ये आर्टिकल 'दी लल्लनटॉप' के लिए ताबिश सिद्दीकी ने लिखा है. 'इस्लाम का इतिहास'नाम की इस सीरीज में ताबिश इस्लाम के उदय और उसके आसपास की घटनाओं के बारे मेंजानकारी दे रहे हैं. ये एक जानकारीपरक सीरीज होगी जिससे इस्लाम की उत्पत्ति के वक़्तकी घटनाओं का लेखाजोखा पाठकों को पढ़ने मिलेगा. ये सीरीज ताबिश सिद्दीकी कीव्यक्तिगत रिसर्च पर आधारित है. आप ताबिश से सीधे अपनी बात कहने के लिए इस पते परचिट्ठी भेज सकते हैं - writertabish@gmail.com--------------------------------------------------------------------------------इस्लाम के पहले का अरब: भाग 3ग्रहों और नक्षत्रों के देवी देवताओं के साथ अरबों का जिस एक मान्यता पर सबसे अधिकविश्वास था वो थी जिन्न/शैतान/डेविल की इबादत. ग्रहों और नक्षत्रों की पूजा अरब केआसपास के इलाक़ों से अरब में आई थी मगर जिन्न और अरबों का रिश्ता सबसे पुराना था.असफ और नायेलह की जो मूर्ति काबा के भीतर थी उसके बारे में अल-कलबी अपनी किताब,किताब-उल-अस्नाम में लिखते हैं कि ये दोनों प्रेमी थे. और जब तीर्थयात्रा के लिएकाबा आए तो इन्होंने काबा के भीतर, अकेलापन पाकर, शारीरिक सम्बन्ध बना लिए और फिरदोनों पत्थर के हो गए. बाद में अरबी लोगों ने इनकी पूजा शुरू कर दी. इन्हीं दोनोंकी मूर्तियां बाद में काबा के पास स्थित सफ़ा और मरवा के पहाड़ों पर लगायी गईं थी.असफ़ और नायेलह उस समय के बड़े प्रतिष्ठित "कुह्हान" थे.कुह्हान (Kuhhan) वो लोग होते थे जो जिन्न से संपर्क बनाते थे. ये एक तरह केभविष्यवक्ता होते थे. इनके पास जब कोई किसी सलाह या भविष्य जानने के लिए आता था तोये कुछ कर्मकांडों के साथ जिन्न से संपर्क करके लोगों की शंकाओं का समाधान करते थे.अरब के लोग जिन्नों को अल्लाह के समकक्ष समझते थे. अल्लाह का मतलब अरबों के लिए"सबसे बड़ा देवता" होता था. जिन्न पूजा की अरब में कितनी गहरी पैठ थी इसका उत्तरआपको ढेरों हदीसों और इस्लाम से पहले के अरब की शायरियों में मिल जाएगा. अरबों केलिए पूज्य "जिन्नों" के वजूद को आगे चलकर इस्लाम में भी सम्मिलित किया गया और कुरानमें 28 छंदों की एक "सूरह जिन्न" है जो पूरी तरह से जिन्नों को ही समर्पित है. अरबीलोग जिन्न और अल्लाह (सबसे बड़े देवता) को भाई मानते थे (स्रोत- क़ुरान 37:158)Image: Reutersकाबा का जो श्रेष्ठ पुजारी होता था वो एक काहिन (कुह्हान शब्द का एकवचन) होता था जोज़रूरत पड़ने पर कर्मकांड के हिसाब से जिन्नों से संपर्क साधता था. जिन्नों से संपर्कहोने के बाद काहिन लोग "अभिशप्त और अभिभूत" अवस्था में छंदों की तरह कविता के रूपमें भविष्यवाणी करते थे. ये कविताएं उसी तरह से होती थीं जैसे क़ुरान की आयतें हैं.अरबी लोग इन "भविष्यवक्ताओं" द्वारा कही गयी वाणी को दैवीय वाणी मानते थे और अपनीसमस्याओं का समाधान उनमें ढूंढते थे. इन भविष्यवाणियों और दैवीय कविताओं को काबा केऊपर ढके हुए कपड़े (किस्वा) पर धागों से कढ़ाई के रूप में ठीक उसी तरह लिखा जाता थाजैसे आज कुरान की आयतों को लिखा जाता है.कविताएं या शेर-ओ-शायरी अरब की संस्कृति में सबसे उंचा स्थान रखती थी. अरबों केसमाज में शायर सबसे अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति होता था. जो व्यक्ति अपनी बात को सबसेकम और असरदार शब्दों में कह पाता था वो उनके लिए सबसे अच्छा शायर होता था.प्रतिवर्ष मक्का में शेर-ओ-शायरी की प्रतिस्पर्धा होती थी और जीतने वाले शायर केसबसे अच्छे शेर को भी काबा के ऊपर बड़े अक्षरों में लिख कर टांगा जाता था. शायरीअरबों के लिए दैवीय होती थी क्यूंकि काहिन भी जिन्नों से संपर्क के बाद शेर-ओ-शायरीमें ही अपनी बात कहते थे जो अरबों के लिए देवताओं का सन्देश होती थी.शेर और शायरी की अरबों के जीवन में महत्ता पर हमें ध्यान देना होगा और गहरे सेसमझना होगा. कुरान की शुरुआती आयतें छोटे छंदों के साथ साथ लयबद्ध थीं. लेखक जवादअली अपनी किताब Mufassal fi tarikh al-ʻArab qabla al-Islam, के छठवें खंड के 723पेज में आठवीं शताब्दी के लेखक अल-जाहिज़ की किताब किताब-उल-हैवान से उदाहरण देतेहुए लिखते हैं कि, अल-जाहिज़ कहते हैं "क़ुरान प्रतिनिधित्व करता है मुहम्मद के पहलेके अरबों के ऐसे साहित्य का जो जिन्नों के लिए होते थे."क़ुरैश, मुहम्मद के अपने घराने के लोग और बाक़ी अरब शुरुआत के दिनों में मुहम्मद कोकाहिन ही कहते थे. क्यूंकि जिस तरह भाषा और छंद मुहम्मद के द्वारा उद्घृत क़ुरान केहोते थे वैसी ही भाषा और छंद मक्का और उसके आसपास के जिन्नों और इंसानों के बीचसंवाद स्थापित करने वाले कुह्हनों के होते थे.किताब अल बुल्हान में कुह्हानजिन्न और अरबों के बीच के रिश्ते को एक घटना के द्वारा हम बहुत अच्छी तरह समझ सकतेहैं. अल-तब्रई अपनी किताब तारीख़-अल-तब्रई (जिसे तारीख़-अल-रसूल-व-अल-मुलुक के नाम सेभी जाना जाता है) में ज़िक्र करते हैं एक सांप का, जो काबे के भीतर बने हुए एक गड्ढेमें रहता था. अरब के लोग उस गड्ढे में अपनी दान/चढ़ावा उस सांप को चढ़ाते थे. जिसमेंकीमती गहने के साथ साथ हर चीज़ होती थी. इस बात से ये पता चलता है कि अरब के लोग उससांप की पूजा करते थे और जिसे वो जिन्न/डेविल समझते थे. सांप को जिन्न का ही रूपसमझा जाता था.इस सांप के बारे में इब्न-इस्हाक़ ने भी लिखा है और इमाम अल-कुर्तुबी अपनी किताब"तफ़सीर अल-कुर्तुबी" में इब्न अब्बास के हवाले से इसी बात को और विस्तार से लिखतेहैं कि "काबा के भीतर घुसने पर दाहिनी तरफ़ एक गड्ढा/कुंआ था जिसे इब्राहीम ने अपनेबेटे इस्माईल के साथ खोदा था. (अरबों की ये मान्यता थी और है कि काबा का निर्माणमुहम्मद से बहुत पहले आये पैगम्बर इब्राहीम ने किया था) ये गड्ढा काबे में आने वालेचढ़ावे को सुरक्षित रखने के लिए था. जब काबा जुर्हुम कबीले के लोगों के हाथ में थातो चढ़ावे में आये हुए सोना और चांदी अक्सर चोरी हो जाते थे.क़बीले वालों ने चढ़ावे की हिफाज़त के लिए एक चौकीदार रखा मगर एक दिन उस चोर को लालच आगया और वो गड्ढे में उतर गया. चोरी के इरादे से. उसी समय अल्लाह के हुक्म से गड्ढेका मुह एक पत्थर से बंद हो गया. उसी दिन से अल्लाह ने एक सांप को भेजा जिसने काबाके चढ़ावे की पांच सौ साल तक हिफाज़त की. एक समय में काबा इतना जर्जर हो चुका था किकुरैश के लोगों ने उसे दुबारा बनाने का सोचा. मगर जब क़ुरैश के लोगों ने जर्जर होचुके काबा को फिर से बनाने का सोचा तो वो वहां रहने वाले इस बड़े से सांप को लेकरबहुत डरे हुए थे और उनकी हिम्मत नहीं थी कि वो काबा को हाथ लगाएं. इब्न इस्हाक़लिखते हैं कि "ये सांप रोज़ सुबह काबा के भीतर के उस गड्ढे से निकलकर बाहर आ कर काबाकी दीवार से सटकर धूप का आनंद लेता था."अरब में इस्लाम से पहले के अवशेषअल-कुर्तुबी ने अरबों की उस सांप के बारे में बनी धारणा को विस्तार रूप दिया. मगरपीछे की कहानी जो भी हो. बाद में ये अरब उसे जिन्न का रूप मान कर उसकी पूजा करनेलगे थे. इब्ने इस्हाक़ लिखते हैं कि अरब उसी सांप के डर से काबा के पुनर्निर्माण कानहीं सोच रहे थे. उस सांप को हटाने के लिए उन्होंने अल्लाह से दुवा की. और जब एकदिन वो सांप काबा की दीवार से सटकर धूप का आनन्द ले रहा था तभी एक बाज़ उसे ले कर उड़गया और अरबों ने ये समझा कि ये अल्लाह के तरफ़ से इशारा है कि काबा का पुनर्निर्माणकिया जाए.यहां एक और देखने वाली बात ये है कि इमाम अल-कुर्तुबी का ये लिखना कि "काबा मेंचढ़ावे के लिए एक गड्ढा इब्राहीम और उनके बेटे द्वारा खोदा गया" क्या इस बात की तरफइशारा करता है कि काबा में उनके समय से ही चढ़ावा आता था? और अगर ये दावा किया जाताथा कि हज़रात इब्राहीम "एक निराकार अल्लाह" की उपासना करते थे तो ये चढ़ावा किसके लिएआता था फिर?एक और बहुत दिलचस्प हवाला ये है कि अट्ठारवीं शताब्दी के इस्लामिक लेखक मुर्तज़ाअल-ज़बीदी अपनी किताब ताज अल-उरुस (ये एक बहुत मान्य क्लासिक अरेबिक डिक्शनरी है) केपहले और नौवें खंड में बताते हैं कि "अलाहा शब्द, जिस से अल्लाह बना है उसको एक बड़ेसांप के लिए इस्तेमाल किया जाता था. अरब उसे सर्प-जिन्न/शैतान/डेविल समझते थे. एकऔर उपाधि जो डेविल/शैतान को अरब के लोग देते थे वो थी अज़ाब और इसे भी सांप ही समझाजाता था." क्रमशः(Source: Ibn-Ishaq/Hisham, Martin Lings - Muhammad, Aziz Al-Azmeh - TheEmergence of Islam in Late Antiquity: Allah and His People )--------------------------------------------------------------------------------इस्लाम का इतिहास की पिछली किस्त:Part 1: कहानी आब-ए-ज़मज़म और काबे के अंदर रखी 360 मूर्तियों कीताबिश सिद्दीकी के और आर्टिकल्स यहां पढ़ें:हलाला के हिमायतियों, कुरआन की ये आयत पढ़ लो, आंखें खुल जाएंगीइस्लाम की नाक बचाने के लिए डॉक्टर कफ़ील को हीरो बनाने की मजबूरी क्यों है?मुसलमानों और हिंदुओं के बीच के इस फर्क ने ही मुसलमानों की छवि इतनी खराब की हैइस्लाम में नेलपॉलिश लगाने और टीवी देखने को हराम क्यों बताया गया?औरंगज़ेब, जो पाबंदी से नमाज़ पढ़ता था और भाइयों का गला काट देता थाहज में ऐसा क्या होता है, जो वहां खंभों को शैतान बताकर उन्हें पत्थर मारे जातेहैं, जानिए इस वीडियो में: