सोवियत रूस की खुफिया एजेंसी KGB की कहानी, जिसने फेक न्यूज और आतंक से पूरी दुनिया हिला दी!
आज दुनिया की सबसे रहस्यमयी और ताकतवर खुफिया एजेंसी KGB का पर्दाफाश करेंगे। जानेंगे कि कैसे ये एजेंसी फेक न्यूज़ फैलाकर देशों की सत्ता बदल देती थी, कैसे इसके एजेंट चुने जाते थे, और क्यों इतनी शक्तिशाली KGB का अंत हो गया। साथ ही, देखेंगे KGB के भारत से जुड़े उन रहस्यमयी किस्सों को जिन्हें ‘इंडिया फाइल्स’ कहते हैं।
साल 1984. सोवियत संघ के दो शहर- मॉस्को और लेनिनग्राड. यहां के अमेरिकी दूतावास में इस्तेमाल होने वाले कई दर्जन कंप्यूटर, टाइपराइटर और कई दूसरी इलेक्ट्रॉनिक्स डिवाइसेज चोरी-छिपे गायब कर दिए गए. और पहुंचे कहां? अमेरिका के वॉशिंगटन में. अमेरिका को शक था इन डिवाइसेज में कोई बग है, जिसके जरिये सोवियत संघ उनकी बातें सुनता रहा है. इन डिवाइसेस पर कई दिनों तक अमेरिका सिर खपाता रहा. बड़ी मशक्कत के बाद पता चला कि रूस के अमेरिकी दूतावास में इस्तेमाल होने वाले 16 टाइपराइटरों में वाकई एक स्पेशल बग था. जिसके ज़रिये साल 1976 से 1984 तक टाइप होने वाले तकरीबन हर डॉक्यूमेंट के बारे में सोवियत संघ को खबर मिली थी. टाइप राइटर पर जो कुछ भी टाइप किया जाता, वो सब कुछ ये बग सिग्नल के जरिये सोवियत के जासूसों तक ट्रांसमिट कर देता था.
कहने और सुनाने वाले तो अमेरिकी दूतावास के कमरे में लगी लगी एक ईंट की कहानी भी सुनाते हैं. जिसमें कुछ तिकड़म करके सोवियत ने इसे भी जासूसी का इक्विपमेंट बना दिया था. उस ईंट का किस्सा फिर कभी. ईंट और ऐसे अन्य डिवाइसेज में ट्रांसमिटर लगाने वाली, अमेरिका में बने और उसी के दूतावास में इस्तेमाल होने वाले टाइप-राइटर में बग लगाने वाली और इससे खुफिया जानकारियां हासिल करने वाली एजेंसी एक ही थी- KGB. सोचिए, इस वाकये के बाद अमेरिकी जांच एजेंसियों का पहला रिएक्शन क्या रहा होगा? आप कहेंगे गुस्सा, या फ़िक्र. नहीं. भले ही अमेरिका इस जासूसी का विक्टिम था, इसके बावजूद वो KGB के इस प्लान से गुस्सा नहीं, इम्प्रेस हुआ.
KGB की कहानी सिर्फ इतनी नहीं है. जासूसी का ये आलम था कि इस एजेंसी की पहुंच कई देशों के प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपति कार्यालयों तक थी. ये वाट्सऐप और फेसबुक विहीन दुनिया में भी फेक न्यूज़ बनाने, भुनाने और फ़ैलाने में एक्सपर्ट थी. इतनी एक्सपर्ट कि इनकी फैलाई फेक न्यूज़ से कई देशों में सत्ता बदल गई. एक समय पर तो रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी KGB के एजेंट थे. इतनी शक्तिशाली इंटेलिजेंस एजेंसी 1991 में खत्म हो गई. आखिर क्या वजह थी? तो इस आर्टिकल में जानेंगे KGB का पूरा तिया पांचा.
-KGB का मोडस ऑपरेंडी क्या था , माने ये कैसे मिशन्स को अंजाम देती थी?
-कैसे KGB एजेंट्स को रिक्रूट करती थी?
-KGB के कारनामों की ‘इंडिया फाइल्स’ क्या है?
-ये एजेंसी खत्म क्यों हो गयी?
किसी भी एजेंसी के मोडस ऑपरेंडी के पीछे कोई न कोई ऐतिहासिक कॉन्टेक्स्ट होता है. ऐतिहासिक कॉन्टेक्स्ट यानी उस एजेंसी की स्थापना के समय देश किस तरह के थ्रेट्स का सामना कर रहा था. और उनसे डील करने के लिए क्या प्लान बना रहा था.
जैसे, 1924 से 1953 के बीच सोवियत संघ में जोसेफ स्टालिन का शासन था. इन 3 दशकों में अपने खिलाफ उठ रही आवाज़ों को दबाने के लिए स्टालिन ने बर्बरता की कोई सीमा नहीं रखी. 1953 में उसकी मौत के बाद देश में अनस्टेबिलिटी बढ़ रही थी. स्टालिन के बाद देश के प्रीमियर यानी मुखिया बने Nikita Khrushchev. उन्होंने 4 चीज़ों पर फोकस रखने के लिए KGB की स्थापना की.
-सोवियत संघ में विद्रोहों को कंट्रोल करना.
-खुद की इमेज में चेंज यानी खुद को स्टालिन के दौर में हुए अत्याचारों से अलग करना.
-सोवियत की कम्युनिस्ट पार्टी के इंट्रेस्ट्स को सलामत रखना.
-कोल्ड वॉर के दौरान यूरोप और अमेरिका की ख़ुफ़िया जानकारी को इकट्ठा करना.
KGB की स्थापना 1954 में हुई. सोवियत संघ के चैलेंजेज को मैनेज करने के लिए. KGB से रिलेटेड एक और इंटरेस्टिंग फैक्ट है. मेजरली दुनिया के कई देशों में दो तरह की इंटेलिजेंस एजेंसियां होती हैं. एक वो जो देश के अंदर ख़ुफ़िया जानकारी जुटाती हैं, जैसे भारत में IB. और दूसरी वो जो देश के बाहर ख़ुफ़िया जानकारी जुटाती हैं जैसे R&AW. लेकिन 1954 के दशक में बनी सिचुएशन, जिसका जिक्र हमने अभी किया, उसकी वजह से KGB को इंटरनल और एक्सटर्नल दोनों तरह के इंटेलिजेंस का काम सौंपा गया. इस काम को KGB ने आगे चलकर कैसे पूरा किया, अब ये भी समझते हैं.
1 - डिसइन्फॉर्मेशन कैंपेनडिसइन्फॉर्मेशन कैंपेन यानी फेक न्यूज़ बनाना, भुनाना और फैलाना. KGB इसके जरिये कई देशों की राजनीति में वक़्त, जज़्बात और हालात सब बदल देती थी. कैसे? इसे उदाहरण से समझते हैं. बात है 1960 के दशक की. भारत और अमेरिका के रिश्ते ठीक नहीं थे. और 1965 तक हालात और बिगड़े जब भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका की आवाज़, कुछ या कई मौकों पर पाकिस्तान के पक्ष में सुनाई दी. सोवियत संघ के पास एक गोल्डन opportunity थी, भारत को अपना साथी बनाकर साउथ एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करना.
एक किताब है. “द वर्ल्ड वाज गोइंग आर वे”. जिसे Vasili Mitrokhin ने लिखा है. Mitrokhin मॉस्को में KGB के दस्तावेजों का रख रखाव करते थे. बाद में इन्होंने KGB को धोखा देकर ब्रिटेन का दामन थाम लिया. इस किताब के मुताबिक, KGB ने भारत में पकड़ बनाने के लिए ऑपरेशन DEPO लॉन्च किया. ऑपरेशन का उद्देश्य था फेक न्यूज और मीडिया मैनेजमेंट की मदद से इंदिरा गांधी को चुनाव जितवाना और भारत में KGB का इनफ्लूएंस बढ़ाना.
Operation का पहला फेज था, कुछ बड़े नेताओं को अपना साथी बनाना. इस लिस्ट में कम्यूनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी Rajeshwar Rao का नाम भी था. किताब के मुताबिक, राजेश्वर राव को KGB से फंडिंग भी मिलती थी. इसके अलावा left-wing organizations, student groups, और trade unions को भी Soviet funds मिले ताकि वे Gandhi की socialist policies के लिए समर्थन जुटा सकें. और इसमें CPI KGB की सबसे बड़ी साथी बनकर उभरी. लेकिन पैसे के साथ-साथ, information भी इस operation का अहम हिस्सा थी. KGB ने systematically मीडिया में stories plant कीं. किताब के मुताबिक, 1973 तक KGB ने भारतीय अख़बारों में 3789 आर्टिकल्स प्लांट किए. इन आर्टिकल्स का फोकस 2 चीज़ों पर था.
-इंदिरा गाँधी को जनता का हीरो बताना और opposition leaders को बदनाम करना.
-अमेरिका की पॉलिसीज को बदनाम करना.
कैसे फेक न्यूज़ फैलाई इसको एक उदाहरण से समझिये. एक फ़र्ज़ी लेटर लिखा गया. जिसमें ये दर्शाया गया कि कांग्रेस सिंडिकेट के बड़े नेता SK पाटिल पाकिस्तान से पैसा लेते थे. और वो इस पैसे का इस्तेमाल इंदिरा गांधी की सत्ता को कमजोर करने के लिए कर रहे थे. इस एक फेक लेटर ने SK पाटिल का करियर डुबोने में बड़ी भूमिका निभाई. पाटिल 1967 का चुनाव भी हार गए. और पॉलिटिकल करियर खत्म हो गया. इस ऑपरेशन ने India-USSR रिश्तों को मज़बूत करने और 1971 में इंदिरा गाँधी को चुनाव जितवाने में अहम भूमिका निभाई. ऐसा किताब दावा करती है.
2 - पॉलिटिकल सबवर्ज़नइन मिशंस के जरिए KGB उन देशों की राजनीति को सोवियत संघ के पक्ष में बदलने की कोशिश करती थी, जो अमेरिका के दोस्त थे. कैसे? इसे पाकिस्तान में हुए एक ऑपरेशन REBUS के जरिए समझिए.
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भले की पाकिस्तान बुरी तरह हार गया था, लेकिन इस युद्ध के दौरान अमेरिका के एक फैसले ने सोवियत संघ को काफी सचेत कर दिया. आप जानते हैं, 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की मदद के लिए अमेरिका ने अपनी नौसेना के 7 बेड़े भेजे थे. ये अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ती घनिष्ठता का एक उदाहरण था.
अब जरा मैप पर गौर कीजिये. पाकिस्तान की सीमा अफ़ग़ानिस्तान से लगती है. 1970 के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत संघ का काफी प्रभाव था. और इस प्रभाव को खत्म करने के लिए अमेरिका पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान में कथित तौर पर अस्थिरता फैला रहा था. तो एक ऑपरेशन लॉन्च हुआ. ऑपरेशन REBUS. जिसके दो मोटिव थे-
-पहला, Pakistan के United States के साथ संबंधों को कमजोर करना.
-दूसरा, 1973 से 77 के बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे जुल्फिकार अली भुट्टो को सोवियत संघ के करीब लाना.
इसको पूरा करने के लिए KGB ने भुट्टो के अंदर एक डर बैठाया. डर तख्तापलट की साजिश का. KGB ने कई फर्जी लेटर्स बनाए. जिससे ये परसेप्शन बनाया गया कि पाकिस्तान में बैठे U.S. ambassador Walter P. McConaughy देश के opposition leaders और military officials के साथ संपर्क में हैं, और तख्तापलट की तैयारी कर रहे हैं.
इन लेटर्स को KGB ने Pakistan में मौजूद अपने operatives के जरिए भुट्टो के ख़ास लोगों तक पहुंचाया. जब ये फर्जी documents भुट्टो के हाथ में आए, तो उनका शक और गहरा हो गया. इसके बाद हुआ खेला. भुट्टो ने Pakistan को अमेरिका से दूर करना शुरू कर दिया और Soviet Union और China जैसे socialist देशों के साथ रिश्ते मज़बूत करने की कोशिश की. इस नीति का विरोध हुआ. लेकिन यहां हुई एक गलती. भुट्टो ने इन आवाजों को कुचलने की कोशिश की. इस कोशिश ने पाकिस्तानी सेना के बड़े और शक्तिशाली लोगों को भुट्टो के खिलाफ कर दिया. और 1977 में General Zia-ul-Haq जो अमेरिका का समर्थन करते थे, उन्होंने तख्तापलट कर भुट्टो को सत्ता से हटा दिया. KGB का Pakistan को Soviet bloc के करीब लाने का मकसद असफल हो गया.
3- आतंकवाद का समर्थनCold War के दौरान KGB ने Middle East में geopolitics और terrorism के dangerous web को संभाला, जिसमें Carlos और Gaddafi जैसे figures ने crucial roles play किए. कैसे? इसे समझते हैं.
A - कार्लोससाल 1970, मॉस्को की Patrice Lumumba यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाला एक लड़का, कार्लोस. अपनी कुछ हरकतों की वजह से उसे यूनिवर्सिटी से रेस्टीकेट कर दिया गया. कार्लोस इसके बाद जॉर्डन चला गया, और उसने पॉपुलर फ्रंट फॉर लिबरेशन ऑफ palestine जॉइन किया. PFLP इज़रायल के खिलाफ guerrilla warfare, hijacking, और assassinations के लिए जाना जाता था.
Carlos ने जल्द ही इस संगठन में अपनी पहचान बना ली. 21 दिसंबर 1975 को इसने एक बड़ी आतंकवादी घटना को अंजाम दिया. Carlos ने कुछ साथियों के साथ OPEC (Organization of Petroleum Exporting Countries) के Vienna headquarters में घुसकर 60 लोगों को बंधक बना लिया. इन 60 लोगों में 11 देशों के oil ministers भी शामिल थे. इस बड़े कांड के बाद कार्लोस KGB की नजर में आया. हालांकि KGB ने Carlos से हमेशा दूरी बनाए रखी, क्योंकि उन्हें कार्लोस का ऐटिटूड काफी unpredictable लगता था.
लेकिन फिर भी उसे Soviet-bloc countries, जैसे East Germany और Hungary, में operate करने की इजाजत दी गई थी. Carlos ने East Berlin और Budapest में अपने बेस बनाए, जहां से उसने कई और आतंकवादी ऑपरेशन्स को अंजाम दिया. इसके अलावा उसने इन इलाकों में KGB को सपोर्ट प्रोवाइड किया. कैसे? असल में सोवियत संघ ने 1970s में कई प्रॉक्सी terrorist ग्रुप्स का इस्तेमाल करके पक्षिमी यूरोप के देशों को destabilize करने की strategy अपनाई. इसके लिए KGB ने ऐसे कई ग्रुप्स को ट्रेनिंग दी, हथियार सप्लाई किये. लेकिन धीरे-धीरे कार्लोस की हरकतों से परेशान होकर KGB ने उसके ऊपर से अपना वरदहस्त हटा लिया.
B- गद्दाफीCarlos की तरह ही एक और करैक्टर था Gaddafi, जिसने 1969 से 2011 तक लीबिया पर राज किया. Gaddafi और आतंकवाद के रिश्ते कितने गहरे थे इसे एक किसे से समझिये.
साल 2003 में लीबिया की सरकार एक स्टेटमेंट निकालती है. जिसमें गद्दाफी हुकूमत ने 1988 के प्लान ब्लास्ट की ज़िम्मेदारी ली थी. इस ब्लास्ट में 189 लोगों की जान चली गई थी. गद्दाफी और सोवियत संघ के बीच 1979 में एक secret agreement हुआ, जिसमें KGB और लीबिया के इंटेलिजेंस सर्विसेज के बीच को-ऑपरेशन की बात को मंजूरी दी गई. इसके साथ ही लीबिया के अधिकारियों को मॉस्को में ट्रेनिंग भी दी गई.
इसके एवज में गद्दाफी ने कई insurgent groups जैसे PFLP को फंड किया. ये ग्रुप्स मिडिल ईस्ट में अमेरिका और उसके दोस्त जैसे इज़रायल के खिलाफ काम करते थे. बहरहाल, ये तो बात हुई KGB के मोडस ऑपरेंडी की. कैसे KGB ने अमेरिका यूरोप समेत कई देशों में जासूसी की. इसके अलावा कैसे विकासशील देशों में अपना प्रभुत्व जमाया और मिडिल ईस्ट को destabilize किया. लेकिन इन सभी मिशंस को एग्जीक्यूट करने के लिए बेहतरीन एजेंट्स की जरुरत होती है. तो अब समझते हैं KGB कैसे अपने एजेंट्स को रिक्रूट करती थी.
एजेंट्स की पहचानKGB का recruitment सिस्टम काफी स्ट्रक्चर्ड था. ये बड़ी चालाकी से पोटेंशियल कैंडिडेट्स को ढूंढकर उन्हें ग्रूम करती थी, चाहे वो सोवियत संघ के अंदर हो या विदेश में. कैसे? इसका एक acronym है.MICE.
1-M माने मनी या पैसा - आर्थिक परेशानियों में घिरे लोगों को रिक्रूट करना काफी आसान होता है. KGB उन्हें पैसों का लालच देकर कई देशों की sensitive information हासिल कर लेती थी. जैसे - KGB का एक एजेंट था, Rudolf Abel (असली नाम Vilyam Genrikhovich Fisher), इसने लगभग एक दशक तक अमेरिका में रहकर U.S. military की ख़ुफ़िया जानकारी जुटाई.
2-I यानी आइडियोलॉजी या विचारधारा- KGB की कोशिश उन लोगों को ढूंढने की होती थी, जो सोशलिस्ट या कम्यूनिस्ट आइडियोलॉजी से aligned हों. इसके लिए Cold War के दौरान, KGB ने वेस्टर्न देशों के उन intellectuals, students और political figures को target किया, जो कैपिटलिज्म के खिलाफ थे. इसके साथ ही सोवियत संघ में विकासशील देशों से आए students को भी target किया जाता था.
3- C माने coersion या दवाब डालना - जब बात पैसे और आइडियोलॉजी से न बने तब KGB कुछ ख़ास चिह्नित लोगों की पर्सनल लाइफ में कमिया ढूंढती थी. इसके लिए KGB honey trap का इस्तेमाल करके targets को blackmail करती थी. ये अक्सर दूसरे देशों के diplomats और military officers होते थे. Compromising सिचुएशन में उनकी photos खींचे जाते, और फिर उनसे Soviet intelligence के लिए काम करवाया जाता.
4- E माने ईगो. कोल्ड वॉर के दौरान कई ambitious politicians और officials को career advancement का लालच दिया जाता. उनको फंडिंग दी जाती थी, बदले में वो Soviet Union के लिए गुप्त रूप से काम करते.
KGB के इन चारों तरीकों के इस्तेमाल दुनिया की इंटेलिजेंस जगत में एक कांसेप्ट काफी तेज़ी से बढ़ा दिया. “Double Agents”.
KGB ने enemy spies को double agents में बदलने में महारत हासिल कर ली थी. ये agents दिखाने के लिए अपने employers के लिए काम करते रहते थे, लेकिन असल में Moscow को खुफिया जानकारी भेजते थे. KGB का एक double agent था Aldrich Ames, जो CIA officer था और लगभग एक दशक तक KGB को classified information देता रहा. इससे कई U.S. operations compromise हो गए. लेकिन कोई हमेशा शक्तिशाली नहीं रहता. KGB के साथ भी ऐसा ही हुआ. कैसे?
KGB का खात्मा1980 के दशक में सोवियत संघ की इकॉनमी के बुरे हाल हुए. लोगों के बीच गुस्सा पनपा. 1985 में जब Mikhail Gorbachev कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी बने, तो उन्होंने glasnost नाम की नीति का समर्थन शुरू किया. इसका मकसद था-
-सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना.
-और प्रशासनिक कार्यों में पारदर्शिता को बढ़ाना.
लेकिन ऐसी चीजों को बढ़ावा मिलने से सोवियत संघ के कुछ इंस्टीट्यूशंस जैसे KGB की पकड़ कमज़ोर होने लगी. कैसे? ऐसे कि 1954 से KGB ने सोवियत सोसाइटी पर कंट्रोल बना रखा था. ताकि देश के अंदर किसी तरह का विद्रोह न हो, और कम्युनिस्ट पार्टी का दबदबा बरकरार रह सके. लेकिन Glasnost की वजह से पकड़ ढीली पड़ते ही Soviet republics यानी सोवियत संघ में शामिल कई सारे राज्यों में आज़ादी की मांग ज़ोर पकड़ने लगी. ये राज्य थे- Georgia, Ukraine आदि.
ऐसी गतिविधियों के चलते कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं और गोर्बाचेव के बीच आंतरिक कलह भी शुरू हो गई. हाल ये हुआ कि अगस्त 1991 में, सोवियत सरकार के कई मेंबर्स, जिनमें पार्टी, सेना और KGB के लोग भी शामिल थे, उन्होंने तख्तापलट का प्लान बनाया. KGB की इंवॉल्वमेंट कितनी थी इसको कुछ इस तरह समझिए कि उस वक्त KGB के चेयरमैन Vladimir क्रियुचकोव ने इस तख्तापलट की प्लानिंग में अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन अभी समय KGB के पक्ष में नहीं था. जैसे ही इस बात की जानकारी जनता में फैली, लोग सड़कों पर उतर आए. मजबूरन, KGB और सेना के अधिकारियों को पीछे हटना पड़ा. तख़्तापलट का प्लान फेल हो गया. और साथ ही KGB की क्रेडिबिलिटी को भी बड़ा झटका लगा.
दूसरी तरफ सोवियत संघ Collapse हो रहा था. विद्रोह बढ़ रहे थे, देश आज़ादी की घोषणा कर रहे थे. तब 6 नवंबर को राष्ट्रपति Gorbachev ने आदेश निकाल कर KGB को फॉर्मली खत्म ही कर दिया. Agency को कई छोटे संगठनों में बांटा गया. जैसे -
-Federal Counter-Intelligence Service (FSK), जो बाद में Federal Security Service (FSB) बना. जिसे आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई.
-Foreign Intelligence Service (SVR), जिसने foreign intelligence का काम संभाला.
और, Federal Protection Service (FSO), जिसे top government officials की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई.
KGB खत्म हो गई लेकिन उसके अधिकारी और एजेंट्स नहीं. आज रूस की सत्ता में बैठे बड़े-बड़े अधिकारी और नेता पूर्व KGB एजेंट्स हैं. जिनमें रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का भी नाम शामिल है. पुतिन पूर्व KGB एजेंट हैं. रूस की नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के अध्यक्ष भी पूर्व KGB एजेंट हैं. नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल रूस की एक बेहद शक्तिशाली ऑर्गेनाइजेशन है, जो देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर राष्ट्रपति को सलाह देती है.
वीडियो: आसान भाषा में: रूस की एजेंसी KGB की क्या कहानी है? क्या भारत के चुनाव में शामिल था Soviet Union?