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'भारत करेगा पाकिस्तान पर हमला', किस्सा उस जासूसी कांड का जिसने देश हिला दिया!

दिल्ली में 16 हेली रोड पर शराब की मेज़ पर देश की गुप्त फाइलें बिछी थीं. ये 1984 का जासूसी कांड था, जिसमें भारत की सबसे संवेदनशील जानकारियां विदेशी डिप्लोमैट्स तक पहुंचाई जा रही थीं.

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indian double agent kumar narayan spy gate which shocked ib and raw
भारत सरकार में रहकर जासूसी करता था कुमार नारायण (सांकेतिक फोटो-मेटा ए आई)
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राजविक्रम
12 नवंबर 2024 (Updated: 12 नवंबर 2024, 13:10 IST)
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जनवरी की ठंड, पंद्रह तारीख, शाम का मौसम और आर्मी हाउस का लॉन. जहां सेना दिवस के मौके पर एक आयोजन हो रहा था. इस बार का ये समारोह कुछ खास था. क्योंकि इसमें शामिल थे - एक ऐसे विदेशी मेहमान. जिनका नाम कुछ ही दिनों में देश को हिला देने वाले जासूसी स्कैंडल से जुड़ने वाला था.

दरअसल इस समारोह में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, सेना के आला अधिकारी, और देश के शीर्ष नौकरशाह बात-चीत में व्यस्त थे. इनके साथ मौजूद थे,  53 साल के कर्नल एलैन बॉली जो फ्रेंच दूतावास के एक अधिकारी हुआ करते थे. हथियारों के सौदे देखना उनकी मुख्य जिम्मेदारी हुआ करती थी. दिल्ली में साढ़े चार साल रहने के बाद, बॉली की काफी जान पहचान हो चुकी थी. वो अपने मजाकिया अंदाज के लिए भी जाने जाते थे.

यहीं लंबी कदकाठी के एक और जाने-माने शख्स भी मौजूद थे. जो रक्षा सचिव और कई शीर्ष अधिकारियों के साथ बाच-चीत में व्यस्त थे. ये थे पीसी एलेग्जैंडर, तब प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव. कहें तो भारत के सबसे सीनियर ब्यूरोक्रेट. हंसी-मजाक चल रहा था. बातों का सिलसिला जारी था. मानो सब कुछ ठीक हो. लेकिन अगले ही रोज़ एक अजीब घटना हुई.  एक गिरफ्तारी हुई. जिसने तमाम बड़े नौकरशाहों, उनके निजी स्टाफ और छह विदेशी डिप्लोमैट्स को सबसे बड़े जासूसी स्कैंडल के केंद्र में ला दिया. ऐसा स्कैंडल जिसके तार अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक जुड़े थे.

अब इस जासूसी कांड की तह तक जाने के लिए, हमें समय में थोड़ा पीछे जाना होगा. करीब 100 साल पीछे. साल 1925 में. जगह भी बता देते हैं. हरियाली और पहाड़ियों वाला केरल का पलक्कड. यहां एक बच्चे का जन्म हुआ. नाम रखा गया - कुमार नारायण. 18 साल की उम्र में कुमार की पहली नौकरी लगी. उसने आर्मी पोस्टल सर्विस में बतौर हवालदार 6 साल तक काम किया. फिर 15 अगस्त 1947 का दिन आया. देश विदेशी हाथों से निकलकर स्वाधीन हो चुका था. नारायण की भी जिंदगी में बदलाव हुआ. कुछ वक्त बाद, वो विदेश मंत्रालय में स्टेनोग्राफर बन गया. इस बीच साल भर के लिए चीन में भी वक्त बिताया. फिर साल 1955 में नारायण की शादी गेटी से हुई, जो बाद में गीता बनी. पर ये सब तो इसकी निजी जिंदगी थी. जासूसी की कहानी जुड़ती है - इसकी प्रोफेशनल लाइफ से.

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हुआ ये कि साल 1960 तक नारायण वित्त और रक्षा मंत्रालय में भी अलग-अलग पदों पर रहा. लेकिन फिर सरकारी नौकरी छोड़, एक प्राइवेट कंपनी जॉइन की. मुंबई की SLM मानेकलाल इंडस्ट्रीज. कंपनी मुंबई में थी, पर नारायण को दिल्ली में इसके काम-काज का जिम्मा दिया गया. जिसका ऑफिस मंडी हाउस के पास 16 हेली रोड पर था.

जनवरी की रात

सोलह हेली रोड. सत्रह जनवरी की रात, और दो लोग जो शराब के नशे में धुत होने की तैयारी में थे. तभी पड़ती है रेड. पर जुर्म शराब पीना नहीं था. जुर्म था खुफिया सरकारी दस्तावेजों का लेन देन. इनमें से एक था पी. गोपालन. गोपालन PM के प्रधान सचिव PC Alexander के ऑफिस में पर्सनल असिस्टेंट थे. इस वजह गोपालन के पास तमाम हाई क्लियरेंस कागजातों का एक्सेस था. दूसरा शख्स था कुमार नारायण. IB ने दोनों को PMO के दस्तावेजों के साथ रंगे हाथों पकड़ा था. पर ये तो इस जासूसी कड़ी के दो ही मोहरे थे. इसलिए आगे जाने से पहले समझते है, ये कांड था कितना बड़ा.

भारत की जानकारी

इस पूरे मामले को देश विदेश के तमाम मीडिया संस्थानों ने कवर किया.  16 अप्रैल 1985 को अमेरिकी अखबार, द न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक खबर में लिखा जाता है, आज 19 भारतीय नागरिकों को जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया. जिसके साथ पांच महीनों से चल रही जांच खत्म हुई. जिसके तार भारतीय प्रधानमंत्री कार्यालय तक जुड़े थे. आगे रिपोर्ट्स का हवाला देते हुए पूरे मामले में 6 फॉरेन डिप्लोमैट्स के जुड़े होने की बात भी कही गई. जिसमें फ्रांस, ईस्ट जर्मनी और पोलैंड जैसे देशों का नाम आया.

प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने तीन डिप्लोमैट्स के नाम भी जारी किए. जिन्हें जासूसी रिंग के बारे में पता चलते ही एक्सपेल कर दिया गया था. इन्हीं में से एक कर्नल एलैन बॉली का नाम भी था. जिन्हें पहली ही फ्लाइट से देश छोड़ने के लिए कह दिया गया था. वजह- कुतुब मीनार घूमना.

कुतुब मीनार

ठीक सुना आपने, कुतुबमीनार घूमना. सोच में मत पड़िए. क्योंकि कुतुबमीनार घूमने बॉली अकेले नहीं जाते थे. यहां ये हमारी कहानी के एक और परिचित किरदार से मिलने जाते थे. कुमार नारायण से. जिसकी जानकारी सर्विलेंस के दौरान की तस्वीरों में मिलती है. दरअसल ये दोनों ऐसे ही टूरिस्ट स्पॉट्स में मिलते थे. घूमना बस बहाना था. यहां नारायण खुफिया दस्तावेजों का सौैदा करता था. ये जानकारी इतनी तेजी से फैली कि एक वक्त में अमेरिकी प्रेस को भी भारत की खुफिया जानकारी के बारे में मालूम चल गया.

अमेरिकी अखबार

सितंबर 1984 की बात है. अमेरिकी अखबारों में खबरें आती हैं कि भारत कहूता में हमले की योजना बना रहा है. ये वही कहूता है कभी जहां हमलाकर, पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम को शुरू होने से पहले ही - खत्म करने की योजना बनाई जा रही थी.  बहरहाल हमले की इस योजना की खबर जब चर्चा में थी.उस वक्त तब के पाकिस्तानी विदेश मंत्री साहिबजादा याकूब खान भी वॉशिंगटन में मौजूद थे. भनक उन्हें भी थी. उस वक्त प्रेस में वो एक बयान देते हैं,

“मैडम (इंदिरा) अब किसी भी दिन इस हमले को अंजाम देने वाली हैं. अगर भारत ने ऐसा किया - तो हमारे पास भी एक ही चारा बचेगा, तारापुर पर हमला. और जब बॉम्बे से एक करोड़ लोगों को निकालना पड़ेगा, तब मैडम गांधी को समझ आएगा.”

खैर इस घटना के बाद सुरक्षा एजेंसियों के कान भी खड़े हुए, कि आखिर ये जानकारी अमेरिका और पाकिस्तान तक पहुंची कैसे. ये तो वो जानकारी है, जो सरकारी दफ्तरों की फाइलों में होनी चाहिए थी. ऐसी वैसी फाइलें नहीं, फाइलें जिनमें Top Secret और Not to go out of office जैसे शब्द छपे रहते थे. कहें तो खुफिया जानकारी जिसे दफ्तरों से बाहर नहीं जाने देना चाहिए. पर ये खुफिया जानकारी बाहर निकली कैसे?

शराब, दफ्तर और दस्तावेज

अब अगर आपको ये लगे कि इस जासूसी कहानी में जेम्स बॉन्ड जैसे जासूस होंगे, जो जान पर खेलकर खुफिया जानकारी चुराते होंगे. तो फिर आप निराश हो सकते हैं. क्योंकि इस कहानी में ऐसा कुछ नहीं था. मामला ये था कि नारायण चूंकि खुद केंद्र सरकार के मंत्रालयों से जुड़ा रहा था. इसकी कंपनी का दफ्तर भी सरकारी दफ्तरों के पास था. इसलिए काम खत्म होने के बाद चार यार मिलते, बैठते. पुराने दोस्तों के साथ कुछ जाम भी छलकाए जाते.

बातें होतीं तो कभी-कभी पर्सनल प्रोफेशनल की लकीर धूमिल हो जाती. कभी सरकारी कर्मचारी कुछ टिप भी दे देते. मसलन सरकार कहां क्या खर्च करने वाली है? नारायण को इस जानकारी से फायदा भी मिलता. जिससे उसकी कंपनी को बिजनेस हासिल करने में आसानी होती. लेकिन फिर ये मुलाकातें अलग रुख लेने लगीं. अब दोस्त अपने साथ सरकारी दस्तावेज भी लाने लगे. बदले में नारायण उन्हें महंगी विदेशी शराब पिलाता. जो उस वक्त आसानी से ना मिलती थी.

इधर दोस्तों की बात-चीत चलती, शराब के जाम झलकते. उधर नारायण का एक आदमी ये दस्तावेज ऑफिस से बाहर ले जाता. और इन दस्तावेजों के फोटोस्टेट निकलवाता. शराब और मुलाकात का दौर खत्म होता, तो अफसरों को शराब की बोतल मिलती. और नारायण को खुफिया जानकारी. जिसे कई बार दूसरे देशों के अधिकारियों तक भी पहुंचाया जाता. इसी जानकारी के बल पर विदेशी अधिकारी भारत से बड़ी डिफेंस डील करने में भी सफल होते.

क्या था दस्तावेजों में?

दरअसल इन कागजों में भारत के परमाणु प्रोग्राम, मिलिट्री उपग्रह, सरकारी इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम. डिफ़ेंस प्लानिंग. डिफ़ेंस एयरक्राफ़्ट की ख़रीद फ़रोख़्त से जुड़ी जानकारी, पॉलिसी के काग़ज़, RAW के काग़ज़ात, IB के काग़ज़. ये सब शामिल थे. इसके अलावा फ़ॉरेन पॉलिसी से जुड़े काग़ज़. भारत की आंतरिक सुरक्षा से जुड़े कागज़. चीन और पाकिस्तान से जुड़े कागज़. ये सब नारायण को मिल रहे थे. अगर आपको लग रहा है अब भी कुछ छूट गया. तो ये भी बता दें कि नारायण कम्युनिकेशन इंक्रिप्शन कोड की कॉपी भी मुहैया कराता था. जिससे भारत के मिलिट्री और डिप्लोमेटिक कम्युनिकेशन को डिसाइफ़र किया जा सकता था.अलग-अलग लेवल के क्लियरेंस लेवल के काग़ज़ का अलग रेट तय था. नारायण के यहां से ये काग़ज़ जाते थे पूर्वी यूरोप. वहां दो बिज़नेसमैन इन्हें आगे बेचते. ये काग़ज़ ईस्टर्न ब्लॉक को मुहैया कराए जाते. जो तब सोवियत के प्रभाव में था. बदले में इन लोगों को वहां सरकारी कॉन्ट्रैक्ट मिलते. 

धीरे-धीरे ये खबर पोलिश इंटेलिजेन्स तक पहुंची. बहती गंगा में हाथ धोने वो भी आए. फिर नम्बर आया फ़्रांस का. उनके लिए इन दस्तावेज़ों की खास क़ीमत थी. कारण कि 1980 के बाद भारत फ़्रांस और ब्रिटेन से रक्षा ख़रीद करने लगा था. और छोटी से छोटी जानकारी भी टेंडर डालने में बड़े काम की साबित हो सकती थी. सालों तक ये खेल चला लेकिन एक दिन IB को इस खेल के खिलाड़ियों का पता चल गया. साल 1984 के सितंबर महीने में अधिकारियों ने तहकीकात की जानकारी प्रधानमंत्री इंदिरा को दी. पर अगले ही महीने उनकी हत्या कर दी गई. दिसंबर में IB इस मामले का खुलासा करना चाहती थी. पर चुनाव पर इसके असर के चलते इसे कुछ दिन टालने का फैसला किया गया. 

फिर तारीख आती है 17 जनवरी 1985 की. जब रेड पड़ती है नारायण के 16 हेली रोड वाले दफ्तर में और उसे रंगे हाथों पकड़ा जाता है. नारायण ने IB से हुई पूछताछ में 30 नौकरशाहों का नाम लिया. इसके अलावा उसने बताया कि कैसे मानेकवाल कम्पनी को उसके ज़रिए ईस्ट जर्मनी और पोलैंड में करोड़ों की डील मिली थी. 5 महीने चली तहक़ीक़ात के बाद 19 लोगों पर FIR दर्ज की गई.

17 साल तक ये मामला कोर्ट में घिसता रहा. जिसके बाद जुलाई 2002 में इस केस में 13 लोगों को सजा सुनाई गई. मानेकलाल कम्पनी के मालिक योगेश को 14 साल कारावास की सजा मिली. इसके अलावा 12 पूर्व अधिकारियों को 12 साल की क़ैद हुई. जिनमें 4 PMO ऑफ़िस से और 4 डिफ़ेंस ऑफ़िस से जुड़े थे. नारायण को सजा मिलती, इससे पहले ही 2000 में उसकी मौत हो गई.

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