ASI इन तरीकों से बताता है कि जमीन के नीचे मंदिर था या मस्जिद, सड़क है या पूरा शहर
कैसे तय होता है कि कोई ढांचा मंदिर था या मस्जिद? कैसे कुछ पदार्थ और ब्रश काफी होते है सदियों पुरानी कहानी उजागर करने के लिए? बिना खोदे Archeological Survey Of India (ASI) कैसे पता लगाता है ज़मीन के नीचे छिपे राज़?
उपनिषदों में लिखा है, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’. लेकिन थोड़ी भाषाई लिबर्टी लेकर कहें तो हर सर्वे सबको खुश करे, ये जरूरी तो नहीं. कुछ सर्वे ऐसे होते हैं, जो अलग-अलग पक्षों के लिए खुशी, सवाल या बवाल का कारण भी बन जाते हैं. जैसे कि ऐतिहासिक स्ट्रक्चर्स के सर्वे. वो सर्वे, जिनका ज़िक्र आपने कुछ मंदिर-मस्जिद विवादों में सुना होगा. जिनके आधार पर ये पता करने की कोशिश की जाती है कि किसी जगह पर पहले, बहुत पहले कौन सा स्ट्रक्चर बना था. और जो भी स्ट्रक्चर था, वो दिखता कैसा था? सर्वे करने वाले विशेषज्ञ इसके आगे की खबर भी खोज निकालने में सक्षम होते हैं. माने उस जगह पर कितनी सदियों पहले से होमो सेपियंस रहते थे, क्या खाते थे, कहां नहाते थे, आदि-इत्यादि.
हमारे यहां ये काम ASI नाम की संस्था करती है. ASI यानी Archeological Survey Of India. भारत सरकार की संस्था है. इसका काम है ज़मीन में गड़े इतिहास की खोजबीन करना, और मौजूदा ऐतिहासिक इमारतों की देखभाल करना. 140 साल तक ASI ने खूब सर्वे किए. 5000 साल पुरानी हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यता को भी खोज निकाला.
ASI का नाम अख़बार के अंदर के पन्नों से निकलकर पेज-1 पर तब आया, जब राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद में इसकी एंट्री हुई. 2003 में एक ऐसा सर्वे हुआ जिसमें बताया गया कि विवादित स्थान पर मस्जिद से पहले मंदिर जैसी संरचना थी. इसके साथ ही ASI ने उस स्थान पर पिछले 3000 सालों का इतिहास भी निकाल डाला, जिसमें मौर्य और गुप्त काल के अवशेष भी शामिल थे. सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्म भूमि के केस में ASI की रिपोर्ट का हवाला दिया था. बाद में ASI के सर्वे की गाड़ी ज्ञानवापी पहुंची और अब संभल भी आ चुकी है.
इस रिपोर्ट समझेंगे कि,
- ASI के सर्वे में ऐसा होता क्या है, जिससे इतिहास सामने आ जाता है?
- कैसे कुछ पदार्थ और ब्रश की मदद से सदियों पुरानी कहानी उजागर हो जाती है?
- ASI किन साइंटिफिक तरीकों का इस्तेमाल करता है, जिससे इत्ती पुरानी-पुरानी बातें पता चल जाती हैं?
Archaeology यानी ज़मीन के भीतर पाई गई प्राचीन वस्तुओं या उनके अवशेषों के आधार पर इतिहास का अध्ययन. इसकी पढ़ाई करने वालों को कहते हैं Archaeologists. ASI यानी पुरातत्व विभाग इन प्राचीन वस्तुओं और इतिहास को स्टडी करने के लिए कई साइंटिफिक तरीकों का इस्तेमाल करता है.
साइंटिफिक तरीकेASI ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल करता है जिससे जमीन के अंदर बिना खुदाई किए समझा जा सके कि उसके नीचे कुछ खुदाई लायक है भी या नहीं. खुदाई करेंगे तो नीचे कुछ मिल सकता है या नहीं. बिना खुदाई के ज़मीन के अंदर बचे अवशेषों की डेंसिटी, उसके आकार और वो किस मटेरियल का बना है, उसका भी पता लगाया जाता है. इसके कई तरीके हैं-
- साइज़्मिक मेथड
- इलेक्ट्रोमैग्नेटिक मेथड
- ग्राउंड पेनिट्रेटिंग रेडार
इसमें साइज़्मिक वेव का इस्तेमाल किया जाता है. एक तरह की तरंग है जो भूकंप के समय निकलती है. भूकंप से होने वाली तबाही की वजह ये तरंग ही होती है. वैज्ञानिकों ने इसे मशीनों के जरिये बहुत थोड़ी मात्रा में आर्टिफिशियली क्रिएट कर इस्तेमाल किया. क्यों? क्योंकि इस तरंग की एक खासियत है. ये किसी भी तरह के पदार्थ से गुजर सकती है. चाहे सॉलिड हो लिक्विड हो या गैस, साइज़्मिक वेव तीनों से गुजर सकती है और पदार्थ की डेंसिटी यानी घनत्व के हिसाब से अपना रास्ता भी बदल सकती है.
इसको एक उदाहरण से समझते हैं. मान लीजिए किसी जगह आर्कियोलॉजिस्ट ने मशीन लगाकर साइज़्मिक तरंगे रिलीज़ कर दीं. मिट्टी से गुजरते हुए अगर ये तंरगें किसी दीवार के अवशेषों से टकराएंगी तो कुछ तरंगें वापस धरती की ओर रिफ्लेक्ट होंगी और कुछ तरंगें डिफ्लेक्ट हो जाएंगी. जितनी मात्रा में तरंगे डिफ्लेक्ट होंगी, उस हिसाब से अंदाज़ा लगाया जाएगा कि दीवार ईंट की बनी थी या पत्थर की. और सतह की तरफ रिफ्लेक्ट हुई तरंगों से पता चलेगा कि दीवार के अवशेष ज़मीन से कितने नीचे हैं. इसी तकनीक का इस्तेमाल ज्ञानवापी परिसर के सर्वे में भी हुआ था.
इलेक्ट्रोमैग्नेटिक मेथडआपने सुना होगा कि धरती से मैग्नेटिक तरंगें निकलती हैं. जिन्हें मैग्नेटोमीटर के जरिए डिटेक्ट किया जाता है. धरती की हर लोकेशन पर मैग्नेटिक तरंगों को मैग्नेटोमीटर के जरिए डिटेक्ट किया जा सकता है. अब अगर जमीन के नीचे सड़क या दीवार के अवशेष हैं. तो पत्थरों और ईंटों की वजह से उस जगह की मैग्नेटिक फील्ड में बदलाव आ जाता है. जिसे मैग्नेटोमीटर के जरिए डिटेक्ट किया जा सकता है. आर्कियोलॉजिस्ट इसका इस्तेमाल करके एक बड़े मैदान में वो लोकेशंस ढूंढ पाते हैं जहां जमीन के नीचे कुछ दबा हुआ है. जैसे, उदाहरण के तौर पर शिशुपालगढ़ की खोज. भुवनेश्वर के पास 13 एकड़ के मैदान में आर्कियोलॉजिस्ट ने इस तकनीक का इस्तेमाल करके हज़ारों साल पुरानी 300 मीटर लंबी सड़क खोज निकाली थी, जिसका ताल्लुक़ शिशुपालगढ़ नाम के पुराने शहर से था.
आपने कलिंग का नाम सुना होगा. वही जिसे इतिहास के मुताबिक, अशोक ने युद्ध में जीता था और बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया था. शिशुपालगढ़ उसी कलिंग की राजधानी थी. इसकी खोज में भी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक मैथड का इस्तेमाल किया गया था. ज्ञानवापी के सर्वे में साइज्मिक मैथड के साथ-साथ इलेक्ट्रोमैग्नेटिक मैथड का भी इस्तेमाल किया गया था.
ग्राउंड पेनिट्रेटिंग रेडारआसान भाषा में कहें तो एक मशीन से इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगें निकलती हैं. ज़मीन के अंदर जाती हैं. अंदर जाकर तरंगें जिस हिसाब से रिफ्लेक्ट होती हैं, उस हिसाब से कंप्यूटर पर ज़मीन के अंदर दबे ढांचे की तस्वीर बन जाती है. मतलब एक्स-रे टाइप खिंच जाता है. ग्राउंड पेनिट्रेशन रेडार को सबसे सटीक टेक्नोलॉजी माना जाता है. इसका सबसे बेहतरीन इस्तेमाल सूखी रेत वाली मिट्टी के नीचे दबे ढांचों को समझने में होता है. इसका इस्तेमाल अयोध्या में भी हुआ था. हालांकि ये तकनीक समुद्री तटों पर उतनी उपयोगी नहीं है. क्योंकि घनी चिकनी मिट्टी में रेडार की तरंगों का पेनिट्रेशन मुश्किल होता है.
ये सभी नॉन डिस्ट्रक्टिव तकनीकें हैं. माने इनके इस्तेमाल के समय न तो ज़मीन के ऊपर बने ढांचे, न ही नीचे दबे ढांचे को किसी तरह का नुकसान पहुंचता है. जब ऐसी तकनीकों से ज़मीन के नीचे बने ढांचों के बारे में कन्फर्मेशन मिल जाता है, तब होती है खुदाई. चिह्नित ज़मीन को छोटी-छोटी वर्गाकार में बांटा जाता है. फिर छोटे-छोटे औजारों से आहिस्ते-आहिस्ते खुदाई शुरू की जाती है. तब जाकर मिलते हैं अवशेष, जैसे दीवारें, सड़क, या पूरा का पूरा शहर. कई खुदाइयों में कुछ छोटे-छोटे आर्टिफैक्ट्स भी मिले हैं, जैसे मटके, पुराने समय की क्रॉकरी आदि.
अब बारी आती है, जो चीजें खुदाई में निकली हैं, उनकी उम्र पता करने की. उसके लिए फिर साइंस का सहारा लिया जाता है. इस तकनीक को कहते हैं- कार्बन डेटिंग. नाम तो सुना ही होगा!
कार्बन डेटिंगपेड़, पौधे, इंसान, जानवर, जिसमें भी जीवन है उनके शरीर में कार्बन होता है. कहां से आता है ये कार्बन? असल में पेड़-पौधे फोटोसिंथेसिस की मदद से अपना खाना बनाते हैं. इंसान और जानवर उसे खाते हैं. इस तरह पूरी फूड चेन में कार्बन पहुंच जाता है. लेकिन यहां एक पेच है. सभी जीवों में दो तरीके के कार्बन होते हैं. एक है C-12, जो सबसे कॉमन होता है. कार्बन डाईऑक्साइड इसी कार्बन से बनती है.
लेकिन कार्बन का एक रेडियोआइसोटोप भी है जिसे C- 14 कहते हैं. ये भी सभी जीवों में पाया जाता है. रेडियोआइसोटोप का आसान मतलब है किसी एलिमेंट का जुड़वा भाई. ये जुड़वा भाई दिखने में तो हमशक्ल हैं बस कुछ हरकतों का फर्क है.
कैसे? दुनिया में हर चीज एटम से बनती है. एटम माने सबसे छोटा पार्टिकल. जैसे एक-एक ईंट जोड़ कर इमारत बनती है वैसे ही एटम्स जुड़ कर एक तत्व बनाते हैं. हर एटम के अंदर तीन छोटे छोटे पार्टिकल्स होते हैं.
- प्रोटॉन
- न्यूट्रॉन
- इलेक्ट्रॉन
एटम दिखता कैसा है?
सौर मंडल जैसा. माने, जैसे सूरज, सौर मंडल के बीच में होता है और गृह उसके चक्कर लगाते हैं. वैसे ही ये प्रोटॉन और न्यूट्रॉन गेंदों के ढेर की तरह बीच में होते हैं और इलेक्ट्रॉन इस ढेर के चक्कर लगाते हैं. इस प्रोटॉन और न्यूट्रॉन के ढेर को हम न्यूक्लियस कहते हैं. प्रोटॉन के नंबर से ही एलिमेंट यानी तत्त्व की पहचान होती है. अगर आप कार्बन का एक एटम अमेरिका से लें और दूसरा भारत से, तो भी प्रोटॉन की संख्या फिक्स्ड होगी. लेकिन न्यूक्लियस में न्यूट्रॉन भी होता है. न्यूट्रॉन की संख्या बढ़ने से तत्त्व नहीं बदलता, बस कुछ विशिष्ट लक्षण बदल जाते हैं. और जब किसी एलिमेंट में न्यूट्रॉन की संख्या बदलती है तो वो आइसोटोप कहलाता है. C-14 कार्बन का आइसोटोप है. लेकिन इसमें न्यूट्रॉन की संख्या ज्यादा होने की वजह से ये अनस्टेबल होता है. और बहुत जल्दी टूटने लगता है.
जब कोई जीव मरता है तो कार्बन-12 तो सलामत रहता है लेकिन कार्बन-14 की संख्या कम होने लगती है. ठीक उसी तरह जैसे कोल्ड्रिंक की बोतल खोलने के बाद उसके अंदर के बुलबुले धीरे-धीरे कम होने लगते हैं. करीब हर 5700 साल में ये संख्या आधी हो जाती है. तो आर्कियोलॉजिस्ट को अगर किसी अवशेष में कुछ ऐसा मिलता है, जैसे किसी जानवर या इंसान की हड्डियां आदि, तो वो इसकी उम्र का अंदाज़ा लगा सकते हैं. पर ध्यान रखिए, C-14 क़रीब 5700 साल में आधा हो जाता है. कैलकुलेट करेंगे तो पाएंगे कि 64 हज़ार साल से ज़्यादा पुरानी चीज़ों की कार्बन डेटिंग नहीं हो पाती.
इस तकनीक का इस्तेमाल कुछ हद तक आर्टिफैक्ट्स (मटका वगैरा) की उम्र पता लगाने के लिए भी किया जाता है. लेकिन पत्थरों या किसी दीवार की उम्र पता लगाना पाना न के बराबर है. इसके लिए आर्कियोलॉजिस्ट आर्किटेक्चरल हिस्ट्री का सहारा लेते हैं. जैसे किस तरीके का आर्किटेक्चर किस दौर में इस्तेमाल किया जाता था.
वीडियो: Ayodhya, Gyanwapi का सर्वे करने वाली ASI कैसे पता लगाती है कि जमीन के नीचे क्या है?