The Lallantop
Advertisement

कनाडा खालिस्तानियों का गढ़ कैसे बना?

Khalistan के नक्शे से पाकिस्तान वाला पंजाब क्यों गायब हुआ?

Advertisement
khalistan justin trudeau canada india
कनाडा में सिख सिर्फ़ जनसंख्या के 2% हैं, बावजूद इसके सिख वोट बैंक कनाडा में बड़ा असर रखता है (तस्वीर:AFP)
pic
कमल
21 सितंबर 2023 (Updated: 24 सितंबर 2023, 16:49 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

फ़र्ज़ कीजिए अमेरिका में एक चर्च की दीवार पर ओसामा बिन लादेन की तस्वीर लगी है. क्या ऐसी कल्पना भी कर सकते हैं हम? यकीनन नहीं. लेकिन एक देश है जहां गुरुद्वारे की दीवार पर देश के सबसे बड़े आतंकी की तस्वीर लगाई जाती है. देश- कनाडा. आतंकी - तलविंदर सिंह परमार. कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत में सरे नाम का शहर है. इस शहर में एक गुरुद्वारा है. दशमेश दरबार. साल 2021 में इस गुरुद्वारे की बाहरी दीवार पर परमार की एक बड़ी सी तस्वीर लगाई गई. 

कौन था तलविंदर सिंह परमार?

साल 1992. अक्टूबर का महीना. पंजाब के जालंधर जिले का कांग अरैयां गांव. गांव से बहने वाली एक नहर पर बने पुल से दो मारुति कार गुजर रही हैं. पौ फटे का वक्त. अचानक दोनों गाड़ियों पर कहीं से गोलियों की बौछार शुरू हो जाती है.कार पास के एक खेत की तरफ़ मुड़ती हैं. दरवाजा खुलता है. और वापसी फायरिंग होने लगती है. इस तरफ़ AK -47 थी तो दूसरी तरफ़ पंजाब पुलिस की स्टैंडर्ड इश्यू राइफल. जब तक गोलियों का शोर शांत हुआ, कार में बैठे 6 लोग ढेर हो चुके थे. इनमें से एक का नाम था इंतेखाब अहमद जिया. इंतेखाब पाकिस्तान का रहने वाला था. और खालिस्तान आंदोलन के लिए ISI का पॉइंट पर्सन हुआ करता था. इंतेखाब का एनकाउंटर पंजाब पुलिस के एक लिए एक बड़ी जीत थी. लेकिन उस रोज़ इंतेखाब की मौत उतनी बड़ी खबर नहीं थी, जितनी उस शख़्स की, जो उस रोज़ इंतेखाब के बगल में ढेर होकर गिरा हुआ था. इस शख्स का नाम था तलविंदर सिंह परमार. तलविंदर परमार कनाडा में खालिस्तान समर्थकों के बीच सबसे बड़ा नाम है. 2023 में भारत और कनाडा के बीच विवाद को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में समझना है तो इस एक आदमी की कहानी आपको ज़रूर जाननी चाहिए. (Khalistan Movement Canada)

परमार के बारे में एक लाइन में कहें तो खालिस्तानी अलगाववादियों का मसीहा और एक समय में उग्रवादी संगठन बब्बर खालसा का प्रमुख हुआ करता था. हालांकि एक कड़वा सच ये भी है कि अधिकतर कनाडा वासियों के लिए खालिस्तान मुद्दा नहीं है. ये भारत की प्रॉब्लम है. इसलिए कनाडा के ग़ैर सिख नागरिकों के लिए परमार की ये पहचान ख़ास मायने नहीं रखती. परमार को कनाडा में एक घटना के कारण जाना जाता है. कौन सी घटना? 

साल 1985. कनाडा के मांट्रियल एयरपोर्ट से एक फ्लाइट टेक ऑफ करती है. प्लेन का नाम एयर इंडिया कनिष्क. फ्लाइट का डेस्टिनेशन मुम्बई था. और बीच में लंदन रुकना था. हालांकि लंदन पहुंचने से पहले ही प्लेन में ब्लास्ट हो गया. 82 बच्चों सहित कुल 329 लोग मारे गए. जिनमें 270 से अधिक कनाडाई नागरिक थे. ये हमला ख़ालिस्तानी उग्रवादियों द्वारा किया गया था. और इस प्लान का मास्टरमाइंड था- तलविंदर सिंह परमार. 
1970 के दशक में तलविंदर सिंह भारत से कनाडा पहुंचा. और जल्द ही ख़ालिस्तानी आंदोलन का एक बड़ा चेहरा बन गया. 1978 में उसने बब्बर खालसा इंटरनेशनल नाम के एक संगठन की शुरुआत की. इस वक्त तक पंजाब में अलगाववाद की आग भड़कने लगी थी.परमार विदेशों से इस आंदोलन की फंडिंग किया करता था. 80 के दशक में पंजाब में हुई हत्याओं में भी उसका नाम आया. 

india canada
तलविंदर सिंह परमार बब्बर खालसा का प्रमुख और कनिष्क हमले का मास्टरमाइंड था (तस्वीर: digital archive ontario)

भारत ने उसे आतंकी घोषित किया. 1983 में तलविंदर ने जर्मनी में जेल में कुछ दिन बिताए. लेकिन एक साल बाद ही वो रिहा होकर कनाडा वापस आ गया. कनाडा में रहकर उसने कनिष्क प्लेन हमले को अंजाम दिया. पुलिस ने केस बनाया. लेकिन परमार रिहा हो गया. यहां से वो पाकिस्तान गया और 1992 में उसने भारत में दाखिल होने की कोशिश की. भारत में उसने पंजाब पुलिस के दो अफसरों की हत्या की थी. इसलिए लम्बे समय से वो पुलिस के रडार में था. अक्टूबर 1992 में पुलिस के साथ हुए एनकाउंटर में तलविंदर परमार मारा गया. भारत के लिए तलविंदर की कहानी हमेशा के लिए खत्म हो गई. हालांकि कनाडा में उसे मरने के बाद भी जिंदा रखा गया.

सिखों को वापस लौटा दिया 

तलविंदर की मौत के कुछ साल बाद और साल 2 हज़ार आते-आते पंजाब में अलगाववाद की पूरी तरह आग शांत हो गई थी. खालिस्तान आंदोलन ठंडा पड़ गया. लेकिन अलगाववादियों का एक धड़ा था जो भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की पहुंच से दूर था. इसलिए इस धड़े ने इस आग को सुलगाए रखा. इस धड़े में शामिल थे, वो लोग जो ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा में रहकर अलगाववाद का समर्थन कर कर रहे थे. आने वाले सालों में जब भी खालिस्तान मुद्दे को दोबारा जिंदा करने के प्रयास हुए. उनकी जड़ें इन तीन देशों में छुपी थी. लेकिन सबसे प्रमुख था कनाडा. कनाडा क्यों?

कनाडा और खालिस्तान आंदोलन के रिश्ते को समझने के लिए अपने को थोड़ा और पीछे चलना होगा. ये कहानी शुरू होती है. 1857 की क्रांति के बाद से. क्रांति के कुछ साल बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया. महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणा की. ब्रिटिश इंडिया के लोग कॉमनवेल्थ का हिस्सा होंगे. और उन सभी लोगों के बराबर होंगे जो कॉमनवेल्थ के अंदर हैं. इस निर्णय का एक फायदा हुआ कि भारत के लोग अब कॉमनवेल्थ देशों में जा सकते थे. और वहां की नागरिकता हासिल कर सकते थे. ब्रिटिश आर्मी से रिटायर हुए कई लोगों ने कॉमनवेल्थ देशों का रुख किया. इनमें कनाडा भी था. और कनाडा जाने वाले लोगों में बड़ी संख्या में पंजाब के सिख समुदाय के लोग थे. 1908 तक करीब 4000 भारतीय कनाडा में सेटल हो गए थे. लेकिन इन लोगों की बढ़ती संख्या से कनाडा परेशान होने लगा. अब देखिए समय के हिसाब से पॉलिटिक्स का चक्कर.

सालों से भारत की एक बड़ी परेशानी रही है, जिसका ज़िक्र विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपने एक बयान में भी किया था, -कनाडा के राजनेताओं का ख़ालिस्तानी आंदोलन को शह देना. साफ़ है कि ये वोट बैंक पॉलिटिक्स का नतीजा है. लेकिन इसी कनाडा में साल 1908 में एक कानून पास किया गया था. ‘कंटीन्यूअस पैसेज रेगुलेशन’. इस कानून के तहत कनाडा में प्रवेश करने वाले प्रवासियों के लिए कुछ शर्तें तय कर दी गई. मसलन, कनाडा आना है तो, आप जिस देश के नागरिक हैं, वहां से आपको एक सीधी यात्रा करके आना होगा. यानी कि कोई व्यक्ति अगर भारत से चाइना जाए और वहां से कनाडा आए तो ये गैर कानूनी होगा. और ऐसे व्यक्ति को कनाडा में प्रवेश की मंजूरी नहीं दी जाएगी. लमसम कहें तो भारतीयों के कनाडा आने पर तमाम पेंच लगा दिए गए. 

यहां पढ़ें- कनाडा पहुंचे 376 भारतीय क्यों दो महीनों तक भूखे-प्यासे रहे?

इस कानून के लागू होने के कुछ साल बाद कोमागाटा मारू नाम का एक जहाज कनाडा के तट पर पहुंचा. जहाज में 376 भारतीय सवार थे. जिनमें अधिकतर सिख थे. ये लोग दो महीने तक जहाज पर रुके रहे. लेकिन उन्हें उतरने नहीं दिया गया. यहां तक कि खाना पानी भी मुश्किल से उन लोगों तक पहुंचा. अंत में ये लोग वापिस लौटा दिए गए. कलकत्ता के तट पर जब ये जहाज़ पहुंचा, अंग्रेज सिपाहियों ने इन लोगों पर गोली चला दी. जिसमें 28 लोग मारे गए.

komgata maru
कोमागाटा मारू जहाज़ में दो महीने तक 376 लोगों को बिना खाना और पानी के जहाज़ पर रहना पड़ा. (तस्वीर: wikimedia commons)

कोमागाटा मारू कनाडा के नस्लभेदी इतिहास का एक काला अध्याय रहा है. हालांकि कनाडा को इस बात का क्रेडिट जाता है कि कनाडा के तमाम प्रधानमंत्री समय-समय पर कोमागाटा मारू की घटना के लिए माफी मांग चुके हैं. लेकिन एक सच ये भी है कि ये सब माफ़ी तब आई जब भारतीयों का एक अच्छा ख़ास वोट बैंक कनाडा में तैयार हो गया था. ये वोट बैंक है कितना? 

सिख वोट बैंक 

2023 की बात करें तो कनाडा में रहने वाले भारतीयों की संख्या लगभग 18 लाख के आसपास हैं. इनमें सबसे बड़ा ग्रुप है सिखों का जो 7 लाख, 80 हज़ार के आसपास हैं. सबसे ज्यादा सिख ओंटेरियो के ब्रैम्पटन शहर में रहते हैं. साल 2022 में सिख चरमपंथी संगठन सिख फ़ॉर जस्टिस ने इसी शहर में खालिस्तान रेफेरेंडम का आयोजन किया था. जिसमें दावा किया गया कि 1 लाख लोगों ने हिस्सा लिया. कनाडा की संसद में 338 सीट हैं. साल 2019 में हुए चुनाव में यहां 18 सिख सांसद चुने गए थे. एक समय था जब जस्टिन ट्रूडो सरकार की कैबिनेट में 4 सिख शामिल थे. सिख राजनीति का एक बड़ा पहलू गुरुद्वारे हैं. कनाडा में 200 के आसपास गुरुद्वारे हैं. जिनकी प्रबंधक कमेटी का चुनाव होता है. और जिनमें से क़ई पर ख़ालिस्तानी चरम पंथियों का दबदबा है. चूंकि सिख एक ब्लॉक के रूप में वोट कर सकते हैं. इसलिए गुरुद्वारों की पॉलिटिक्स का असर राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखाई देता है.

कैनेडियन पत्रकार टेरी मिलेव्सकी अपनी किताब Blood for Blood: Fifty Years of the Global Khalistan Project में लिखते हैं, 

कनाडा के सभी आम सिख लोग, चरमपंथी संगठनों से राब्ता नहीं रखते. लेकिन अलगाववादियों का राजनीतिक पार्टियों में रसूख़ है. क्योंकि वे सबसे मुखर हैं. 

किताब के अनुसार जब भी बात खालिस्तान समर्थक आतंकियों और चरमपंथियों की होती है, अलगाववादियों द्वारा इसे पूरे सिख समुदाय से जोड़ दिया जाता है. इसे नस्लभेद से जोड़ दिया जाता है. जिसके कारण कनाडा की दोनों राजनीतिक पार्टियां कुछ भी खुलकर कहने से कतराती हैं. 

मसलन साल 2018 का एक प्रकरण है. उस साल सरकार ने कनाडा पर आतंकी हमले के खतरे से जुड़ी अपनी सालाना रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट में पहली बार सिख चरमपंथियों और खालिस्तान आतंक का ज़िक्र किया गया था. जैसे ही रिपोर्ट का ज़िक्र शुरू हुआ, अलगाववादी संगठनों द्वारा इसका भरपूर विरोध शुरू हो गया. प्रधानमंत्री ट्रूडो और उनकी लिबरल पार्टी को धमकी मिली कि वो वैंकूवर में होने वाली सालाना वैशाखी रैली में शामिल नहीं हो पाएंगे. ट्रूडो रैली में शामिल हुए लेकिन इससे ठीक पहले रिपोर्ट में खालिस्तान का ज़िक्र हटाकर उसे नए सिरे से पेश कर दिया गया. ऐसे कई और भी प्रकरण हैं. और इन्हीं के चलते भारत सरकार और कनाडा के बीच कई बार तनाव के मौके भी पैदा हुए. खालिस्तान मुद्दे को लेकर तनाव की शुरुआत हालिया समय में नहीं हुई है. ये कहानी दरअसल काफी पहले शुरू हो गई थी.

khalistan attack
कनिष्क प्लेन हमले में ब्रिटेन और कनाडा के नागरिकों समेत कुल 329 लोगों की जान चली गई थी (तस्वीर: wikimedia commons)

साल 1982 की बात है. जस्टिन ट्रूडो के पिता पियरे ट्रूडो तब कनाडा के प्रधानमंत्री हुआ करते थे. भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तब पियरे के आगे मांग रखी थी कि वो तलविंदर सिंह परमार को भारत के हवाले कर दे. लेकिन पियरे ने इंकार कर दिया. ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद पंजाब में अलगाववाद की आग और भड़क उठी. इसके बाद इंदिरा की हत्या और दिल्ली में सिख हत्याकांड जैसी घटनाओं ने कनाडा में काफी असर डाला. टेरी मिलेव्सकी अपनी किताब में लिखते हैं,

ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद कनाडा में ख़ालिस्तानी काफी उग्र हो गए. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद खालिस्तान समर्थकों ने लड्डू बांटे. एक फरमान जारी हो गया था. जिसके अनुसार जो कोई ख़ालिस्तान या जरनैल सिंह भिंडरावाले के खिलाफ बोलेगा, बख्सा नहीं जाएगा. कनाडा में एक सिख नेता हुआ करते थे. उज्जल दोसांझ. जो आगे चलकर कनाडा के हेल्थ मिनिस्टर बने. उज्जवल ने खालिस्तान आंदोलन और भिंडरावाले का विरोध किया था. फरवरी 1985 की बात है. उज्जल अपने ऑफिस से निकल रहे थे. जब एक शख़्स ने उन पर लोहे की एक रॉड से वार किया. उज्जल की जान बच गई लेकिन उनका जबड़ा जोड़े रखने के लिए 84 टांके लगाने पड़े.

यहां पढ़ें- 20 वीं सदी का सबसे बड़ा आतंकी हमला?

1985 में ही एयर इंडिया के कनिष्क विमान को एक आतंकी हमले में उड़ा दिया गया. भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को पहले से ऐसे किसी हमले की आशंका थी. उन्होंने कैनेडियन अधिकारियों को कई बार चेताया. लेकिन फिर भी कनाडा की सरकार लापरवाह बनी रही. हालांकि तलविंदर सिंह जासूसी पहले से एजेंसियों के रडार पर था. उसकी जासूसी की जा रही थी. हमले से एक दिन पहले इंटेलिजेंस अधिकारियों ने उसे जंगल में एक एक्सप्लोजिव टेस्ट करते हुए भी देखा था. लेकिन फिर भी तलविंदर पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. तलविंदर भागकर पाकिस्तान चला गया.

कनिष्क हमले से मज़बूत हुए खालिस्तानी 

उधर भारत में 90 का दशक ख़त्म होते होते खालिस्तान आंदोलन ठंडा पड़ने लगा था. इस मामले में पंजाब पुलिस का बड़ा योगदान था. पंजाब में अलगाववाद को लगभग खत्म कर दिया गया. लेकिन कनाडा में ख़ालिस्तानी निरंकुश थे. उस दौर में सांझ सवेरा नाम की एक मैगजीन छपा करती थी. साल 2002 में इस मैगजीन के फ्रंट पेज पर एक तस्वीर छपी. जिसमें इंदिरा की हत्या होते दिखाया गया था. नीचे लिखा था, "पापियों की हत्या करने वाले शहीदों को नमन". एक मित्र राष्ट्र की प्रधानमंत्री की हत्या के महिमामंडन पर कनाडा की सरकार ने क्या प्रतिक्रिया दी?

आने वाले सालों में सांझ सवेरा को सरकारी विज्ञापन मिलने लगे. सांझ सवेरा का संबंध वर्ल्ड सिख ऑर्गनायज़ेशन नाम के एक संगठन से था. WSO खुद को सारी दुनिया के सिखों का रहनुमा मानता है. इसका हेड क्वार्टर कनाडा में है. और इस संगठन पर खालिस्तान अलगाववाद को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं. टेरी मिलेव्सकी की किताब के अनुसार, WSO 2007 तक अपनी वेबसाइट में लिखा करता था कि उसकी स्थापना अमेरिका के मेडिसन स्क्वायर गार्डन में हुई थी. जहां एक ख़ालिस्तानी नेता अजैब सिंह बागरी ने अपने भाषण में कहा था, 'हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक 50 हज़ार हिंदुओं को न मार दें'. बागरी कनिष्क बामिंग मामले में भी आरोपियों में से एक था. लेकिन उसे सजा नहीं हुई.

कनिष्क बॉमिंग मामले में भारी प्रेशर के बाद साल 2000 में पुलिस ने दो लोगों को अरेस्ट किया. केस के दौरान एक गवाह की हत्या कर दी गई जबकि एक को विटनेस प्रोटेक्शन में भेजना पड़ा. अंत में दोनों लोग रिहा कर दिए गए. सिर्फ़ एक शख़्स इंदरजीत सिंह रेयात को 5 साल की सजा हुई. 2011 में रेयात को अदालत में झूठ बोलने के मामले में 9 साल की सजा और सुनाई गई. लेकिन इस फैसले से कनाडा में खालिस्तान चरमपंथियों के हौंसले और बुलंद हुए. उन्हें लगने लगा कि अब कोई उन पर हाथ नहीं डाल सकता. ख़ालिस्तानी उग्रवादियों का जो महिमा मंडन अब तक सिर्फ़ पंजाबी में छपा करता था, वो फ़्रेंच और इंग्लिश पत्रिकाओं में छपने लगा.

कनिष्क मामले में लीपापोती का असर कुछ बाद ही ज़ाहिर हो गया. साल 2007. ब्रिटिश कोलम्बिया के सरे नामक शहर में दशमेश गुरुद्वारे से वैशाखी के रोज़ एक परेड निकाली गई. कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर के प्रतिनिधि और उनकी विपक्षी पार्टी के प्रतिनिधि भी इस रैली में शामिल हुए. यहां तक की ब्रिटिश कोलंबिया की सरकार के लीडर भी इस रैली में देखे गए . उस दिन कनाडा में वो नजारा दिखा, जो इससे पहले कभी नहीं देखा गया था. 329 लोगों की हत्या के ज़िम्मेदार तलविंदर सिंह परमार की मालाओं से लदी तस्वीरें लहराई जा रही थी. बाक़ायदा भाषण हुआ. परमार का बेटा और दो प्रमुख ख़ालिस्तानी नेता, स्टेज पर कनाडा के नेताओं के साथ खड़े दिखाई दिए. रैली के बाद जब इस बाबत उनसे सवाल पूछा गया, किसी ने भी ख़ालिस्तान या कनिष्क हमले पर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया.

khalistan history canada
कनिष्क हमले में सिर्फ़ एक शख़्स को सजा हुई, इंदरजीत सिंह रेयात (तस्वीर: AFP) 

टेरी मिलेव्सकी लिखते हैं, 

“कनाडा की राजनैतिक पार्टियों पर ख़ालिस्तानी संगठनों का प्रभाव उस रोज़ से साफ़ दिखाई देने लगा था. जो आगे जाकर और भी बढ़ता गया”.

कनाडा की दोनों मुख्य पार्टियां इस असर से अछूती नहीं हैं. लिबरल पार्टी हो या कंज़रवेटिव पार्टी. किसी ने भी ख़ालिस्तानी संगठनों से परहेज़ नहीं किया है. कारण वही है. वोट बैंक पॉलिटिक्स. सिख कनाडा के सबसे तेजी से उभरते समुदाय हैं. चरमपंथी इन वोटों के अपनी मुट्ठी में होने का दावा करते हैं. इसलिए साल 2010 के बाद अलगाववादियों की ताकत बढ़ती गई है. ये भारत के लिए चिंता का विषय है. समय-समय पर अलग-अलग भारतीय प्रधानमंत्रियों ने इस विषय को कनाडा की सरकार के आगे उठाया. साल 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह वैंकूवर में बोलकर आए थे,

"पंजाब में खालिस्तान आंदोलन मर चुका है. लेकिन भारत से बाहर ख़ासकर कनाडा में ऐसे तत्व हैं तो अपने फायदे के लिए इस आग को ज़िंदा रखना चाहते हैं. कई मामलों में इन लोगों का आतंकियों से गठजोड़ है"

मिलेव्सकी अपनी किताब में लिखते हैं. “दुनिया का सबसे बड़ा सिख नेता, कनाडा की सरकार को चेताकर गया. लेकिन कोई असर नहीं हुआ."

खालिस्तान के नक़्शे में पाकिस्तान वाला पंजाब क्यों नहीं?  

कनाडा की राजनीतिक पार्टियों को वोट का डर सता रहा था. ये वही डर है जो जस्टिन ट्रूडो को सालों से सता रहा है. इसलिए कभी वो भारत आकर एक घोषित ख़ालिस्तानी आतंकी को डिनर पर न्यौता देते हैं. तो कभी ख़ालिस्तानी पार्टियों से गठबंधन करते हैं. ट्रूडो की हालिया परेशानी क्या है. उस पर बात करने से पहले आपको कनाडा के खालिस्तान आंदोलन की एक दिलचस्प बात बताते हैं. जिससे इनकी सारी पोल पट्टी खुल जाएगी.

फरवरी 2019. टोरंटो में वर्ल्ड सिख ऑर्गनायज़ेशन के सम्मेलन में Sikhs for Justice नाम के संगठन ने खालिस्तान का नक्शा जारी किया. इस नक्शे में पंजाब तो था ही, साथ ही हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, और दिल्ली तक शामिल थे. लेकिन कमाल की बात ये थी कि इसमें पंजाब का वो हिस्सा शामिल नहीं था जो बंटवारे में पाकिस्तान चला गया था. मने खालिस्तानियों के नक्शे में सिख साम्राज्य के सबसे बड़े राजा,रणजीत सिंह की राजधानी लाहौर शामिल नहीं थी. वो छोड़िए इस नक्शे में ननकाना साहिब भी शामिल नहीं था. जो सिखों के पहले गुरु गुरु नानक देव की जन्मभूमि है. जबकि ये जगह भारत पाकिस्तान बॉर्डर से महज 5 किलोमीटर दूर है. ये सब क्यों शामिल नहीं थे?

ये आप खुद ही गेस कर सकते हैं. कनाडा हो या भारत,सालों से खालिस्तान आंदोलन को पाकिस्तान का सीधा सपोर्ट हासिल रहा है. बल्कि कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका में पाकिस्तान के लिए खालिस्तान आंदोलन को सपोर्ट देना और भी आसान है. इनमें कनाडा में रह रहे खालिस्तान समर्थक सबसे अच्छी स्थिति में हैं. कारण? मार्च 2022 के बाद जस्टिन ट्रूडो की सरकार, New Democratic Party (NDP) नाम की एक पार्टी के समर्थन से चल रही है. जिसके लीडर हैं. जगमीत सिंह. जगमीत की पार्टी खालिस्तान अलगाववाद को खुला समर्थन देती है. और 2022 में कनाडा में हुए रेफेरेंडम को भी NDP ने समर्थन दिया था. ट्रूडो के सरकार में बने रहने के लिए उन्हें जगमीत सिंह की पार्टी के ज़रूरत है. और बाक़ी 2 और 2 चार कर आप खुद ही समझ सकते हैं कि 2023 में चल रहा घटनाक्रम किसका नतीजा है. 

वीडियो: तारीख: कैसे बनी दिल्ली में पुरानी संसद की इमारत?

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement