चलिए, गौरव सोलंकी की कविता पढ़ते हैं -मैं जिन नामों से पुकारता था तुम्हें, उनमें से आख़िरी मैं पिछले बुधवार भूल गया मैने तुम्हें पढ़ा है पर यूँ कि ट्रेन में अख़बार था जैसे और वो उड़ गया खिड़की से ख़बर के बीच में कि ‘दो लड़कियों ने एक आदमी..’से प्रेम किया या हत्या की, मुझे पता नहीं तुमने फिर अपने बचपन का क्या किया, मुझे पता नहीं तुम्हें मिला क्या तुम्हारा रंग हरा? उन दरारों को कहीं फिर से तुमने मिट्टी से तो नहीं भरा?तुम्हें पता है कि इतना कुछ लेकर निकलती थी तुम कि मुझे कभी तुम्हारे लौटने की आश्वस्ति नहीं होती थीइसलिए मैं तुम्हारे चले जाने से भी इतना नहीं चौंका पहले पहल तोदुःख किश्तों में आया टीवी की तरह तुम्हारे बिछोह को लेके मैं जितना खिलन्दड़ हो सकता था, हुआ और फिर बारिश आई तो इस घर में जितना अंधड़ हो सकता था, हुआ बस मैंने पानी पीने की आदत नहीं छोड़ी मैंने जीने की आदत नहीं छोड़ी और जैसा कि हममें क़रार था मैं बहुत पास नहीं आया फिरबस मैंने तुम्हारे सूर्यास्तों में दख़ल देने की कोशिश की है कई बार, अपने एकांत में तुम्हारी पीठ पर लिखा है कुछ भी निरर्थक जैसे कैल्शियम कार्बोनेट जब तक तुम ट्रैफ़िक में फँसी हो, डूबना नहीं चाहिए सूरज को. तुम एक धुन हो, जिसे मैं भूल गया हूँ पर कई बार ऐसा ज्वार सा उठता है छाती में और तुम्हें गाना एक पवित्र फ़र्ज़ की तरह आता है माँ कहती है कि शायद मर्ज़ की तरह आता है मैं ठीक हूँ यूँ तो (क्योंकि पूछा था तुमने) और उतना बेहिस, बेहोश भी नहीं (जैसा देखा था तुमने) बस यूँ कि चिल्लाने का जी है और मैं आहिस्ता बोलने के अभ्यास में हूँ बस यूँ कि दूर जा रहा हूँ निरंतर लेकिन सबसे कहता हूँ कि निकल गया हूँ, पास में हूँ पास किसके और क्यूँ? ज़मीन के इतने सिरे हैं मुझ जैसे कितने तो अभी सुबह ही दौड़ते दौड़ते गिरे हैंज़मीन के इतने सिरे हैंजिन्हें तुम्हारे दुपट्टों से बाँधना था,हमें अकेलेपन को एक अपराध-कथा में बदलकर बेच आना था कहीं मुझे तुम्हारे अंदर के बवाल को किसी ऐसे सवाल में बदलना था, जिस पर फ़िल्म बनाई जा सकेलेकिन अपने अपने दुःख को दोहराव से बचाते हुए डूबने की इच्छाओं को नाव से बचाते हुए हम शायद वहीं बिछड़ गए थे, जब मिले थे पहली बार लेकिन कुछ इरादतन, कुछ आदतन अंत के बाद भी अंत से मुकरते रहे हम टूटे हुए घड़ों में रात भर नदी को भरते रहे.