कैसे पता चलती है फिल्मों की कमाई, आंकड़ों में कोई घपला तो नहीं होता?
'बायकॉट कल्चर' के बीच फिल्मों की कमाई पर फोकस पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा बढ़ गया है.
“अरे बस इत्ता ही पैसा कमाया? तो हिट कैसे हुई भाई – फ्लॉप है फ्लॉप!” किसी भी फिल्म की सक्सेस या फेलियर उसकी बॉक्स ऑफिस की कमाई से नापी जाती है. उदाहरण के तौर पर, ब्रह्मास्त्र को ले लीजिए, जिसे लेकर मिले जुले रिएक्शंस तो आ रहे हैं. फिर भी बिजनेस के आधार पर बह्मास्त्र को सफल माना जा रहा है.
ट्रेंड ही ऐसा बन गया है. भले ही फिल्म ‘उम्दा’ हो, लेकिन अगर आंकड़ें उसके पक्ष में नहीं, तो कोई फायदा नहीं. ख़ासकर आज कल... क्यों? टू वर्ड्स फॉर यू – बायकॉट कल्चर! अब जब यही कल्चर अपने चरम पर है, तो फिल्म की कमाई और रिलेटेड आंकड़ों पर लोगों की पैनी नज़र बनी रहती है.
लेकिन ये ‘नंबर्स’, जिन्हें लेकर नॉन स्टॉप बहसें भी शुरू हो जाती हैं, इन्हें रिलीज़ कौन करता है? और रिलीज़ किया तो किया, इनकी ऑथेंटिसिटी का क्या? माने ये कि इनकी विश्वसनियता है भी या नहीं? इनपर भरोसा किया जा सकता है या नहीं? इस आर्टिकल में इन्हीं सब सवालों के जवाब जानेंगे.
नंबर गेम में कौन-कौन है शामिल?नंबर्स वाला खेल समझने से पहले इस मामले से जुड़े प्लेयर्स के बारे में सही से जानना बेहद जरूरी है. आंकड़ों के मामले में होते हैं ये मेन प्लेयर्स – प्रोड्यूसर, डिस्ट्रीब्यूटर और एग्जिबिटर (थिएटर). ये कौन और क्या होते हैं और इनका क्या रोल है, आइए समझते हैं.
#प्रोड्यूसर
हम अक्सर सुनते हैं, फलां फिल्म बनाते कैसे, प्रोड्यूसर ही नहीं मिले. प्रोड्यूसर माने निर्माता. बेसिकली ये वो इन्सान या ग्रुप होता है, जो फिल्म बनाने की प्रोसेस का सारा खर्चा उठाता है. जो पैसा वो किसी फिल्म में इन्वेस्ट करता है, उसे फिल्म का बजट कहते हैं. इसमें ये सबकुछ आता है-
- एक्टर्स की फीस
- क्रू मेम्बर्स की फीस
- फिल्म में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक आदि का खर्चा
- ट्रांसपोर्टेशन और ट्रेवल कॉस्ट, वगैरह.
केवल यही नहीं. फिल्म जब बनकर पूरी हो जाती है, तो मसला होता है– उसका प्रमोशन, मार्केटिंग आदि. जिससे वो, ‘टॉक ऑफ़ द टाउन’ बने! इसे इंडस्ट्री की भाषा में PA माने ‘प्रमोशन एंड एडवरटाइजिंग’ कहते हैं. इसका खर्च भी फिल्म का प्रोड्यूसर ही उठाता है.
क्योंकि एक मूवी बनाने के लिए आर्थिक तौर पर एक प्रोड्यूसर मदद करता है, इसीलिए फिल्म के प्रॉफिट्स का मैक्सिमम हिस्सा भी उसी के पास जाता है. आसान भाषा में कहें तो जो जितना रिस्क लेता है, उसको उतना ही फायदा होता है.
#डिस्ट्रीब्यूटर
डिस्ट्रीब्यूटर बना है ‘डिस्ट्रीब्यूट’ शब्द से – माने बांटना. आसान तरीके से समझें, तो फिल्मों के बनने पर उन्हें थिएटर्स में जो बांटते या डिस्ट्रीब्यूट करते हैं, उन्हें डिस्ट्रीब्यूटर (एक से ज्यादा हों तो डिस्ट्रीब्यूटर्स) कहते हैं.
ये वो अहम लिंक हैं, जो प्रोड्यूसर्स और थिएटर्स को एक दूसरे से जोड़ते हैं. निर्माताओं को अपनी फिल्म आल इंडिया डिस्ट्रीब्यूटर्स को देनी होती है.
जिस कीमत पर निर्माता अपनी फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स को बेचता है, उसे कहते हैं "थिएट्रिकल राइट्स.” ये राइट्स, निर्माता या तो सीधे डिस्ट्रीब्यूटर्स को बेच सकता है या किसी थर्ड पार्टी के साथ कॉन्ट्रैक्ट के जरिए, जिसके पास डिस्ट्रीब्यूटर्स से निपटने की जिम्मेदारी होती है.
थर्ड पार्टी को बीच में लाने का फायदा क्या है? ये भी बताते हैं. ऐसे केस में प्रोड्यूसर को उसकी फिल्म रिलीज होने से पहले ही तीसरे पार्टी से उसका हिस्सा मिल जाता है. प्रॉफिट कमाने या लॉस उठाने की जिम्मेदारी रहती है थर्ड पार्टी की.
भारतीय फिल्म इंडस्ट्री मुख्य रूप से 14 सर्किटों में बंटी है और हर एक के पास उनका अपना डिस्ट्रीब्यूटर है. मुंबई, दिल्ली/यूपी, पूर्वी पंजाब, सीआई (मध्य भारत), सीपी बरार (मध्य प्रांत), राजस्थान, बिहार, पश्चिम बंगाल, निज़ाम, मैसूर, तमिलनाडु, असम, उड़ीसा और केरल.
#एग्जिबिटर
आसान भाषा में, एग्जिबिटर बेसिकली थिएटर का मालिक होता है. बॉक्स ऑफिस मॉडल की चेन की आखिरी कड़ी होते हैं – थिएटर्स. थिएटर ओनर्स के डिस्ट्रीब्यूटर्स साथ पहले से तय किए गए कॉन्ट्रैक्ट्स होते हैं. इनके आधार पर ही एग्जिबिटर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स को एक तरह से अपने स्क्रीन्स या थिएटर्स ‘किराए’ पर देते हैं.
अपने यहां थिएटर्स दो तरह के होते हैं– सिंगल स्क्रीन और मल्टीप्लेक्स चेन्स, जहां मल्टीपल स्क्रीन्स होती हैं. इन दोनों केटेगरीज के साथ कॉन्ट्रैक्ट्स भी अलग अलग होते हैं. ये एग्रीमेंट मुख्य रूप से "स्क्रीन की संख्या" और "मॉनेटरी रिटर्न" पर केंद्रित होता है.
साथ ही, मनोरंजन कर मतलब एंटरटेनमेंट टैक्स (लगभग 30%) टिकट्स पर होने वाले टोटल कलेक्शन से काटा जाता है. टैक्सेज के बाद, टोटल नेट ग्रॉस का एक हिस्सा भी डिस्ट्रीब्यूटर्स को दिया जाता है. इसको कहते हैं– डिस्ट्रीब्यूटर शेयर.
आंकड़ें कौन जारी करता है?फिल्मों ने कितनी कमाई की, इससे जुड़े आंकड़ें कोई एक एजेंसी पेश नहीं करती. और ना ही किसी एजेंसी के पास ऐसा डेटा इकट्ठा करने की जिम्मेदारी है. अलग अलग मल्टीप्लेक्स चेन्स, सिंगल स्क्रीन थिएटर्स, फिल्म की टिकट खिड़की पर परफॉरमेंस से जुड़े आंकड़ें डिस्ट्रीब्यूटर्स को भेजे जाते हैं. जो आगे इन्हें निर्माताओं और बाकी चैनल्स, क्रिटिक्स आदि के साथ शेयर करते हैं.
डेली कलेक्शन रिपोर्ट, या DCR नाम की एक चीज होती है, जिस पर इंडस्ट्री में इनफार्मेशन देने के लिए भरोसा किया जाता है. ज्यादातर मामलों में, DCR में हर क्षेत्र से कलेक्शन के आंकड़े शामिल होते हैं, भले ही हर थिएटर के ना हों. डिस्ट्रीब्यूटर ये जानकारी देते हैं, और इसे विश्वसनीय जानकारी माना जाता है.
ऑनलाइन टिकट बिक्री सहित काउंटर पर बिकने वाली टिकट्स के साथ मल्टीप्लेक्स और थिएटर चेन आदि का डेटा तैयार किया जाता है. इसी डेटा के आधार पर रियल टाइम में ये जानकारी डिस्ट्रीब्यूटर्स को दी जाती है. ये सब ऑन रिकॉर्ड होता है, तो इसमें धांधलेबाजी की गुंजाइश नहीं होती.
इस जानकारी को आमतौर पर ट्रेडों द्वारा इकट्ठा किया जाता है, और फिर प्रेस को दिया जाता है. यही आंकड़ें, कुछ क्रेडिबल वेबसाइट्स और क्रिटिक्स आप तक पहुंचाते हैं. जैसे बॉलीवुड हंगामा, पिंकविला, बॉक्स ऑफिसइंडिया, तरण आदर्श, आदि.
'नेशनल सिनेमा डे' के मौके पर देशभर के किसी भी थिएटर में, कोई भी फिल्म, कोई भी शो, देखें 75 रुपए में