी को पता नहीं है.
तो कोई किसी को कहता नहीं है कि लो भई ये पैसे पकड़ो और लिखो. और अगर बोलता भी है तो वो इतना कम अमाउंट होता है कि आप उम्मीद नहीं कर सकते उतने में कि कुछ जादुई लिखा जाएगा. मेरे ख़याल से हर प्रोडक्शन हाउस को जरूरत है अपने राइटर्स को तैयार करने की.
अमितोष.
अमितोष.

अभिनय, गाने, फिल्म लेखन ये तीनों चीजें साथ में कैसे कर रहे हैं - जो भी मिल रहा है वो या सोच-समझकर? ये पता नहीं. मुझे मजा आता है रीक्रिएट करने में ह्यूमन बिहैवियर. समझाना मुश्किल है. मेरे ख़याल से ये कोशिश है कि हर बार कुछ डिफरेंट करने को मिले. वूडी एलन हैं वो फिल्म बनाते हैं, लिखते हैं, डायरेक्ट करते हैं, अभिनय करते हैं. वो मुझे बहुत अच्छा लगता है. एक एक्टर होता है उसे जो दें वो कर सकता है, कभी कभी लगता है कि ये मेरी पोलिटिकल चॉयस नहीं है और मैं वैसा नहीं करना चाहता हूं.
लेकिन बाजार में आप उस जगह होते नहीं हो जहां होना चाहते हो. एक्टिंग में मेरा क्राफ्ट क्या है, मुझे लगता है वो मैटर करता है. जैसे अगर कोई डायरेक्टर मुझे कहे कि एक लड़की का रोल करो. अब रोल करने में मुझे लगे कि दूसरे जैंडर में हूं तो उसे सलीके से करूं लेकिन डायरेक्टर को स्टीरियोटाइप ही ठीक लगता है तो आप फंस जाते हो.
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