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इज़रायल पर रॉकेट दागने वाले इस्लामिस्ट चरमपंथी समूह 'हमास' की पूरी कहानी

फ़िलिस्तीन के 'आज़ादी आंदोलन' से निकला संगठन, जिसने इज़रायल के ख़िलाफ़ फ़िदायीन हमले कर के लोगों का समर्थन जुटाया.

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Hamas fighters.
हमास के लड़ाके (तस्वीर - रॉयटर्स)
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8 अक्तूबर 2023 (Updated: 10 अक्तूबर 2023, 21:20 IST)
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फ़िलिस्तीन के चरमपंथी समूह हमास के हमले (Hamas attack) में 300 से ज़्यादा इज़रायली नागरिकों की मौत की पुष्टि हुई. हज़ारों रॉकेट दागने से क़रीब 1600 लोग भी घायल हुए. इस हमले को बीते दशकों में फ़िलिस्तीनी चरमपंथियों का सबसे बड़ा हमला माना जा रहा है. इधर, इज़रायल पूरी आक्रामकता के साथ ग़ाज़ा के ख़िलाफ़ अपना 'ऑपरेशन आयरन स्वॉर्ड्स' चला रहा है. ग़ाज़ा पट्टी (Gaza Strip) पर हुए जवाबी हमलों में क़रीब 230 लोगों के मारे जाने और 1700 से ज़्यादा लोगों के घायल होने की ख़बर है. मतलब, 7 अक्टूबर की सुबह शुरू हुई हिंसा में अब तक 530 से ज़्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं.

हमास ने पहले हमले की ज़िम्मेदारी ली. उनका कहना है कि वो अल-अक्सा मस्जिद की गरिमा की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. कहा कि ये 'उनके लोगों पर होने वाले ज़ुल्म का बदला' है. वेस्ट बैंक पर 'क़ब्ज़े' का बदला है. दरअसल, आज के इज़रायल की ज़मीन ग़ाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के बीच है. दोनों पर फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण का शासन है. पट्टी पर हमास का इख़्तियार है. 2006 में हुए चुनावों में हमास सत्ता में आ गया था और तब से है.

इसीलिए हालिया हिंसा को समझने के लिए हमास के इतिहास का पता होना चाहिए.

हमास के गठन की 'टाइमिंग'

इज़रायल और फ़िलिस्तीन का साझा इतिहास हिंसा से भरा हुआ है. ये हिंसा इज़रायल के गठन के पहले से जारी है और गठन के बाद और उग्र होती गई. इसी उग्रता का एक चैप्टर है - हमास. जिसे एक उग्रवादी, कट्टरपंथी इस्लामी संगठन के तौर पर कहा-जाना जाता है. इज़रायल और पश्चिमी देशों ने तो इसे आतंकी संगठन घोषित कर रखा है.

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पूरा नाम है, हरक़त अल-मुक़ावमा अल-इस्लामिया. मतलब, इस्लामिक रेज़िस्टन्‍स मूवमेंट - इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन. शेख़ अहमद यासीन नाम के एक फ़िलिस्तीनी मौलाना ने इस संगठन का गठन किया था. दिसंबर, 1987 में. हमास के गठन की टाइमिंग बहुत अहम है. क्योंकि इसी साल फ़िलिस्तीन में शुरू हुआ था 'इंतिफ़ादा'.

इंतिफ़ादा अरबी भाषा का एक शब्द है, जिसका अर्थ है: झकझोड़ना. हिला देना. फ़िलिस्तीन में शुरू हुए इंतिफ़ादा आंदोलन का मक़सद था - इज़रायल से आज़ादी हासिल करना. वेस्ट बैंक, ग़ाज़ा और पूर्वी-जेरुसलम को 'इज़रायली कब्ज़े' से मुक्त करवाना.

पहले इंतिफ़ादा में सड़क पर प्रदर्शन करते लोग (तस्वीर - गेटी)

1987 का ये मूवमेंट कहलाता है, पहला इंतिफ़ादा. ग़ाज़ा चेकपोस्ट पर हुई एक घटना इस आंदोलन का ट्रिगर बनी. हुआ ये था कि फ़िलिस्तीनियों का एक ग्रुप चेकपोस्ट पर प्रदर्शन कर रहा था. इज़रायली सैनिकों ने उनपर गोली चला दी. चार फ़िलिस्तीनी मारे गए. इसके बाद पूरे फ़िलिस्तीन में प्रदर्शन शुरू हो गया. इस वक़्त तक फ़िलिस्तीनी ज़्यादातर बिना हथियारों के ही लड़ते थे. विरोध का उनका मुख्य तरीक़ा था, पत्थरबाज़ी. इसी बैकग्राउंड में गठन हुआ हमास का. 1988 में संगठन ने राजनीतिक अस्थिरता के बीच अपना चार्टर जारी किया. अपना मक़सद ज़ाहिर किया. क्या मक़सद? इज़रायल का विनाश और फ़िलिस्तीन के ऐतिहासिक भूभाग में इस्लामिक सोसायटी की स्थापना करना.

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अंतरराष्ट्रीय पक्षों ने इज़रायल और फ़िलिस्तीन के बीच विवाद सुलझाने की काफ़ी कोशिश की. बहुत बातचीत के बाद 1993 में 'ओस्लो अग्रीमेंट' पर दस्तख़त हुए. इसमें दो बड़ी चीज़ें थीं - 

  • पहला, फ़िलिस्तीनी नेतृत्व की ओर से इज़रायल को मान्यता दे दी गई. 
  • दूसरा, गाज़ा और वेस्ट बैंक में स्व-शासन के लिए फिलिस्तीनियों की अंतरिम सरकार पर समझौता.

इस समझौते पर इज़रायल की ओर से प्रधानमंत्री यितज़ाक राबिन ने दस्तख़त किया. और, फ़िलिस्तीनी पक्ष की तरफ़ से साइन किया यासिर अराफ़ात ने. अराफ़ात फ़िलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (PLO) के लीडर थे. PLO फ़िलिस्तीन की आज़ादी से जुड़ा सबसे प्रमुख संगठन था.

13 सितंबर 1993 - ओस्लो समझौते में इज़रायली प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन, अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और यासर अराफ़ात. (फोटो - अल जज़ीरा)

एक समय था, जब PLO फ़िलिस्तीन के समूचे ऐतिहासिक भूभाग को आज़ाद करवाने की मांग करता था. बंटवारे को खारिज़ करता था. मगर 1988 में - इज़रायल के गठन के ठीक चार दशक बाद - PLO को समझ आया कि इज़रायल को समूचा निकाल पाना मुमकिन नहीं. इसीलिए बेहतर होगा कि फ़िलिस्तीनी अधिकारों के लिए थोड़ा कन्सेशन दिया जाए. बंटवारे को लेकर डील की जाए. इसी कन्सेशन का नजीता था ओस्लो अकॉर्ड्स.

लेकिन क्या PLO के इस 'कन्सेशन समझौते' से सारे फ़िलिस्तीनी सहमत थे? नहीं. कई लोग अपने अधिकार छोड़े जाने का विरोध कर रहे थे. उन्हें बंटवारा मंज़ूर नहीं था. फ़िलिस्तीनी अधिकारों की जिरह करने में से एक था हमास. वो तो ओस्लो अकॉर्ड्स के लिए हो रही वार्ता का भी विरोध कर रहे थे.

ओस्लो समझौते पर दस्तख़त होने के पांच महीने पहले - अप्रैल 1993 में - हमास ने इज़रायल के ख़िलाफ़ अपना पहला सुसाइड अटैक. ये अटैक आगे चलकर हमास की पहचान बना. हमले के बाद से हमास फ़िलिस्तीनी एहतिजाज का सबसे बड़ा चेहरा बन गया. हालांकि, फिर 1994 में ओस्लो अकॉर्ड्स हुए. समझौते के मुताबिक़, ग़ाज़ा और वेस्ट बैंक के अडमिनिस्ट्रेशन के लिए PA यानी 'फिलिस्तीनियन अथॉरिटी' का गठन हुआ.

मगर इसके बाद भी हमास ने आत्मघाती हमले जारी रखे. कभी बस में, कभी कार में, कभी बाज़ारों में, हमास ने कई सुसाइड अटैक्स किए. हमलों के पीछे दो प्रमुख मंशा थी - फ़िलिस्तीनी आबादी का सपोर्ट जुटाना और शांति प्रक्रिया को पटरी से उतारना. 1997 में अमेरिका ने हमास को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया. इज़रायल ने भी हमास को एलिमिनेट करने की बहुत कोशिश की. लेकिन इसके बावजूद हमास का प्रभाव, उसकी ताक़त बढ़ती गई. उसे ईरान जैसे इज़रायल-विरोधी देशों से फंडिंग मिलने लगी.

नई सदी में हमास का वजूद और मज़बूत हुआ. साल था, 2000. ओस्लो अकॉर्ड्स को सात साल हो चुके थे. शांति की जो उम्मीदें बंधी थीं, वो पूरी नहीं हुईं. इसी बैकग्राउंड में जुलाई 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के नेतृत्व में कैंप डेविड सम्मेलन हुआ. कहते हैं कि इस वार्ता के दौरान इज़रायल ने समूचा गाज़ा और वेस्ट बैंक का क़रीब 90 फ़ीसदी हिस्सा फ़िलिस्तीन को लौटाकर सेटलमेंट की पेशकश की थी. साथ ही, जेरुसलम पर भी कुछ कन्सेशन देने के लिए राज़ी हुए थे. मगर अराफ़ात ने ये ऑफ़र ठुकरा दिया. वार्ता नाकाम रही. इज़रायल और अमेरिका ने इसका दोष फ़िलिस्तीनी राष्ट्रपति यासिर अराफ़ात को दिया.

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन, इजरायली प्रधान मंत्री एहुद बराक और फिलिस्तीनी नेता यासर अराफात (फ़ोटो - AFP)

हालांकि, कई जानकार कहते हैं कि ये मामला इतना सीधा नहीं है. वेस्ट बैंक और गाज़ा, ये दोनों फ़िलिस्तीनी इलाक़े हैं. वेस्ट बैंक को समूचा न लौटाकर इज़रायल कोई उदारता नहीं दिखा रहा था. न ही जेरुसलम पर फ़िलिस्तीन को कन्सेशन देना ही उदारता थी. 1967 के युद्ध में इज़रायल ने ईस्ट जेरुसलम पर कब्ज़ा कर लिया. वेस्ट जेरुसलम पहले ही उसके कंट्रोल में था. मतलब पूरा जेरुसलम ही इज़रायल के पास आ गया. उसने वेस्ट बैंक और गोलन हाइट्स पर भी कब्ज़ा कर लिया. जबकि अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक़, ईस्ट जेरुसलम, वेस्ट बैंक और गाज़ा फ़िलिस्तीनी इलाक़े हैं. इनपर इज़रायल का कब्ज़ा अवैध माना जाता है. ऊपर से इज़रायल ने जेरुसलम के जिन तीन गांवों को लौटाने का वादा किया था, उससे भी वो मुकर गया. ऐसे में कैंप डेविड वार्ता की नाकामी का समूचा ठीकरा अराफ़ात पर नहीं फोड़ा जा सकता.

कैंप डेविड की नाकामी से यूं ही माहौल ख़राब था. ऐसे में सितंबर 2000 में एक और बड़ी घटना हुई. इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन जेरुसलम स्थित टेम्पल माउंट पहुंचे. उनका मक़सद था, इस विवादित परिसर पर इज़रायल के दावे का प्रदर्शन. इस घटना से फिर आग भड़क गई. फ़िलिस्तीनियों ने कहा कि इज़रायल इस परिसर पर कब्ज़ा करने की प्लानिंग कर रहा है. और इसी घटना के बाद शुरू हुआ 'सेकेंड इंतिफ़ादा'.

टेम्पल माउंट में इज़रायल के पूर्व-प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन (फो़टो - AP)

इस बार ये आंदोलन पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा हिंसक था और इस इंतिफ़ादा का लीडर था हमास. उसने जमकर सुसाइड धमाके और बम ब्लास्ट किए. इज़रायल ने भी हिंसा में कमी नहीं रखी. दोनों ही पक्षों ने एक-दूसरे की नागरिक आबादी को जमकर निशाना बनाया. इसी सेकेंड इंतिफ़ादा शुरू होने के कुछ महीनों बाद अप्रैल 2001 में हमास ने इज़रायल पर पहला रॉकेट अटैक किया.

साल 2004 में यासिर अराफ़ात का निधन हो गया. उनकी जगह PA का चेहरा बने महमूद अब्बास. उनके पास न तो अराफ़ात जैसा सपोर्ट था, न उनके जितनी स्वीकार्यता. इसके चलते हमास का क़द और बढ़ा. 2006 में PA की सीटों के लिए चुनाव हुए. हमास ने चुनाव लड़ा और उन्हें बहुमत भी मिल गया. इस जीत का मतलब था कि वेस्ट बैंक और गाज़ा, दोनों के अडमिनिस्ट्रेशन में अब हमास का दबदबा. इस जीत ने हमास और PA के बीच की दरार को और गहरा कर दिया.

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PA में दबदबा रखने वाले 'फ़ताह' और हमास में छत्तीस का आंकड़ा. दोनों कट्टर प्रतिद्वंद्वी. मगर PA के पास इंटरनैशनल सपोर्ट है. इसलिए कि वो इज़रायल से डील का पक्षधर है. उसे इंटरनैशनल बिरादरी से मोटा फंड भी मिलता है. कहते हैं कि इस फंडिंग ने PA को बेहद भ्रष्ट बना दिया है. PA, ख़ासतौर पर फ़ताह किसी सूरत में वेस्ट बैंक का कंट्रोल नहीं खोना चाहता था. उसने हमास को साइड लगाने की कोशिश की. इसका नतीजा हुआ बंटवारा. वेस्ट बैंक पर PA का कंट्रोल हो गया और गाज़ा का डी-फैक्टो रूलर हो गया हमास. यानी अब पूरी फ़िलिस्तीनी आबादी का नेतृत्व करने के लिए. उनकी बात रखने के लिए कोई संगठित अथॉरिटी नहीं थी. PLO इस फूट के चलते 2006 के बाद फ़िलिस्तीन में कोई चुनाव ही नहीं हुआ. हमास और फ़ताह, एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं.

इस फूट का इज़रायल ने ख़ूब फ़ायदा उठाया है. उसने शांति वार्ता करने से इनकार कर दिया. कहा, जब तक हमास से गाज़ा की कमान नहीं छीनी जाती, तब तक बातचीत संभव नहीं. इज़रायल जानता है कि ऐसा कर पाना फिलहाल तो मुमकिन नहीं. सो न राधा के न मन तेल होगा, न राधा नाचेगी.

(ये लेख हमारी साथी स्वाति ने लिखा है, जो दी लल्लनटॉप पर 13 मई 2021 को पहली बार छपा था.)

वीडियो: दुनियादारी: इजराइल और फ़िलिस्तीन को लेकर मोदी सरकार का क्या स्टैंड है?

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