मानेकशॉ को कैसे याद करता है पाकिस्तान?
जब मानेकशॉ और टिक्का खान खाने की मेज़ पर आए आमने सामने!
साल 2004 की बात है. द ट्रिब्यून में छपी एक खबर में लिखा था. अपनी तीव्र निर्णय क्षमता के लिए जाने जाने वाले मानेकशॉ इस दुविधा में हैं कि उन्हें डॉक्टर फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ कहा जाए, या फ़ील्ड मार्शल डॉक्टर मानेकशॉ. दरअसल उस साल IGNOU की तरफ़ से मानेकशॉ को डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था. (Sam bahadur movie)
सम्मान समारोह के दौरान एक दिलचस्प घटना हुई. डॉक्टरेट की डिग्री देने से पहले उपकुलपति ने मानेकशॉ को एक पीला लबादा पहनाया, जो कि ऐसे समारोह में अमूमन किया जाता है. उस समय तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन बाद में उपकुलपति को अहसास हुआ कि उनसे बड़ी गलती हुई है. समारोह के बाद चाय के दौरान मानेकशॉ ने उपकुलपति को बताया. (Indo-Pakistani War of 1971)
"क्या आपको पता है, कि सैनिक को पीला लबादा देने का मतलब उसका अपमान करना होता है. क्योंकि पीला रंग फ़ौज में कायरता का प्रतीक माना जाता है".
इसके बाद पूरे चायपान के दौरान उपकुलपति मानेक शॉ से माफ़ी मांगते रहे.
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मोटरबाइक के बदले पूरा देशसैम मानेकशॉ के बारे में कोई व्यक्ति अगर कुछ भी ना जानता हो, तो भी इतना ज़रूर जानता होगा कि उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े किए थे. कम से कम भारत और पाकिस्तान का हर व्यक्ति इस बात को ज़रूर जानता है. भारत में वो 1971 युद्ध में मिली जीत के सबसे बड़े हीरो हैं. लेकिन पाकिस्तान का क्या. एक देश उस जनरल को कैसे देखता है, जिसकी वजह से उसके दो टुकड़े हो गए. ये जानने के लिए हमने पाकिस्तानी सैन्य जनरलों और प्रबुद्ध जनों के लेख खंगालने की कोशिश की. और इस दौरान हमें 6 जुलाई 2008, का पाकिस्तानी अख़बार डॉन में छपा एक लेख मिला. जिसे लिखा है अर्देशिर कावसजी ने. कावसजी पाकिस्तान में एक बड़े बिज़नेस घराने के मालिक हुआ करते थे. 2012 में उनकी मृत्यु हो गई थी.
कावसजी मानेक शॉ से हुई एक मुलाक़ात का किस्सा बताते हैं. ये मुलाक़ात 1971 युद्ध के कुछ दशक बाद बाद हुई थी. इस दौरान बातों बातों में कावसजी ने मानेकशॉ को उनकी मोटरबाइक की याद दिलाई. मोटरबाइक का किस्सा यूं है कि जब 1947 में बंटवारा हुआ. मानेकशॉ और याह्या खान (Yahya Khan), जो 1971 युद्ध के दौरान पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे, एक ही रेजिमेंट में थे. बंटवारे के बाद मानेकशॉ ने भारत में रहना चुना, जबकि उनके अनुसार मुहम्मद अली जिन्ना(Muhammad Ali Jinnah) ने उन्हें पाकिस्तान आने का ऑफ़र दिया था. (The Bangladesh Liberation War)
मानेकशॉ ने जिन्ना को इंक़ार कर दिया. दूसरी तरफ़ याह्या पाकिस्तान चले गए. जाने से पहले याह्या ने मानकेशॉ से उनकी मोटर बाइक मांग ली. और वादा किया कि मोटरबाइक के बदले हज़ार रुपये बाद में भिजवा देंगे. याह्या, जिन्हें कावसजी अपने आर्टिकल में 'रंगीला राजा' कहकर बुलाते हैं , आगे जाकर ये बात भूल गए. 1971 युद्ध जीतने के बाद मानेकशॉ ने इस बारे में कहा था,
"याह्या ने मोटरबाइक के एक हज़ार नहीं दिए. इसकी क़ीमत उन्हें अपना आधा देश देकर चुकानी पड़ी".
कावसजी लिखते हैं, मानेकशॉ से मिलकर उन्होंने कहा,
“याह्या की तरफ से आपके हज़ार रुपए मैं चुका देता हूं”.
इस पर ना ना कहते हुए मानेकशॉ बोले,
“याह्या अच्छा आदमी और अच्छा फ़ौजी था. हम दोनों साथ में लड़े थे. मुझे नहीं लगता वो भ्रष्ट थे. लेकिन राजनेता दोनों तरफ़ एक जैसे होते हैं.”
कावसजी के अनुसार मानेकशॉ मानते थे याह्या के साथ अन्याय हुआ था. मानेकशॉ ने उनसे कहा,
"1971 से 1980 तक याह्या को नजर बंद रखा गया. जबकि वो चाहते थे कि उन पर खुले में मुक़दमा चले".
अब ऐसे ही एक दूसरे आर्टिकल पर नज़र डालिए. 2008 में लिखे गए इस आर्टिकल में पाकिस्तानी नेवी के रिटायर्ड कोमोडोर नजीब अंजुम लिखते हैं,
“भारत के फ़ील्ड मार्शल मानेकशॉ 36 साल से हीरोइज़्म के प्रतीक हैं”.
वे मानेकशॉ की इस बात पर प्रशंसा करते हैं कि उन्होंने पाकिस्तानी युद्ध बंदियों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया था. जिसके चलते उन्हें अपनी ही सरकार की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी. आगे बढ़ें तो पाकिस्तान तो दूसरे ऐसे कई आर्टिकल्स में मानेकशॉ के एक इंटरव्यू का ज़िक्र मिलता है, जो उन्होंने BBC को दिया था. 1971 युद्ध से जुड़े एक सवाल के जवाब में वो पाकिस्तानी फ़ौज की तारीफ़ करते हुए कहते हैं,
“वो बहादुरी से लड़े थे. पाक फ़ौज के लिए हालात मुफ़ीद नहीं थे. वो अपने मुख्य बेस से हज़ार किलोमीटर दूर थे. और हमारी फ़ौज उनसे संख्या में बड़ी थी”.
पाकिस्तान में मानेकशॉ के शब्दों का वजन क्या है, एक और वाक़ये से पता चलता है. 2022 में जब पाकिस्तान के आर्मी जनरल कमर जावेद बाजवा(Qamar Javed Bajwa) अपने पद से रिटायर हुए. जाते हुए उन्होंने 1971 की हार को याद करते हुए इसे एक राजनैतिक असफलता बताया और साथ ही मानेक शॉ के बयान का संदर्भ देते हुए कहा,
मानेकशॉ की गुगली और टिक्का खान फंस गए“पाकिस्तान के फ़ौजी, वीरता से लड़े थे, और इस बात की गवाही फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ ने भी दी थी.”
अब चलिए चलते हैं एक और क़िस्से की तरफ़. जो मानेकशॉ और एक पाकिस्तानी जनरल की मुलाक़ात से जुड़ा है. ये बात है 1971 युद्ध के बाद की. जुलाई 1972 में शिमला समझौता(Simla Agreement) हुआ. समझौते में ये बात भी लिखी थी कि दोनों देश एक दूसरे की क़ब्ज़ाई ज़मीन लौटा देंगे. बाक़ी जगहों पर तो मसला हल हो गया लेकिन अंत में बात एक छोटे से गांव पर आकर फ़ंस गई. थाको चक नाम का ये गांव, जम्मू में सीमा के पास था. और दोनों देश इस पर अपना दावा जता रहे थे. तय हुआ कि दोनों देशों के थल सेना अध्यक्ष, टिक्का खान(Tikka Khan) और सैम मानेकशॉ मिलकर इस मसले का निपटारा करेंगे.
भारत की तरफ़ से प्रस्ताव दिया गया कि मीटिंग रावलपिंडी में होगी. लेकिन टिक्का खान नहीं माने. उन्होंने मीटिंग लाहौर में रखवाई. नियत तारीख़ को मानेकशॉ पाकिस्तान के लिए रवाना हुए. टिक्का खान ने खुद एयरपोर्ट जाकर उनका स्वागत किया. शुरुआत तो बढ़िया हुई लेकिन जैसे ही मीटिंग शुरू हुई. दोनों अड़ गए. साढ़े तीन वर्ग किलोमीटर की इस ज़मीन को छोड़ने के लिए कोई भी तैयार नहीं था. मुद्दा सुलझा नहीं और मानेकशॉ भारत लौट गए.
आगे कुछ दिनों में राजनैतिक स्तर पर वार्ता की कोशिशें हुई लेकिन कोई हल ना निकला. अंत में PM इंदिरा गांधी(Indira Gandhi) ने मानेकशॉ से पाकिस्तान की एक और यात्रा करने को कहा. मानेकशॉ एक बार फिर लाहौर में थे. लेकिन इस बार हालात में पहले से कुछ अंतर आ चुका था. ये बात तय थी कि थाको चक का सामरिक रूप से कोई महत्व नहीं है. इसलिए मानेकशॉ और टिक्का खान, दोनों पर प्रेशर था कि इस बार मुद्दा ना सुलझा तो उनकी प्रेस्टीज पर असर पड़ेगा.
बहरहाल मीटिंग का पहला दौर चला और उसके बाद सब लोग लंच के लिए चले गए. खाने की मेज़ पर दो मिलिट्री जनरल आमने- सामने. बात करने को बहुत कुछ था. लेकिन बातचीत का टॉपिक बना, फ़ौज के लिए बनने वाले मिलिट्री क्वार्टर कैसे होने चाहिए? टिक्का बोले, विवाहित अधिकारियों के लिए अपना अलग बंगला बनना चाहिए. वहीं मानेकशॉ की राय थी, एक बहुमंज़िला इमारत बननी चाहिए, जिसमें अलग-अलग तल अधिकारियों को रहने के लिए दिया जाएगा. टिक्का खान अपनी बात पर अड़े रहे. मानेकशॉ ने कहा, ज़मीन कम है, बहुमंज़िला इमारत ही सही तरीक़ा है.
मानेकशॉ आगे बोले, पाक फ़ौज के पास ज़मीन की कमी नहीं है, इसलिए आप अलग बंगले की बात कह सकते हो. जबकि भारतीय आर्मी के पास पहले ही ज़मीन की कमी है. मानेकशॉ ऐसा क्यों कह रहे थे. ये समझने के लिए थोड़ा विषयांतर लेते हुए एक किस्सा बताते हैं. साल 2007 की बात है. जनरल परवेज़ मुशर्रफ तब राष्ट्रपति हुआ करते थे. हुआ यूं कि किसी कारण उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस को अपने पद को बर्खास्त कर दिया. पाकिस्तान के सारे वकील प्रदर्शन में खड़े हो गए. प्रदर्शन में नारा लगता था,
"ऐ वतन के सजीले जनरिलों, सारे रकबे तुम्हारे लिए हैं".
रकबे यानी ज़मीन का एरिया. बता दें कि पाकिस्तान में आर्मी का रियल स्टेट सेक्टर पर लगभग एकाधिकार है. और ये वहां एक बड़ा मुद्दा है. बहरहाल वापस क़िस्से पर लौटते हैं. टिक्का खान चुपचाप मानेकशॉ को सुन रहे थे. मानेकशॉ का टौंट सुनकर उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई. लेकिन तुरंत ग़ायब भी हो गई, जब मानेकशॉ ने अपना अगला वाक्य बोला मानेकशॉ बोले, अगर ये सच है कि आपके पास इतनी ज़मीन है कि आप अपने अफसरों के लिए अलग बंगला बना सकते हैं, तो आपको 'थाको चक' का वो छोटा सा ज़मीन का टुकड़ा क्यों चाहिए?
टिक्का ने जैसे ही ये सुना, एक सेकेंड को उन्हें यक़ीन ही ना हुआ कि मानेकशॉ बात को कहां से कहां ले आए हैं. बातों ही बातों में मानेकशॉ ने भारत के पक्ष में एक करारा तर्क दे डाला था. माहौल कुछ देर के लिए सीरियस हो गया. लेकिन फिर वहां मौजूद सभी लोग एकदम से हंस पड़े. मीटिंग सफल रही. टिक्का खान 'थाको चक' को भारत को लौटाने के लिए तैयार हो गए. बदले में भारत ने श्रीनगर में लिपा घाटी के पास एक छोटा सा इलाक़ा, जो तीन तरफ़ से पाकिस्तान से घिरा था, उन्हें सौंप दिया.
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