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मुस्लिम देशों से निकली कॉफ़ी दुनिया भर में कैसे फैली?

एक दौर में अगर पति पत्नी को कॉफ़ी नहीं दे पाता, तो पत्नी इस बात पर तलाक मांग सकती थी.

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Coffee history & origin
कॉफी पीने की शुरुआत 13वीं सदी में यमन में हुई. वहां के सूफियों ने इसके बीजों को भूनकर चूर्ण बनाया और पानी में उबालकर पीना शुरू किया (तस्वीर- Pexels/Wikimedia commons)
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7 जुलाई 2023 (Updated: 7 जुलाई 2023, 10:06 IST)
Updated: 7 जुलाई 2023 10:06 IST
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अरब देशों के इतिहास में एक दौर ऐसा भी था, जब आदमी अगर अपनी पत्नी को कॉफ़ी लाकर ना दे तो वो उसके ख़िलाफ़ तलाक़ की अर्ज़ी दाखिल कर सकती थी. आज दुनिया भर में हर दिन दो अरब कप से ज्यादा कॉफी पी जाती है. लेकिन क्या आप जानते हैं कॉफ़ी का इतिहास क्या है? जिस कॉफ़ी को कभी शैतान की पसंदीदा ड्रिंक कहा जाता था, कैसे दुनिया भर के लोगों का सबसे पसंदीदा पेय बन गई. चलिए जानते हैं. (coffee history)

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कॉफ़ी का इतिहास 

कॉफ़ी, ये शब्द आया है अरबी भाषा के शब्द कहवा(Kahwah) से. कॉफ़ी पीने का चलन सबसे पहले मध्य पूर्व के देश यमन में शुरू हुआ था. इस्लामिक देशों में ख़ास तौर पर सूफ़ी संत इसका इस्तेमाल किया करते थे. क्योंकि इस्लाम में शराब पीने पर मनाही थी. यमन तक कॉफ़ी कैसे पहुंची?

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Coffee originated in Ethiopia
इथियोपिया को व्यापक रूप से कॉफी की उत्पत्ति का केंद्र माना जाता है (तस्वीर- Wikimedia commons)

माना जाता है कि कुछ 900 ईस्वीं के आसपास यमन के ठीक बग़ल में लाल सागर के दक्षिणी छोर पर स्थित इथियोपिया(Ethiopia) की पहाड़ियों में पहली बार कॉफ़ी की खोज हुई. लोक कथाओं के अनुसार कल्दी नाम का गडरिया एक रोज़ अपनी बकरियों को चराने जंगल गया. अचानक उसने देखा कि उसकी एक बकरी कुछ ज़्यादा ही उत्साहित है. कल्दी ने बकरी का पीछा किया तो देखा, वो एक पेड़ के बीज खा रही थी. कल्दी उन बीजों को इकट्ठा कर पास के एक मठ में ले गया. एक भिक्षु ने उन बीजों को लिया और आग में डाल दिया. आग से निकल रहे धुएं के साथ उन बीजों की महक पूरे मठ में फैल गई. ये देखकर कुछ भिक्षुओं ने उन भुने हुए बीजों को लेकर पीसा और पानी में घोल दिया. इस तरह तैयार हुआ कॉफ़ी का पहला कप. 

कॉफ़ी की शुरुआत की एक और कहानी है जो 12 वीं सदी के आसपास की बताई जाती है. मोरक्को के एक सूफ़ी संत हुआ करते थे, अल-शदिली(Al Shadhili). उमर नाम का उनका एक शिष्य हुआ करता था. उमर मक्का में रहता था और प्रार्थना के ज़रिए लोगों के मर्ज़ दूर करता था. एक बार ऐसा हुआ कि उमर को मक्का से निकाल दिया गया. और वो जंगलों में भटकने लगा. भटकते - भटकते उसे एक झाड़ी मिली जिसमें कुछ कंद मूल उगे हुए थे. उमर ने उन्हें खाने की कोशिश की लेकिन वो बहुत कड़वे थे. उसने उन्हें आग में पकाया लेकिन फिर भी उनका स्वाद बेहतर ना हुआ. तब उसने उन्हें पानी में उबाला जिससे एक काड़ा सा तैयार हो गया. इस काड़े को पीने के बाद उमर को अपने शरीर में एक नई ताज़गी का अनुभव हुआ. अगले कुछ दिनों में उसकी सेहत भी बेहतर होने लगी. जल्द ही ये खबर मक्का तक पहुंच गई कि उमर ने कोई जादुई काड़ा ढूंढ निकाला है. उमर को वापस बुलाया गया और उसे संत की उपाधि दे दी गई. इसके बाद कॉफ़ी, जिसे कहवा कहा जाता था, पूरे मध्य पूर्व में फैल गई.

दुनिया का पहला कॉफ़ी हाउस साल 1475 में इस्तांबुल में खुला. जिसे तब कॉन्स्टेंटिनपोल बोला जाता था. जल्द ही ऐसे कई और कॉफ़ी हाउस खुले, जहां शाम के वक्त इकट्ठा होना, और कॉफ़ी पीते हुए चर्चाएं करना कल्चर का हिस्सा बन गया. मिडिल ईस्ट से कॉफ़ी पहुंची यूरोप तक. लेकिन यूरोप से पहले बात करते हैं भारत की.

भारत कैसे पहुंची कॉफ़ी?

मुग़लों के दौर में ही भारत में कॉफ़ी का चलन शुरू हो गया था. कॉफ़ी के भुने हुए बीजों को आयात कर मध्य पूर्व से भारत लाया जाता था. लेकिन इसकी खेती यहां नहीं होती थी. कॉफ़ी काफ़ी क़ीमती थी. लिहाज़ा केवल कॉफ़ी के भुने हुए बीजों को मध्य पूर्व के देशों से बाहर ले जाने की इजाज़त होती थी. भुने हुए बीजों से पेड़ नहीं पैदा किए जा सकते थे. इसलिए कॉफ़ी का पौधा भारत तक पहुंचा एक दूसरे रास्ते से.

Coffee History
कॉफी के दो प्रकार सबसे ज्यादा प्रचलित हैं, पहला को है अरेबिका और दूसरा है रॉबस्टा. सबसे ज्यादा अरेबिका का सेवन किया जाता है (तस्वीर- Wikimedia commons)

किस्सा यूं है कि 16 वीं शताब्दी में कर्नाटक के चिकमंगलूर में एक सूफ़ी फ़क़ीर रहा करते थे. जिन्हें सब बाबा बुदन कहकर बुलाते थे. एक बार बाबा बुदन हज की यात्रा पर मक्का गए. और वहां से लौटते हुए कॉफ़ी के सात बीज अपने लबादे में छुपाकर ले आए.चंद्रगिरी की पहाड़ियों में ये बीज उन्होंने अपनी गुफा के बाहर बो दिए. जल्द ही उनसे पेड़ बने और स्थानीय लोगों में कॉफ़ी का चलन शुरू हो गया. 21 वीं शताब्दी में भी इन पहाड़ियों को बाबा बुदनगिरी के नाम से जाना जाता है, और अभी भी यहां कॉफ़ी की खेती की जाती है.

इसी दौर में मुग़ल दरबार में भी कॉफ़ी के सेवन का ज़िक्र मिलता है. साल 1616 में ब्रिटिश राजदूत दल के साथ भारत आए एड्वर्ड टेरी अपने संस्मरण में लिखते हैं,

"लोग सख़्ती से धार्मिक परंपरा का पालन करते हैं. शराब नहीं पीते. लेकिन शराब के बदले एक काला पेय ज़रूर पीते हैं. काले बीजों को पानी में उबाल कर ये पेय बनाया जाता है. कहते हैं इससे पाचन अच्छा होता है, और खून की सफ़ाई होती है"

मुग़ल दरबार में जहां कॉफ़ी का सेवन सेहत के लिए किया जाता था, वहीं आम लोग इसे उच्च वर्ग की ड्रिंक मानते थे.17 वीं शताब्दी के मध्य तक शाहजहांनाबाद या जिसे हम पुरानी दिल्ली कहते हैं, यहां कई कॉफ़ी हाउस खुले. जिन्हें कहवाखाना बोलते थे. कॉफ़ी में एक सुरूर तो था ही, इसलिए जल्द ही ये शायरों और बुद्दजीवियों की ड्रिंक बन गई. कहवे की चुस्की मारते हुए कई शायर इस फ़िज़ा में उभरे और दिल्ली की आन बान शान में इज़ाफ़ा किया.

कॉफ़ी का नवाबी शौक 

इस दौर में कॉफ़ी के सबसे बड़े शौक़ीनों में एक नाम था बंगाल के नवाब अलवर्दी खान का. नवाब साहब शौक़ीन आदमी थे. लेकिन शौक़ में जिन दो चीजों का दर्जा सबसे ऊपर था, वो थे भोजन और कॉफ़ी. 18 वीं सदी के इतिहासकार ग़ुलाम हुसैन खान, नवाब का डेली रूटीन बताते हुए लिखते हैं,

"रोज़ सूरज के निकलने से दो घंटे पहले नवाब की आंख खुल जाती थी. सुबह सुबह नवाब के आगे एक कप कहवे का पेश होता. उसके बाद ही वो आगे के काम करते. कॉफ़ी के मामले में नवाब सिर्फ़ तुर्की के उम्दा क़िस्म के कॉफ़ी के बीज इस्तेमाल करते थे. और ये बीज ओटोमन साम्राज्य से सीधे राजधानी मुर्शिदाबाद लाए जाते थे. सिर्फ़ कॉफ़ी के बीज ही विदेश ने आयात नहीं होते थे. बल्कि खानसामे भी फ़ारस, तुर्की और मध्य एशिया से लाए जाते थे. कॉफ़ी बनाने वाला एक अलग आदमी होता था, जिसे कहवाची-बाशी कहते थे. ये शख़्स अपने साथ कॉफ़ी बनाने के उन्नत बर्तन भी लेकर आता था. जिसमें सुबह और शाम, दो वक्त कॉफ़ी तैयार होती थी."

ग़ुलाम हुसैन खान के लिखे से पता चलता है, 1750 के आसपास तक दिल्ली से लेकर बंगाल तक कॉफ़ी का खूब चलन था. लेकिन फिर कुछ ही सालों में ये चलन बंद हो गया. भारत में कॉफ़ी के ढलान का मुख्य कारण रहा, अंग्रेजों का भारत में पकड़ बनाना. अंग्रेज कॉफ़ी का व्यापार तो करते थे, लेकिन उनका मुख्य पेय चाय ही था. अंग्रेजों के आने के बाद धीरे-धीरे कॉफ़ी का स्वाद, लोगों की ज़ुबान और जहन, दोनों से ग़ायब हो गया. इसके बाद कॉफ़ी की वापसी कुछ 150 साल बाद हुई. ये वापसी कैसे हुई, ये जानने से पहले, चलते हैं, यूरोप की तरफ़.

यूरोप में कॉफ़ी इटली के रास्ते पहुंची. लेकिन जैसे ही वहां इसका चलन आम होने लगा, रोमन कैथोलिक चर्च ने इस पर रोक लगा दी. चर्च का मानना था कि कॉफ़ी एक मुस्लिम ड्रिंक है इसलिए ईसाइयों को इसे पीने से परहेज़ करना चाहिए. उन्होंने इसे शैतान की पसंदीदा ड्रिंक का नाम दिया.

कॉफ़ी बन गई इसाइयों की ड्रिंक 

इस सोच में बदलाव कैसे आया, इसे लेकर भी एक दिलचस्प किस्सा है. चर्च के एक पोप हुआ करते थे, क्लिमेंट आठवें. एक रोज़ इत्तेफ़ाक से किसी ने उन्हें कॉफ़ी दे दी और अनजाने में पोप पी भी गए. पीते ही उनका मन पूरी तरह बदल गया. और उन्होंने कॉफ़ी को ईसाई ड्रिंक डिक्लेयर कर दिया. इसके बाद इटली से होते हुए कॉफ़ी पूरे यूरोप में फैल गई. धीरे-धीरे ब्रिटेन सहित यूरोप के तमाम देशों में कॉफ़ी घर खुलने लग गए.

Cooffe History Europe
यूरोप दुनिया में सबसे अधिक कॉफ़ी का आयात करता है वहीं ब्राजील कॉफी का प्रमुख निर्यातक देश है. ब्राजील दुनिया की 40% कॉफी का उत्पादन करता है (तस्वीर- Wikimedia commons)

इन कॉफ़ी घरों को लेकर भी शुरुआत में काफ़ी हंगामा हुआ. ये कॉफ़ी घर चूंकि बुद्धिजीवियों की बहस का अड्डा होते थे, इसलिए ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय ने इन्हें देशद्रोह को बढ़ावा देने का अड्डा करार देकर बैन करने की कोशिश की. उस दौर में कॉफ़ी घर में आने की इजाज़त सिर्फ़ पुरुषों को दी जाती थी. एक पेनी में एक कप कॉफ़ी. जिसके चलते कॉफ़ी हाउसेज को एक नया नाम मिला, ‘पेनी यूनिवर्सिटी'. यानी एक पेनी लेकर आओ, और दुनिया भर का ज्ञान लेकर जाओ. कॉफ़ी के ख़िलाफ़ 1674 में यूरोप में ये मुहीम भी चलाई गई कि कॉफी से नपुंसकता आती है. लेकिन पीने वालों ने उल्टा दावा करते हुए कहा, इससे पौरुष में बढ़ोतरी होती है.

इन सब विरोधों के बावजूद कॉफ़ी का चलन बढ़ता गया और कॉफ़ी यूरोप से होते हुए उनकी तमाम कोलोनियों तक भी पहुंच गई. इनमें से एक अमेरिका भी था. अमेरिका आज दुनिया के सबसे ज़्यादा कॉफ़ी पीने वाले देशों में से एक है. लेकिन 1770 से पहले यहां भी चाय ही पी जाती थी. फिर 1773 में एक बड़ा कांड हो गया. अमेरिका के बॉस्टन शहर में चाय पर लगे टैक्स के विरोध में कुछ लोग जहाज़ पर चढ़े और चाय की 342 पेटियां समंदर में फेंक दी. इन पेटियों में 90 हजार पाउंड (45 टन) चाय रखी हुई थी. जिसकी क़ीमत लगभग 10 लाख डॉलर के करीब थी. इस घटना के बाद पूरे अमेरिका में बड़े पैमाने पर चाय का विरोध होने लगा, और लोगों ने कॉफ़ी को अपना लिया.

कॉफ़ी को लेकर अमेरिकियों की सनक ऐसी थी कि अमेरिकी गृह युद्ध के दौरान लिखी गई डायरियों को जब छाना गया, तो उसमें सबसे ज़्यादा जिस शब्द का ज़िक्र मिला वो कॉफ़ी था. स्मिथसोनियन नेशनल म्यूज़ियम के क्यूरेटर जॉन ग्रिंसपैन बताते हैं,

"हम इन डायरियों में युद्ध की बड़ी कहानियां ढूंढ रहे थे. लेकिन लगभग हर पन्ने पर या तो ये लिखा होता कि अमुक सैनिक ने उस रोज़ कैसे कॉफ़ी पी. या फिर कैसे उसे उस दिन कॉफ़ी नहीं मिल पाई."

कॉफ़ी की दीवानगी अमेरिकी में आज भी ज्यों की त्यों बरकरार हैं. और दुनिया की सबसे बड़ी कॉफ़ी चेंस इसी देश से निकली हैं. अब बात कॉफ़ी के स्वाद की. इसके कड़वे स्वाद के कारण शुरू में आम लोगों द्वारा इसे ज़्यादा पसंद नहीं किया जाता था. लेकिन फिर 19 वीं सदी में इटली में एस्प्रेसो मशीन ईजाद हुई. जिसमें तेज प्रेशर में पानी कॉफ़ी बींस के ऊपर डाला जाता था. और कॉफ़ी तैयार हो जाती थी. मशीनों के आगमन के साथ कॉफ़ी बनाना आसान होता गया. और आम लोगों ने इसे अपनाना शुरू कर दिया.

दुनिया की सबसे महंगी कॉफ़ी 

आज दुनिया के हर देश में कॉफ़ी पी जाती है. और इसकी हज़ारों क़िस्में मौजूद है. कॉफ़ी बनाने के तरीके भी अलग-अलग है. जिन्हें दूध और कॉफ़ी को अलग-अलग मात्रा में मिलाकर और एक्स्पेरिमेंट कर ईजाद किया गया. कई बार ज़रूरत के चलते भी कॉफ़ी में बदलाव हुआ. जैसे इंस्टेंट कॉफ़ी. जिसमें सिर्फ़ गरम पानी मिलाना होता था. इसे तैयार किया गया था युद्ध में लड़ रहे सैनिकों के लिए, जिनके पास कॉफ़ी तैयार करने का वक्त नहीं होता था.

Coffee production India
भारत में सबसे अधिक कॉफी का उत्पादन कर्नाटक में 53 प्रतिशत, केरल में 28 प्रतिशत और तमिलनाडु में 11 प्रतिशत होता है (तस्वीर- Wikimedia commons)

इसी इंस्टेंट कॉफ़ी का एक पाउच 21 वीं सदी में दो रुपए में मिल जाता है. लेकिन कॉफ़ी की ऐसी क़िस्में भी हैं, जिनका दाम हज़ारों रुपए तक जाता है. मसलन, थाईलेंड में मिलने वाली कॉफ़ी की एक क़िस्म है, जिसका नाम है ब्लैक आइवरी कॉफ़ी. इसका दाम है, डेढ़ लाख रुपए प्रति किलो ग्राम यानी लगभग 4 हज़ार रुपए प्रति कप. ऐसा क्या है इस कॉफ़ी में?
ज़्यादा कुछ नहीं, बस इस कॉफ़ी को बनाने में एक पूरा हाथी लगता है. कैसे?

पहले कॉफ़ी के बीजों को हाथियों को खिलाया जाता है. उसके बाद हाथी की लीद से कॉफ़ी के बीज इकट्ठा किए जाते हैं. और उनसे ये कॉफ़ी तैयार होती है. माना जाता है कि हाथी के पेट में मौजूद पाचन रस इस कॉफ़ी को अलग ही ज़ायक़ा दे देते हैं. दुनिया भर में कॉफ़ी की ऐसी तमाम अफलातूनी क़िस्में पाई जाती हैं. लेकिन हम अब दुनिया से लौटते हैं भारत में. कुछ देर पहले हमने आपको बताया था कि 18 शताब्दी के मध्य में कॉफ़ी भारत से ग़ायब हो गई थी. लेकिन आज पूरे भारत, ख़ासकर दक्षिण भारत के बड़े हिस्से में कॉफ़ी मुख्य पेय है. ऐसा कैसे हुआ?

इसका श्रेय जाता है, इंडिया कॉफ़ी हाउस नाम की एक काफ़ी हाउस चेन को. साल 1936 में ब्रिटिश सरकार ने कॉफ़ी सेस कमिटी का गठन किया. इस कमिटी ने कॉफ़ी की बिक्री को बढ़ावा देने के लिए काफ़ी हाउसेज खोलने की शुरुआत की. और इस तरह सितम्बर 1936 में चर्चगेट बम्बई में इंडिया कॉफ़ी हाउस का पहला उपक्रम खोला गया. धीरे धीरे इसकी शाखाएं पूरे भारत में खुलीं. ये कॉफ़ीघर कॉफ़ी पीने के साथ-साथ लिट्रेचर और आर्ट्स को बढ़ावा देने का अड्डा बने. और धीरे-धीरे कॉफ़ी पूरे भारत में पी जाने लगी. कॉफ़ी के उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में आठवें नम्बर पर आता है. और दक्षिण भारत के अधिकतर राज्यों में ये लोगों का मुख्य पेय है. हालांकि भारत के ज़्यादातर लोग कॉफ़ी के बजाय चाय पीना पसंद करते हैं. लेकिन बदलते वक्त के साथ साथ कॉफ़ी का चलन भी बढ़ता जा रहा है. आपको ज़्यादा क्या पसंद है, चाय या कॉफ़ी, ये आप हमें कमेंट्स में बता सकते हैं. फ़िलहाल के लिए आज का एपिसोड यहीं पर समाप्त करते हैं.

 

 

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