जैसा कि आपने आरक्षण की कहानी के पहले भागमें जाना कि छुआछूत की समस्या से भारत हजारों बरसों से जूझ रहा था. इस बीच ज्योतिबाफुले, सावित्री बाई फुले, पेरियार और शाहूजी महाराज जैसे चंद लोगों ने समाज सेछुआछूत के जहर को मिटाने के बड़े प्रयास भी किए. लेकिन ये प्रयास बहुत कारगर न होसके. दलित और पिछड़ों को हक दिलाने की कवायद का असली पड़ाव भारत की आजादी से थोड़ापहले आया. गोलमेज सम्मेलन (1930-32) के बाद जब ब्रिटिश शासकों ने अछूत जातियों केलिए अलग से एक अनुसूची बनाई. इन्हें प्रशासनिक सुविधा के लिए अनुसूचित जातियां कहागया. आज़ादी के बाद भारतीय संविधान में भी इस व्यवस्था को बनाए रखा गया. इसके लिएसंवैधानिक (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 जारी किया गया. इसमें भारत के 29 राज्यों की1108 जातियों के नाम शामिल किये गए थे. लेकिन इसे अमली जामा पहनाने के लिए संविधानमें व्यवस्था करना जरूरी था.संविधान सभा का खाकाभारत का संविधान तैयार करने का काम संविधान सभा को सौंपा गया. संविधान सभा का कामएक ऐसे संविधान की रचना करना था, जिसके जरिए देश को चलाया जा सके. इस मुश्किल कामके लिए अलग-अलग तबके और वर्ग से लोगों को संविधान सभा में शामिल किया गया. कैबिनेटमिशन की संस्तुतियों के आधार पर भारतीय संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभाका गठन जुलाई, 1946 में किया गया. संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 389निश्चित की गई थी, जिनमें 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नरक्षेत्रों के प्रतिनिधि एवं 93 देशी रियासतों के प्रतिनिधि थे. 9 दिसंबर, 1946 कोसंविधान सभा की पहली बैठक नई दिल्ली स्थित काउंसिल चैम्बर के पुस्तकालय भवन मेंहुई. सभा के सबसे बुजुर्ग सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा को सभा का अस्थायी अध्यक्षचुना गया. 11 दिसंबर को मतलब दो दिन बाद ही डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभाका स्थायी अध्यक्ष बनाया दिया गया. भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकार बीएन राव कोसंविधान निर्माण की प्रक्रिया में सलाहकार बनाया गया.22 जनवरी, 1947 को उद्देश्य प्रस्ताव की स्वीकृति के बाद संविधान सभा ने संविधानबनाने के लिए अनेक समितियां बनीं. इनमे प्रमुख थी- वार्ता समिति, संघ संविधानसमिति, प्रांतीय संविधान समिति, यूनियन पावर कमेटी, प्रारूप समिति.इसमें प्रारूप समिति के अध्यक्ष का पद डॉ भीमराव आंबेडकर, संघ संविधान समिति औरयूनियन पावर कमेटी का अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू, प्रांतीय संविधान समिति का अध्यक्षवल्लभ भाई पटेल और हाउस कमेटी का अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया को बनाया गया.संविधान सभा में रिजर्वेशनदेश का बंटवारा होने के बाद भारतीय संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 324 बची. इसमें235 स्थान प्रांतों के लिए और 89 स्थान देसी राज्यों के लिए थे. संविधान सभा की तरफसे संविधान पर पहली बहस 4 नवंबर से 9 नवंबर 1948 तक चली. फिर 15 नवंबर 1948 से 17अक्टूबर 1949 तक और इसके बाद 14 नवंबर 1949 से 26 नवंबर 1949 तक. इन बैठकों के बादसंविधान पारित किया गया. इन बैठकों में हुईं तमाम बहसों में आरक्षण के मसले पर भीबहस हुई. इस बहस में मुख्यरूप से ये सवाल सामने आए# अंग्रेजों से आजादी के बाद भी क्या रिजर्वेशन की जरूरत है?# रिजर्वेशन का हकदार कौन है? आखिर किसे निचली जाति माना जाए?# रिजर्वेशन को जाति के आधार पर दिया जाए या आर्थिक आधार पर?# रिजर्वेशन में समानता बनाम योग्यता?# कब तक रिजर्वेशन दिया जाए?इन सवालों के प्रकाश में ही संविधान सभा में हुई बहस से हम रिजर्वेशन को समझने कीकोशिश करेंगे.भारत के संविधान को बनाने की प्रक्रिया में आरक्षण के मसले को संविधान सभा में काफीविस्तार से चर्चा की गई .रिजर्वेशन की जरूरत क्या है?संविधान सभा में इस सवाल को भी उठाया गया है कि अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय हीमिलकर देश चलाएंगे, ऐसे में क्या अब भी रिजर्वेशन की जरूरत है?संविधान सभा ने मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों और जनजातीय तथा बहिष्कृत क्षेत्रों केलिए एक सलाहकार समिति बनाई थी. इस समिति ने 30 अगस्त 1947 को विधानसभाओं मेंअनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की सिफारिश की और संविधान सभा के सामने इस पर अपनादृष्टिकोण रखा. जब फिर से रिजर्वेशन की जरूरत पर सवाल उठा, तो मई 1949 में एक बारफिर संविधान में रिजर्वेशन की जरूरत पर पुष्टि की गई. मद्रास राज्य विधान सभा के एकनिर्वाचित सदस्य और भारत छोड़ो आंदोलन में प्रमुख भागीदार रहे एस नागप्पा ने आरक्षणके समर्थन में तर्क देते हुए कहा. देश में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक अल्पसंख्यकमौजूद हैं. जिनके लिए आरक्षण के जरिए प्रतिनिधित्व सुरक्षित होना चाहिए. यहां तक किआज भी, मैं आरक्षण के उन्मूलन के लिए तैयार हूं, बशर्ते हर हरिजन परिवार को 10 एकड़दलदली जमीन, बीस एकड़ सूखी जमीन मिले. हरिजनों के सभी बच्चों के लिए विश्वविद्यालयस्तर तक की शिक्षा फ्री हो और नागरिक विभागों या सैन्य विभागों में प्रमुख पदों कापांचवां हिस्सा उन्हें दिया जाए. संयुक्त प्रांत (आज का यूपी) विधानसभा सेनिर्वाचित होकर आए मोहन लाल गौतम ने उन्हें रोकते हुए कहा कहा यदि उनके पास ऐसीजमीन हो सके, तो हर ब्राह्मण ऐसी भूमि के लिए हरिजन के साथ स्थानों की अदला-बदलीकरने को तैयार होगा. इसके जवाब में नागप्पा ने तर्क दिया कि एक हिंदू 'हरिजन' मेंतब तक परिवर्तित नहीं हो सकता, जब तक कि कोई दूसरों के लिए मेहतरी करने और झाड़ूलगाने के लिए तैयार न हो.डॉ.आंबेडकर संविधान का फाइनल ड्राफ्ट संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र पसाद कोसौंपते हुए. इस ड्राफ्ट में समान अवसर की कसम के साथ कमज़ोर वर्गों को खास अवसरदेने का वादा भी था.रिजर्वेशन का हकदार कौन है? आखिर किसे दलित माना जाए?संविधान सभा की तमाम बैठकों के दौरान आरक्षण का मुद्दा भी उठा. 30 नवम्बर 1948 कोसंविधान सभा में टी. टी कृष्णामाचारी ने खड़े होकर कहा था कि “क्या मैं पूछ सकता हूंकि भारत के किन नागरिकों को पिछड़ा समुदाय कहा जाए” इस बैठक में धारा-10 मेंअनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान रखा गया.लेकिन सिर्फ एक वोट के अंतर से प्रस्ताव ख़ारिज हो गया.यह भी पढ़ें- भारत में छुआछूत का गटर, जिसने रिजर्वेशन की जरूरत पैदा कीऐसे में डॉ भीमराव अंबेडकर ने मोर्चा संभाला. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति कीजगह ‘पिछड़ा वर्ग’ शब्द का इस्तेमाल किया गया. इस शब्द का ज़िक्र आते ही व्यापक बहसचली. इस पर एए गुरूंग ने टिप्पणी करते हुए कहा – “इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचितजनजाति को तो शामिल किया गया है. लेकिन शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़ों कोनहीं.” इस पर बॉम्बे से सदस्य कन्हैया माणिकलाल मुंशी यानी केएम मुंशी ने कहा “बंबईमें कई वर्षों से ‘पिछड़ा वर्ग’ की परिभाषा प्रचलन में है. इसके अंतर्गत अनुसूचितजाति, अनुसूचित जनजाति के अलावा आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगोंको भी शामिल किया गया है. इसीलिए इस शब्द को समुदाय विशेष तक सीमित नहीं रखनाचाहिए.”संविधान सभा में केएम मुंशी ने आरक्षण के पक्ष में तर्क रखे. तस्वीर संविधान सभा कीहै जिसमें सरदार पटेल के साथ केएम मुंशी (राइट) मौजूद हैं.संविधान सभा में मैसूर से सदस्य रहे टी चेन्नया ने कहा कि इस शब्द का कोई एक मायनातो निकाल ही नहीं सकते. उत्तर भारत और दक्षिण भारत में इसके अलग-अलग संदर्भ हैं. इनसब बातों के बीच संयुक्त प्रांत से सदस्य धरम प्रकाश ने उस वक्त सारी बातों कोसमराइज़ करने के अंदाज में कहा था – “पिछड़े वर्ग को परिभाषित करने की ज़रूरत है.क्योंकि वास्तव में कोई ऐसा समुदाय नहीं है, जिसमें आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिकरूप से पिछड़े लोग मौजूद न हों.” आख़िरकार ये बात निकली कि आर्थिक आधार पर आरक्षणदेना ठीक नहीं होगा. क्योंकि आरक्षण, कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. येछुआछूत जैसे जातिगत भेद को मिटाने का एक ज़रिया है. संविधान में जातिगत आरक्षण कीव्यवस्था की गई. एससी, एसटी को आरक्षण दिया गया.कौन है एससी-एसटी?संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की कोई विशेष परिभाषा नहीं दी गई. येनिर्धारित नहीं किया गया था कि कौन-कौन व्यक्ति इन श्रेणियों में आते है. संविधानके भाग-16 के अनुच्छेद- 341 और 342 के मुताबिक राष्ट्रपति को इन जातियों कोउल्लेखित करने की शक्ति दी गई. संविधान में लिखा गया है कि – “राष्ट्रपति, राज्यपालसे परामर्श के बाद, लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों, जनजातियोंको विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें अनुसूचित जातियां समझा जाएगा.” माने राज्यपाल सेविचार-विमर्श करके राष्ट्रपति स्वविवेक से अनुसूचित जातियों की परिभाषा तय करसकेंगे. यही बात अनुसूचित जनजाति के लिए भी कही गई थी. यानी ये बात संविधान सभा मेंभी स्पष्ट नहीं हो सकी कि एससी-एसटी की परिभाषा क्या रखी जाए.रिजर्वेशन जाति के आधार पर दिया या आर्थिक आधार परसंविधान सभा में आरक्षण के कुछ विरोधियों ने सामाजिक पिछड़ेपन के उपचार के रूप मेंआरक्षण को लागू करने के खिलाफ तर्क दिया, लेकिन यह विरोध लाभार्थियों की श्रेणी कोलेकर नहीं था. अल्पसंख्यकों के बारे में बनी उप-समिति के प्रमुख एचसी मुखर्जी कीराय थी कि पिछड़े समूहों के लिए उपयुक्त उपाय राजनीतिक सुरक्षा के नहीं बल्किआर्थिक हैं. मुस्लिम लीग से संयुक्त प्रांत विधानसभा के एक निर्वाचित सदस्य जेड एचलारी ने तर्क दिया कि धार्मिक अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधित्व कोउनके अनुपात के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाए. यानी बहु-सदस्य निर्वाचन क्षेत्रोंमें एक समाज के लोग अपने कैंडिडेट को वोट दें. इस तरह से संचयी वोटों की गिनती करनेके जरिए से प्रतिनिधित्व सुरक्षित किया जाना चाहिए, न की आरक्षण के जरिए. जाति केआधार पर आरक्षण का लाभ पाने के विरोध में दो महत्वपूर्ण आवाजें थीं. संयुक्त प्रांतके निर्वाचित सदस्य महावीर त्यागी और मद्रास के एक प्रोफेसर और धर्मशास्त्री जेरोमडिसूजा. इन्होंने सामाजिक पिछड़ेपन के लिए दूसरे मानदंड़ों का इस्तेमाल करने कासुझाव दिया. वर्ग-आधारित आरक्षण के एक मुखर समर्थक त्यागी ने तर्क दिया किअल्पसंख्यकों का वर्गीकरण आर्थिक आधार पर होना चाहिए. जिसका आधार ऐसी नौकरी हो,जिससे जीविका चलाने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं होती है. मैं समुदाय के आधार परअल्पसंख्यकों में विश्वास नहीं करता, लेकिन आर्थिक आधार पर, राजनीतिक आधार पर औरवैचारिक आधार पर अल्पसंख्यकों का अस्तित्व होना चाहिए. मैं यह सुझाव दूंगा किअनुसूचित जाति के स्थान पर भूमिहीन मजदूर, मोची या इसी तरह का काम करने वाले लोगोंको, जिनकी कमाई जीवन जीने के लिए अपर्याप्त है, उन्हें विशेष आरक्षण दिया जानाचाहिए ...मोचियों, धोबियों और इसी तरह के अन्य वर्गों को आरक्षण के जरिए अपनेप्रतिनिधि भेजने दीजिए. क्योंकि यही लोग हैं, जिन्हें वास्तव में कोई प्रतिनिधित्वनहीं मिलता है. डिसूजा का कहना था कि किसी व्यक्ति की जाति या धर्म को आरक्षण केलिए विशेष आधार नहीं माना जाना चाहिए. इसके बजाय निस्संदेह सामाजिक परिवेश को ध्यानमें रखते हुए, व्यक्तिगत रूप से पिछड़े और जरूरतमंद को आरक्षण दिया जाना चाहिए. एकआदमी को इसलिए सहायता दी जानी चाहिए क्योंकि वह गरीब है, क्योंकि उसकी पैदाइश औरपरवरिश ने उसे सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से प्रगति करने का अवसर नहीं दिया.लेकिन सदन का अंतिम वोट जाति के सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण के पक्ष मेंरहा.संविधान सभा में डॉ. भीमराव आंबेडर की मौजूदगी में इस बात पर भी गर्मागरम बहस हुईकि रिजर्वेशन देने का आधार क्यों न आर्थिक रखा जाए.समता बनाम योग्यता की स्थितिसंविधान सभा में आरक्षण को लेकर चल रही बहस के बीच एक वक्त तो स्थिति ये बन गई थीकि सभा दो भागों में विभाजित दिख रही थी. एक तरफ वो लोग थे, जो नौकरी में रिजर्वेशनके लिए सिर्फ योग्यता को ही आधार बनाना चाहते थे. कुछ ऐसे थे, जो मौका न दिए जानेकी बात कर रहे थे.संयुक्त प्रांत से संविधान सभा के सदस्य सेठ दामोदर स्वरूप ने कहा कि पिछड़े वर्गके लिए सेवाओं में आरक्षण का मतलब अच्छी और दक्ष सरकार को नकारना है. इसे लोक सेवाआयोग के फैसले पर छोड़ देना चाहिए. उड़ीसा से संविधान सभा सदस्य शांतनु कुमार दासने कहा की अनुसूचित जाति के लोग परीक्षा में बैठते है, उनका नाम लिस्ट में आ जाताहै, लेकिन जब पदों पर नियुक्ति का समय आता है तो उनकी नियुक्ति नहीं होती है. ऐसाइसलिए होता है क्योंकि उच्चवर्ग के जो लोग नियुक्त होते है, उनकी जबर्दस्त सिफारिशहोती है. यह सिफारिश उनकी नियुक्ति में सहायक होती है. ऐसी स्थिति में लोक सेवाआयोग के बने रहने का हमारे लिए अर्थ नहीं है. दूसरे सदस्य जो मध्य प्रांत से आतेथे, नाम था एच.जे. खाण्डेकर, उन्होंने इस बात से आपत्ति जताई. खांडेकर ने कहा किअनुसूचित जाति के लोग अच्छी योग्यता होने के बावजूद, नियुक्ति के अच्छे अवसर नहींपाते है और उनके साथ जातिगत आधार पर भेदभाव किया जाता है. आरक्षण के पक्ष में भी कममत नहीं थे. गोपाल कृष्ण गोखले पहले ही कह चुके थे कि समाज को कुंठा से बचाने केलिए आरक्षण जरूरी है. इसी बात को संविधान सभा में डॉ आंबेडकर ने आगे बढ़ाया. कहा -डेढ़ सौ वर्ष तक देश में अंग्रेजी शासन-व्यवस्था मजबूती से कायम रही. इसमेंप्रतिनिधित्व न मिलने के कारण भारतीय सवर्ण ही अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पारहे थे. फिर तो भारत के दलित समाज की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. संविधान सभा में जब समता बनाम योग्यता पर बहस उठी तो बी.आर आंबेडकर ने भी अपनी बातरखी.तमाम बहस के बाद सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण की बात पर सहमतिबनी. आरक्षण की चर्चा भारतीय संविधान के तीसरे भाग के अनुच्छेद 15 के तहत है. भाग 3मूल अधिकारों से संबंधित है. इसलिए कई मौकों पर ये मान लिया जाता है कि आरक्षण एकमूल अधिकार है. व्याख्याएं अलग-अलग हैं. अनुच्छेद 15 में ही शैक्षणिक और सामाजिकरूप (जिसमें एससी-एसटी शामिल) से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण का ज़िक्र है.कब तक रिजर्वेशन दिया जाए?संविधान सभा में इस बात पर भी बहस हुई कि आखिर कितने दिनों तक रिजर्वेशन दिया जाए.संविधान सभा के सदस्य पंडित हृदयनाथ कुंजरू का कहना था कि “संविधान के लागू होने केबाद 10 साल तक आरक्षण लागू करने के लिए प्रावधान में कोई बाधा नहीं होगी. लेकिन येप्रावधान अनिश्चितकाल के लिए लागू नहीं रहना चाहिए. इस प्रावधान की समय-समय पर जांचहोनी चाहिए कि वास्तव में पिछड़े तबकों की स्थिति में बदलाव आ भी रहा है या नहीं? औरराज्य ने उन्हें वर्तमान दशा से ऊपर उठाने के लिए और योग्य बनाने के लिए, अन्यवर्गों की बराबरी पर लाने के लिए उचित कार्यवाही की है कि नहीं? पिछड़ा वर्ग कौनहोगा और कौन नहीं, यह तय करने का भार न्यायालय पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए. वास्तव मेंहमें विधायी मंडल में उनके प्रतिनिधित्व को सशक्त बनाने के लिए ज्यादा ठोस प्रावधानकरने चाहिए. दूसरे सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने राय दी कि इस तरह के प्रावधानको 10 बरसों से ज्यादा का न रखा जाए. हालांकि जरूरत पड़ने पर बढ़ाया जाए. ऐसे मेंदूसरे सदस्य निजामुद्दीन अहमद ने 10 साल के वक्त पर सवाल उठा दिया. उन्होंने कहा किक्या फिर 10 सालों के बाद उन लोगों को पद से रिजाइन कर देना चाहिए, जो पिछले 10सालों में पद पर आए हैं. इस सिस्टम को अनिश्चितकालीन रखना चाहिए. हालांकि यहप्रस्ताव पास नहीं किया गया.संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ भीमराव आंबेडकर ने इस पर अपना पक्ष रखा.उन्होंने कहा कि जहां तक बात अनुसूचित जाति की है, तो दूसरे अल्पसंख्यकों को पहलेही लंबे वक्त से सहूलियतें मिल रही हैं. वह पहले ही लंबे वक्त तक सुविधाएं भोग चुकेहैं. मुसलमान 1892 से सुविधा भोग रहे हैं. ईसाईयों को 1920 से सुविधाएं मिली हुईहैं. अनुसूचित जाति को तो सिर्फ 1937 से ही कुछ लाभ दिए जा रहे हैं. इसलिए उन्हेंज्यादा लंबे वक्त तक सुविधाएं दी जानी चाहिए. लेकिन चूंकि एक बार में 10 साल तक केलिए रिजर्वेशन का प्रस्ताव पास हो चुका है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूं. हालांकिइसे बढ़ाने का ऑप्शन हमेशा रहना चाहिए. इस तरह से यह तय हुआ कि हर 10 साल के बादरिजर्वेशन की समीक्षा होगी और उसके आगे की दिशा तय की जाएगी. हालांकि पिछले 70सालों में बिना किसी गंभीर समीक्षा के रिजर्वेशन की अवधि बढ़ाई जाती रही है.इसके बाद संविधान ने सरकारी शिक्षण संस्थानों की खाली सीटों तथा सरकारी औरसार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियों में अनुसूचित जाति (एसी) के लिए 15% और अनुसूचितजनजाति (एसटी) के लिए 7.5% आरक्षण तय किया, जो 10 वर्षों के लिए था और उसके बादइसके हालात की समीक्षा करने की बात कही गई.संविधान सभा में बहस के दौरान आंबेडकर (बीच में) ने इस बात पर जोर दिया कि आरक्षणकी समयसीमा पर गंभीरता से विचार किया जाए. इसे बढ़ाने का प्रावधान रखा जाए.राजनीति में आरक्षण और पृथक निर्वाचन मंडलनौकरियों में आरक्षण के बाद सबसे बड़ा मुद्दा था देश की राजनीति में समानता लानेका. इसके दो ही तरीके थे पहला ये कि आंबेडकर के फॉर्मूले को मानकर खास निर्वाचकमंडल अपने सदस्य चुने. दलित को दो वोट देने का अधिकार मिले. एक वोट से दलित अपनाप्रतिनिधि चुनेंगे तथा दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनेंगे. इस प्रकारदलित प्रतिनिधि केवल दलितों की ही वोट से चुना जाना था. दूसरे शब्दों में उम्मीदवारभी दलित वर्ग का तथा मतदाता भी केवल दलित वर्ग के ही. लेकिन महात्मा गांधी को यहकतई मंजूर नहीं था.20 सितंबर 1932 को गांधी जी ने पुणे की यरवडा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया. 24सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे यरवडा जेल पूना में गांधी और डॉ. आम्बेडकर के बीचसमझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ. इस समझौते में डॉ.आम्बेडकर को कम्युनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा तथासंयुक्त निर्वाचन (जैसा कि आजकल है) पद्धति को स्वीकार करना पडा, लेकिन इसके साथहीं उन्होंने कम्युनल अवार्ड से मिली 71 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट मेंआरक्षित सीटों की संख्या बढ़ाकर 148 करवा ली.संयुक्त निर्वाचन के इस सिस्टम को ही भारतीय संविधान में अमली जामा पहनायागया.संविधान के अनुच्छेद 334के अनुसार लोकसभा की 543 में से 79 सीटें अनुसूचित जाति (एससी) और 41 सीटेंअनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए रिज़र्व हो जाती हैं. वहीं, विधानसभाओं की 3,961सीटों में से 543 सीटें अनुसूचित जाति और 527 सीटें जनजाति के लिए सुरक्षित हो जातीहैं. इन रिजर्व सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एससी या एसटीका होता है.संविधान सभा में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटें रिजर्व करने के फार्मूले कोमान लिया गया. इसका वादा आंबेडकर के साथ महात्मा गांधी ने पूना पैक्ट में किया था.तस्वीर में जवाहरलाल नेहरू (लेफ्ट), राजेंद्र प्रसाद और बीआर आंबेडकर (राइट).पृथक निर्वाचक मंडल के मसले पर भले ही महात्मा गांधी से पूना पैक्ट में किए वादे केअनुरूप व्यवस्था दी गई, लेकिन आंबेडकर और दलित नेताओं के मन में दर्द दबा रह गया.संविधान सभा में चर्चा के दौरान यह बाहर आया. अनुसूचित जनजाति के लिए संघर्ष करनेवाले जसपाल सिंह ने कहाअगर भारतीय जनता में ऐसा कोई समूह है जिसके साथ सही व्यवहार नहीं किया गया है तो वहमेरा समूह है. मेरे लोगों को पिछले 6,000 साल से अपमानित किया जा रहा है, उपेक्षितकिया जा रहा है.... मेरे समाज का पूरा इतिहास, भारत के गैर-मूलनिवासियों के हाथोंलगातार शोषण और छीनाझपटी का इतिहास रहा है. जिसके बीच में जब-तब विद्रोह औरअव्यवस्था भी फैली है. इसके बावजूद मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों पर भरोसाकरता हूं. मैं आप सबके इस संकल्प का विश्वास करता हूं कि अब हम एक नया अध्याय रचनेजा रहे हैं. स्वतंत्र भारत का एक ऐसा अध्याय जहां सबके पास अवसरों की समानता होगी,जहां किसी की उपेक्षा नहीं होगी.मद्रास से आने वाले दलित सदस्य जे. नागप्पा ने कहा था,हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं. हमें अपनीजिम्मेदारियों का अहसास हो गया है. हमें मालूम है कि अपनी बात कैसे मनवानी है.̧नागप्पा ने कहा कि संख्या की दृष्टि से हरिजन अल्पसंख्यक नहीं हैं. आबादी में उनकाहिस्सा 20-25 प्रतिशत है. उनकी पीड़ा का कारण यह है कि उन्हें बाकायदा समाज वराजनीति के हाशिए पर रखा गया है. उसका कारण उनकी संख्यात्मक महत्त्वहीनता नहीं है.उनके पास न तो शिक्षा तक पहुंच थी और न ही शासन में हिस्सेदारी.मध्य प्रांत (आज के एमपी) से आए सदस्य श्री के.जे. खांडेलकर ने कहाहमें हजारों साल तक दबाया गया है ... दबाया गया .. इस हद तक दबाया कि हमारे दिमाग,हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भावशून्य हो चुका है. न ही हम आगेबढ़ने के लायक रह गए हैं. यही हमारी स्थिति है.बंटवारे की हिंसा के बाद वैसे भी आंबेडकर ने पृथक निर्वाचक मंडल की मांग छोड़ दीथी. संविधान के अनुच्छेद 334 में सीटों को रिजर्व करने की व्यवस्था पर ही सबकीसहमति बनी और सबने इसे स्वीकार किया.अब सवाल यह है कि क्या रिजर्व सीटों से चुन कर आए नेता अपने समाज और वर्ग की आवाजबुलंद कर पाते हैं? रिजर्व सीट से चुनकर आया प्रतिनिधि क्या अपने गैर दलित वोटर औरपार्टी की अवमानना करके दलितों के हितों के मुद्दे उठा सकने में सक्षम है? फिलहालइस पर भारतीय राजनीति में कोई स्वर्णिम उदाहरण दिखाई नहीं देता है.