काला पानी जेल में कैसी-कैसी दर्दनाक यातनाएं दी जाती थी?
अंडमान की सेल्युलर जेल का इतिहास
"इस कायनात में एक ईश्वर है, जो स्वर्ग में रहता है. लेकिन पोर्ट ब्लेयर में दो ईश्वर हैं. एक स्वर्ग वाला ईश्वर और दूसरा मैं."
अपनी किताब, द स्टोरी ऑफ माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ में विनायक दामोदर सावरकर(Vinayak Damodar Savarkar) लिखते हैं, कि जब वो पहली बार सेल्युलर जेल पहुंचे, उन्हें जेलर डेविड बैरी के मुंह से ये शब्द सुनाई दिए. बैरी आगे कहता है,
"ये दीवार देख रहे हो. जानते हो ये इतनी नीची क्यों हैं? क्योंकि इनके पार हजार मील तक सिर्फ समंदर है. इसलिए इस जगह से भागना असंभव है. "
डेविड बैरी जिस जेल की बात कर रहा था. हम उसे काला पानी के नाम से जानते हैं. अंडमान की सेल्युलर जेल(Cellular Jail) को काला पानी क्यों कहते थे? क्या है भारतीय इतिहास की सबसे कुख्यात जेल की कहानी, और क्यों इसके नाम से लोग ही थरथराने लगते थे. आज हम बात करेंगे सेल्युलर जेल उर्फ़ सजा- ए-काला पानी की. (Kala Pani Jail)
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काला पानी नाम कैसे पड़ा?काला पानी की कहानी शुरू होती है 1857 से. क्रांति के दौरान और बाद में भी जिन लोगों को पकड़ा जाता था, अंग्रेज़ उन्हें फांसी पर लटका देते थे, या तोप के मुहाने पर बांध कर उड़ा देते थे. हालांकि सबका हश्र ऐसा नहीं हुआ. कइयों को कैदी बना लिया. विद्रोह के डर से अंग्रेज़ों ने इन्हें मेनलैंड से दूर भेजने की ठानी. और ऐसे में चुना गया अंडमान द्वीप. अंडमान द्वीप भेजने के दौरान समंदर की यात्रा करनी पड़ती थी. उस दौर में हिन्दुओं के बीच एक मान्यता थी कि अगर समंदर की यात्रा कर ली तो धर्म भ्रष्ट हो जाता है. ऐसे लोगों को जात बाहर कर दिया जाता था. इसलिए समुद्र के पानी को काला पानी कहते थे. और इसी कारण अंडमान की कैद को नाम मिला, काले पानी की सजा. (Kala Pani Punishment)
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1857 के बाद 200 कैदियों को पहली बार अंडमान भेजा गया. 1868 में 700 कैदी कराची से भेजे गए. शुरुआत में इन लोगों को एक घर नुमा जेल में रखा जाता था. 1890 तक कैदियों की संख्या में काफी इजाफा हो चुका था. हालांकि तब अंडमान की जेल की वो सूरत नहीं थी, जो बाद में जाकर बनी. मेनलैंड की जेलों के मुकाबले अंडमान में ज्यादा आजादी मिलती थी. इसलिए कैदी यहां आना प्रिफर किया करते थे.
1890 में दो अंग्रेज़ अधिकारियों को इस बात में दिक्कत दिखाई देनी शुरू हुई. उन्होंने कहा, जेल के नाम पर आजादी, ऐसे कैसे. चार्ल्स लायल और AS लेथब्रिज- इन दोनों ने एक रिपोर्ट बनाकर सरकार के सामने पेश की. जिसमें एक नई जेल बनाने की मांग रखी गयी थी. और साथ में ये सुझाव भी दिया था कि यहां आने वाले कैदियों के लिए कठिन वातावरण होना चाहिए. सरकार की मंजूरी के बाद 1896 में नई जेल का काम शुरू हो गया. इसके लिए बर्मा से लाल ईंटें मंगाई गई. और मजदूरी के लिए उन्हीं कैदियों का इस्तेमाल किया गया, जो आगे चलकर इसमें रहने वाले थे. इस जेल का आकार भी अपने आप में काफी अनूठा था. और इस आकार के पीछे है एक दिलचस्प कहानी.
ब्रिटिश दार्शनिक का डिज़ाइनदरअसल 19 वीं सदी में ब्रिटेन में एक बड़े दार्शनिक हुए. नाम था जेरेमी बेंथम. बेंथम यूटिलिटेरिएनिज्म नाम की विचारधारा के ध्वजारोहक थे. यूटिलिटेरिएनिज्म मोटा मोटी कहें तो कहता है कि कौन सी चीज अच्छी है, ये इस बात से तय होगा कि वो कितने लोगों का भला करती है. जिस तरीके से ज्यादा से ज्यादा लोगों का भला होगा वो सबसे अच्छा. सुनने में बात सही लगती है. लेकिन इस विचारधारा के साथ एक समस्या है. इस दर्शन के अनुसार मने एक आदमी को मारकर अगर पांच लोग बचाए जा सकते हैं. तो एक को मारने में कोई हर्ज़ नहीं. तो बेंथम साहब ने इसी दर्शन के आधार पर बताना शुरू किया कि समाज का भला कैसे हो सकता है.
पता नहीं क्यों पर उनकी नज़र सबसे पहले जेलों पर गई. बेंथम साहब ने कहा, जेल की बनावट में एक दिक्कत है. जेल में जितने कैदी होते हैं, उसी अनुपात में गार्ड भी रखने पड़ते हैं. जिससे लोगों के काम की बर्बादी होती है. इसलिए जेलों का आकार बदला जाना चाहिए. बेंथम ने जेल के आकार के लिए एक नया सुझाव दिया, जिसे उन्होंने पेनॉप्टिकॉन का नाम दिया. ये नया डिज़ाइन कुछ ऐसा था कि एक ही गार्ड पूरी जेल पर नज़र रख सकता था. बेंथम के जीते जी तो ये आईडिया कुछ खास पॉपुलर नहीं हुआ. लेकिन उनकी मौत के बाद सरकार ने सोचा, व्हाई नॉट.
हेंस अंडमान में जेल पेनॉप्टिकॉन डिज़ाइन के हिसाब से बनाई गयी. कैसा था ये डिज़ाइन? एक साइकिल के पहिये की कल्पना कीजिए. एक डंडा और उसमें से निकली तिल्लियां. अंडमान की जेल में बीच में एक बड़ा सा टावर बनाया गया. टावर के ऊपर गार्ड के खड़े होने की जगह होती थी और साथ में एक घंटा लगा रहता था ताकि कोई गड़बड़ हो तो घंटे की आवाज सुनकर सब चौकन्ने हो जाएं. इस टावर से बाहर की ओर साइकिल की तीलियों के आकार में सात बिल्डिंग बनी हुई थी. एक बिल्डिंग को एक विंग कहते थे. हर विंग तीन माले की थी , जिसका एक कमरा, 14.8*8.9 फुट आकार का था. पूरी जेल में ऐसे 696 सेल थे. और इन्हीं सेल्स के कारण इस जेल को सेल्युलर जेल का नाम मिला. ये सेल यानी कमरे खास इस तरह बनाए गए थे ताकि कोई किसी दूसरे कैदी से कांटेक्ट न कर सके.
जेल की हर विंग का मुंह दूसरे विंग की दीवार की तरफ बना हुआ था. हर कमरे में लगभग 9 फ़ीट की ऊंचाई पर एक रौशन दान बना था जिससे हवा और रौशनी बाहर आ जा सके. साल 1906 में इस जेल का निर्माण पूरा हुआ. जिसके बाद भारत के सबसे खूंखार मुजरिमों के साथ साथ राजनीतिक कैदियों को भी यहां भेजा जाने लगा. जेल में कैदियों के साथ व्यवहार कैसा होता था. इसके लिए एक कैदी की सामान्य दिनचर्या आपको बताते हैं.
काला पानी का एक दिनदिनभर कोल्हू के बैल की तरह जोता गया एक शख्स लात घूंसे खाने के बाद जेल के अपने कमरे में सोया है कि तभी एक बड़ी सी घंटी की आवाज सुनाई देती है. सूरज अभी उगा नहीं है. लेकिन उठना मजबूरी है. नहीं तो गार्ड आकर उठाएगा और साथ में कोड़े भी बरसाएगा. 700 कैदियों के लिए निवृत होने का समय निर्धारित किया गया है कुल एक घंटा. नहाने को पानी नहीं है. और पीने के लिए जैसा पानी मिला है, उससे कोई आदमी मुंह धोने से भी कतराए. इसके बाद आती है खाने की बारी. हरे रंग के पानी के ऊपर तैरते कुछ पत्ते बर्तन में डाले जाते हैं. साथ में कीड़े वाली दाल. न खाओ तो भूखे रहो और अगर खा लिया तो दस्त लग जाए.
खाने की औपचारिकता के बाद अब काम का वक्त आता है. काम पर जाते हुए भी हाथों में जंजीरे हैं. गले से लेकर पैर तक बेड़ियां. इसी हाल में सफाई का काम करना है, या पेड़ों की कटाई या और कोई मजदूरी का काम. हालांकि अगर आप राजनीतिक कैदी हैं तो आपके लिए यातना का विशेष प्रबंध है. कोल्हू जुता हुआ है. लेकिन बैल नहीं हैं. बैल का काम कैदी को करना है. सावरकर अपनी किताब में लिखते हैं,
"20 चक्कर में एक हष्टपुष्ट आदमी चक्कर खाकर गिर जाए. उस कोल्हू को दिन भर जोतना पड़ता है".
इस पूरे दौरान दिन भर में सिर्फ एक ब्रेक - खाने के लिए. टॉयलेट के लिए भी एक्स्ट्रा समय नहीं ले सकते.
बरीन घोष अपनी किताब The Tale of My Exile में लिखते हैं,
“एक दिन बकुल्ला नाम के एक कैदी को लैट्रीन से लौटने में देर हो गयी. सिपाहियों ने उसे इतना मारा कि उसके कूल्हे की खाल उधड़ कर लटकने लगी”
ये ही हाल होता अगर किसी से बात करने की कोशिश की. यहां तक कि अगर इशारा भी किया तो गार्ड जूतों से मारेगा. हालांकि दिन इतने में ख़त्म नहीं होता. कोल्हू के बैल का काम निपटाने के बाद एक और काम मिलता है. नारियल के खोल से भूसी निकालना. इसके लिए नारियल के खोल को हथौड़े से मारना पड़ता है. इतने के बाद भी जान बची तो पुरानी रस्सियों को घिसकर उसके धागे अलग करने पड़ते हैं. तब तक जब तक हाथ से खून न निकल जाए.
हर काम के लिए टारगेट नियत है. कोल्हू से 10 लीटर तेल या 20 लीटर तेल. और नारियल से 4 किलो झूस. शाम तक ये टारगेट नहीं पूरा हुआ तो हथकड़ियों से बांधकर लटका दिया जाएगा. पहली बार 3 दिन के लिए. फिर 10 दिन के लिए. इस बीच गार्ड घुटनों के बीच एक डंडा फंसा देगा ताकि पैर फैले रहें.
ये सब पूरा हो चुकने के बाद रात को जब कैदी अपने कमरे में पहुंचता है, तो देखता है, वहां दो बर्तन हैं. एक पानी के लिए. और दूसरा इसलिए ताकि अगर रात में टॉयलेट जाना पड़े तो इसी में कर लें. बर्तन भी इतना छोटा कि कई लोग फर्श पे ही फारिग हो जाते थे. जून की गर्मी हो या दिसंबर की ठंड, सोने के लिए सिर्फ नंगा फर्श उपलब्ध हुआ करता था. लोग इतने थके जाते थे कि उसी पर नींद आ जाती थी. इसके बाद दूसरा दिन शुरू होता था. बिलकुल वैसा ही. जैसे पिछला दिन शुरू हुआ था.
आजादी के बाद अंडमान जेलअंडमान में कई स्वतंत्रता सेनानियों ने दशकों तक ऐसे दिन गुजारे. विनायक दामोदर सावरकर के अलावा, श्री अरबिंदो घोष के भाई बरीन घोष. भगत सिंह के साथी और लाहौर कांस्पिरेसी केस में सजायाफ्ता बटुकेश्वर दत्त, उल्लासकर दत्त, सचिन्द्र नाथ सान्याल जैसे सैकड़ों स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं, जिन्होंने अंडमान जेल की सजा काटी. 1932 में चटगांव आर्म्स रॉबरी केस में 300 क्रांतिकारी यहां भेजे गए. इन लोगों ने बेहतर अधिकारों के लिए भूख हड़ताल शुरू की. 44 दिन चली भूख हड़ताल के बाद अंग्रेज़ों ने उनके गले में पाइप डालकर दूध उड़ेलने की कोशिश की. महावीर सिंह, मोहन किशोर नामदास और मोहित मोइत्रा के फेफड़ों में दूध चला गया. जिससे तीनों को निमोनिया हो गया और फिर जान चली गई.
अंग्रेज़ों की इस बर्बरता के बावजूद 1937 तक भूख हड़ताल का का दौर चला. और तब भारत में इन लोगों के लिए आवाज उठनी शुरू हुई. 1937 में गांधी और टैगोर ने इस मामले में कांग्रेस की वर्किंग कमेटी को एक टेलीग्राम भेजा. कांग्रेस ने ये मुद्दा ब्रिटिश सरकार के सामने उठाया.कई दौर की वार्ता के बाद अंत में 1938 में सेल्युलर जेल के राजनीतिक कैदी मेनलैंड भारत भेज दिए गए.
काला पानी की जेल का अध्याय यहीं ख़त्म न हुआ. 1942 में जब जापान ने अंडमान पर कब्ज़ा किया तो उन्होंने ब्रिटिश कैदियों को रखने के लिए सेल्युलर जेल का इस्तेमाल किया. जापानी कब्ज़े के दौरान सेल्युलर जेल की दो इमारतें तोड़ दी गयी. इससे पहले 1941 में आए भूकंप में जेल की बीच की इमारत को नुकसान पहुंचा था. जिसके बाद इसे नया बनाया गया. नई इमारत गोलाकार शेप में बनाई गयी, जबकि पहले ये चौकोर हुआ करती थी. आजादी के बाद जेल की दो और इमारत गिराई गई. जिनके स्थान पर यहां स्थानीय लोगों के लिए एक 500 बिस्तर वाला अस्पताल बनाया गया. इस जेल में सजा काट चुके कई स्वतंत्रता सेनानी जेल को गिराए जाने के विरोध में थे. इसलिए 1979 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया.
आखिर में इस जेल से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा बताते हुए चलते हैं. माना जाता है कि काला पानी से कोई फरार नहीं हो सकता था. लेकिन ऐसा नहीं है. इस जेल से फरार होने की दो बार कोशिश हुई. दोनों कोशिश हालांकि तब हुई थी जब सेल्युलर जेल बनी नहीं थी. 1868 में 238 कैदी जेल से भाग निकले थे लेकिन उन्हें पकड़ लिया गया. और जेलर ने 87 लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया. इसके बाद 1872 में दो कैदियों ने लकड़ी की एक नाव बनाई और इसके सहारे वो बंगाल की खाड़ी तक पहुंच गए.
Survivors of our hell शीर्षक से छपे एक लेख में द गार्जियन ने इन क़ैदियों की कहानी बताई है. गार्जियन के अनुसार मेहताब और चोइटुन नाम के ये दो कैदी एक ब्रिटिश जहाज के पास पहुंचे और एक झूठी कहानी सुनाई. दोनों ने बताया कि वे मछुवारे हैं और उनकी नाव टूट गयी है. इसके बाद दोनों जहाज में बैठकर लंदन पहुंच गए. यहां दोनों को रहने के लिए एक कमरा दिया गया. बदकिस्मती ये रही कि सोते हुए एक अंग्रेज़ ने उनकी फोटो खींच ली और चारों तरफ फैला दी. दोनों को पहचान कर दोबारा पकड़ लिया गया. और वापस अंडमान भेज दिया गया.
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