The Lallantop
X
Advertisement

लंदन में मिली खोपड़ी से खुला 1857 का राज़!

लंदन के पब में सालों तक रखी रही एक खोपड़ी में छुपी हुई थी एक भारतीय की कहानी!

Advertisement
Skull of Alum bheg
32 साल के आलम बेग ने 1857 की क्रांति में हिस्सा लिया था. डेढ़ सदी बाद उनकी खोपड़ी लन्दन के एक पब में मिली (तस्वीर: Wikimedia Commons)
pic
कमल
8 जून 2023 (Updated: 7 जून 2023, 21:43 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

ये कहानी है एक कपाल की. एक इंसानी खोपड़ी जिसने एक सदी के अंतराल में महासागरों का सफ़र पूरा किया. और पहुंची उस देश में जिसके ख़िलाफ़ ये खोपड़ी कभी विद्रोह में उठी थी. ये कहानी है उन विद्रोहियों की जो अपने शासकों को हज़ार रुपए महीना की तनख़्वाह ऑफ़र कर रहे थे. यदि वो अपनी नौकरी छोड़ कर वो उनके साथ जुड़ जाएं. ये कहानी है 1857 के विद्रोह(Revolt of 1857) की और इस विद्रोह में बाग़ियों की ओर से लड़ने वाले एक सिपाही की. (The Skull of Alum Bheg)

यहां पढ़ें- पारसी लोग कैसे आए भारत!

कैसे 1857 के संग्राम में लड़ने वाले एक सिपाही की खोपड़ी लंदन के एक पब तक जा पहुंची? और उस खोपड़ी की आंख में छुपाकर डाले गए एक सदी पुराने काग़ज़ से कौन सा राज खुला?आज आपको सुनाएंगे कहानी आलम बेग की. कौन थे ये? (Freedom fighter Alum Bheg)

हां पढ़ें- चंगेज खान की कब्र तक जो पहुंचा, मारा क्यों गया?

The skull of Alum Bheg book
किम ए वैगनर अपनी क‍िताब 'द स्‍कल ऑफ आलम बेग' के साथ (तस्वीर- wikimedia commons/qmul.ac.uk)

साल 1963. लंदन के एक पब का मालिक स्टोर में कुछ समान ढूंढ रहा था. तभी उसके हाथ एक अजीब सी चीज़ लगी. ये एक कपाल था. एक इंसानी खोपड़ी. बिना ज़्यादा सोचे मालिक ने इसे बार के काउंटर पर रख दिया. और देखते-देखते लोग उसे ऐश ट्रे की माफ़िक़ इस्तेमाल करने लगे. लगभग आधी सदी बाद ये पब एक नए मालिक ने ख़रीदा. नए मालिक को खोपड़ी से परहेज़ था. लिहाज़ा उसने एक इतिहासकार को ये खोपड़ी सौंप दी. इस तरह ये खोपड़ी पहुंची प्रोफ़ेसर किम वैग्नर(Kim A. Wagner) के पास. वैग्नर लंदन की एक यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर थे. और उनके शोध का क्षेत्र था - कोलोनियल इंडिया.

150 साल पुरानी खोपड़ी

यहां से ये कहानी एक नया मोड़ लेती है. वैग्नर को खोपड़ी की आंख में दिलचस्प चीज़ मिली. एक 100 पुराना काग़ज़ मिला. जिसमें कुछ बातें लिखी हुई थी. इसमें लिखा था,

"ये खोपड़ी 46th बंगाल नेटिव इंफेंट्री के हवलदार आलम बेग की है. जिसकी उम्र 32 साल थी और जिसे तोप से लगाकर उड़ा दिया गया था. इसका जुर्म ये था कि इसने 1857 की म्यूटिनी में भाग लिया था".

आगे लिखा था,

“आलम बेग ने ब्रिटिश अफ़सर डॉक्टर ग्राहम और उनकी बेटी की हत्या की थी. साथ ही उसने एक ईसाई मिशनरी रेवरेंड हंटर की हत्या की थी. और उनकी पत्नी और बेटी का रेप किया था.”

काग़ज़ में ये भी दर्ज था कि कैप्टन कोस्टेलो नाम का एक ब्रिटिश अफ़सर इस खोपड़ी को अपने साथ ब्रिटेन लेकर आया था. वैग्नर इस खोपड़ी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने आलम बेग की पूरी कहानी जानने का फ़ैसला कर लिया. इसके बाद साल 2017 में उन्होंने इस पर एक किताब लिखी 'द स्कल ऑफ़ आलम बेग'. जिसमें खोपड़ी के भारत से लंदन पहुंचने की पूरी कहानी दर्ज है.

1857 का संग्राम, सियालकोट

1857 की क्रांति के बारे में जब भी बात होती है, अवध और मध्य भारत के इलाक़े का ज़िक्र ही ज़्यादा होता है. लेकिन ये संग्राम सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं था. बल्कि ये भारत के सीमांत इलाक़ों में बनी ब्रिटिश छावनियों तक पहुंच गया था. ऐसी ही एक छावनी सियालकोट में भी थी. जो अब पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब में पड़ता है. पहले जानिए सियालकोट में ब्रिटिश छावनी बनी कैसे?

Skull of Alum Bheg letter
आलम बेग की खोपड़ी में मिली चिट्ठी (तस्वीर- BBC)

1846 में पहला आंग्ल-सिख युद्ध ख़त्म हुआ. जिसके बाद जम्मू-कश्मीर का कंट्रोल ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ में चला गया. युद्ध के बाद अमृतसर की संधि के तहत कम्पनी ने ये इलाक़ा डोगरा सरदार गुलाब सिंह को बेच दिया. जिसके बाद जम्मू-कश्मीर का एक अलग रियासत के रूप में उदय होता है. गुलाब सिंह जम्मू-कश्मीर के राजा होने के बावजूद अभी भी ईस्ट इंडिया कम्पनी के मातहत थे. कम्पनी ने जम्मू में अपना एक रेज़िडेंट अफ़सर नियुक्त कर रखा था. जिसका गुलाब सिंह के दरबार में सीधा दख़ल था.

अमृतसर की संधि के बाद एक और घटना होती है. 1849 में एक और जंग के बाद पूरे पंजाब पर अंग्रेजों का क़ब्ज़ा हो जाता है.  और 1852 में अंग्रेज यहां अपनी पहली छावनी बनाते हैं. सियालकोट की जम्मू-कश्मीर से नज़दीकी का मतलब था, अंग्रेज शॉर्ट नोटिस पर वहां फ़ौज भेज सकते थे. सियालकोट के अच्छे मौसम के चलते श्रीनगर में तैनात कम्पनी का अफ़सर सर्दियों में यहां चला आता था. सियालकोट में छावनी होने का एक और बड़ा फ़ायदा था जिसका असर 1857 की क्रांति पर दिखने को मिला.

दरअसल सिख साम्राज्य पर जीत हासिल करने के लिए जिस आर्मी का इस्तेमाल हुआ, उसमें शामिल भारतीय सिपाही बंगाल और मध्य भारत से आते थे. इसलिए ब्रिटिश फ़ौज में शामिल पंजाबी सिख सैनिकों की इनसे कुछ ख़ास बनती नहीं थी. जब 1857 में सुंअर और गाय की चर्बी से बने कारतूसों के चलते विद्रोह शुरू हुआ, पंजाब में इसका ख़ास रिएक्शन देखने को नहीं मिला. पंजाब के सैनिकों के लिए ये ब्राह्मण और राजपूतों के धार्मिक मामले थे, जिनका उनसे कोई ख़ास वास्ता नहीं था. पंजाब में जब क्रांति का आग पहुंची तब भी अधिकतर सिख सैनिकों ने खुद को इससे अलग रखा.

बागियों ने अंग्रेज़ अफसर को दिया तनख्वाह का ऑफर 

अब देखिए आलम बेग की कहानी कैसे इस प्रसंग से जुड़ती है. 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में हुए विद्रोह से क्रांति की शुरूआत हुई. आलम बेग इस वक्त बंगाल नेटिव इंफ़ेंट्री की 46वी रेजिमेंट का हिस्सा थे. जो सियालकोट में तैनात थी. इसके अलावा सियालकोट में दो और रेजिमेंट थी, जिनके नाम 35th बंगाल नेटिव इंफ़ेंट्री और 52nd ऑक्सफ़ॉरशायर रेजिमेंट थे. इन तीनों में से ऑक्सफ़ॉरशायर रेजिमेंट में  केवल ब्रिटिश ट्रूप्स थे. बाक़ी दो रेजिमेंट्स में अधिकतर भारतीय सैनिक थे, जिन्हें अंग्रेज अफ़सर लीड करता था. इंफेंट्री के अलावा सियालकोट में 9th बंगाल लाइट कैवल्री, यानी हल्के घुड़सवारों वाली यूनिट और दो आर्टिलरी यूनिट भी मदद के लिए तैनात थीं. इन सभी में भारतीय और अंग्रेज सिपाहियों का अनुपात 10:1 का था.

पंजाब में ब्रिटिश प्रशासन का केंद्र, लाहौर हुआ करता था. और सियालकोट यहां से 113 किलोमीटर दूर था. यहां टेलीग्राफ़ की सुविधा भी नहीं थी. इसलिए लाहौर से सियालकोट तक कोई संदेश भेजना हो तो पहले 97 किलोमीटर दूर झेलम के पास एक पोस्ट तक टेलीग्राफ भेजा जाता था. फिर यहां से एक हरकारा दौड़कर सियालकोट तक संदेश पहुंचाता था. इसी चक्कर में सियालकोट तक क्रांति की आग को पहुंचने में महीनों का वक्त लग गया. शुरुआत में जब क्रांतिकारियों ने दिल्ली और मेरठ छावनी पर क़ब्ज़ा किया, ब्रिटिश प्रशासन ने मदद के लिए सियालकोट की 52nd ऑक्सफ़ॉरशायर रेजिमेंट को पंजाब से दिल्ली भेज दिया. बाक़ी रेजीमेंट्स सियालकोट में ही रही क्योंकि जैसा पहले बताया इनमें अधिकतर सैनिक भारतीय थे. 52nd ऑक्सफ़ॉरशायर के जाने से सियालकोट में गिनती के ब्रिटिश अफ़सर रह गए.

Skull of Alum bheg pub
शहीद आलम बेग की खोपड़ी इसी पब में मिली थी (तस्वीर- BBC)

कुछ हफ़्तों बाद यानी 9 जुलाई को विद्रोह की आग सियालकोट तक भी पहुंच गई. बंगाल कैवल्री के घुड़सवार टुकड़ी के सैनिक शहर में फैल गए. और ब्रिटिश अफसरों के घरों में आग लगाने लगे. नतीजतन ब्रिटिश सैनिकों के परिवार को छुपने के लिए सियालकोट के क़िले में शरण लेनी पड़ी. इस क़िले की सुरक्षा में सिख सैनिक तैनात थे. जो अभी भी कम्पनी के प्रति वफ़ादारी रखते थे. वैग्नर अपनी किताब में इस क्रांति से जुड़ा एक दिलचस्प बात बताते हैं. उनके अनुसार सियालकोट में तैनात 46th बंगाल इंफेंट्री के सैनिकों ने विद्रोह के बाद भी अपने अफ़सरों पर हमला नहीं किया. ये लोग विद्रोह में शामिल थे. लेकिन किसी को जान से नहीं मार रहे थे. बल्कि कई बार तो उन्होंने ब्रिटिश अफ़सरों के परिवारों को सुरक्षा तक पहुंचाया

एक केस ऐसा भी था जिसमें भारतीय जवान अपने ब्रिटिश अफ़सरों को हज़ार रुपए महीने की तनख़्वाह ऑफ़र कर रहे थे. बशर्ते वो विद्रोह में शामिल होकर उन्हें लीड करें. वैग्नर के अनुसार इस पूरे हंगामे में हालांकि कुछ अंग्रेज अफ़सर और एक महिला ज़रूर मारी गई थी. और ऐसे ही एक केस में आलम बेग को गुनाहगार मानकर उन्हें तोप से उड़ा दिया गया था. वैग्नर लिखते हैं,

"शोध के दौरान मुझे पता चला कि आलम बेग बेगुनाह थे. पुराने दस्तावेज़ों को पढ़कर मुझे अहसास हुआ कि आलम बेग ये क़त्ल कर ही नहीं सकते थे, क्योंकि असली गुनाहगारों को पहले ही पकड़ लिया गया था".

किताब के अनुसार आलम बेग की गिरफ़्तारी साल 1858 में हुई थी. इस एक साल में क्या हुआ? आगे क़िस्सा यूं है कि सियालकोट में ब्रिटिश ठिकानों को तबाह करने के बाद 46th बंगाल नेटिव इंफेंट्री के जवान गुरदासपुर की ओर बढ़ गए. इनसे निपटने के लिए ब्रिटिश फ़ौज की एक टुकड़ी अमृतसर में तैनात थी. विद्रोहियों का प्लान था कि इस टुकड़ी से बचकर बाहर-बाहर से ही दिल्ली की ओर बड़ जाएंगे. लेकिन इसी समय वो John Nicholson नाम के एक अफ़सर की एक तरकीब से गच्चा खा गए. निकलसन 52nd लाइट इंफेंट्री को लीड कर रहे थे. उन्होंने अपनी टुकड़ी को निर्देश दिया कि वो अपनी वर्दी ख़ाकी रंग में डाई कर लो. जबकि पहले वर्दी का रंग सफ़ेद था. इस तरह वो विद्रोहियों के जासूसों की नज़रों से बचने में कामयाब रहे. और रावी नदी के किनारे तक पहुंच गए.

त्रिम्मु घाट की लड़ाई 

रावी के पास त्रिम्मु घाट पर क्रांतिकारियों का सामना ब्रिटिश टुकड़ी से हुआ. भारतीय सिपाहियों ने जमकर युद्ध किया लेकिन ब्रिटिश फ़ौज के आधुनिक हथियारों के सामने वो ज़्यादा देर ठहर नहीं पाए. बचे हुए भारतीय सिपाहियों ने नदी में बने एक छोटे से द्वीप पर शरण ली. जहां तीन दिन तक उन्होंने मोर्चा संभाले रखा. अंत में 15 जुलाई को इनमें से ज़्यादातर को पकड़ लिया गया. जबकि कुछ जान बचाकर भाग गए. त्रिम्मु घाट की लड़ाई में हिस्सा लेने वालों में आलम बेग भी एक थे. लड़ाई के बाद से भागकर वो अपने कुछ साथियों सहित कश्मीर जा पहुंचे और यहां साधु का भेष बनाकर रहने लगे. इसके बाद भी ब्रिटिश सिपाहियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. उनके सर पर इनाम  रखा गया.

Indian Rebellion of 1857
आलम बेग 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ हुए सैनिक विद्रोह का हिस्सा थे (तस्वीर- wikimedia commons)

जून 1858 तक आलम बेग छुपते छुपाते फिरते रहे. पठानकोट पहुंचकर वहां उन्होंने लोकल लोगों से मदद मांगी लेकिन स्थानीय जनता ने उन्हें विदेशी मानते हुए मदद से इनकार कर दिया. मजबूरी में एक रोज़ राशन हासिल करने के लिए आलम बेग और उनके साथियों ने एक दुकान में लूटमार कर दी. इस चक्कर में ब्रिटिश अफ़सरों को उनकी खबर लग गई और उन्हें पकड़ लिया गया. कुल चालीस लोगों के साथ उन्हें सियालकोट लाया गया. जहां 8 जुलाई 1858 के रोज़ उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. क्रांतिकारियों को सजा देने का अंग्रेजों का तरीक़ा बड़ा क्रूर था. उन्हें तोप के मुहाने पर बांध कर उड़ा दिया जाता था.

ऐसा ही आलम बेग के साथ भी हुआ. आलम बेग की सजा के वक्त कैप्टन AR कॉस्टेलो नाम का एक अफ़सर भी मौजूद था. हत्या के बाद उसने बेग की खोपड़ी अपने पास रख ली. और जब तीन महीने बाद वो ब्रिटेन लौटा तो उसे अपने साथ ले गया. इस तरह ये खोपड़ी पहले लंदन के पब तक और वहां से वैग्नर तक पहुंची. वैग्नर अपनी किताब में लिखते हैं कि उनकी इच्छा है किसी दिन वो आलम बेग के कपाल को वापस भारत लाएंगे और रावी के किनारे उसी द्वीप पर आलम की समाधि बनायेंगे जहां आलम ने अपनी ज़िंदगी की आख़िरी लड़ाई लड़ी थी.

वीडियो: तारीख: हावड़ा ब्रिज का बम कुछ न बिगाड़ पाए, उसे लोगों से क्यों बचाना पड़ा?

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement