बिस्मिल-अशफाक की दोस्ती का किस्सा, जो उनकी मौत के बाद ही खत्म हुआ
पढ़िए कैसे शुरू हुई थी राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां की दोस्ती.
कई क्रांतिकारियों के नाम जोड़े में लिए जाते हैं जैसे भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और राजगुरू. ऐसा ही एक और बहुत मशहूर जोड़ा है रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां का. इसका रीजन सिर्फ ये नहीं कि काकोरी कांड में यही दोनों मेन आरोपी थे. बल्कि इसका रीजन था कि दोनों एक-दूसरे को जान से भी ज्यादा चाहते थे. दोनों ने जान दे दी, पर एक-दूसरे को धोखा नहीं दिया. रामप्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे पंडित जुड़ा था. वहीं अशफाक थे मुस्लिम, वो भी पंजवक्ता नमाजी. पर इस बात का कोई फर्क दोनों पर नहीं पड़ता था. क्योंकि दोनों का मकसद एक ही था. आजाद मुल्क. वो भी मजहब या किसी और आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नहीं, पूरा का पूरा. इनकी दोस्ती की मिसालें आज भी दी जाती हैं.
यूं शुरू हुई थी दोनों की दोस्ती
अशफाक 22 अक्टूबर 1900 को यूनाइटेड प्रोविंस यानी आज के उत्तर प्रदेश के जिले शाहजहांपुर में पैदा हुए थे. अशफाक अपने चार भाइयों में सबसे छोटे थे. टीनएज में वे उभरते हुए शायर के तौर पर पहचाने जाते थे. और 'हसरत' के तखल्लुस यानी उपनाम से शायरी किया करते थे. पर घर में जब भी शायरी की बात चलती, उनके एक बड़े भाईजान अपने साथ पढ़ने वाले रामप्रसाद बिस्मिल का जिक्र करना नहीं भूलते. इस तरह से किस्से सुन-सुनकर अशफाक रामप्रसाद के फैन हो गए थे.
तभी राम प्रसाद बिस्मिल का नाम अंग्रेज सरकार के खिलाफ की गई एक साजिश में आया. इस केस का नाम पड़ा मैनपुरी कांस्पिरेसी. अशफाक भी अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराने का सपना रखते थे. इस पर बिस्मिल से मिलने की अशफाक की इच्छा और बढ़ गई. अशफाक ने ठान लिया कि रामप्रसाद से मिलना है तो मिलना है. कहते हैं कि सच्चे मन से चाहकर कोशिश करने से कुछ भी पाया जा सकता है. यही हुआ. आखिर रामप्रसाद से अशफाक मिल ही गए.
उस वक्त हिंदुस्तान में गांधी जी का असहयोग आंदोलन अपने जोरों पर था. शाहजहांपुर में एक मीटिंग में भाषण देने बिस्मिल आए. अशफाक को ये पता चला तो मिलने पहुंच गए. जैसे ही प्रोग्राम ओवर हुआ अशफाक लपककर बिस्मिल से मिले और उनको अपना परिचय उनके एक दोस्त के छोटे भाई के रूप में दिया. फिर बताया कि मैं 'वारसी' और 'हसरत' के नाम से शायरी करता हूं. इस पर बिस्मिल का इंट्रेस्ट अशफाक में बढ़ा. बिस्मिल उनको अपने साथ ले आए और उनके कुछ शेर सुने, वे उनको पसंद आए. फिर दोनों साथ दिखने लगे. आस-पास के इलाके में बिस्मिल और अशफाक का जोड़ा फेमस हो गया. वो कहीं भी मुशायरों में जाते तो महफिल लूट कर आते.
अशफाक उल्ला खां की एक नज्म देखिए जो तबकी है, जब गांधी के रास्ते में उनका पूरा भरोसा था. क्रांतिकारी अशफाक की इस नज्म से अहिंसा का फलसफा झलक रहा है -
कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे,आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगेहटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों सेतुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगेबेशस्त्र नहीं है हम, बल है हमें चरखे काचरखे से जमीं को हम, ता चर्ख गुंजा देंगेपरवा नहीं कुछ दम की, गम की नहीं, मातम कीहै जान हथेली पर, एक दम में गवां देंगेउफ़ तक भी जुबां से हम हरगिज न निकालेंगेतलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगेसीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीकाचलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगेदिलवाओ हमें फांसी, ऐलान से कहते हैंखूं से ही हम शहीदों के, फ़ौज बना देंगेमुसाफ़िर जो अंडमान के तूने बनाए ज़ालिमआज़ाद ही होने पर, हम उनको बुला लेंगे
गांधी से निराश हुए और उठा ली बंदूकें
साल 1922 में चौरीचौरा कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला किया तो कई युवाओं को उनके इस कदम से निराशा हुई. उनमें रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक भी थे. गांधी से मोहभंग होने के बाद ये युवा क्रांतिकारी पार्टी में शामिल हो गए. इनका मानना था कि मांगने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है. इसके लिए हमें लड़ना होगा.
पर लड़ने के लिए बम, बंदूकों और हथियारों की जरूरत थी. जिनके सहारे अंग्रेजों से आजादी छीनी जाती. इनका मानना था कि अंग्रेज इसीलिए इतने कम होने के बावजूद करोड़ों भारतीयों पर शासन कर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास अच्छे हथियार और डेवलप्ड टेक्नोलॉजी है. ऐसी सिचुएशन में हमें उनसे भिड़ने के लिए ऐसे ही हथियारों की जरूरत होगी.
काकोरी लूट का आइडिया
ये बात क्रांतिकारियों के दिमाग में चल ही रही थी कि एक रोज रामप्रसाद बिस्मिल ने शाहजहांपुर से लखनऊ की ओर सफर के दौरान ध्यान दिया कि स्टेशन मास्टर पैसों का थैला गार्ड को देता है, जिसे वो ले जाकर लखनऊ के स्टेशन सुपरिन्टेंडेंट को देता है. बिस्मिल ने तय कर लिया कि इस पैसे को लूटना है. यहीं से काकोरी लूट की नींव पड़ी. क्रांतिकारी लूट के पैसों से बंदूकें, बम और हथियार खरीदना चाहते थे, जिसे वो अंग्रेजों के खिलाफ यूज करते.
8 अगस्त को सारी प्लानिंग हुई शाहजहांपुर में. बहुत देर तक प्लानिंग के बाद अगले दिन यानी 9 अगस्त को ही ट्रेन लूटने की बात तय की गई. 9 अगस्त को बिस्मिल और अशफाक के साथ 8 और लोगों ने मिलकर ट्रेन लूट ली. सारे क्रांतिकारियों को हेड कर रहे थे रामप्रसाद बिस्मिल. बिस्मिल और अशफाक के अलावा इस लूट में शामिल और लोग थे -
बनारस से राजेंद्र लाहिड़ी बंगाल से सचींद्र नाथ बख्शी उन्नाव से चंद्रशेखर आजाद कलकत्ता से केशव चक्रवर्ती रायबरेली से बनवारी लाल इटावा से मुकुंद लाल बनारस से मन्मथ नाथ गुप्त और शाहजहांपुर से ही मुरारी लाल
एक पठान के चलते गिरफ्तार हुए
ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों के इस कदम से भौंचक्की थी. सरकार ने कुख्यात स्कॉटलैंड यार्ड को इसकी तफ्तीश में लगा दिया. एक महीने तक CID ने सुबूत जुटाए. बहुत सारे क्रांतिकारियों को एक ही रात में गिरफ्तार कर लिया. 26 सितंबर 1925 को बिस्मिल को भी गिरफ्तार कर लिया गया. कई लोग शाहजहांपुर में पकड़े गए. अशफाक बनारस भाग निकले. जहां से वो बिहार चले गए. वहां एक इंजीनियरिंग कंपनी में दस महीनों तक काम करते रहे. वो गदर क्रांति के लाला हरदयाल से मिलने विदेश जाना चाहते थे. अपने क्रांतिकारी संघर्ष के लिए अशफाक उनकी मदद चाहते थे. इसके लिए दिल्ली गए. पर उनके एक अफगान दोस्त ने अशफाक को धोखा दे दिया. अशफाक गिरफ्तार कर लिए गए.
दिल्ली के SP को दिया यादगार जवाब
अशफाक को जानने वाले उनका ये किस्सा अक्सर सुनाते हैं. तस्द्दुक हुसैन उस वक्त दिल्ली के SP हुआ करते थे. उन्होंने अशफाक और बिस्मिल की दोस्ती को हिंदू-मुस्लिम कार्ड खेलकर तोड़ने की भरसक कोशिश की. अशफाक को बिस्मिल के खिलाफ भड़काकर वो उनसे सच उगलवाना चाहते थे. पर अशफाक मुंह नहीं खोल रहे थे. ऐसे में उन्होंने एक रोज अशफाक का बिस्मिल पर विश्वास तोड़ने के लिए कहा. बिस्मिल ने सच बोल दिया है और सरकारी गवाह बन रहा है. तब अशफाक ने SP को जवाब दिया, खान साहब! पहली बात, मैं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे अच्छी तरह जानता हूं. और जैसा आप कह रहे हैं, वो वैसे आदमी नहीं हैं. दूसरी बात, अगर आप सही भी हों तो भी एक हिंदू होने के नाते वो ब्रिटिशों, जिनके आप नौकर हैं, उनसे बहुत अच्छे होंगे.
केस चला और मिली फांसी
अशफाक को फैजाबाद जेल भेज दिया गया. उन पर काकोरी का मेन कांस्पिरेटर होने का केस था. उनके भाई ने एक बहुत बड़े वकील को केस लड़ने के लिए लगाया. पर केस का फैसला अशफाक के खिलाफ ही रहा. और उनकी जान नहीं बचाई जा सकी. काकोरी षड्यंत्र में अशफाक उल्ला खां, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रौशन सिंह को फांसी की सजा हुई. दूसरे 16 लोगों को चार साल कैद से लेकर उम्रकैद तक की सजा हुई.
फांसी के वक्त वहीं मौजूद एक इंसान ने लिखा है कि उनकी फांसी से चार दिन पहले ही अशफाक को फांसी दे दी गई. अशफाक रोज जेल में भी पांचों वक्त की नमाज पढ़ा करते थे. और खाली वक्त में डायरी लिखा करते थे. एक रोज दो अंग्रेज अफसर उनकी बैरक में उस वक्त आए जब अशफाक नमाज अता कर रहे थे. बोले, देखते हैं इस चूहे को कितना विश्वास अपने खुदा पर उस वक्त रहेगा जब इसे टांगा जाएगा?
अंग्रेज अफसरों को फांसी के वक्त दिया जवाब
19 दिसम्बर, 1927 को जिस दिन अशफाक को फांसी होनी थी. अशफाक ने अपनी जंजीरें खुलते ही बढ़कर फांसी का फंदा चूम लिया और बोले, मेरे हाथ लोगों की हत्याओं से जमे हुए नहीं हैं. मेरे खिलाफ जो भी आरोप लगाए गए हैं, झूठे हैं. अल्लाह ही अब मेरा फैसला करेगा. फिर उन्होंने वो फांसी का फंदा अपने गले में डाल लिया.
अशफाक की डायरी में से उनकी लिखी जो नज्में और शायरियां मिली हैं, उनमें से एक है -
किए थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाए,ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं,जबां तुम हो लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना
जिंदगी भर दोस्ती निभाने वाले अशफाक और बिस्मिल दोनों को अलग-अलग जगह पर फांसी दी गई. अशफाक को फैजाबाद में और बिस्मिल को गोरखपुर में. पर दोनों साथ ही इस जहान से गए और अपनी दोस्ती भी लेते गए. तारीख थी 19 दिसम्बर, 1927. कई फिल्मों में भी अशफाक का कैरेक्टर दिखाया गया है. रंग दे बसंती फिल्म में कुनाल कपूर ने उनका रोल प्ले किया था.
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