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मस्जिद, मकबरा, जैन मंदिर या हिंदू विद्यालय, 'अढ़ाई दिन का झोपड़ा' को लेकर क्या दावे हैं?

Ajmer Court की में Ajmer Sharif Dargah को लेकर एक याचिका दायर की गई. जिसमें इसके नीचे Temple होने का दावा किया गया था. अब इस दरगाह के पास बनी 'अढ़ाई दिन का झोपड़ा' नाम की मस्जिद को लेकर भी ASI सर्वे की मांग की जा रही है.

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अढ़ाई दिन का झोपड़ा को लेकर कई दावे हैं (फोटो- आजतक)
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राजविक्रम
10 दिसंबर 2024 (Published: 15:10 IST)
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“हम इतिहास नहीं बनाते. बल्कि हम इतिहास से बने हैं.” अमेरिकी एक्टिविस्ट मार्टिन लूथर किंग की ये पंक्तियां, गाहे बगाहे सच हो ही जाती हैं. भूत से इंसानों का जुड़ाव छिपा नहीं. परत-दर-परत हम सालों से पिछला खोजने की कोशिश में रहे हैं. इतिहास बनाने से ज्यादा, उससे बनते रहे हैं. कहें तो हम बीते का एक समुच्चय या समूह हैं. बीता जिसे हम खोजते हैं, कभी मिट्टी के नीचे दबी परतों में, तो कभी किताब के पन्नों के नीचे. ऐसी ही एक किताब में दबी परत, हाल में फिर उकेरी गई है.

पहले बता देते हैं कि मामला क्या है. बाकी खबरों में आपने जान ही लिया होगा. पर दोहरा देते हैं. अजमेर की स्थानीय अदालत में अजमेर शरीफ दरगाह को लेकर एक याचिका दायर की गई. जिसमें इसके नीचे मंदिर होने का दावा किया गया था. इसे हाल ही में स्वीकार भी कर लिया गया. वहीं दूसरी तरफ, दरगाह से कुछ ही दूर - एक ऐतिहासिक इमारत को लेकर भी बयान आए. कहा गया इसकी संरचना में कुछ राज़ दफ्न हैं. साथ में हरबिलास सारदा की किताब का जिक्र आया और चर्चा में आया, अढ़ाई दिन का झोपड़ा. नाम से ही इसे लेकर जिज्ञासा जागती है. पर इस इमारत की चर्चा जिज्ञासा से ज्यादा, दूसरी राजनीतिक वजहों से हुई. वो वजहें, आप समझते ही हैं. पर हम तो इतिहास की बात करने वाले हैं. तो जिज्ञासा के पहलू को ज्यादा टटोलते हैं. जानते हैं कि ये अढ़ाई दिन का झोपड़ा क्या है? इसे किसने बनवाया, और करीब सौ साल पहले आई हरबिलास सारदा की किताब में इसे लेकर ऐसा क्या लिखा गया, जिसकी चर्चा आज उठी है.

adhai din ka jhopda
अजमेर स्थित अढ़ाई दिन का झोपड़ा  (PHOTO- Wikipedia)

भारत की सभ्यता कितनी प्राचीन है यह बात किसी से छिपी नहीं है. जमीन के नीचे दबी एक-एक परत एक अलग काल खंड को बयां करती है. वहीं यह निर्वात में भी नहीं रहा. जमीन और समंदर के रास्ते व्यापार के सबूत यहां पुरातन से मिलते हैं. पर हम बात थोड़ा मध्यकाल की करते हैं. जे एल मेहता अपनी किताब - ‘एडवांस्ड स्टडी इन द हिस्ट्री ऑफ मीडिवल इंडिया’ में लिखते हैं,

“इस्लाम के उदय से काफी पहले से - यूरोप और पश्चिमी एशियाई देशों के साथ, भारत के व्यापारिक संबंध तो रहे ही हैं. साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्ते भी कायम थे. इस क्रम में अरब, भारत और दुनिया के बीच की कड़ी रहे हैं. भारतीय व्यापारी, अरब नाविकों और व्यापारी एजेंट्स को काम देते रहे. ताकि कारोबार को भारतीय तट और ईरानी खाड़ी देशों तक पहुंचा सकें. वहीं कारवां और अरब सौदागर सामान को अरब सागर और रेगिस्तान के पार पहुंचाते रहे. व्यापारिक रिश्तों के चलते लाजिम तौर पर, भारत के पश्चिमी तट पर भी अरब आबादी बसती रही है.” 

बकौल मेहता, अरब देशों में इस्लाम के उदय से पहले, भारतीय सामान निर्यात किया जाता रहा है. जिसमें मसाले, कपास और रेशम, कीमती हाथी दांत, नील और कीमती नगीने वगैरह शामिल थे. इसीलिए वजहें हैं, जिनमें माना जाता है कि पश्चिम में भारत की संस्कृति फैलाने में अरब लोगों ने अहम भूमिका निभाई. इसके साथ भारतीय साहित्य भी वहां तक पहुंचा. पंचतंत्र, जो कि भारतीय नैतिक कहानियों का संकलन है. ईसा के बाद 600 वीं सदी में ही, फारसी और अरबी भाषाओं में इसका अनुवाद कर लिया गया था. पंचतंत्र का अरबी अनुवाद, पश्चिमी देशों तक पहुंचा. इस बारे में भाषाविद मैक्स मूलर कहते हैं. कि पंचतंत्र का पश्चिमी देशों में फैलना, इसमें लिखी कहानियों से भी ज्यादा निराला है. खैर इस से हम ये तो समझ गए कि भारत और अरब के बीच संबंध इस्लाम के उदय के पहले से थे. लेकिन फिर इन संबंधों में थोड़ा अलग रुख आता है.

करवट 

व्यापारिक संबंध तो पहले से थे. पर इन संबंधों के साथ कुछ अनचाहे रिश्ते भी बने. एडवांस्ड स्टडी इन द हिस्ट्री ऑफ मीडिवल इंडिया के मुताबिक - अरब में इस्लाम के फैलने के बाद, उन्होंने भारत के पश्चिमी बंदरगाहों पर नजर डाली. जो कि दौलत से भरे थे. इस सिलसिले में कई कदम भी उठाए गए, ताकि अपने पांव जमाए जा सके. लेकिन लंबे संघर्ष में उन्हें इसका कोई खास फायदा नहीं मिला. उनमें से जो कुछ भारत में बसे, उनका इस्लामिक दुनिया से संबंध टूट गया. और वो यहीं के छोटे सामंती बनकर रह गए. सिंध और मुलान में अरबों की जीत के बाद, भारत की जमीन पर इस्लाम ने दस्तक तो दे दी थी. पर ये नया धर्म अपने शुरुआती दौर पर ही था.

Advanced Study in the History of Medieval India
जे एम मेहता की किताब (PHOTO- Google Books)

बकौल जे एल मेहता, उस वक्त चढ़ाई करने वाली मुस्लिम सेना के लिए - युद्ध के बंदी, गुलाम बनाना आम बात थी. और पकड़े गए लोगों में सबसे ज्यादा त्रासदी औरतें झेलती थीं. इन लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया जाता था. साथ ही इन्हें गुलाम की तरह रखा और बेचा जाता था. और ऐसे ही गुलामों से इस कहानी का अगला हिस्सा तय होता है.

तुर्कों का आगाज़

सिंध में अरब आगमन के करीब तीन सदियों बाद, सबुक-तजिन के बेटे, ग़ज़नी के महमूद ने साल 998 में तख्त हासिल किया. धर्म और लूट के इरादे से भारत पर कई हमले किए. साल 1000 से 1027 के बीच 17 बार, वो जहां भी गया तलवार और आग लेकर गया. भारत में बारिश का मौसम खत्म होने के बाद, आमतौर पर वो ग़ज़नी से निकलता, और सर्दियां यहीं बिताता जो कि अफगानिस्तान जैसी भीषण नहीं होती थीं. वो बारिश शुरू होने से पहले वापस ग़ज़नी लौट जाता था. बकौल मेहता, इस दौरान होती थी लूट. सोना-चांदी, कीमती जवाहरात, घोड़े, हाथी और गुलाम बना ली गईं महिलाएं. सब को लेकर जाया जाता था. हालांकि महमूद को सम्राज्य बनाने वाला नहीं कहा जा सकता है. उसने कब्जा करने के इरादे से ज्यादा हमले नहीं किए. इसलिए वो बड़े कस्बों और धनाढ्य मंदिरों पर हमला करता था. वहीं सैन्य टुकड़ियों या किलों पर तब तक हमले नहीं करता था. जब तक बेहद जरूरी ना हो जाए.

लूट, हत्या और हमलों का ये दौर कुछ वक्त चला. बकौल मेहता, महमूद की मौत के बाद, विदेशी हमलों के खिलाफ - स्थानीय राजाओं ने कोई सीख नहीं ली. साम्राज्य की रक्षा में रचनात्मकता की कमी दिखाई. जैसे ही विदेशी खतरा टला, कई राजपूत प्रमुख मैदान में कूद पड़े, और आपस में अपनी तलवारें नापने लगे. खैर ऐसे माहौल में आगे, उन गुलामों का आगमन भी होता है. जिनका जिक्र हमने पहले किया था. दरअसल विदेशी आक्रमणकारी हमला करते और जीते गए हिस्से अपने गुलामों की निगरानी में सौंप देते.

अनुरुद्ध रे अपनी किताब, द सल्तनत ऑफ डेली में लिखते हैं.

“हालांकि ये गुलाम, सुल्तान बनने से पहले मुक्त कर दिए गए थे. इसलिए इनके लिए, मामलुक शब्द ज्यादा ठीक मालूम पड़ता है. क्योंकि इसका मतलब उनसे होता है, जिन गुलाम बच्चों के माता-पिता स्वतंत्र होते थे. जबकि बच्चों को गुलाम बनाया गया था.”

खैर ऐसे ही गुलामों के हाथों में एक वक्त दिल्ली की सल्तनत भी आई. जिनमें से एक था कुतुबुद्दीन ऐबक. कुतुबुद्दीन ऐबक, शहाबुद्दीन का तुर्की गुलाम था. जीते गए कुछ इलाके ऐसे ही तुर्की गुलामों को दिए गए थे. जिनमें से कुछ को मुल्तान और हंसी जैसे बड़े इलाके भी मिले.

दूसरी तरफ कुतुबुद्दीन ऐबक का उदय भी देखने लायक था. उसके नीचे तुर्की साम्राज्य, पूर्वी भारत तक पहुंच गया था. साम्राज्य की बात कभी और पर विस्तार के साथ कई इमारतों ने भी शक्ल ली. और शायद ऐसी ही एक इमारत, सुर्खियों में आया 'अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ भी है.

अनिरुद्ध रे अपनी किताब, ‘द सल्तनत ऑफ डेली’ में लिखते हैं, आमतौर पर कहा जाता है कि अढ़ाई दिन का झोपड़ा कुतुबुद्दीन ने बनवाया था. शायद यहां एक मेला हुआ करता था. जो ढाई दिन चलता था, इसी की वजह से इसका ये नाम पड़ा. ऐसी तमाम किताबों में इस इमारत का जिक्र मिलता है. पर हम बात करते हैं, उस किताब की. जिसका जिक्र हाल में चला. हरबिलास सारदा की करीब सौ साल पुरानी किताब, अजमेर; हिस्टोरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव. जिसके सातवें अध्याय में लिखा मिलता है. ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’. और क्या लिखा गया है, इस किताब में समझते हैं.

Ajmer: Historical and Descriptive Book by Har Bilas Sarda
हर बिलास सारदा कि किताब (PHOTO-Flipkart)

बकौल सारदा, प्राचीनता और आर्किटेक्चर दोनों ही सूरतों में अढ़ाई दिन का झोपड़ा भारत की सबसे अहम इमारतों में से एक है. जर्नल कनिंघम कहते हैं कि भारत की दूसरी इमारतों के मुकाबले, कई वजहें हैं. जो इसे सुरक्षित करने लायक बनाती हैं. वो आगे लिखते हैं कि यह सम्राट विशालदेव के साम्राज्य की बेहतरीन इमारत थी. कला के एक नमूने की तरह, ये उनके साम्राज्य की राजधानी का एक आभूषण था.

एक हिन्दू इमारत के तौर पर, विद्यालय की यह इमारत कला का उच्च शिखर छूती है. बाहरी सतह की सजावट के मामले में झोपड़ा. और अल्तमश की मस्जिद का कोई मुकाबला नहीं है. कायरो या पर्शिया में इसके जैसा महीन काम नहीं है. ना ही स्पेन और सीरिया इसकी सहती सजावट के पास भी पहुंच सकते हैं. भारतीय मामलों के जानकार डॉ फ्यूहरर कहते हैं कि बाहरी सतह का काम इतनी बारीकी और ध्यान से किया गया है कि इसकी तुलना केवल महीन बुनाई से की जा सकती है. उनके मुताबिक यह इमारत बाद में मस्जिद में बदली गई. आगे इसके नाम के बारे में बताया जाता है,

“अढ़ाई दिन का झोपड़ा नाम पुराना नहीं है. ये ऐतिहासिक या किसी तरह की लिखावट में देखने नहीं मिलता. पुराने समय में इस इमारत को मस्जिद के नाम से ही जाना जाता था. सदियों तक यह अजमेर में इकलौती मस्जिद थी. वहीं इसे अढ़ाई दिन का झोपड़ा नाम - उन फकीरों की वजह से मिला. जो अपने लीडर पंजाब शाह की उर्स बरसी मनाने के लिए यहां इकट्ठा होते थे. ढाई दिनों के लिए.”

इसके इतिहास के बारे में वो लिखते हैं कि कर्नल टॉड का मानना था कि शुरुआत में यह जैन मंदिर था. जिसे पहले के मुस्लिम लड़ाकों ने मस्जिद में बदल दिया था. वहीं जनरल कनिंघम का मानना था कि यह ढाई दिनों में बनकर तैयार की गई थी. जैसा कि इसका नाम बताता है. कनिंघम के मुताबिक इसे हिंदू मंदिरों के खंडहरों के ऊपर बनाया गया था. जो शुरुआती आक्रमणों में तबाह कर दिए गए थे. पर बकौल सारदा, ये दोनों ही परिकल्पनाएं सही नहीं हैं. यह ना तो प्राचीन जैन मंदिर था, ना ही इसे ढाई दिनों में बनाया गया था. बल्कि इसे मस्जिद में बदलने में कई साल लगे. उनके मुताबिक इसके डिजाइन से पता चलता है कि यह इमारत विद्यालय के तौर पर इस्तेमाल की जाती थी जो 259 फुट की भुजाओं वाले, एक चौकोर के तौर पर बनाई गई थी. किनारों पर तारों के आकार के चार खंभे थे, जिनमें खूबसूरत छतरियां भी थीं.

वो आगे लिखते हैं कि यह इमारत ऊंची थी, जिसके पश्चिमी तरफ एक सरस्वती मंदिर था. वहीं दक्षिण और पूरब की तरफ द्वार थे. भीतरी जगह 100 बाई 175 फुट की थी. ये विद्यालय साल 1153 के करीब, विशालदेव के द्वारा बनाया गया था. जो कि भारत के पहले चौहान राजा थे. दूसरी तरफ धार में ऐसी ही एक इमारत को भी मस्जिद में बदला गया था. जिसे आज भी राजा भोज की पाठशाला के तौर पर जाना जाता है.

सारदा ये भी लिखते हैं,

साल 1192 में अजमेर पर, शाहबुद्दीन गोरी की छाया में हमला किया गया था. और फिर उन्होंने इसे मस्जिद में बदलना शुरू किया. बदलाव में एक विशालकाय दीवार शामिल थी. जिसमें सात मेहराब थे. इमामघर या मेहराब जो सफेद संगेमरमर का है, साल 1199 में बनवाया गया था. वहीं एक स्क्रीन वॉल साल 1213 में सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश के समय जोड़ी गई थी. यह बदलाव अलग-अलग लोगों की निगरानी में किए गए थे. जिनमें से दो के नाम हैं अहमद का बेटा अबुबकर और अहमद, मोहम्मद द आरिज़ का बेटा. इसलिए पुनर्निर्माण का काम शायद 1199 से 1213 के आस पास चला हो. कुछ पंद्रह सालों से ज्यादा. वहीं शमसुद्दीन अल्तमश के छह सौ साल बाद तक. किसी ने अढ़ाई दिन के झोपड़े की कोई सुध नहीं ली.

और आज ये अढ़ाई दिन के झोपड़े के नाम से जानी जाती है. हालांकि ये सारे दावे हरबिलास सारदा की किताब के हैं. और लल्लनटॉप अपनी तरफ से इनकी पुष्टि नहीं करता है. 

वीडियो: तारीख: मंदिर या मस्जिद, 'अढ़ाई दिन का झोपड़ा' को लेकर क्या दावे हैं ?

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