एक कविता रोज: कुंवर नारायण की कविता, "एक मां की बेबसी"
आपके पास वक्त हो तो पढ़िए, न हो तो निकालकर पढ़िए, उनकी कविता, “एक मां की बेबसी.” इस बात का बिल्कुल लोड न लीजिएगा कि आपको ये पूरी कविता या इसके कुछ शब्द समझ में नहीं आ रहे हैं, अगर इसे पढ़ते हुए महज एक तस्वीर भी आपके ज़ेहन पर जाहिर हो रही है, तो ये कविता कामयाब है.
आज से सात बरस पहले कुंवर नारायण चले गए. और अपने पीछे जो कुछ सुंदर छोड़ गए, आज हम उसके एक हिस्से से आपकी मुलाकात करवा रहे हैं. हालात से हारा हुआ व्यक्ति उनकी कविता की उंगली पकड़कर जीत के मुहाने तक जा पहुंचता है, जब वे लिखते हैं,
“कोई दुःख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं,वही हारा
जो लड़ा नहीं…”
आपके पास वक्त हो तो पढ़िए, न हो तो निकालकर पढ़िए, उनकी कविता, “एक मां की बेबसी.” ये कविता कक्षा-5 की एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम में शामिल है. इस बात का बिल्कुल लोड न लीजिएगा कि आपको ये पूरी कविता या इसके कुछ शब्द समझ में नहीं आ रहे हैं, अगर इसे पढ़ते हुए महज एक तस्वीर भी आपके ज़ेहन में जाहिर हो रही है, तो ये कविता कामयाब है.
न जाने किस अदृश्य पड़ोस से
निकल कर आता था वह
खेलने हमारे साथ—
रतन, जो बोल नहीं सकता था
खेलता था हमारे साथ
एक टूटे खिलौने की तरह
देखने में हम बच्चों की ही तरह
था वह भी एक बच्चा.
लेकिन हम बच्चों के लिए अजूबा था
क्योंकि हमसे भिन्न था
थोड़ा घबराते भी थे हम उससे
क्योंकि समझ नहीं पाते थे
उसकी घबराहटों को,
न इशारों में कही उसकी बातों को,
न उसकी भयभीत आंखों में
हर समय दिखती
उसके अंदर की छटपटाहटों को.
जितनी देर वह रहता
पास बैठी उसक मां
निहारती रहती उसका खेलना
अब जैसे-जैसे
कुछ बेहतर समझने लगा हूं
उनकी भाषा जो बोल नहीं पाते हैं
याद आती
रतन से अधिक
उसकी मां की आंखों में
झलकती उसकी बेबसी.
कुंवर नारायण के बारे में और ज्यादा जानने-समझने की इच्छा हो तो आप उनकी डायरी, “दिशाओं का खुला आकाश” पढ़ सकते हैं. इसे वाणी प्रकाशन ने छापा है. कीमत है, 227 रूपये.
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