तेलंगाना बनने की पूरी कहानी!
2 जून 2014, तेलंगाना भारत का 29वां राज्य बना. तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की क्यों ज़रूरत पड़ी ?
“एक मासूम लड़की की शादी एक नटखट लड़के के साथ हो रही है. चाहे तो वो मिलकर रह सकते हैं. या अलग हो सकते हैं”
Economic and political weekly में छपे एक आर्टिकल में गौतम पिंगले लिखते हैं कि साल 1956 में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ये बात कही थी. नेहरू की ये बात साल 2014 में जाकर सच साबित हुई. दशकों पहले बना एक गठबंधन टूटा और जन्म हुआ भारत के 29 वें राज्य तेलंगाना का(India's 29th State — Telangana). तारीख़ थी आज ही की यानी 2 जून. तेलंगाना को आंध्र प्रदेश से अलग कर राज्य बनाया गया. आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास में 1956 में पहली बार भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ था. तेलेगु भाषाई लोगों की मांग पूरी करने के लिए आंध्र प्रदेश बना. तेलंगाना तब आंध्र का ही हिस्सा था और यहां की मुख्य भाषा भी तेलेगु ही थी. फिर सवाल उठता है, तेलंगाना को आंध्र से अलग करने की मांग क्यों उठी? (Telangana separation)
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हैदराबाद में तेलंगानाये पूरी कहानी चूंकि दो राज्यों से जुड़ी है. तो सबसे पहले मैप सेट कर लेते हैं. पहले कैसा था और बाद में क्या तब्दीली आई, ये देखने के लिए. पहले आंध्र प्रदेश को देखते हैं. आज़ादी के वक्त आंध्र प्रदेश नहीं था. एक मद्रास प्रेसीडेंसी हुआ करती थी. जिसमें आज का आंध्र प्रदेश, मैंगलोर, कालीकट, सहित आज के कर्नाटक, केरल और उड़ीसा के तटीय इलाक़ों का कुछ हिस्सा आता था. (Telangana separated from Andhra Pradesh)
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अब तेलंगाना को देखते हैं. हैदराबाद अब तेलंगाना की राजधानी है. एक समय में यही तेलंगाना हैदराबाद रियासत का हिस्सा था. आज़ादी के वक्त हैदराबाद रियासत पर निज़ाम का राज था. जिसके तीन हिस्से थे. मराठवाड़ा यानी आज के महाराष्ट्र का औरंगाबाद. आज के कर्नाटका का कुछ हिस्सा और तेलंगाना. हैदराबाद के निज़ाम हैदराबाद के भारत में विलय को राज़ी नहीं थी. लिहाज़ा ऑपरेशन पोलो के तहत सेना को भेजा गया और 1948 में हैदराबाद का भारत में विलय हो गया. निज़ाम के ख़िलाफ़ पहले विद्रोह की शुरुआत 1945 में तेलंगाना के नालगोंडा से हुई थी. शुरुआत में ये आंदोलन जागीरदारों के ख़िलाफ़ था. लेकिन 1946 के बाद ये निज़ाम की सेना के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में तब्दील हो गया. (Telangana movement)
विलय के बाद सशस्त्र संघर्ष रुक गया. लेकिन एक नया आंदोलन जड़ें जमाने लगा. ये आंदोलन अकेले तेलंगाना का नहीं था. पूरे भारत और विशेषकर दक्षिण भारत में उड़िया, तेलेगु, मराठी, कन्नड़ और मलयालम भाषी लोग भाषायी आधार पर राज्यों की गठन की मांग कर रहे थे. इस मसले के समाधान के लिए एक कमिटी बनाई गई- JVP कमिटी, जिसका नाम इसके तीन सदस्यों के नाम के पहले अक्षर को मिलाकर बनाया गया था. ये तीन सदस्य थे. जवाहरलाल नेहरू, वल्लभ भाई पटेल और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष पट्टाभि सीतारम्मैया. इस कमिटी ने भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के ख़िलाफ़ अपनी सिफ़ारिशें दी. चूंकि नेहरू और पटेल सबसे बड़े नेता था. इसलिए यही कांग्रेस और सरकार की पॉलिसी बनी.
भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठनलोग सड़कों पर उतर आए. मद्रास, हैदराबाद, पंजाब से लेकर असम तक आंदोलनों की बाढ़ आ गई. इनमें सबसे आक्रामक आंदोलन तेलेगु भाषीयों का था. तेलेगु भाषी मद्रास में भी थे और हैदराबाद में भी. रामचंद्र गुहा अपनी किताब, इंडिया आफ़्टर गांधी में लिखते हैं,
“आज़ादी के बाद तेलेगु भाषी लोगों ने कांग्रेस से भाषायी राज्य बनाने संबंधी अपना पुराना वादा निभाने की मांग की. जुलूस निकाले गए. भूख हड़तालें हुईं. यहां तक कि इस मुद्दे पर 1950 में कांगेस के नेता और 1946 से 1947 के बीच मद्रास के मुख्यमंत्री रहे टी प्रकाशम ने पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया”
1951 के आम चुनावों में भी इस नाराज़गी का असर दिखा. चुनाव प्रचार के लिए नेहरू जहां-जहां गए, उन्हें लोगों का विरोध सहना पड़ा. जब मद्रास विधानसभा चुनावों का रिज़ल्ट आया, कांग्रेस को 145 से महज़ 43 सीटों पर जीत मिली. हालात और बिगड़े जब 19 अक्तूबर, 1952 के रोज़ पोट्टी श्रीरामलू नाम के एक व्यक्ति ने आमरण अनशन की शुरुआत कर दी. श्रीरामलू इससे पहले भी अनशन कर चुके थे. 1946 में. तब उनकी मांग थी कि मद्रास के सभी मंदिरों को तथाकथित अछूत जातियों के लिए खोल दिया जाए. तब गांधीजी ने श्रीरामलू को अनशन तोड़ने के लिए राज़ी कर लिया था. लेकिन 1951 में गांधी नहीं थे.
श्रीरामलू का अनशन तुड़वाने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं. इस अनशन का असर भी हुआ. 12 दिसंबर को मद्रास के तत्कालीन मुख्यमंत्री सी राजगोपालाचारी को भेजे ख़त में नेहरू लिखते हैं, "वक्त आ गया है आंध्र प्रदेश की मांग को स्वीकार कर लिया जाए". लेकिन इससे पहले कि नेहरू कोई निर्णय ले पाते, अनशन के 58 वें दिन श्रीरामलू की मौत हो गई. पूरे मद्रास में कोहराम मच गया. सरकारी ऑफ़िसों, रेलगाड़ियां में तोड़फोड़ शुरू हो गई. सरकार को पुलिस उतारनी पड़ी और पुलिसिया एक्शन में कई लोग मारे गए. सब देखते हुए अंत में नेहरू को आंध्र प्रदेश की मांग के आगे झुकना पड़ा.
तेलंगाना की मांग आंध्र प्रदेश की मांग से कैसे अलग?1 अक्टूबर 1953 को मद्रास से अलग कर आंध्र प्रदेश नाम के एक नए राज्य का गठन हो गया. कुरनूल इसकी राजधानी बनाई गई. नेहरू इस कदम से खुश नहीं थे. आंध्र के गठन के कुछ रोज़ बाद अपने सहयोगी को लिखे एक पत्र में वो कहते हैं,
“हमने बर्रे का छत्ता छेड़ दिया है. और मुझे लगता है जल्द ही हम सब इसका दंश झेलेंगे”
नेहरू की बात सही साबित हुई. आंध्र प्रदेश का गठन होते ही दूसरी भाषाओं के लोग अपने लिए अलग राज्य की मांग उठाने लगे. इस समस्या को सुलझाने के लिए 1953 में सरकार ने राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया. आयोग के सदस्यों ने 104 शहरों का दौरा किया. 9 हज़ार लोगों का साक्षात्कार लिया और डेढ़ लाख लिखित आवेदन स्वीकार किए. अब देखिए इस सारी बहस के बीच तेलंगाना की एंट्री कैसे हुई. तेलंगाना तेलुगु भाषी राज्य था. लेकिन तेलंगाना की जनता की मांग आंध्र प्रदेश के लोगों से अलग थी. कैसे?
एक घटना से समझिए. साल 1952 की बात है. हैदराबाद में मिलिट्री रूल लागू था. और मिलिटरी गवर्नर थे जनरल JN चौधरी. जिन्होंने आगे जाकर 1965 के युद्ध में भारतीय सेना का नेतृत्व भी किया. चौधरी ने कमान संभालते ही सरकार में बड़े पैमाने पर भर्तियां शुरू की. दिक़्क़त तब शुरू हुई जब इन भर्तियों में मद्रास के कोस्टल इलाक़े के लोगों को भरा जाने लगा. मद्रास का कोस्टल इलाक़ा दो सदियों तक अंग्रेजों के कंट्रोल में रहा था. यहां उन्होंने रेल चलाई, स्कूल बनाए, कुल मिलाकर यहां का विकास तेलंगाना से बेहतर हुआ. तेलंगाना में निज़ाम के शासन में उतनी तरक़्क़ी नहीं हुई थी. लोग अंग्रेज़ी में भी उस कदर दक्ष नहीं थे. लिहाज़ा नौकरियों में पिछड़ने लगे.
ये दिक़्क़त निज़ाम के वक्त में भी हुआ करती थी. लेकिन निज़ाम ने इसके लिए कुछ नियम बनाए हुए थे. जिन्हें मुल्की रूल्स कहा जाता था. मुल्की रूल्स के तहत नौकरियों में स्थानीय लोगों को वरीयता मिलती थी. 1952 में निकली भर्तियों में मुल्की रूल्स का ध्यान नहीं रखा गया. जिसके चलते लोग भड़क गए. 2 सितम्बर के रोज़ तेलंगाना में छात्रों ने एक विशाल जुलूस निकाला. जो देखते-देखते उग्र हो गया और पुलिस की गोलीबारी में चार छात्रों की जान चली गई.
जैसा पहले बताया, ठीक इसी समय आंध्र प्रदेश की मांग का आंदोलन चल रहा था. आंध्र के लोग तेलंगाना को अपने राज्य में शामिल करना चाहते थे. लेकिन 1952 में हुई घटना के बाद तेलंगाना के लोग आंध्र के विरोध में खड़े हो गए. तेलंगाना के नेताओं ने राज्य पुनर्गठन आयोग से तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मांग की. 1956 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. जिसमें हैदराबाद को तीन हिस्सों में बांटने के सिफ़ारिश की गई थी. जो कुछ इस प्रकार थीं-
-हैदराबाद के मराठी भाषी हिस्से को महाराष्ट्र, जो तब बॉम्बे स्टेट होता था, में जोड़ दिया जाए.
-कन्नड़ भाषी हिस्से को मैसूर से.
-और तेलंगाना को आंध्र प्रदेश से नहीं जोड़ा जाए.
आयोग ने तेलंगाना को आंध्र से अलग रखने को क्यों कहा? आयोग के इसके तीन कारण दिए.
पहला - तेलंगाना की अर्थव्यवस्था कमजोर थी. लेकिन यहां का रेवेन्यू ज़्यादा था. जो शराब पर अधिक टैक्स के कारण मिलता था.इस रेवेन्यू का बड़ा हिस्सा कोस्टल आंध्र या जिसे सीमान्ध्र भी कहते थे, उसके पास चला जाएगा.
दूसरा कारण- आयोग को डर था कि कृष्णा और गोदावरी का अधिकतर पानी आंध्र के पास चला जाएगा जहां बेहतर नहरें और सिंचाई के सिस्टम बने थे.
तीसरा कारण था- आंध्र में बेहतर स्कूल थे. लोगों की अंग्रेज़ी बेहतर थी. जिससे सरकारी नौकरी में उनका ज़्यादा प्रभुत्व होता.
आयोग ने तेलंगाना को लेकर अपनी सिफ़ारिश में लिखा,
“तेलंगाना को एक अलग राज्य बनाना चाहिए. अगर तेलंगाना आंध्र में विलय चाहे तो 1961 में चुनाव के बाद विधानसभा इस विषय में एक प्रस्ताव पारित कर सकती है.”
दिसंबर 1955 में इस मुद्दे पर हैदराबाद असेंबली में एक प्रस्ताव पेश हुआ. 174 में से 103 विधायकों ने तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के विलय का समर्थन किया. सदन में 94 विधायक तेलंगाना से आते थे. इनमें से 59 ने प्रस्ताव का समर्थन किया. तेलंगाना के सभी नेता इस प्रस्ताव के समर्थन में नहीं थे. इसलिए 20 फ़रवरी 1956 को आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के बीच एक समझौता हुआ, जिसे जेंटलमेन अग्रीमेंट का नाम दिया गया. मोटामोटी इस समझौते में लिखा था कि आंध्र प्रदेश में विलय के बाद भी तेलंगाना के अधिकारों की रक्षा की जाएगी और उनके साथ सौतेला व्यवहार नहीं होगा. अंत में 1 नवंबर 1956 को संयुक्त आंध्र प्रदेश का गठन हो गया. जिसमें तेलंगाना भी शामिल था.
नेहरू इस विलय को लेकर ज़्यादा खुश नहीं थे. तब उन्होंने शादी और तलाक़ वाली वो बात कही थी, जिसका ज़िक्र हमने एकदम शुरुआत में किया था. नेहरू ने साथ ही ये चिंता भी ज़ाहिर की कि इस विलय में साम्राज्यवाद का कुछ पुट दिखाई देता है. आगे के घटनाक्रम ने नेहरू की चिंता को सही भी साबित कर दिया. 1969 में तेलंगाना आंदोलन ने एक बार फिर आग पकड़ी. लोग एक बार फिर सड़कों पर उतरे. उन्होंने आरोप लगाया कि जेंटलमेन अग्रीमेंट का पालन नहीं हो रहा है. वो नौकरियों में भेदभाव की शिकायत कर रहे थे. एक आरोप ये भी था कि तेलेगु फ़िल्मों में तेलंगाना के लोगों को विलेन की तरह दिखाया जाता है.
1969 का आंदोलन1969 में शुरू हुए इस आंदोलन को लीड कर रही थी तेलंगाना प्रजा समिति नाम की एक पार्टी. 1971 में हुए चुनावों में इस पार्टी ने तेलंगाना की 14 में से 10 सीटों पर जीत हासिल की. लेकिन चुनाव के ऐन बाद पार्टी का इंदिरा की कांग्रेस (R) में विलय हो गया. तेलंगाना की समस्या सुलझाने के लिए इंदिरा ने एक 6 सूत्रीय कार्यक्रम रखा, जिसके बाद आंदोलन ढीला पड़ गया. सितम्बर 1973 में सरकार ने संविधान संसोधन करते हुए आंध्र प्रदेश को 6 जोंस में बांट दिया. जिसमें हर ज़ोन में स्थानीय आरक्षण का प्रावधान दिया गया. इसके बाद तेलंगाना आंदोलन हल्का पड़ता गया. इसी दौर में एक चीज़ ये भी हुई कि तेलंगाना से आने वाले कई नेता आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. मसलन PV नरसिम्हा राव, MC रेड्डी और टी अंजय्या. अंजय्या 1980 से 82 तक आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे.
इन्हीं अंजय्या के जुड़ा एक दिलचस्प क़िस्सा आपको सुनाते हैं. जिसने तेलंगाना आंदोलन पर दूरगामी असर डाला था. हुआ यूं कि फ़रवरी 1982 में राजीव गांधी आंध्र प्रदेश पहुंचे. हैदराबाद हवाई अड्डे में उन्हें लेने के लिए खुद मुख्यमंत्री अंजय्या आए. साथ में ढोल नगाड़ों और फूल मालाओं का तगड़ा इंतज़ाम था. ये देखकर राजीव नाराज़ हो गए और उन्होंने सबके सामने अंजय्या को डपटते हुए कहा, अगर 15 मिनट में ये तमाशा बंद ना हुआ तो मैं वापिस चला जाऊंगा. इस घटना ने इतना तूल पकड़ा कि अगले साल हुए चुनावों में NT रामा राव ने इस घटना को तेलेगु अस्मिता से जोड़ दिया. और 6 महीने पुरानी तेलेगुदेशम पार्टी ने आंध्र में कांग्रेस को उसकी पहली हार का स्वाद चखा दिया. रामा राव कोस्टल आंध्र रीजन से आते थे. लेकिन उनकी पार्टी को तेलंगाना में भी ज़बरदस्त समर्थन मिला.
नए राज्य का गठनतेलंगाना आंदोलन का अगला बड़ा चरण शुरू होता है साल 2001 में. उस साल उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़, ये तीन नए राज्य बनाए गए थे. इसी साल तेलंगाना में एक नई पार्टी का जन्म हुआ. तेलंगाना राष्ट्र समिति या TRS. जिसके सर्वे सर्वा थे के चंद्रशेखर राव. राव इससे पहले कांग्रेस और TDP के मेंबर रह चुके थे. 2001 में उन्होंने विधानसभा के डेप्यूटी स्पीकर पद से इस्तीफ़ा दिया और अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर एक नई पार्टी बना ली. साल 2004 के चुनावों में TRS ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 4 लोकसभा और 26 विधानसभा सीटें जीतीं.
राव ने खुद अपना चुनाव करीमनगर सीट से लड़ा. इस सीट की ख़ास बात ये थी कि 1969 में तेलंगाना आंदोलन की आग यहीं से ज़िंदा हुई थी. 2006 और 2008 में इस सीट में बाय-इलेक्शन हुए. इनमें भी राव ने जीत हासिल की. साल 2009 में उन्होंने तय किया कि करीमनगर से एक नए सिरे से आंदोलन की शुरुआत करेंगे. उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा की. लेकिन अनशन स्थल तक जाते हुए पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया. उनकी गिरफ़्तारी ने आंदोलन की आग भड़का दी. राव के समर्थक सड़कों पर उतर आए. उधर राव अभी भी अनशन पर थे. अंत में सरकार को उनकी मांग के आगे झुकना पड़ा.
9 दिसंबर 2009 को केंद्र सरकार ने घोषणा की कि एक नए तेलंगाना राज्य का बिल सदन में पेश किया जाएगा.हालांकि सरकार कुछ ही दिनों में अपने फ़ैसले से पलट भी गई. इसके बाद आंदोलन एक बार फिर शुरू हुए. 17 छात्रों ने ओसमानिया यूनिवर्सिटी के आगे आमरण अनशन शुरू कर दिया. फ़रवरी 2010 में जस्टिस BN श्री कृष्णा की अध्यक्षता में सरकार ने एक कमिटी का गठन किया. ताकि वो तेलंगाना के मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट पेश कर सके. श्रीकृष्णा कमिटी ने 23 ज़िलों का दौरा कर अपनी फ़ाइनल रिपोर्ट पेश की. दिसंबर 2013 में केंद्रीय सरकार ने सदन में एक बिल पेश किया. जिसमें आंध्र प्रदेश के 10 ज़िलों को मिलाकर तेलंगाना राज्य बनाने की बात कही गई थी. फ़रवरी 2014 में दोनों सदनों ने इस बिल को पास कर दिया. अप्रैल 2014 में तेलंगाना में चुनाव हुए. और के चंद्रशेखर राव राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने. इसके बाद 2 जून 2014 को तेलंगाना राज्य बनने की आधिकारिक घोषणा हो गई.
आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद तय हुआ कि अगले 10 साल तक हैदराबाद दोनों राज्यों की राजधानी होगा. ये सीमा साल 2024 में ख़त्म होगी. जिसके बाद आंध्र प्रदेश को अपनी नई राजधानी बनानी होगी. 2014 के बाद पहले अमरावती को आंध्र की कैपिटल बनाने की बात चल रही थी. फिर तीन अलग-अलग कैपिटल्स की बात हुई. फिर ये मसौदा भी वापस ले लिया गया. ये मुद्दा अपने आप काफ़ी पेचीदा है. इसलिए इसकी बात कभी और. फ़िलहाल आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के बीच कई और मुद्दे हैं, जिनका निपटारा होना है. जैसे सम्पत्तियों का बंटवारा, कृष्णा-गोदावरी के पानी का बंटवारा. मुद्दों का हल निकाला जाना अभी बाक़ी बाक़ी है लेकिन वस्तुतः हक़ीक़त यही है कि तेलंगाना देश का 29 वां राज्य है. और UPSC के छात्रों को याद करने के लिए एक और सवाल मिल गया है.
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