The Lallantop
Advertisement

बॉबी देओल को स्टार बनाने वाले भी कानपुर के ही थे

‘काम मेरा कुछ और है जो काबिले-गौर है’ कहकर सांडे का तेल बेचने वाले भी कान-ही-पुर के थे.

Advertisement
Img The Lallantop
pic
लल्लनटॉप
27 जनवरी 2018 (Updated: 11 फ़रवरी 2018, 04:40 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
घातक कथाएं कानपुर से शुरू होना चाहती हैं और पोरबंदर में खत्म. इसे यूं भी कह सकते हैं कि जहां महात्मा गांधी का जन्म हुआ, वे वहां मरना चाहती हैं. कानपुर से पोरबंदर के बीच वे चे ग्वेरा की तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भटकना चाहती हैं. चे अर्जेंटीना में जन्मा, ग्वाटेमाला में समाज-सेवक बना, क्यूबा में क्रांति की और बोलिविया में मारा गया. घातक कथाकार की प्रतिष्ठा एक कथाकार के रूप में नहीं है. वह मूलत: कवि है और आततायियों को सदा यह यकीन भी दिलाता रहता है कि वह अब तक मूलतः कवि है, भले ही वक्त के थपेड़ों ने उसे कविता में नालायक बनाकर छोड़ दिया है. बावजूद इस प्रतिष्ठा के उसे यह खुशफहमी है कि एक कथाकार के रूप में उसकी प्रतिभा वैसे ही असंदिग्ध है— जैसे नेपोलियन की आकृति-विज्ञान में, मेजाफेंटी की भाषाओं में, लॉस्कर की शतरंज में और बुसोनी की संगीत में. घातक कथाकार का कानपुर एक बदसूरत जगह है जहां गलियां हर बरसात में डूब जाती हैं और गंदले पानी में ईंटों को रखकर उन्हें पार किया जाता है. बौछारें छतों को छीन लेती हैं और कीचड़ बारिशों के बाद भी बना रहता है. वह उत्तर प्रदेश का एक ऐसा महानगर है जिसके घूमने लायक हिस्से को एक घंटे में पैदल पूरा घूमा जा सकता है. इसे कभी भारत का ‘मैनचेस्टर’ कहा जाता था. वह मिलों-कारखानों के शोर-शराबे में घटता हुआ परतंत्र भारत का कानपुर था. इसकी अंग्रेजी स्पेलिंग Kanpur नहीं Cownpore थी. तब यहां बहुत सारी मिलें थीं, इतनी कि बहुत सारे मजदूर बिहार और बंगाल से आते थे फिर भी कम पड़ते थे. सुदूर भारतीय ग्रामों से आए हुए ये मजदूर गुलाबबाई की नौटंकियों के सबसे बड़े दर्शक थे. वे रौनकें नामालूम कब कानपुर से उठ गईं. भारत आजाद हुआ और कानपुर के चौराहे शहीद स्मारकों से भर गए. भारत के बहुत सारे शहरों की तरह कानपुर में ऐसा रस्मन नहीं हुआ. यह एक स्वाभाविक स्मृति और श्रद्धा थी, क्योंकि कानपुर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का वह अध्याय है, जिसमें कई इंकलाबी गाथाएं सांस ले रही हैं. एक वक्त का कानपुर कला, साहित्य और संस्कृति का केंद्र था, लेकिन घातक कथाकार के कानपुर के बारे में बेशक यह कहा जा सकता है कि कानपुर में जो कुछ भी अच्छा था, वह उस तक आते-आते अतीत हो गया और कानपुर के प्रति आकर्षण केवल कनपुरियों में ही बचा रह गया. वे इसे अपने संयुक्त परिवार का एक भाग समझते थे और अक्सर इस बूढ़े-बीमार सदस्य से लड़ते-झगड़ते रहते थे. वे इसका उपचार भी कराते थे. वे नहीं चाहते थे कि वह मरे, लेकिन वह मर रहा था. जल-विद्युत आपूर्ति की समस्या से सतत् जूझते हुए इस नगर को वे जनरेटरों के शोर और काले धुएं के बीच छोड़कर चले जाते थे. एक बेहाल व्यापार, तमाम बैठकें, लफ्फाजियां, छोटे-छोटे बाजारों की बड़ी धक्कमपेल, एक दूसरे का मजाक उड़ाकर हंसते हुए लोग, फूलबाग में लगने वाला सर्कस, नेताओं के भाषण, महंतों के बोल-वचन और उभरते हुए क्रिकेटरों को वे ब्लैक लिस्टेड ग्रीन पार्क की पीली घास पर छोड़कर चले जाते थे. रोज शाम पतंगबाजी, घंटाघर से उठती रेलगाड़ियों की आवाजें, दूर और दूर होती जा रही गंगा, सात-सात दिनों तक चलने वाली होली और दीवाली, जब मन आए तब बाजार बंद कर देने की मौज को वे मूत्र की गंध के बीच छोड़कर चले जाते थे. चिकाईबाजों, स्मैकियों, छैलों, छलियों और छुटभैये नेताओं को वे हर हाल में खुश रहने की कोशिश में जुटी थकी मानवाकृतियों के बीच छोड़कर चले जाते थे.
वे चले जाते थे, लेकिन पर्व-त्योहारों में लौटकर इसके पास आते थे. इसका आशीर्वाद लेते थे. इसका शोर, इसका धुआं, इसकी गंध, इसकी खांसी और इसकी आहें लेते थे.
रावण को जलाने के बाद प्रतिवर्ष कानपुर घंटाघर से परेड ग्राउंड तक सजता था— भरत मिलाप के लिए. राम गली-गली में घूमते थे — सीता, लक्ष्मण और हनुमान को साथ लिए, रंग-बिरंगी रोशनियों और बैंड-बाजों के कोलाहल में — कलक्टरगंज, नयागंज, जनरलगंज, चूनामंडी, धनकुट्टी, हटिया, सब्जी मंडी, बादशाही नाका, कुली बाजार, कोयला बाजार, बूचड़खाना, लाटूश रोड, मूल गंज, नई सड़क, बड़ा चौराहा, सिविल लाइंस, नवीन मार्किट, परेड... सारे धर्मों और सारी जातियों के लोग इस कदर इस रौनक में खोए रहते थे कि यह उल्लास किसी की बपौती नहीं लगता था. वे आते क्योंकि सारे संसार में इस तरह की रौनकें तलाश करना बहुत मुश्किल था. वे नए-नए नगरों में नई-नई रंगीनियों से गुजरते, लेकिन कानपुर भुलाए नहीं भूलता. वह आंख से आंसू बनकर बहता, सीने में तेज दर्द की तरह रहता. वे संसार में कहीं भी चले जाते, वह धूल की तरह उनसे चिपका रहता. वह रोज उनसे छूटता कुछ देर, बहुत देर उनसे चिपकने के लिए. वे होली पर आते. सब जगह होलियां बीत जातीं, मगर कानपुर में नहीं. कानपुर में होली जलने के बाद सात-आठ रोज तक जलती सुलगती चलती रहती. गंगा किनारे मेला लगता तब वह खत्म होती. होली से भी ज्यादा रंग खेला जाता गंगा मेला के रोज. यह पुराने कानपुर का रंग-ओ-रुख था. नई बसावटें इससे अंजान थीं. उन्हें नहीं मालूम था कि नागपंचमी को पुराने कानपुर में गुड़िया क्यों कहते हैं और क्यों इस दिन साल भर में सबसे ज्यादा पतंगों से ढंका रहता है व्योम. बरसात के महीनों में कानपुर में सबसे ज्यादा पतंगें उड़तीं, जैसे आसानियां इस शहर का शगल ही नहीं थीं. नई-नई रोशनियां रोज चली आ रही थीं, रोने की जगहों को कम करती हुईं... लेकिन कानपुर की सबसे बदनाम गलियां कटियाबाजी के उजाले से ही आबाद थीं.
कानपुर का निकाला आदमी भी कानपुर में ही रहता है. कनपुरियापन मुंह खोलने पर नजर आता है और मुंह नहीं खोलने पर भी. कानपुर ने गुटखे (पान मसाला) का आविष्कार किया जिसके चलते कनपुरियों को दूर से पहचानना आसान हो गया. वे विश्वग्राम के कोनों को लाल करते चले जा रहे हैं. वे क्या कहना चाह रहे हैं, कुछ समझ में नहीं आ रहा क्योंकि उनके मुंह में गुटखा भरा हुआ है, जिसके कण उनके होंठों पर तैर रहे हैं.
कानपुर बहुत सारे दिखावे, बहुत सारे प्रकट विकास, बहुत सारे बन चुके और बन रहे मॉल्स के बावजूद एक गरीब और पिछड़ा हुआ शहर है. यह बिजली के तारों और बेशुमार रिक्शेवालों से भरा हुआ शहर है. बाराबंकी, सीतापुर, बांदा, कन्नौज और उन्नाव जैसे जनपदों से आए इन रिक्शेवालों की रोज शाम यहां लगने वाले जाम में एक बड़ी भागीदारी है. इनके अपने दुःख हैं और सवारियों के अपने कान. इस सब पर भी कानपुर में देखने को कुछ भी नहीं है. कोई देखना भी चाहे तो क्या देखेगा... कानपुर में कोई हवाई अड्डा नहीं है, कोई बहुत बड़ा बस अड्डा भी नहीं है, कोई नामचीन पार्क भी नहीं है, कोई भव्य मंदिर भी नहीं है, कोई मशहूर अस्पताल भी नहीं है, कोई ऐतिहासिक विश्वविद्यालय नहीं है. कहने को झकरकटी है जहां बसें बहुत कम हैं, कीचड़ बहुत ज्यादा। कहने को कंपनी बाग है, लेकिन अब वहां वह बरगद नहीं है जिस पर सन् 1857 के 170 बागियों को एक साथ लटकाकर फांसी दी गई. कहने को सिंघानिया फैमिली का बनवाया जे.के. मंदिर है जिसका कृत्रिम ताल अब एक नाले-सा नजर आता है. कहने को उर्सला और हैलट हैं, लेकिन गंभीर रूप से बीमार अब तक इन्हें लेकर गंभीर नहीं हो पाए हैं. कहने को आईआईटी भी है और उससे कुछ दूर कानपुर विश्वविद्यालय भी — जिसका नाम बदलकर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने छत्रपति साहू जी महाराज विश्वविद्यालय कर दिया — लेकिन इन जगहों पर वह कानपुर नहीं है जिसे एक घंटे में पैदल पूरा घूमा जा सकता है. नई बसावटों को शहर से जोड़ तो दिया जाता है, लेकिन वे शहर का आईना कतई नहीं होतीं... क्योंकि इन बसावटों का कोई इतिहास नहीं होता. बस एक सतत् वर्तमान होता है, जहां नियमित जड़ताएं एक गतिवान् और तयशुदा दिनचर्या में मानवीय व्यक्तित्व को प्रतिदिन एक स्मृतिहीनता में ध्वस्त करती रहती हैं. इसलिए ही किसी शहर के सबसे पुराने भूगोल को किसी शहर को समझने में सहायक समझा जाता है.
कभी फैजाबाद लखनऊ से भी ज्यादा रंगीन था और कानपुर दिल्ली से भी ज्यादा हिंसक और बदतमीज. कभी इलाहाबाद रानीखेत से भी ज्यादा रूमानी था और गोरखपुर में पहले इतनी धूल नहीं थी. बनारस वह कभी गया नहीं, लेकिन कभी नोएडा में जंगल था.
घातक कथाकार का भी कोई इतिहास नहीं है. बस एक सतत् वर्तमान है, जहां नियमित जड़ताएं एक गतिवान् और तयशुदा दिनचर्या में उसके व्यक्तित्व को प्रतिदिन एक स्मृतिहीनता में ध्वस्त कर रही हैं. वह नगर में नया बसा हुआ है, जैसे-जैसे वर्तमान उसे रगड़ेगा, वह इतिहास अर्जित करेगा. वह गाजियाबाद में पैदा होगा, कानपुर में जवां होगा, दिल्ली में क्रांति करेगा और पोरबंदर में मारा जाएगा. वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भटकेगा और सब जगहों पर कानपुर खोजेगा, लेकिन उसे कानपुर के लोग मिलेंगे, कानपुर नहीं. वह उन्हें बताएगा :
जब भठिहारखाने से उड़ती थी चरस की खुशबू तब ‘भों#$ के...’ कहकर चिल्लाने वाले कानपुर के ही थे.‘काम मेरा कुछ और है जो काबिले-गौर है’ कहकर सांडे का तेल बेचने वाले भी कानपुर के ही थे.कानपुर सेंट्रल के प्लेटफॉर्म नंबर आठ पर रुकी विक्रमशिला एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी की विंडो सीट पर किसी तसव्वुर में खोई स्त्री के कान का झुमका खींचकर भाग जाने वाले भी कानपुर के ही थे.नकली दाढ़ी-मूंछ लगाकर कार-सेवा में जाने वाले भी कानपुर के ही थे.मुसलमानों को मंदिरों में छुपाने वाले भी कानपुर के ही थे.भाई को भाई से लड़ाने वाले भी कानपुर के ही थे.फिर ‘कम्प्रोमाइज’ करवाने वाले भी कानपुर के ही थे.रावतपुर से कल्याणपुर और कल्याणपुर से रावतपुर तक बदरंग टैम्पो में फुल वाल्यूम में ‘इश्क आसां नहीं बड़ा मुश्किल है काम...’ बजाने वाले भी कानपुर के ही थे.बॉबी देओल को स्टार बनाने वाले भी कानपुर के ही थे.सुबह पांच बजे शाखा में चलने के लिए मां की गाली देकर जगाने वाले भी कानपुर के ही थे.‘ये बम किस पर फटेंगे’ कहकर दोपहर में पी.पी.एन. की छात्राओं को उनके घर तक छोड़ने वाले भी कानपुर के ही थे.शाम गए भांग के नशे में नए असलहों का ट्रायल लेते हुए धोखे से जख्मी होने या कर देने वाले भी कानपुर के ही थे.रात में बड़े पैमाने पर बिजली, आंखों से सुरमा और नींद और सपने और आंसू चुराने वाले भी कानपुर के ही थे.
...लेकिन उन्हें कुछ याद नहीं आएगा और इस तरह वह आंसुओं के साथ अकेला होता जाएगा. वह जबसे पैदा हुआ है, तब से ही रो रहा है. वह रो रहा है यह उसे तब ज्ञात हुआ जब कुछ रुदनवादियों ने उसकी सराहना आरंभ की. वर्ना उसे रोना कहां आता था. लेकिन वह रो रहा है और अच्छा रो रहा है, यह ज्ञात होने पर वह लगभग चार दशक पुराने अपने व्यक्तित्व की जांच करने लगेगा और पाएगा कि वह जबसे पैदा हुआ है, तब से ही रो रहा है. संपादकों ने रचनाएं लौटा दीं तो रोया, छाप दीं तो भी रोया. कवि माना गया तो रोया कि कथाकार को तवज्जोह नहीं मिली. कथाकार माना गया तो कवि न माने जाने पर रोया. कवि-कथाकार कहा तो विचारक और क्रांतिकारी न कहे जाने पर रोया. पुरस्कार नहीं मिला तब तो रोया ही, मिला तब भी रोया. अकादमिक दुनिया से बेदखली पर रोया, दाखिल हुआ तब भी रोया. रुदनवादी अब उसके सबसे बड़े निंदक हैं. उनका आरोप है कि वह अपने रुदन में अतिवादी है. उसके पास अब उसका एक भी हमउम्र नहीं. वह अपने कुछ कमउम्र प्रशंसकों के साथ इस गर्म अंधकार में एक कंदील की रौशनी में आलोकधन्वा की इस कविता का पाठ कर रहा है : तब वह ज्यादा बड़ा दिखाई देने लगा जब मैं उसके किनारों से वापस आयावे स्त्रियां अब अधिक दिखाई देती हैं जिन्होंने बचपन में मुझे चूमावे जानवर जो सुदूर धूप में मेरे साथ खेलते थे और उन्हें इंतजार करना नहीं आता थाऔर वे पहले छाते बादल जिनसे बहुत करीब थेसमुद्र मुझे ले चला उस दोपहर में जब पुकारना भी नहीं आता था जब रोना ही पुकारना थाजहां विस्मय तरबूज की तरह जितना हरा उतना ही लाल https://www.youtube.com/watch?v=zWzFoUnNazc

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement